शिक्षा-संसार में हो रही 1998 में हो रही हलचल पर एक दृष्टि
भारतीय जनता पार्टी के सत्ताच्युत होने के कुछ दिनों बाद तक शिक्षा के सवाल पर चल रही बहस में उत्तेजना का ताप बना रहा, पर धीरे-धीरे शिक्षा को लेकर हमारे समाज की चिरपरिचित उदासीनता दिखाई देने लगी। अगर सारे घटनाक्रम पर गौर करें, तो लगता है कि बहस जितनी शिक्षा पर थी, उससे कहीं ज्यादा राजनीति पर थी। पर बहस सार्थक फिर भी हो सकती थी, अगर धीरज के साथ शिक्षा और राजनीति या शिक्षा और विचारधारा के रिश्तों की कुछ और गहराई से पड़ताल की जाती। यह सवाल भी अप्रासांगिक न होता कि शिक्षा क्या हमेशा विचारधारा की संवाहिका का ही काम करते हुए उपयोगी मानी जाएगी या शिक्षा की भी अपनी कोई विचारधारा हो सकती है। क्या शिक्षा की सारी बहस पाठ्य पुस्तकों में शामिल की जा रही या बाहर रखी जा रही पाठ्य सामग्री तक ही सीमित है या उसकी समस्या का केन्द्र कहीं और है।
पिछले कुछ महीनों से डाँ0 यशपाल की अध्यक्षता में गठित एक समिति स्कूल शिक्षा के लिए नये पाठ्यक्रम की रूपरेखा बनाने में व्यस्त है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के तत्वाधान में चल रहा यह काल बहुत सावधानी और बौद्धिक जतन, अपार धीरज तथा विशेषज्ञ व संवेदनशील समझ की मांग करता है। इसीलिए समिति में कई तरह के विशेषज्ञ हैं। शिक्षाविद्, देहाती स्कूलों के अध्यापक, शिक्षा चिंतक, इतिहासकार, लेखक, देश के विभिन्न क्षेत्रों में नये प्रयोगों का घनिष्ठ परिचय और अनुभव रखने वाले अग्रगामी प्रयोक्ता, परिवर्तन के बनाय निरन्तरता पर जोर देने वाले इसमें जुड़े हैं। इक्कीसवीं सदी की नई चुनौतियां, ज्ञान की तेज बढ़ती सम्पदा विकास और अर्थतंत्र के दबाव, शिक्षा के लोक-व्यापारीकरण की जरूरतें आदि के अलावा पिछले कुछ बरसों में संकीर्ण विचारधारात्मक कारणों से पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में जो विकृतियां आई हैं, वे सभी इस रूपरेखा का अनिवार्य संदर्भ हैं। उसका लक्ष्य करोड़ों की संख्या में आ रहे बच्चों को सुरक्षित और सुसंस्कृत करना और भविष्य कें लिए इस तरह तैयार करना है कि वे एक समता मूलक शोषण मुक्त लोकतांत्रिक समाज में हिस्सेदारी कर सकें और लोक हित तथा आत्मसंवर्धन के बीच जरूरी संतुलन बनाकर जीवन में अग्रसर हो सके।
बीस से अअधिक विशेषज्ञ समूहों ने अपने-अपने क्षेत्र के सुझाव देकर अनेक विषयों की रूपरेखा तैयार की और व्यापक, पारदर्शी और लोकतांत्रिक ढंग से पाठ्यक्रम का ढांचा तैयारा किया गया। विचार-विमर्श की अवधि सीमित होने के बावजूद बहुत धीरज से सूक्ष्मताओं जटिलताओं और ब्यौरों में जाकर रूपरेखा बनाई जा रही है- ऐसा अशोक वाजपेयी का कथन है, जो इस कार्य के सक्रिय भागीदार हैं।
इस शिक्षा के अकादमिक प्रयत्न की साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा के लिए पिछली वाजपेयी सरकार द्वारा प्रारंभ सर्व शिक्षा अभियान का भी प्रश्न उपस्थित था। यूपीए के न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लागू करने के लिए सोनिया गांधी की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने बोर्ड कमेंटियों की सिफारिशों का इन्तार किए बिना सर्व शिक्षा अभियान का समर्थन कर दिया। यह निर्णय चैकाने वाला लगा। चूंकि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से गठित केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड से राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के अलावा मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से मनोनीत सदस्य शामिल होते हैं। बोर्ड ने शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों के बारे में नीतियां निर्धारित करने के लिए पांच स्कूली शिक्षा के लिए और दो उच्च शिक्षाा के लिए कुल सात कमेटियां गठित की।
शिक्षा क्षेत्र की जानी-मानी स्वयंसेवी संस्था प्रथम के संस्थापक माधव चह्वाण राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं। परिषद ने अपने सदस्य के नाते सर्व शिक्षा अभियान के आरे में चह्वाण का एक अध्ययन पत्र जारी किया है, जिसमें सर्वशिक्षा अभियान को मिशन की तरह चलाने की हिमायत की गई तथा शहरी शिक्षा के लिए एक मशीनरी बनाने के लिए कहा गया है। शिक्षा सलाहकार बोर्ड की कमेटियों पर नजर रखने के लिए बने पब्लिक स्टडी ग्रुप के सदस्य जाने माने शिक्षा शास्त्री अनिल गोपाल, जो केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड के सदस्य के साथ बोर्ड द्वारा गठित सात में से तीन कमेटियों के भी सदस्य हैं ने सर्वशिक्षा अभियान के स्वरूप की तीखी आलोचना करते हुए कहा- सर्व शिक्षा अभियान का असफल होना लाजिमी है।
पाॅलिसी ग्रुप के एक बयान में कहा गया है कि सर्वशिक्षा अभियान असल में में अभियान नहीं केन्द्र संचालित योजना भर है। यह समाज के कमजोर तबके के लिए गुणवत्ता पूर्ण समान स्कूली शिक्षाके बजाय अलग-अलग स्तर पर अलग अलग शैक्षणिक सुविधाओं के सिद्धान्त पर आधारित है। अतः सर्व शिक्षा अभियान एक ऐसी दोषपूर्ण योजना है, जो 2010 तक सबको शिक्षा न देने के लक्ष्य में नाकाम होने वाली है। यूनेस्कों की ग्लोबल मानीटरिंग रिपोर्ट (2003-2004) ने पहले ही स्थिति का मूल्यांकन कर स्पष्ट कर कह दिया है कि भारत 2015 तक भी सबको प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएगा।
असल में पिछले कुछ सालों से सरकार को सबको समान स्कूली शिक्षा देना असंभव सा लगने लगा है। इसीलिये स्कूली शिक्षा के समानंतर कम बजट ओर कम गुणवत्ता वाली शिक्षा ईजाद की गई है। कुछ वर्ष पहले मध्यप्रदेश की दिग्विजय सिंह सरकार ने शिक्षा गारंटी योजना शुरू की थी। इसमें 40 अभिभावकों की लिखित मांग पर एक शिक्षक देने का वचन दिया था। यह शिक्षक कोई भी हो सकता है क्योंकि उसकी शैक्षणिक योग्यता या ट्रेनिंग का कोई जिक्र नहीं था। स्कूल के नाम पर कोई इमारत होना जरूरी नहीं था। ठेका पद्धति पर शिक्षक रखे गए, जिन्हें शिक्षा कर्मी या शिक्षामित्र कहा जाता था और प्रशिक्षित न होने के कारण सामान्यतः शिक्षक के वेतन की तुलना में उन्हें बीस प्रतिशत वेतन दिया जाता था। बीच में मल्टी ग्रेड टीचिंग के नाम पर एक ऐसी प्रणाली बनी, जिसमें एक ही शिक्षक प्राथमिक स्कूल की पांचों कक्षाओं को पढ़ाएगा।
शिक्षा की पैरोडी बनाने वाली यह दिग्विजय सिंह योजना केन्द्र सरकार को भी भा गई और उसने भी उसे अपना लिया। सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर इसी वैकल्पिक शिक्षा का अब सभी राज्यों में बोलबाला है। इसलिए कई शिक्षाशास्त्री यह मानते हैं कि यह शिक्षा के नाम पर ग्रामीण ओर गरीब छात्रों को किसी तरह साक्षर बनाने की कोशिश है, जो समान स्कूली शिक्षा का मज़ाक है। इसलिए इस वैकल्पिक शिक्षा पद्धति की समीक्षा करने या इस समाप्त करने की मांग उठने लगी है। आखिर लोकतंत्र का सत्य तो समानता और अधिक से अधिक लोगों के कल्याण में ही छिपा हुआ है। यद्यपि वित्तमंत्री पी. चिदम्बरन ने सर्वशिक्षा योजना, जिसमें बहुत सा छल छिपाहै, के लिए सन् 2004-05 कमे मुकाबले इस वर्ष के बजट में सत्रह सौ करोड़ शिक्षा उपकर लगाया है। बुनियादी स्तर पर ही यह योजना लचर हालत में है तो आगे के चरणों को लेकर उम्मीद करना व्यर्थ है।
शिक्षा में जहां गुणवत्ता छूटी है, वहीं शिक्षा में व्यवसायीकरण बढ़ा है। शिक्षा के वाणिज्यीकरण से शिक्षा व्यवस्था में हर स्तर पर गंभीर अराजकता और अनियमितता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इसका नतीजा है कि शिक्षक छात्र और अभिभावक का मनमाना शोषण हो रहा है और शिक्षा का स्तर गिर रहा है। शिक्षा के औद्योगिकीकरण में छात्रों में नैतिकता और सामाजिक दायित्व पैदा करने के मूल उद्देश्यों को पीछे ढकेल दिया गया है। शिक्षण संस्थान सही मस्तिष्क और अच्छे नागरिक तैयार करने के उत्तरदायित्व से अपेन को मुक्त समझने लगे है।ं। संविधान में दर्ज मुफ्त अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का मज़ाक वाजपेयी सरकार ने इस प्रसताव को निर्देशक सिद्धान्तों के अध्ययन से हटाकर और मूलभूत अधिकारों के अध्याय में डालकर उड़ाया है। उसने प्रावधान से निःशुल्क शब्द हटाकर और चैदह साल बाद तक के स्थान परछह से चैदह साल तक तक बच्चे कर दिया और अनिवार्य शिक्षा की जिम्मेदारी से सरकार को बरी कर माता-पिता पर यह जिम्मेदारी डाल दी है।
पिछली सरकार के समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि केन्द्र सरकार उच्च शिक्षा से भी धीरे-धीरे हाथ खींचना चाहती है। वाजपेयी सरकार ने गैर व्यावसायिक उच्च शिक्षा में फीस बढ़ाए जाने और विश्वविद्यालयों को अपनी वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करेन के लिए खुद आमदनी का जरिया खोजने की सलाह देकर इसे साफ कर दिया था। पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने कहा था कि वे शिक्षा का निजीकरण कर रहे हैं, बाजारीरण नहीं। लीेकिन छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में इतने कम समय में सौ से अधिक विश्वविद्यालय खुलना, जिनमें केाई भी विश्वविद्वालय अनुदान आयोग के मानदण्डों पर खरा न उतरता हो, क्या दर्शाता है , गौरतलब है छत्तीसगढ़ का यह नियम अजीत जोगी के मुख्य मंत्रित्व काल में बना था। दसअसल सभी पार्टियां निजीकरण और बाजारीकरण पर एक मत है पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव की याचिकाओं पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा छत्तीसगढ़ निजी विश्वविद्यालय कानून को असंवैधानिक करार देना पड़ा। देश में गुणवत्ता के साथ समझौते की शिकायतें अनेक राज्यों से मिल रही हैं।
हमारे समाज का महत्वपूर्ण और अपरिहार्य भाग महिलाएं हैं। बहुत पुराना नारा है कि यदि माँ पढ़ गई तो पूरा घर पढ़ गया।’ पर हमारे देश में बुनियादी शिक्षा के मामले में लड़कियां अभी भी लड़कों से पीछे हैं, यद्यपि हाल के दिनों में स्कूल जाने वाले बच्चों की तादाद खासी बढ़ी है। यूनीसेफ के कार्यकारी निदेशक कारोल बेल्लारी ने यूनीसेफ की रिपोर्ट प्रोग्रेस आॅफ चिल्डेªन के संदर्भ में कहा यह रिपोर्ट बताती है कि हमारी रणनीति स्कूलों में ज्यादा लड़कियों को लाने की होनी चाहिए ताकि स्कूल जाने वाले बच्चों में बढौत्तरी हो सके। बेल्लारी ने कहा बुनियादी शिक्षा प्राप्त करना बच्चों का जन्म सिद्ध अधिकार है। हम इसे मुहैया करा सकते हैं। जो बच्चे प्राथमिक स्कूलों में नहीं जाते हैं, उनमें 75 फीसदी ऐसे होते हैं, जिनकी माँ अशिक्षित हैं। इसलिए बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने की नीति-निर्धारित की जा रही है।
एनसीईआरटी द्वारा तैयार राष्ट्रीय पाठचार्या (नेशनल करीकुलम) की रूपरेखा में ज्ञान की दमघोंटू दीवारों को ढहाने और उत्पादक कार्य को हर विषय के शिक्षण से जोड़ने की जरूरत महसूस की गई है। प्रो0 अनिल सद्गोपाल कहते हैं कि संशोधित पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क में शिक्षाा को घिसेे पिटे चैखटे से मुक्त करने पर जोर दिया गया है। शिक्षा का उद्देश्य विचार और कर्म की स्वतंत्रता दूसरों की भावनाओं और उनके सुखद जीवन के प्रति संवेदनशीलता, नई परिस्थितियों से निपटने में लचीलापन और सृजनात्मकता लाना, जनतांत्रिक व्यवस्था मंे भागीदारी की क्षमता बढाना और आर्थिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक बदलाव में सहयोग करना है। इसलिए यह रूपरेखा भारत की भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं भाषायी विविधता को पाठ्यचर्या निर्माण का एक मुख्य स्तम्भ मानती है। यानि शिक्षा में किसी भी धर्म, वर्ग, जाति, अंचल या भाष के वर्चसव के लिए कोई स्थान नहीं है। दूसरे देश का बहुभाषीय चरित्र भारत की ताकत है, न कि कोई समस्या अतः यह रूपरेखा न केवल मातृभाषा के माध्यम से सीखने-सिखाने के सर्वमान्य सिद्धान्त की जोरदार पैरवी करती है वरन् इसके अनुसार मातृभाषा जब शिक्षा का माध्यम बनती है तभी बच्चों में स्वयं सीखने, तार्किक चिन्तन करने और सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता विकसित होती है। बशर्ते की हम भाषा शिक्षण को शिक्षा शात्र की नवीनतम पद्धतियों से जोड़ सकें। विकास की दुनिया और ज्ञान की दुनिया के वर्तमान भेद को खत्म करने के लिए काम को हर विषय के शिक्षण का जरिया बनाना होगा न कि उसे एक अलग पीरियड देकर हाशिए पर धकेलना होगा, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है। कला, संगीत, नृत्य, दस्तकारी और शारीरिक शिक्षा को भी पाठ्यचर्या का अभिन्न हिस्सा बनाने से ज्ञान को बांटने वाली दीवारों की ऊँचाईयों को घटाने में मदद मिलेगी। यह तभी हो पाएगा जब परीक्षाओं का स्वरूप और मूूल्यांकन के आधारों को बदलने की तैयारी हो।
शिक्षा के ऐसे विचार पहली बार पेश किए जा रहे हैं- ऐसी बात नहीं है। थ्फर अब तक बदलाव की दिशा में हम क्यों नहीं बढ़ सके ? असल में शिक्षा नीति के वर्गचरित्र और उस पर अभिजात्य तबके के कसे हुए शिकंजे की तार्कििक समीक्षा करने की जरूरत है ताकि हम सही विचारों को अमल में न लाने के कारणों को समझ सके। क्या जड़त्व के कारणों को समझे बगैर सही विचारों को दोहराने मात्र से बदलाव आ जाएगा ?
हमें शिक्षाा की इस राजनीति से निपटने के लिए देश की जनता को तैयारी करवानी होगी। अन्यथा पांच साल बाद हम अपनी जगह पर ही कदम चाल करते पाए जाएंगे और उच्च शिक्षा के परिवर्तन पर कोई नई रिपोर्ट और स्कूली शिक्षा के लिए एनसीईआरटी फिर अपनी नई रूपरेखा में इन्हीं विचारों की वकालत करेगी। यदि इतिहास के इस दोहराव को रोकने के लिए विश्लेषण करने से राजनेता और बुििद्धजीवी कतराते रहे तो जनता उन्हें कभी माफ नहंीं करेगी। केवल पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या का नयापन मात्र क्या करेगा ? समान स्कूल शिक्षा का प्रश्न तो अनुत्तरित रहेगा ही। शिक्षा प्रणाली में संरचनात्मक और अन्य परिवर्तन कागजों कागजों परही रह जाएंगे। इसे लागू करने वाली सरकारी मशीनरी में क्रियान्वयन का मिशनरी जज्बा कैसे पैदा होगा ?जब देशकी सरकारें अप्रशिशित पैरा शिक्षकों, जो सिर्फ नौकरी कभी नियमित हो जाने और बेराजगारी से निजात पाने की आशावश आते हैं के भरोसे या निजी स्कूलों के नाम पर चल रही दुकानों के भरोसे शिक्षा क्षेत्र की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही हैं। तो नया पाठ्यक्रम से जमीन पर उतारने का महाप्रयास कौन करेगा ? शिक्षा जगत में हो रहे घाल-मेल से मुक्ति के लिए शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को सक्रिय होकर एक जन चेतना फैलाकर एक लम्बे संघर्ष के लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा तभी कुछ हो सकेगा।
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हलचल पर एक दृष्टि
भारतीय जनता पार्टी के सत्ताच्युत होने के कुछ दिनों बाद तक शिक्षा के सवाल पर चल रही बहस में उत्तेजना का ताप बना रहा, पर धीरे-धीरे शिक्षा को लेकर हमारे समाज की चिरपरिचित उदासीनता दिखाई देने लगी। अगर सारे घटनाक्रम पर गौर करें, तो लगता है कि बहस जितनी शिक्षा पर थी, उससे कहीं ज्यादा राजनीति पर थी। पर बहस सार्थक फिर भी हो सकती थी, अगर धीरज के साथ शिक्षा और राजनीति या शिक्षा और विचारधारा के रिश्तों की कुछ और गहराई से पड़ताल की जाती। यह सवाल भी अप्रासांगिक न होता कि शिक्षा क्या हमेशा विचारधारा की संवाहिका का ही काम करते हुए उपयोगी मानी जाएगी या शिक्षा की भी अपनी कोई विचारधारा हो सकती है। क्या शिक्षा की सारी बहस पाठ्य पुस्तकों में शामिल की जा रही या बाहर रखी जा रही पाठ्य सामग्री तक ही सीमित है या उसकी समस्या का केन्द्र कहीं और है।
पिछले कुछ महीनों से डाँ0 यशपाल की अध्यक्षता में गठित एक समिति स्कूल शिक्षा के लिए नये पाठ्यक्रम की रूपरेखा बनाने में व्यस्त है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के तत्वाधान में चल रहा यह काल बहुत सावधानी और बौद्धिक जतन, अपार धीरज तथा विशेषज्ञ व संवेदनशील समझ की मांग करता है। इसीलिए समिति में कई तरह के विशेषज्ञ हैं। शिक्षाविद्, देहाती स्कूलों के अध्यापक, शिक्षा चिंतक, इतिहासकार, लेखक, देश के विभिन्न क्षेत्रों में नये प्रयोगों का घनिष्ठ परिचय और अनुभव रखने वाले अग्रगामी प्रयोक्ता, परिवर्तन के बनाय निरन्तरता पर जोर देने वाले इसमें जुड़े हैं। इक्कीसवीं सदी की नई चुनौतियां, ज्ञान की तेज बढ़ती सम्पदा विकास और अर्थतंत्र के दबाव, शिक्षा के लोक-व्यापारीकरण की जरूरतें आदि के अलावा पिछले कुछ बरसों में संकीर्ण विचारधारात्मक कारणों से पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकों में जो विकृतियां आई हैं, वे सभी इस रूपरेखा का अनिवार्य संदर्भ हैं। उसका लक्ष्य करोड़ों की संख्या में आ रहे बच्चों को सुरक्षित और सुसंस्कृत करना और भविष्य कें लिए इस तरह तैयार करना है कि वे एक समता मूलक शोषण मुक्त लोकतांत्रिक समाज में हिस्सेदारी कर सकें और लोक हित तथा आत्मसंवर्धन के बीच जरूरी संतुलन बनाकर जीवन में अग्रसर हो सके।
बीस से अअधिक विशेषज्ञ समूहों ने अपने-अपने क्षेत्र के सुझाव देकर अनेक विषयों की रूपरेखा तैयार की और व्यापक, पारदर्शी और लोकतांत्रिक ढंग से पाठ्यक्रम का ढांचा तैयारा किया गया। विचार-विमर्श की अवधि सीमित होने के बावजूद बहुत धीरज से सूक्ष्मताओं जटिलताओं और ब्यौरों में जाकर रूपरेखा बनाई जा रही है- ऐसा अशोक वाजपेयी का कथन है, जो इस कार्य के सक्रिय भागीदार हैं।
इस शिक्षा के अकादमिक प्रयत्न की साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा के लिए पिछली वाजपेयी सरकार द्वारा प्रारंभ सर्व शिक्षा अभियान का भी प्रश्न उपस्थित था। यूपीए के न्यूनतम साझा कार्यक्रम को लागू करने के लिए सोनिया गांधी की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने बोर्ड कमेंटियों की सिफारिशों का इन्तार किए बिना सर्व शिक्षा अभियान का समर्थन कर दिया। यह निर्णय चैकाने वाला लगा। चूंकि शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से गठित केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड से राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के अलावा मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से मनोनीत सदस्य शामिल होते हैं। बोर्ड ने शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों के बारे में नीतियां निर्धारित करने के लिए पांच स्कूली शिक्षा के लिए और दो उच्च शिक्षाा के लिए कुल सात कमेटियां गठित की।
शिक्षा क्षेत्र की जानी-मानी स्वयंसेवी संस्था प्रथम के संस्थापक माधव चह्वाण राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं। परिषद ने अपने सदस्य के नाते सर्व शिक्षा अभियान के आरे में चह्वाण का एक अध्ययन पत्र जारी किया है, जिसमें सर्वशिक्षा अभियान को मिशन की तरह चलाने की हिमायत की गई तथा शहरी शिक्षा के लिए एक मशीनरी बनाने के लिए कहा गया है। शिक्षा सलाहकार बोर्ड की कमेटियों पर नजर रखने के लिए बने पब्लिक स्टडी ग्रुप के सदस्य जाने माने शिक्षा शास्त्री अनिल गोपाल, जो केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड के सदस्य के साथ बोर्ड द्वारा गठित सात में से तीन कमेटियों के भी सदस्य हैं ने सर्वशिक्षा अभियान के स्वरूप की तीखी आलोचना करते हुए कहा- सर्व शिक्षा अभियान का असफल होना लाजिमी है।
पाॅलिसी ग्रुप के एक बयान में कहा गया है कि सर्वशिक्षा अभियान असल में में अभियान नहीं केन्द्र संचालित योजना भर है। यह समाज के कमजोर तबके के लिए गुणवत्ता पूर्ण समान स्कूली शिक्षाके बजाय अलग-अलग स्तर पर अलग अलग शैक्षणिक सुविधाओं के सिद्धान्त पर आधारित है। अतः सर्व शिक्षा अभियान एक ऐसी दोषपूर्ण योजना है, जो 2010 तक सबको शिक्षा न देने के लक्ष्य में नाकाम होने वाली है। यूनेस्कों की ग्लोबल मानीटरिंग रिपोर्ट (2003-2004) ने पहले ही स्थिति का मूल्यांकन कर स्पष्ट कर कह दिया है कि भारत 2015 तक भी सबको प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएगा।
असल में पिछले कुछ सालों से सरकार को सबको समान स्कूली शिक्षा देना असंभव सा लगने लगा है। इसीलिये स्कूली शिक्षा के समानंतर कम बजट ओर कम गुणवत्ता वाली शिक्षा ईजाद की गई है। कुछ वर्ष पहले मध्यप्रदेश की दिग्विजय सिंह सरकार ने शिक्षा गारंटी योजना शुरू की थी। इसमें 40 अभिभावकों की लिखित मांग पर एक शिक्षक देने का वचन दिया था। यह शिक्षक कोई भी हो सकता है क्योंकि उसकी शैक्षणिक योग्यता या ट्रेनिंग का कोई जिक्र नहीं था। स्कूल के नाम पर कोई इमारत होना जरूरी नहीं था। ठेका पद्धति पर शिक्षक रखे गए, जिन्हें शिक्षा कर्मी या शिक्षामित्र कहा जाता था और प्रशिक्षित न होने के कारण सामान्यतः शिक्षक के वेतन की तुलना में उन्हें बीस प्रतिशत वेतन दिया जाता था। बीच में मल्टी ग्रेड टीचिंग के नाम पर एक ऐसी प्रणाली बनी, जिसमें एक ही शिक्षक प्राथमिक स्कूल की पांचों कक्षाओं को पढ़ाएगा।
शिक्षा की पैरोडी बनाने वाली यह दिग्विजय सिंह योजना केन्द्र सरकार को भी भा गई और उसने भी उसे अपना लिया। सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर इसी वैकल्पिक शिक्षा का अब सभी राज्यों में बोलबाला है। इसलिए कई शिक्षाशास्त्री यह मानते हैं कि यह शिक्षा के नाम पर ग्रामीण ओर गरीब छात्रों को किसी तरह साक्षर बनाने की कोशिश है, जो समान स्कूली शिक्षा का मज़ाक है। इसलिए इस वैकल्पिक शिक्षा पद्धति की समीक्षा करने या इस समाप्त करने की मांग उठने लगी है। आखिर लोकतंत्र का सत्य तो समानता और अधिक से अधिक लोगों के कल्याण में ही छिपा हुआ है। यद्यपि वित्तमंत्री पी. चिदम्बरन ने सर्वशिक्षा योजना, जिसमें बहुत सा छल छिपाहै, के लिए सन् 2004-05 कमे मुकाबले इस वर्ष के बजट में सत्रह सौ करोड़ शिक्षा उपकर लगाया है। बुनियादी स्तर पर ही यह योजना लचर हालत में है तो आगे के चरणों को लेकर उम्मीद करना व्यर्थ है।
शिक्षा में जहां गुणवत्ता छूटी है, वहीं शिक्षा में व्यवसायीकरण बढ़ा है। शिक्षा के वाणिज्यीकरण से शिक्षा व्यवस्था में हर स्तर पर गंभीर अराजकता और अनियमितता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इसका नतीजा है कि शिक्षक छात्र और अभिभावक का मनमाना शोषण हो रहा है और शिक्षा का स्तर गिर रहा है। शिक्षा के औद्योगिकीकरण में छात्रों में नैतिकता और सामाजिक दायित्व पैदा करने के मूल उद्देश्यों को पीछे ढकेल दिया गया है। शिक्षण संस्थान सही मस्तिष्क और अच्छे नागरिक तैयार करने के उत्तरदायित्व से अपेन को मुक्त समझने लगे है।ं। संविधान में दर्ज मुफ्त अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का मज़ाक वाजपेयी सरकार ने इस प्रसताव को निर्देशक सिद्धान्तों के अध्ययन से हटाकर और मूलभूत अधिकारों के अध्याय में डालकर उड़ाया है। उसने प्रावधान से निःशुल्क शब्द हटाकर और चैदह साल बाद तक के स्थान परछह से चैदह साल तक तक बच्चे कर दिया और अनिवार्य शिक्षा की जिम्मेदारी से सरकार को बरी कर माता-पिता पर यह जिम्मेदारी डाल दी है।
पिछली सरकार के समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि केन्द्र सरकार उच्च शिक्षा से भी धीरे-धीरे हाथ खींचना चाहती है। वाजपेयी सरकार ने गैर व्यावसायिक उच्च शिक्षा में फीस बढ़ाए जाने और विश्वविद्यालयों को अपनी वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करेन के लिए खुद आमदनी का जरिया खोजने की सलाह देकर इसे साफ कर दिया था। पूर्व केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने कहा था कि वे शिक्षा का निजीकरण कर रहे हैं, बाजारीरण नहीं। लीेकिन छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में इतने कम समय में सौ से अधिक विश्वविद्यालय खुलना, जिनमें केाई भी विश्वविद्वालय अनुदान आयोग के मानदण्डों पर खरा न उतरता हो, क्या दर्शाता है , गौरतलब है छत्तीसगढ़ का यह नियम अजीत जोगी के मुख्य मंत्रित्व काल में बना था। दसअसल सभी पार्टियां निजीकरण और बाजारीकरण पर एक मत है पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव की याचिकाओं पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा छत्तीसगढ़ निजी विश्वविद्यालय कानून को असंवैधानिक करार देना पड़ा। देश में गुणवत्ता के साथ समझौते की शिकायतें अनेक राज्यों से मिल रही हैं।
हमारे समाज का महत्वपूर्ण और अपरिहार्य भाग महिलाएं हैं। बहुत पुराना नारा है कि यदि माँ पढ़ गई तो पूरा घर पढ़ गया।’ पर हमारे देश में बुनियादी शिक्षा के मामले में लड़कियां अभी भी लड़कों से पीछे हैं, यद्यपि हाल के दिनों में स्कूल जाने वाले बच्चों की तादाद खासी बढ़ी है। यूनीसेफ के कार्यकारी निदेशक कारोल बेल्लारी ने यूनीसेफ की रिपोर्ट प्रोग्रेस आॅफ चिल्डेªन के संदर्भ में कहा यह रिपोर्ट बताती है कि हमारी रणनीति स्कूलों में ज्यादा लड़कियों को लाने की होनी चाहिए ताकि स्कूल जाने वाले बच्चों में बढौत्तरी हो सके। बेल्लारी ने कहा बुनियादी शिक्षा प्राप्त करना बच्चों का जन्म सिद्ध अधिकार है। हम इसे मुहैया करा सकते हैं। जो बच्चे प्राथमिक स्कूलों में नहीं जाते हैं, उनमें 75 फीसदी ऐसे होते हैं, जिनकी माँ अशिक्षित हैं। इसलिए बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक ध्यान केन्द्रित करने की नीति-निर्धारित की जा रही है।
एनसीईआरटी द्वारा तैयार राष्ट्रीय पाठचार्या (नेशनल करीकुलम) की रूपरेखा में ज्ञान की दमघोंटू दीवारों को ढहाने और उत्पादक कार्य को हर विषय के शिक्षण से जोड़ने की जरूरत महसूस की गई है। प्रो0 अनिल सद्गोपाल कहते हैं कि संशोधित पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क में शिक्षाा को घिसेे पिटे चैखटे से मुक्त करने पर जोर दिया गया है। शिक्षा का उद्देश्य विचार और कर्म की स्वतंत्रता दूसरों की भावनाओं और उनके सुखद जीवन के प्रति संवेदनशीलता, नई परिस्थितियों से निपटने में लचीलापन और सृजनात्मकता लाना, जनतांत्रिक व्यवस्था मंे भागीदारी की क्षमता बढाना और आर्थिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक बदलाव में सहयोग करना है। इसलिए यह रूपरेखा भारत की भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं भाषायी विविधता को पाठ्यचर्या निर्माण का एक मुख्य स्तम्भ मानती है। यानि शिक्षा में किसी भी धर्म, वर्ग, जाति, अंचल या भाष के वर्चसव के लिए कोई स्थान नहीं है। दूसरे देश का बहुभाषीय चरित्र भारत की ताकत है, न कि कोई समस्या अतः यह रूपरेखा न केवल मातृभाषा के माध्यम से सीखने-सिखाने के सर्वमान्य सिद्धान्त की जोरदार पैरवी करती है वरन् इसके अनुसार मातृभाषा जब शिक्षा का माध्यम बनती है तभी बच्चों में स्वयं सीखने, तार्किक चिन्तन करने और सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता विकसित होती है। बशर्ते की हम भाषा शिक्षण को शिक्षा शात्र की नवीनतम पद्धतियों से जोड़ सकें। विकास की दुनिया और ज्ञान की दुनिया के वर्तमान भेद को खत्म करने के लिए काम को हर विषय के शिक्षण का जरिया बनाना होगा न कि उसे एक अलग पीरियड देकर हाशिए पर धकेलना होगा, जैसा कि वर्तमान में हो रहा है। कला, संगीत, नृत्य, दस्तकारी और शारीरिक शिक्षा को भी पाठ्यचर्या का अभिन्न हिस्सा बनाने से ज्ञान को बांटने वाली दीवारों की ऊँचाईयों को घटाने में मदद मिलेगी। यह तभी हो पाएगा जब परीक्षाओं का स्वरूप और मूूल्यांकन के आधारों को बदलने की तैयारी हो।
शिक्षा के ऐसे विचार पहली बार पेश किए जा रहे हैं- ऐसी बात नहीं है। थ्फर अब तक बदलाव की दिशा में हम क्यों नहीं बढ़ सके ? असल में शिक्षा नीति के वर्गचरित्र और उस पर अभिजात्य तबके के कसे हुए शिकंजे की तार्कििक समीक्षा करने की जरूरत है ताकि हम सही विचारों को अमल में न लाने के कारणों को समझ सके। क्या जड़त्व के कारणों को समझे बगैर सही विचारों को दोहराने मात्र से बदलाव आ जाएगा ?
हमें शिक्षाा की इस राजनीति से निपटने के लिए देश की जनता को तैयारी करवानी होगी। अन्यथा पांच साल बाद हम अपनी जगह पर ही कदम चाल करते पाए जाएंगे और उच्च शिक्षा के परिवर्तन पर कोई नई रिपोर्ट और स्कूली शिक्षा के लिए एनसीईआरटी फिर अपनी नई रूपरेखा में इन्हीं विचारों की वकालत करेगी। यदि इतिहास के इस दोहराव को रोकने के लिए विश्लेषण करने से राजनेता और बुििद्धजीवी कतराते रहे तो जनता उन्हें कभी माफ नहंीं करेगी। केवल पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या का नयापन मात्र क्या करेगा ? समान स्कूल शिक्षा का प्रश्न तो अनुत्तरित रहेगा ही। शिक्षा प्रणाली में संरचनात्मक और अन्य परिवर्तन कागजों कागजों परही रह जाएंगे। इसे लागू करने वाली सरकारी मशीनरी में क्रियान्वयन का मिशनरी जज्बा कैसे पैदा होगा ?जब देशकी सरकारें अप्रशिशित पैरा शिक्षकों, जो सिर्फ नौकरी कभी नियमित हो जाने और बेराजगारी से निजात पाने की आशावश आते हैं के भरोसे या निजी स्कूलों के नाम पर चल रही दुकानों के भरोसे शिक्षा क्षेत्र की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही हैं। तो नया पाठ्यक्रम से जमीन पर उतारने का महाप्रयास कौन करेगा ? शिक्षा जगत में हो रहे घाल-मेल से मुक्ति के लिए शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को सक्रिय होकर एक जन चेतना फैलाकर एक लम्बे संघर्ष के लिए कटिबद्ध होना पड़ेगा तभी कुछ हो सकेगा।
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