Radharaman vaidya-bajar ki shiksha v shiksha ka bajar - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 5

बाजार की शिक्षा या शिक्षा का बाजार

शिक्षा का स्वरूप समाज का निर्माण करता है और सामाजिक प्रयोजन शिक्षा के स्वरूप को बदलता है। शिक्षा का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता। शिक्षा सदैव समाज सापेक्ष होती है। इसलिए शिक्षा का विकास समाज के विकास से कटा हुआ नहीं हो सकता। पर समाज शब्द बड़ा ’वेग टर्म’ (अस्पष्ट अवधारणा) है। यह नियन्ता के अधीन है। यह नियन्ता सरकार या प्रशासक अथवा समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग और वर्चस्व-सम्पन्न समुदाय होता है। उसी का निहित हित शिक्षा को स्वरूप प्रदान करता है।

इधर पिछले दस-पन्द्रह सालों में देश की शिक्षा के क्षेत्र में जो सहसा उभाय आया है उसने लोगों को हैरत में डाल दिया है। जिन गांवों में कभी मात्र सरकारी प्राइमरी स्कूल हुआ करते थे वहां सीनियर सेकेण्ड्री स्कूल खुल गए हैं। जहां सीनियर सेकेण्ड्री स्कूल थे वहां काॅलेज हो गए हैं। और जहाँ काॅलेज थे वहाँ विश्वविद्यालय बन गया है। कई शहर तो ऐसे हैं जहाँ विश्वविद्यालयों की संख्या दो या दो से अधिक तक हो गई है। इसी तरह व्यावसायिक शिक्षा के संस्थानों में इजाफा हुआ है। साथ ही सभी स्तर की इन शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने वालों की संख्या भी निरन्तर बढ़ रही है। इसके बाद भी राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा अहमदाबाद में हाल ही में अपने एक वक्तव्य में कहते हैं-भारत अपनी विशाल युवाओं की संख्या के कारण दुनियां की एक सबसे बड़ी कार्यकारी शक्ति बन सकती है। इसके लिए हमें अपनी शिक्षा में सुधार और विस्तार की जरूरत है। अभी हमारे देश में मात्र तीन सौ सत्तर विश्वविद्यालय हैं, जबकि हमें जरूरत है पन्द्रह सौ की। इस वक्त की कुल संख्या में से दस फीसदी ही काॅलेज शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं। बांकी के लिए अब भी उच्च शिक्षा दूर की चीज है। इन तक उच्च शिक्षा पहुंचाने के लिए और अधिक काॅलेजों और विश्वविद्यालयों का जल्दी से जल्दी खुलना आवश्यक है।

बदलते परिवेश में शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की मांग बढ़ गई । बढ़ती बेरोजगारी के कारण और भविष्य की सम्भावनाओं को तलाशने के लिए बारहवीं कक्षा के बाद नियमित पाठ्यक्रम जैसे बी0ए0, बीएससी करने के बजाए प्रोफेशनल पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने और (अभिभावक दिलाने) के लिए ज्यादा उत्सुक हैं। इन व्यावसायिक पाठयक्रमों की ओर रूझान का सबसे बड़ा कारण कोर्स के दौरान ही या कोर्स के बाद मिलने वाली नौकरी और खासा लुभाने वाला वेतनमान या तथाकथित पेकेज है। दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम काॅलेज आॅफ कामर्स के 2007-08 के आंकड़ों पर नजर डालें तो कुछ छात्र अधिकतम वेतनमान चैदह लाखके पैकेज पर नौकरी कर रहे हैं जबकि सामान्य पैकेज साढ़े तीन लाख और औसतन साढ़े चार लाख हैं।

पर क्या वह शिक्षा, जिससे बेरोजगारी दूर होने की संभावना बढ़ेगी या मिलने वाले पैकेज से परिवार की आर्थिक दशा सुधरेगी, हर सामान्य की पहुंच के भीतर होगी ? सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त- न्यायाधीश श्री शचिन्द्रचन्द्र द्विवेदी, श्री चन्द्रभूषण और श्री गुलाब गुप्ता की अध्यक्षता में एक के बाद एक तीन समितियां बनीं, पर वे निजी मेडीकल डेंटल काॅलेजों की 2004 से 2006 तक की अंतरिम फीस ही तय कर पाई। सब से आखिर में जस्टिस गुलाब गुप्ता ने एक जैसे पाठ्यक्रम चलाने वाले निजी काॅलेजों की 2005-06 के लिए एक जैसी अंतरिम फीस एमबीबीएस पाठ्यक्रम के लिए 1.61 लाख रूपये और बीडीएस के लिए 1.10 लाख रूपये की थी। इसके बाद भी काॅलेजों ने एमबीबीएस के छात्रों से 2.80 लाख रूपये और बीडीएस के छात्रों से 1.85 लाख रूपये तक वसूल किए। अब मध्यप्रदेश के करीब 350 निजी व्यावसायिक काॅलेजों के लिए खुशखबरी है कि उनकी फीस में 20 से 30 फीसदी बढौत्तरी हो जावेगी, क्योंकि मध्यप्रदेश व्यावसायिक शिक्षा देने वाले हर निजी काॅलेज की अलग-अलग फीस य करने की पहल करने जा रहा है। इस बीच राज्य सरकार निजी काॅलेजों को संचालन योग्य संसाधन मुहैया कराने और विद्यार्थियों को शोषण से बचाने की गरज से म0प्र0 निजी व्यावसायिक शिक्षा प्रवेश का विनिमय व शुल्क का निर्धारण कानून 2007 बनाने की पहल कर चुका है, जिसमें प्राप्त सूत्रों के मुताबिक यह फीस एमबीबीएस के लिए 2.80 लाख रूपये तक और बीडीएस के लिए 1.85 लाख रूपए तक रहने के आसार हैं। इसके बाद पुरानी आयुर्वेद और नर्सिग काॅलेजों की नई फीसें भी तय होगी तथा यही प्रक्रिया इंजीनियरिंग, फार्मेसी, एमबीए आदि के पाठ्यक्रम चलाने वाले निजी काॅलेजों तक आएगी। तब तक यथावत मनमानी होती रहेगी।

दुर्भाग्य यह है कि भारत केे उच्च शिक्षा के प्रमुख तीन अवयव विश्वविद्यालय, महाविद्यालय और उच्च शोध संस्थान धीरे-धीरे या तो परीक्षा केन्द्र या फिर वेतन प्राप्त करने के केन्द्र में तब्दील हो चुके हैं। हाल ही में हुए विश्व स्तरीय सर्वे का आंकड़ा चैकाने वाला है। इसके अनुसार दुनिया के सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों की सूची में भारत के एक भी विश्वविद्याालय नहीं हैं। यहां तक कि इसमें भारत के एक भी आईआईटी का नाम नहीं है, जबकि चीन के छह विश्वविद्यालनयों के साथ एशिया के ही जापान, सिंगापुर, हांगकांग, ताइवान और दक्षिण कोरिया का नाम है। इन छोटे-छोटे देशों की तुलना में इस महादेश का एक भी संस्थान का नाम न होना एक गंभीर सवालिया निशान है।

पर दिनांक 31 जुलाई 08 का समाचार है कि मध्यप्रदेश के निजी मेडीकल व डेंटल काॅलेजों के लिए शिक्षण सत्र 2008-09 के लिए लगभग दस प्रतिशत का इजाफा किया गया है। 2009-10 के लिए प्रो0 पी0एल0 चतुर्वेदी की अध्यक्षता वाली समिति की ओर से फीस का स्ट्रक्चर तयार कर लिया है। इसके अनुसार लगभग 48 हजार रूपये का अंतर आ गया है और डेंटल काॅलेजों के बीच यह अन्तर 48 हजार रूपये का है। चालू सत्र में महाराणा प्रताप डेंटल काॅलेज गवालियर और काॅलेज आॅफ डेंटल साइंसेज एण्ड हास्पिटल राऊ इन्दौर के लिए नई फीसें तय की गई हैं। न्यायाधीश बी0के0अग्रवाल ने इन दोनों काॅलेजों को न्यायाधीश शचीन्द्र द्विवेदी समिति की ओर से घोषित अंतरिम फीस का हकदार माना था। विकास शुल्क अलग वसूला जाता है।

संविधान पीठ के ताजा फैसले से यह बात स्थापित हुई है कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को उच्च शिक्षा हासिल करने के विशेष अवसर दिए जाने चाहिए। न्यायालय ने हमारे नीति निर्माताओं को यह भी याद दिलाया कि क्रीमीलेयर को इस सुविधा से बाहर रखा जाये। आरक्षण की हर पांच साल बाद समीक्षा करने और आरक्षण के मकसद और मर्यादा को हमेशा ध्यान में रखा जाये। यूपीए सरकार जिसके अब मुखिया ही डाॅ0 मनमोहन सिंह है, जो चन्द्रशेखर युग से निर्यता रहे हैं, मैं अपने किसी निहित नेक इरादे से भारत में संचार क्रांति के अगुआ रहे सैम पिन्नोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन किया और इसे उच्च शिक्षा की व्यवस्था के बारे में प्रायोगिक परिवर्तन सुझाने की जिम्मेदारी सौंपी। इस आयोग का मानना है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नियामक का काम कर रही विभिन्न संस्थाओं की जगह एक एकीकृत और स्वायत्त प्राधिकरण का गठन किया जायें। इस सुझाव के पीछे तर्क यह है कि तकनीकि चिकित्सा विज्ञान कृषि विज्ञान आदि में हो रहे या होने वाले अनुसंधान को आपस में अलग थलग न रखकर एक समन्व्ति नजरिए से देखा जाए और कोशश यह हो कि एक क्षेत्र की प्रगति या अनुसंधान का साथ आसानी से दूसरे को मिल सके। सन् 1986 में जो शिक्षानीति बनी थी उसने भी इस आशय का का प्रस्ताव किया था। हमें यह समझाना चाहिए कि उच्च शिक्षा के विस्तार और उसकी गुणवत्ता में सुधार का प्रश्न सामाजिक न्याय से अलग थलग नहीं है।

यह सामाजिक न्याय का प्रबल प्रश्न शिक्षा के क्षेत्र में तबसे है जब से काॅमन स्कूल की बात कहीं गई है। दिन प्रतिदिन देश में बड़ी तेजी से सदो देश उभर रहे हैं। उच्च शिक्षा के विकास और उसके स्तर की बात करने वाले और उसकी चिन्ता में घुले जाने वाले यह भूल जाते हैं कि स्वयं सरकारी आंकड़े घोषणा करते हैं कि देश में सत्तर फीसदी आबादी ऐसी हैं जहां प्रति व्यक्ति आय केवल बीस रूपये रोज है। दूसरी ओर लोकसभा में मंत्रियों के बयान बताते हैं कि देश के छियालीस हजार से अधिक स्कूलों के पास भवन नहीं है। लगभग नवासी हजार स्कूलों के पास ब्लैक बोर्ड नहीं है और करीब तेईस हजार स्कूलों के पास एक भी शिक्षक नहीं है। इन स्कूलों में उन्हीं सत्तर फीसदी आबादी के बच्चे पढ़ने को विवश हैं, जो प्रति व्यक्ति बीस रूपये रोज आमदनी वाले हैं या मान्य गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं। कई हजार स्कूल (सरकारी) ऐसे भी हैं जहां के शिक्षक स्कूल नहीं जाते और नियमित वेतन पाते हैं। सुदूर और दुर्गम स्थानों और आदिवासी क्षेत्रों में नियमित शिक्षक अपनी जगह एवजी शिक्षक रख देते हैं। उपस्थित शिक्षकों में भी ज्यादातर शिक्षण कार्य में रूचि नहीं लेते। यह बात क्रेमर-मुरलीधरन अध्ययन के मुताबिक लिख रहा हूँ।

दूसरी ओर भारत ग्लेमरस और शायनिंग देश है, यही भारत, जो धनिक, नवधनिक और सुविधा प्राप्त बढ़ते मध्यम वर्ग का देश है। इनकी केजी स्तर से ही शिक्षा इतनी मंहगी है कि सामान्य जन को सुनकर कपकंपी आती है। प्ले स्कूल की एक साल की फीस बीस-बीस हजार रूपये है, जबकि कानूनी रूप् से इस उम्र के लिए स्कूल चलाने का हक ही नहीं है। पर कानून को ठेंगा बताने की ताकत रखने वाले पंूजीपति, अनिवासी और विदेशी लोग मिलकर ऐसी शिक्षा ला रहे हैं, जिनकी देखा-देखी, गली-गली अंग्रेजी माध्यम का ढिंढोरा पीटते स्कूल खुलते चले जा रहे हैं। शिक्षा एक उद्योग बना लिया गया है जहां का हर प्रकार का उत्पाद बाजार में चलाया जाएगा। इस देश के गरीबों को वोट से बनने और चलने वाली सरकारें गरीब को शिक्षा से वंचित रखकर या किसी चमक दमकदार योकजना का झुनझुना बना कर उन्हें पीढ़ियों गरीब बने रहने, शोषित, दलित और वंचित बने रहने को विवश किए हैं। जो कुछ भी जनोपयागी सरकारी था वह नष्ट हो रहा है या किया जा रहा है। फिर वह चाहे स्कूल हो, अस्पताल हो या आम आदमी के आने-जाने और खाने-पीने के साधन हों सबको निजी हाथों में सौंपने की प्रक्रिया चल रही है। निजीकरण मुनाफे के गणित से चलता है। अभी हाल में शिक्षा के अधिकार का विधेयक फिर ठंडे बस्ते में पहुंच गया है क्योंकि छह साल से चैदह साल के सभी बच्चों के लिए शिक्षा व्यवस्था के लिए होने वाले व्यय की समस्या के साथ निजी स्कूलों की लाॅबी का दबाब भी एक कारण है। निजी स्कूलों पर इस विधेयक में पच्चीस फीसदी सीटो को अपने यहां आरक्षित करने का प्रावधान है।

उन्नीस सौ चैसठ के कोठारी कमीशन से लेकर 1992 राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शामिल करने के लिए काॅमन स्कूल की बात कही जाती रही, मगर आयोगों की यह सलाह अनसुनी रही। आज तक काॅमन स्कूलों की जगह नये-नये मंहगे, पांच सितारों और ऊँची फीस वाले ऐसे स्कूलों की भीड़ उग आई है, जहां की सड़क से आम आदमी गुजर ही नहीं सकता। आज देश भर में स्कूली शिक्षा प्रारंभिक स्तर से ही इतनी मंहगी कर दी गई है कि सामान्य जन का प्रवेश उस सुरक्ष्ज्ञित शिक्षा क्षेत्र में न हो सकें जो धनिक, नवधनिक, प्रशासक, नेता और उच्च-मध्य वर्ग के बच्चों के लिए सृजित है। उनको बहलाए रखने के लिए सरकारी स्कूल इस प्रकार रचे जा रहे हैं कि उन्हें भी मुगालता रहे कि उनके बच्चे भी अंग्रेजी पढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने सिफारिश की है कि कक्षा एक से अंग्रेजी पढ़ाई जाय और कक्षा तीन से अन्य विषय भी अंग्रेजी में पढ़ाए जाए। कुछ राज्यों ने इसे पहले से ही लागू कर दिया है तथा अपने अध्यापकों को भी प्रशिक्षित कर दिया है। क्या होगा उन स्कूलों में, जिनकी दशा में ऊपर क्रेमर मुरलीधरन अध्ययन में पाए गए तथ्यों का वर्णन कर चुका हूँ। सर्वशिक्षा अभियान चल रहा है। उसे हम चला तो कम रहे हैं खा अधिक रहे हैं। वैसे हम शिक्षा के नाम पर किताबें, ड्रेसे, स्लेट, पेंसिल, कम्प्यूटर, खेलने का सामान और यहां तक कि खेल के मैदान सभी कुछ खा जाते हैं।

श्री रमेश दवे ने अपने एक आलेख में अभी उल्लेख किया है कि सरदार बल्लभ भाई पटेल स्वराज्य के बाद अपने भाषणों में लगातार कहते रहते थे कि किताबी शिक्षा बिल्कुल निकम्मी ही नहीं, बल्कि हानिकारक है। इस पर किसी व्यक्ति ने पूंछा-आप इसे बदल क्यों नहीं देते ? स पर पटेल ने कहा-हम सब ऐसे जाल में फंसे हैं कि अब बाहर निकलना मुश्किल है, क्या पटेल की यह बात आज भी सौ फीसद सही नहीं हैं ? विख्यात सरोद वादक उस्ताद अमज़द अली खाँ भी कहते हैं कि आजादी के पिछले साठ वर्षो में भी भारतीय शिक्षा प्रणाली अपने उ्ददेश्य हासिल नहीं कर सकी है, बल्कि वह पूरी तरह असफल हो गई है। इसमें तत्काल बदलाव जरूरी है।

शिक्षा की दिशा और दशा पर ज्योंही विचार विमर्श होता है, इस तरह की अनेक सच्चाईयां उभर कर ऊपर आने लगती हैं। शिक्षा का हर क्षेत्र या तो उपेक्षित और बदहाल दिखाई देता है या व्यावसाईयों और मुनाफाखोरों के चुंगल में फंसा हुआ दिखता है। शिक्षा के क्षेत्र में मिशनरी स्पिरिट के स्थान पर कमीशनखोरी और लाभ उठाने की प्रवृत्ति ने घर कर लिया है। शिक्षा को लोक सत्ता के बजाय धनसत्ता ने अपने चुंगल में जकड़ लिया है। अब शिक्षा उनकी होगी, जिनकी पूंजी होगी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद साठ वर्ष से देश में स्वशासन है, पर शिक्षा का अपना कोई स्वरूप नहीं ढाल पाया। पहले यूरोप के लोग आए थे व्यापार के नाम पर और बाद में उन्हांेन शिक्षा का अपना माॅडल रचा और अब हम ऐसे माॅडल अपना रहे हैं, जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का हित साधक बन सके। भारत को उसके तमाम उद्योगों से वंचित कर यूरोप अमेरिका का आर्थिक गुलाम बना सकंे। जो देश अपनी शिक्षा से ही बेईमानी करे, वह न तो अपनी भावी पीढ़ियों के प्रति ईमानदार होगा, न नागरिकों के प्रति, न देश की आज़ादी या स्वराज्य के प्रति। आज तों हमें अपने तात्कालिक सुख चैन की चिन्ता है, भविष्य की भविष्य वाले जानें।

राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीआरटी) जो स्कूल शिक्षा की शीर्ष संस्था है, वहां भी राजनीतिक आग्रह या दुराग्रहों से पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकें बदली जाती हैं। राज्य, जो शिक्षाक े लिए उत्तरदायी माने जाते हैं, वे भी अपने दलगत उद्देश्यों से प्रेरित हों पाठ्य पुस्तकों में उलटफेर करने के कारण विवादग्रसत रहे हैं। इस तरह कहीं राजनीति और कहीं या कभी अर्थनीति शिक्षा नीति के स्वरूप को स्कूल स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक प्रभावित करती रहती है। अब शिक्षा संस्कार या चरित्र निर्माण के मूल्यों से परे बाजार के मूल्यों के फ्रेम में जकड़ गई है। जनहित उद्देश्य न रहकर विशिष्ट बर्चस्व प्राप्त वर्ग का हित साधन उद्देश्य हो गया है। तभी तो आधुनिक शिक्षा व्यवस्था के प्रबल समर्थक डेनियल बैल कहते हैं कि दुनियां अब ऐसी जगह आ चुकी है जहां उसमें किसी तरह के सुधार या परिवर्तन की जरूरत नहीं रह गई है। छोटी-मोटी खामियां जब भी सामने आएंगी उन्हें हमारे प्रबंधन विशेषज्ञ और सामाजिक अभियांत्रिक (सोशल इंजीनियर) ठीक कर देंगे।

फिर भी हमारी प्रश्नाकुल उद्विग्नता श्री रमेश दवे के द्वारा उठाए गए प्रश्नों को आप सबके सामने रखना चाहती है कि यह कैसी शिक्षा है जो बेकारी पैदा करती है ? यह कैसी शिक्षा है जो देश से ज्यादा विदेश से प्रेम करना सिखाती है ? यह कैसी शिक्षा है जो अमीर को और अमीर बनाती है, मगर गरीब की रोटी इतनी मंहगी कर देती है कि यह शिक्षा के बारे में न सोचे या सोचना बन्द कर दें ? क्या ऐसा नहीं लगता कि शिक्षा इस देश में अब अमीरों और व्यावसायिक हितों को उपनिवेश बनती जा रही है ? गुलामी के दौर से तो हम आजाद हुए मगर साठ सालों की शिक्षा क्या हमें फिर गुलामी की तरफ नहीं ले जा रही है ? हम आप और हमारा बौद्धिक वर्ग सोचे और उपयुक्त हल मिल सके तो तदनुसार युग-नियंताओं को शिक्षा नीति बदलने को प्रेरित या विवश करें।

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