राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 6 - अंतिम भाग राजनारायण बोहरे द्वारा मानवीय विज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 6 - अंतिम भाग

स्कूली शिक्षा सम्बन्धी बैचेनियां, चिंताएं और उत्सुकताएं

शिक्षा सामाजिक विकास की सतत चलने वाली प्रक्रिया है। स्वाधीनता दविस 2004 की पूर्व संध्या पर दिए गए राष्ट्रपति के राष्ट्र के नाम संदेश में देश के भावी विकास की आधार भूमि शिक्षा को ही बताया गया है। अब शिक्षा का स्वरूप और दायरा बदल रहा है। युवाओं का प्रतिशत बढ़ रहा है और बेरोजगारी की संख्या भी। ऐसे में गुणवत्ता और प्रतिस्पद्र्धा का तालमेल बैठाते हुए शिक्षा के विस्तार और स्वरूप परिवर्तन की आवश्यकता है। इस क्रम में दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। पहली, अंतराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में विकास की गति को बनाए रखना और दूसरी चुनौती, राष्ट्रीय सामाजिक आर्थिक और भावनात्मक पक्ष को जोड़ कर शिक्षा को श्रम और रोजगार मूलक बनाते हुए सामाजिक जुड़ाव की और मोड़ना है। राष्ट्रीय बचनबद्धता और राजनीतिक वचन-बद्धता के अंतर को समझते हुए सबको शिक्षित करने का प्रयत्न के अंतर को समझते हुए सबको शिक्षत करते हुए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा ही ध्येय होना चाहिए।

पिछले कुछ वर्षो से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा का दबाब बढ़ा है, जागरूकता बढ़ी है। लेकिन इस जागरूकता से जो बहस देश के शिक्षण संस्थानों और शिक्षाविदों में होनी चाहिए वह नहीं हुई या कम हुई है। मात्र शिक्षा की स्वीकार्यता बढ़ी है। देश में स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से समान विचारधारा वाली नीति थी। लेकिन पिछली सरकार धार्मिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय विचारधारा के नाम पर शिक्षा का नया स्वरूप लेकर आई और विवाद का विषय बनी। इससे धार्मिक विचारधारा का प्रभुत्व बढ़ा। इस समय बससे ऐसी राजनीतिक शक्तियां सक्रिय, बल्कि आक्रमण की हद तक विविधता पूर्ण भारतीय सामंजस्य को विखंडित करने के लिए लोकतांत्रिक स्व्तंत्रता का दुरूपयोग करते हुए हिंसा और नरसंहार तक पर उतारू रहती हैं। इनके लिए इतिहास का मध्यकाल का कुल अर्थ हिन्दुओं के मुसलमानों द्वारा आक्रांत किए जाने की दुखद गाथा भर है। और ईसाई मिशनरियों ने धर्मान्तरण करा कर भारतीय समाज को बिगाड़ा है।

इस राजनीति की गिरफ्त में सिर्फ साधारण लोग ही नहीं आ रहे हैं, बल्कि कुछ बुद्धिजीवी वर्ग भी इस प्रायोजित विस्मरण का शिकार हो रहा है। मध्यकाल को उसकी समग्रता में देखे बगैर हम अपनी भारतीयता को सही या विश्वसनीय पहचान या परिभाषा बना ही नहीं सकते। भारतीय प्रतिभा का अनेक क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ उभार मध्यकाल में ही संभव हुआ। मध्यकाल में प्रायः सभी आधुनिक भाषाओं में जगमगाता और भारतीय प्रतिभा और सिसृक्षा को रोशन करता हुआ भक्ति काव्य लिखा गया। मध्यकाल में ही भारत का दूसरी सभ्यताओं और धर्मो से वाद-विवाद संवाद इस कदर गहरा और लगातार हुआ है कि जिस भारतीय बहुलता पर हम गर्व करते हैं, उसका सर्जनात्मक बौद्धिक रूपायन संभव हो सका। हमें अपने समूचे उत्तराधिकार को सहेजते-समझते हुए हम अपने को मध्यकाल की संतान मान कर उसे प्रश्नांकित करें।

आज समाज में बहुत कुछ हो रहा है, अच्छा और बुरा दोनों ही, उसको समझने-निपटने के लिए मध्यकाल एक जरूरी परिप्रेक्ष्य देता है। कई विमर्श-जसे नारी विमर्श, दलित विमर्श अनेक प्रकट-अप्रकट स्तरों पर मध्यकाल में शुरू हुए थें। इस सिलसिले में जो राजनीतिक शक्तियां लगातार आक्रामक ढंग से काम कर रही है वो सिर्फ इतिहास को फिर से लिखना भर नहीं चाहतीं, बल्कि मध्यकाल की स्मृति को भी पुनर्गठित करना चाहती हैं। पिछले कुछ सालों से स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में इतिहास को गलत तरीके पेश करने को लेकर खासे अखाड़े खुदे हुए हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक गरम है। राज्य सरकारें, तत्कालीन भगवा किताबों को अपने यहां चलाने को राजी नहीं थीं। ऐसा नहीं कि शिक्षा जिस भ्रम के दोराहे पर खड़ी है, वहां ऐसे विवाद महज बेमानी और भावनात्मक ब्लैकमेल ही हैं और इस विवाद से स्कूली शिक्षा के अन्य महत्वपूर्ण पहलू उपेक्षित हो रहे हैं।

इतिहास के अध्ययन-अध्यापन में विवादात्मक मसलों को प्रस्तुत करते समय विज्ञान की भांति यह स्पष्ट कर दिया जाना जरूरी है कि पूर्ण तथ्यों के अभाव में निश्चयात्मकता के साथ अवहेलना करके निर्विवाद मान्यता देना और अनुमानों के आधार पर जातीय स्मृति को विकृत करना ही है। आखिर विज्ञान में भी अपने अनसुलझे प्रश्नों के बारे में यही तो बताता है कि तत्संबंधी ज्ञान अभी अधूरा है, अभी पूरी तरह सुलझा नहीं है। विद्यार्थी के दिमाग को खुला रखा जाये, यह शिक्षा की प्रमुख जिम्मेदारी है। उसमें प्रश्नाकुलता बनी रहनी चाहिए, जो विवेक का आधार है।

इतिहास में घालमेल और अपने स्वार्थो के हित में विकृत करने की केवल घरेलू फितरत नहीं चल रही है, बल्कि पश्चिम में जो नया अकादमिक विमर्श चल रहा है, उसमें इतिहास के पुर्ननिर्माण की कितनी परियोजनाएं सक्रिय हैं और उनमें कितनी बारीकी से बीसवीं सदी का नायक मुल्क अमेरिका साबित करने की कोशिश कर रहा है कि भारतीय स्वाधीनता गांधी जी के आन्दोलन की देन नहीं। भारत की स्वाधीनता गांधी जी के सत्याग्रह से कुछ लेना-देना नहीं है। यह अमेरिका की सदाशयता का फल है क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेज आथ्रिक रूप से इतने लाचार हो गए थे कि भारतीय उपनिवेश का खच्र वहन करना उनके लिए ठीक नहीं रहा। तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। अमेरिका उन दिनों तक स्वाधीनता को एक मूल्य मानता था अतः उसने इस उपनिवेश को खरीदा नहीं-यह इतिहास का नया पाठ टी.वी. चैनल के धारावाहिक के लेखक-न्यूयार्क विश्वविद्यालय में वित्तीय इतिहास के प्रोफेसर निऐल फग्र्यूसन हैं। इस स्थापना के लिए सवाल फग्र्यूसन का नही हैं, बल्कि उस प्रक्रिया और मानसिकता का है, जिससे ऐसे फाग्र्युसन पैदा होते हैं।

शिक्षा को मूल अधिकार माना गया है। सब 14 वर्ष की आयु तक अनुच्छेद 45 के अनुसार अनिवार्य शिक्षा की बाध्यता रखते हैं। शिक्षा एक बुनियादी हक है- कह कर सर्वोच्च न्यायालय ने अपना ऐतिहासिक निर्णय दिया है। लेकिन यह हक असलियत में उन बच्चों तक सीमित होकर रह गया है, जिनके पास साधन हैं। गरीब, खानाबदोश या वंचित बच्चों के लिए तो तालीम आज भी ऐसा सपना है, जिसे पूरा करने के लिए सरकार के आसरे रहते हैं और देश के शासक प्रशासक अब कहने लगे हैं कि राज्य अब केवल ’फेसीलिटेटर की भूमिका निभाएगा। वह हस्तक्षेप नहीं करेगा। दूसरे शब्दों में वह समाज में व्याप्त सांस्थानिक विसंगतियों और विषमताओं को समाप्त करने के कामों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।

अपने तमाम कल्याणकारी कर्तव्यों से मुंह मोड़ता राज्य अगर शिक्षा के क्षेत्र में भी यही रवैया अपनाता है तो उदारीकरण-भूमंडलीकरण के जरिए सामाजिक जीवन में पैदा हो रही बर्बर असमानता एवं दरिद्रता के जबड़े न जाने कितनों को पीसते चले जाएंगे। जाहिर है लोकव्यापी साक्षरता के लिए गंभर और सक्रिय होना राष्ट्रीय विकास और निर्माण की दृष्टि से आज पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है।

विश्व बैंक की ताजा रपट कहती है कि भारत में दस साल के तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को लेकर बच्चों-बच्चों में खास भेद-भाव हैं, लड़के-लड़की गरीब अमीर औेर जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार सन् 2007 तक दस वर्ष तमक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए तेरह लाख स्कूली कमरे और 740 हजार नए शिक्षकों की जरूरत होंगी।

पिछले साल आई बिड़ला-अंबानी की रपट से जो शिक्षा की सरकारी योजना उभरती है, वह इन निष्कर्षो की पुष्टि करती है। पर शिक्षा में जड़ जमा रही इन बाजारी ताकतों की रोक-थाम करने के लिए समाज के पास न तो पर्यापत प्रतिबद्धता है और न ही उसकी ऊष्मा। सन् 1990 के दशक से भूमंडलीकरण के प्रभाव में संरचनात्मक समायोजन का दौर आया। उसके नतीजे में शिक्षा में सरकारी खर्चे की कटौती और उसे बाजारोन्मुखी ताकतों के हाथों सौंपने की घटनाएं सामने आने लगी।

आज हमारे बजट का महज छह फीसदी प्राथमिक शिक्षा के मद पर खर्च होता है। यह हमारे कुल सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 3.4 प्रतिशत है। एक तरफ बारह हजार तक महीना पाने वाले सरकारी स्कूल के नियमित मास्टर और दूसरी ओर शिक्षा गारंटी योजना या ऐसी ही स्कीम के तहत मात्र पांच सौ रूपये महीना पढ़ाते शिक्षक। दो हजार पर दस्तखत कर तीन सौ का वेतन पाने वाले प्राइवेट स्कूल के शिक्षक।

विधानसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में सर्वशिक्षा अभियान का झुनझुना मीडिया के कोने-कोने से बजाने वाली तत्कालीन राज्य सरकार क्या वास्तव में प्राइमरी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए कुछ करने जा रही थी ? 07 अगस्त 2004 के जनसत्ता का समाचार है कि राजधानी के प्राथमिक स्कूलों के शिक्षक ’’शिक्षक दिवस’’ का बायकाट करेेगें। प्रशासन चाहे लाख दावे कर लें लेकिन सच्चाई यह है कि सर्व शिक्षा अभियान को सफल बनाने में जुटे सोलह हजार शिक्षकों को पिछले चार महीनें से वेतन नहीं मिला है। अनुबंध पर रखे गये लगभग दो हजार शिक्षकों को मार्च से ही तनख्वाह नहीं मिल रही हैै। शिक्षकों का कहना है कि एक ओर सरकार सर्वशिक्षा अभियान का ढिढोंरा पीट रही है, दूसरी ओर इसे सफल बनाने वालों की पीड़ा को नजर अंदाज कर रही है।

कल्याणकारी कर्तव्यों से मुँह मोड़ती कुछ राज्य सरकारें विकेन्द्रीकरण के बहाने प्राथमिक शिक्षा पंचायतों और नगर पालिकाओं के हवाले कर देना चाहती हैं और जिला योजना परिषद को शिक्षा-क्रम और शिक्षा शास्त्र जैसे अकादमिक और पेशेवर विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार भी। सवाल यह है कि क्या जिला योजना परिषद के पास वह शैक्षिक दृष्टि और परिप्रेक्ष्य है जिसके आधार पर वे रटंत विद्या और वैज्ञानिक एवं आलोचनात्मक चेतना विकसित करने वाली दो विपरीत धाराओं की पाठ्य चर्चा, पाठ्यक्रम, पाठ्य पुस्तकों और शिक्षण-शास्त्र को खंगाल कर अलग-अलग कर सकती हैं ? विकेन्द्रीकरण की संस्थाओं की इस बौनी पृष्ठभूमि को देखते हुए यह कैसे माना जा सकता है कि अकादमिक योग्यता, क्षमता अधिकार और शैक्षिक विमर्श के बिना यह शिक्षा जगत के साथ न्याय कर सकेगा ?

सारा देश स्कूली शिक्षा की विसंगतियों से जूझ रहा है। विज्ञान गणित की नई खोजों के चलते हमारी किताबें पुरानी हो गई है। सबसे बड़ी बात सूचना के विस्फोट ने बच्चों को मुखर और तार्किक बना दिया है तथा नई सदी के इन बच्चों की जिज्ञासाएं शांत करने में हमारी किताबंे असमर्थ और विवश सी है।

आजकल एक और प्रश्न शिक्षाविदों को मथ रहा है। समाज में प्रबुद्धजन भी हैरान है कि स्कूली शिक्षा का राजकीय या सरकारी नियंत्रण का यही परिणाम होगा कि हर पांच साल बाद सरकार के बदलते ही किताबेें में परिवर्तित होती रहेंगी। क्या विभिन्न पार्टियां अपने राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाल मन पर आक्रमण करती रहेंगी ? विद्यार्थी को एक स्वतंत्र विवेकशील व्यक्ति की तरह विकसित करने के बजाये क्या शिक्षा का ध्येय किसी विचारधारा विशेष का अनुयायी बनाना होगा जैसा मध्यकाल में हमारे देश में और आजकल कुछ देशों में धर्म सत्ताा करती थी या कर रही है ? होना तो यह चाहिए कि शिक्षा अपने उद्देश्य को पूरा करने में सक्षम हो सके कि विद्यार्थी हर चीज को स्याह-सफेद के खने में बांटकर देखने की आदत से छुटकारा पाकर अपनी चिंतन प्रक्रिया की वयस्कताा की ओर बढाता ले जा सके और उसका विवेक सजग रह सके। पर राजनीति के खिलाड़ियों का उद्देश्य तो अपना उल्लू सिद्ध करना होता है। फिर यह चाहे शिक्षा के उद्देश्यों का गला घोंट कर हो या नरसंहार से।

मुकेश अंबानी और कुमार मंगलम बिड़ला की शिक्षा रपट में भी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार को ही लेने और उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र कें हवाले करने की बात कही गई है। जाने-माने शिक्षा शास्त्री अनिल सद्गोपाल के अनुसार यदि वह अंबानी-बिड़ला की रपट स्वीकार की जाती है तो भारत की भावी शिक्षा का रूप स्पष्ट हो जाता है। सन् 2015 में देश के श्रमिक वर्ग। के बच्चे (लगभग 63 प्रतिशत) कक्षा 8 तक ही शिक्षित हो पाएंगे और इनके पास मात्र साक्षरता का कौशल होगा। ये गरीब बच्चे वैश्वीकरण द्वारा पैदा की गई सूचना प्रौद्योगिकी व अन्य तकनीक का उपयोग करने वाले वैश्वीकृत श्रमिक बनेंगे। इन्हे बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खरीद कर ठीक उसी प्रकार जैसे 18वीं और 19वीं सदी में यूरोप और अमेरिका ने अफ्रीका और एशियाई मजदूरों को गुलाम बनाकर खरीदा था। लगभग 31 प्रतिशत बच्चे, जो मध्यम वर्ग के होंगे, दसवीं-बारहवीं तक पढ़ कर वैश्वीकृत बाजार में तकनीशियन बनेंगे और देश के मात्र 6 प्रतिशत बच्चे उच्च शिक्षा पाएंगे। वे ही नयी प्रौद्योगिकी का सृजन करेंगे और वैश्वीकृत अर्थ व्यवस्था पर विश्व पूंजी की मालिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व बरकरार रखने में यह शिक्षा व्यवस्था मददगार होगी।

ऐसी अनेक चिंताएं बैचेनियां उत्सुकताएं, स्कूली शिक्षा पर विचार करने पर मन-मस्तिष् पर मंडराती रहती है। असल में बालक-बालिकाओं को शिक्षा देना और उसे सम्पूर्ण विकास से जोड़ना, शिक्षा को वैश्विक स्तर तक उठाना, समुचित विकास करना, युवाओं को आत्म निर्भरता की ओर ले जाना, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक शिक्षा की फ्लेक्सिबिलिटी (लचीलापन) बढ़ाना, विश्वविद्यालय और कालेजों की संख्या बढ़ाना, प्रबंधन, इंजीनियरिंग, मेडीकल और दूसरे पाठ्यक्रम के क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं की कमी-पूर्ति शिक्षा जगत की सीधी चुनौतियां हैं, जिन्हें विचारात्मक आग्रहों से बचते हुए राष्ट्रीय और सर्वहित नजरिया से स्वीकारना और उनका सामना करना तातकालिक आवश्यकता है। पर इससे कतराने का मन बना चुका समाज जब तक जाग कर जूझने का मन नहीं बनायेगा, तब तक वही ढाक के तीन पात रहने वाले हैं। समय की आवश्यकता है कि न सिर्फ सम्पन्न वर्ग, बल्कि उद्योग-व्यापार से जुड़े लोग आगे आएं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और औद्योगिक घरानों पर शिक्षा कर जैसी व्यवस्था लागू करने की बात दृढ़ता से सोचनी होगी। ये घराने बड़े-बड़े अस्पताल औेर पब्लिक स्कूल खोल रहे हैं, जिनमें तीन चार लाख रूपये देकर अमीर वर्ग दिल का इलाज करा सकता है। लेकिन देश के गरीब आदमी को इन जरूरतों को पूरा करने के लिए कौन सी कोशिश हो रही है, इसका जबाब इन राष्ट्र के कर्णधारों बने घूमते और बहुत कुछ करने का दम भरत राजनीतिज्ञों को देना चाहिए। वरना भविष्य इनकी केवल काली करतूतों का लेखा करेगा।

स्कूली शिक्षा सबको उपलब्ध कराना देश के लिए एक बड़ी चुनौती है, गुणवत्ता से युक्त शिक्षा पर सिर्फ अमीर वर्ग को एकाधिकार नहीं होना चाहिए।

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