घूमने फिरने में सभी को आनंद प्राप्त होता है। मुझे भी घूमने फिरने का शौक था । रेहटी से भोपाल जाना अक्सर हो जाया करता था । जब बस गिन्नौरगढ़ किले के पास से निकलती थी तो बस की खिड़की से गिन्नौरगढ़ किले को देखता ही जाता, जब तक कि किला आंखों से ओझल नहीं हो जाता था। ऊंची पहाड़ी पर स्थित मेन रोड से लगभग 2 या 3 किलोमीटर दूर होने के बावजूद भी गर्मी के दिनों में साफ-साफ नजर आता था। मन में हर बार एक ही इच्छा होती कि एक न एक दिन गिन्नौरगढ़ किले को घूम कर आना है।
एक दिन शाम के समय हम सभी मित्र बैठे हुए थे तो मैंने कहा कि गिन्नौरगढ़ किला घूमने चलते हैं। सभी ने एकमत से हामी भर दी। हम सभी ने तय किया कि कल सुबह 10:00 बजे चलेंगे। रेहटी से 18 किलोमीटर रातापानी अभ्यारण में देलावाड़ी के नजदीक यह किला जहाँ पर शाम तक घूम कर आसानी से आ सकते हैं।
गिन्नौरगढ़ किले का निर्माण गोंड महाराज उदय वर्धन ने 13वीं शताब्दी में करवाया था। यहां की अंतिम शासिका रानी कमलावती थी जो बहुत ही सुंदर थी। जिसकी सुंदरता की तुलना परियों से की जाती थी। यह किला समुद्र सतह से करीब 956 फीट ऊंचाई पर है । इस किले के आसपास लगभग 25 बावड़ी हैं और 7 तालाब है जिसमे 12 महीने पानी रहना आश्चर्य में डाल देता है लेकिन यह सत्य है क्योंकि हमने अपनी आंखों से साक्षात देखा है । यहां की पहाड़ी पर काले और हरे पत्थर बिखरे हैं, जिसका उपयोग किले के निर्माण के लिए किया गया था।
अगले दिन योजना अनुसार हम सभी मित्र अपने अपने वाहन से गिन्नौरगढ़ किले के लिए प्रस्थान किया। जब हम गिन्नौरगढ़ के लिए निकले उस समय गर्मी का मौसम था। गर्मी अपने शबाब पर थी। सबसे पहले रोड किनारे पर एक प्राचीन बावड़ी को देखा। हम सभी उसके अंदर नीचे उतरे, देखा तो उसमें भरपूर पानी था। जहां इतनी गर्मी में सभी जगह के कुएं तालाब सूख जाते हैं उसमें भरपूर पानी था। रातापानी अभ्यारण जिसमें कई जंगली जानवर जैसे बंदर शेर भालू हिरण इत्यादि अक्सर वहां पर देखने को मिल जाते हैं। अत्यधिक गर्मी में सभी जगहों पानी सूख जाता है तो जंगली जानवर इसी प्रकार बावड़ी का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं ।
बावड़ी देखने के बाद हम किले के लिए निकल गए। उस समय किले पर जाने के लिए रोड से ही पैदल रास्ता तय करना पड़ता था । अब तो वन विभाग की ओर से किले की पहाड़ी तक के लिए रास्ता बन गया है, जिसमें आप आसानी से अपने वाहन के साथ वहां तक जा सकते हैं। थोड़ी ही दूर चले थे कि हमे रास्ते में हमें एक नदी मिली, जो उस समय सूखी हुई थी परन्तु बारिश के दिनों में यहां पर भरपूर पानी होता है और यहाँ का नजारा बहुत ही खूबसूरत होता है। पेड़- पौधे एवं हरियाली के साथ कल कल बहती नदी किसी दीवार पर लगी हुई सीनरी से भी अधिक सुंदर लगती है। इस नदी में पहाड़ी का पानी इकट्ठा होकर नदी के रूप में ले जाकर आगे जाकर बड़ी नदी में मिल जाता है । उस नदी को पार करके जैसे हम आगे बढ़ते हैं कुछ ही दूरी पर चलने के बाद एक बहुत बड़ी चट्टान मिलती है जिस पर भगवान गणेश जी की प्राचीन मूर्ति पत्थरों पर नक्काशी द्वारा बनाई गई है जिसको प्रणाम करते हो वह आगे की ओर चलते हैं।
हम चलते जा रहे थे गिन्नौरगढ़ का किला ऊँची पहाड़ी पर था जो हमें साफ-साफ दिख रहा था। जैसे जैसे हम उसके करीब जाते जा रहे थे तो लगता कि अब हम पहुँचने वाले, लेकिन अभी और चलना था। आखिरकार ....हम पहाड़ी के नीचे पहुंच गए।
हमारे साथियों में से जो पहले यहां आ चुके थे उन्होंने कहा कि किले पर जाने के दो रास्ते हैं। पहला रास्ता आगे से है जो बहुत खतरनाक है उस पर खड़ी चढ़ाई है। दूसरा रास्ता जो पीछे से है किले के जाने का आम रास्ता था वह रास्ता थोड़ा लंबा था लेकिन सुगम था । हम सभी ने तय किया कि लंबे रास्ते से चलेंगे । इस प्रकार हमने किले की ओर प्रस्थान किया। आगे का रास्ता बहुत थकान भरा था क्योंकि हम किले तक जाने के लिए पहाड़ी पर चढ़कर जाना था। हम किले के नजदीक पहुंचते है तो देखते हैं कि प्रवेश का एक भव्य द्वार है। उस द्वार के पहले सीढ़ियां बनी हुई थी लेकिन समय के साथ-साथ सीढ़ियां टूट फूट गई है । भव्य द्वार भी जर्जर हो गया है लेकिन देखने में बहुत खूबसूरत है।
हम आगे बढ़ते हैं और थोड़ी ही देर में किले पर पहुंच जाते हैं। किले पर पहुंचकर ऐसा लगता है कि हमने सच में किला फतह कर लिए हैं । इतनी गर्मी में उबड़ खाबड़ रास्ते के साथ ऊंची चढ़ाई की तो शरीर का पूरा पानी पसीने के रूप में बह गया था । थकान भी बहुत हो गई थी। हम सभी ने अपने साथ भोजन और पानी रखा था, लेकिन इतनी गर्मी थी कि साथ में लाया हुआ पानी सभी के पास खत्म हो गया था। किले पर पहुंचने के बाद सबसे पहले हमने पानी की तलाश की।
किले से थोड़ा चलने के बाद एक बावड़ी दिखी। सबसे पहले हमने उस बावड़ी में से पीने का पानी लिया और फिर किले पर लौट आए। किले की दीवारें चूने और पत्थरों से बनी थी। सुंदर स्तंभ जिसमें बनी हुई अद्भुत नक्काशी को इतने करीब से देखा और छुआ। पहली बार किसी किले को इतने नजदीक से देखा । हम सभी का ध्यान किले की गुंबज की ओर गया और हम सभी देखकर हैरान रह गए । किले के गुंबज की रंग बिरंगी नक्काशी जिसका रंग आज भी वैसा का वैसा ही है ।नक्काशी बहुत सुंदर थी और प्राचीन थी किले में नीचे उतरे तो वहां पर इतनी ठंडाई महसूस हो रही थी कि ऐसा लग रहा था कि यहीं पर बैठ आराम किया जाए पर हमारे पास समय बहुत कम था क्योंकि शाम तक घर भी लौटना था । जितना समय हमारे पास था उसमें ही हमें किले को देखना और आसपास के तलाब और बावड़ियों को खोजना था। हमने लोगों से सुन रखा था कि यहां पर 7 तालाब है एवं अनगिनत बावड़ियां है। किला बहुत भव्य था रोशनदान से शीतल हवा ने रास्ते की सारी थकान मिटा दी थी । किले में जैसे ही हम नीचे पहुंचे तो चमगादड़ इधर उधर उड़ने लगी ,उड़ते हुए वह हमसे टकरा रही थी। उनको लेकर सभी के मन में थोड़ा भय था। किले के नीचे हमें गुफा जो सदियों पुरानी दिखाई, लेकिन उसके अंदर इतना अंधेरा था कि अंदर जाने में डर लग रहा था । किदवंती यह भी है कि गुफा का निकास भोपाल के बड़े तालाब कि बीच में निकलता है पर इसमें कितना सच है या झूठ है इस पर तो गुफा के अंदर प्रवेश करके ही पता चल सकता है। पहले राजा महाराजा अपने किले में गुप्त मार्ग रखते थे जिसे सुरंग भी कहते हैं इसका प्रयोग किसी भी आपातकाल में करते थे। जब हम किले में थे तब किला चार मंजिल था समय के साथ साथ किले की दीवारें जर्जर हालत में दिख रही थी कुछ दीवारे तो पूरी तरह टूट चुकी थी।
उसके बाद हम किले की चोटी पर गए वहां पर कुछ पेड़ जो बस में से अक्सर दिखाई दिया करते थे । वृक्ष भी काफी प्राचीन हो चुके थे। उसके बाद हम किले बाहर निकले हम सभी ने सुन रखा था कि यहां 7 तालाब है जो सात रानियों के लिए बनवाए थे उनको देखने के लिए हम आगे निकले तो पगडंडी के किनारे पर प्राचीन मूर्ति जो सिंदूरी रंग से रंगी हुई थी। शायद ये मूर्ति गणेश जी ,भोलेनाथ और गणेश जी की थी। फिर हम आगे जाते हैं तो हमें बहुत विशाल तालाब दिखा, जिसमें पानी भरा था हम सभी ने उसी तालाब के पानी से हाथ मुंह धोया और वहीं पर हम सभी ने खाना खाया। उसके बाद हम और तालाब देखने निकले हमने चार तालाब देखें तथा बावड़ी की तो गिनती ही नहीं थी । उसके बाद हम सभी और आगे जाते हैं । आगे जाने पर हमें बहुत बड़ा मैदान दिखता है जो ऐसा लग रहा था कि जैसे गोल्फ का मैदान हो। किले की प्राचीर बहुत दूर तक फैली हुई थी हम लोग चलते चलते बहुत दूर निकल गए, रास्ते में घास बहुत बड़ी-बड़ी थी। पगडंडी का रास्ता उन्हीं घास के बीच में से था। आनंद ही आनंद में समय का ध्यान नहीं रहा शाम का समय हो गया था हम सभी ने वापस जाने का निर्णय किया। हम सभी उसी रास्ते से वापस आ रहे थे पता ही नहीं चला कि हम कब रास्ता भटक गए। भटकते भटकते हम गलत रास्ते पर बहुत दूर आ गए थे । हमें सही रास्ता मिल नहीं रहा था। अंधेरा सिर पर खड़ा था , इसलिए सभी के मन में भय था। यहां पर जंगली जानवर शेर ,तेंदुए, भालू ,जहरीले सांप इत्यादि अधिकतर रात में दिखाई देते हैं । यह स्थान भालू के लिए तो बहुत प्रिय है और यहां पर भालू रात तो छोड़ो दिन में भी दिखाई देते है। शायद हमारी किस्मत अभी तक अच्छी थी कि हमें कोई भी जंगली जानवर नहीं दिखाई दिया । सूर्य अस्त होने वाला ही था कि हमें सही रास्ता मिल गया और हम किले पर आ गए। किले पर जब पहुंचे तो लगभग अंधेरा हो गया था। अभी हमे मेंन रोड तक का रास्ता पैदल ही जाना था। हम सभी लोग भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि हे भगवान हमें सही सलामत घर पहुंचा दे ।
हमारे पास रोशनी के लिए कुछ भी नही था। केवल चाँदनी रात का ही सहारा था। हम धीरे धीरे जा रहे थे, थोड़ी ही दूर पहुंचे थे तो देखा की एक बहुत मोटा एवं बड़ा काला साँप रोड पार करके जा रहा है । सांप को देखते ही हम सभी जहाँ थे बही ठहर गए और उसके निकलने का इंतजार करने लगते हैं। थोड़ी देर बाद में सांप वहां से निकल जाता है और फिर हम आगे घर की ओर प्रस्थान करते हैं। आधे घंटे बाद हम सभी रोड पर पहुंच जाते हैं । और हम सही सलामत रेहटी पहुँच जाते है।
इस प्रकार हमारी गिन्नौरगढ़ किले की यादगार यात्रा पूर्ण हुई।