आस्था का धाम काशी बाबा 3
(श्री सिद्धगुरू-काशी बाबा महाराज स्थान)
( बेहट-ग्वालियर म.प्र)
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त
समर्पण-
परम पूज्यः- श्री श्री 1008
श्री सिद्ध-सिद्द्येशवर महाराज जी
के
श्री चरण-कमलों में।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
दो शब्द
जीवन की सार्थकता के लिये,संत-भगवन्त के श्री चरणोंका आश्रय,परम आवष्यक मान
कर, श्री सिद्ध-सिद्द्येश्वर महाराज की तपो भूमि के आँगन मे यशोगान,जीवन तरण-तारण हेतु
अति आवश्यक मानकर पावन चरित नायक का आश्रय लिया गया है,जो मावन जीवन को
धन्य बनाता है। मानव जीवन की सार्थकता के लिए आप सभी की सहभागिता का मै सुभाकांक्षी
हूं।
आइए,हम सभी मिलकर इस पावन चरित गंगा में,भक्ति शक्ति के साक्षात स्वरूप
श्री-श्री 1008 श्री काषी बाबा महाराज बेहट(ग्वालियर) में
गोता लगाकर,अपने आप को
धन्य बनाये-इति सुभम्।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
श्री काशी बाबा चालीसा
दोहा-श्री काशी बाबहि नमन,सकल बुद्धि दातार।
अर्चन-वंदन करहिं तब,जय-जय-जय सरकार।।
चौ. जय काशी बाबा महाराजा।
सुफल कीजिए सबके काजा।।
मंगल मूर्ति सकल सुखदाई।
आनंद-कंद अनन्त दुहाई।।
धवल धाम झिनमिल के तीरा।
पावन अमित-अमिय फल नीरा।।
ब्राँज रहे अवनीश कृपाला।
गूँजना गाँव सुखद सब काला।।
आरति गाँय सुखद नर-नारि।
सुबह-शाम जय-जय धुनि प्यारी।।
शिव अवतार तुम्हीं हो देवा।
अपना लेते हो विन सेवा।।
दरश लाभ जाकहुँ जब होई।
सकल पाप-मल आपहिं धोई।।
सब जीवन के रक्षक स्वामी।
आनंद कंद अनन्त नमामि।।
जनहित कारण रुप तुम्हारा।
सकल सुमंगल जग आधारा।।
सुनहूँ विनय आरत जन केरी।
दीन पुकारत करो न देरी।।
अमित शक्ति दाता तब नामा।
पावहि जन मनमहि विश्रामा।।
धाम धरा गौ-लोक बनाई।
कीरति गाय लहहि सुख भाई।।
कष्ट हरण जन मन के स्वामी।
छाया-काया रुप नमामि।।
लीला अमित न कोई जाना।
मन कंदर्प नहीं स्थाना।।
करुणा पुँज दीन हितकारी।
मन इच्छा के हो अधिकारी।।
दरश लालशा मन अति होई।
अब तक नाथ याद क्यों खोई।।
मन बगिया में आन बिराजों।
आनंद कंद अमित छवि छाजो।।
तुम अनन्य हो और न कोई।
देव भगति अनपायनि मोई।।
खोलहु नाथ भक्ति के द्वारे।
भव-भय भूत भगे मन सारे।।
आरत हरण शरण सुखदायी।
किरपा मूरति मृदुल सुहाई।।
पद रज पाय परम सुख पावै।
केहि विधि नाथ सुयश तब गावै।।
दशहु दिशा परताप तुम्हारा।
है परिसिद्ध जगत उजियारा।।
कोमल चित कृपालु सुखदाता।
अणमादिक रिद्धि-सिद्धि विधाता।।
अगणित योग साधना स्वामी।
मनमहि रमो हमेश नमामी।।
भव के जीव अनेकन तारे।
तप निहार कलि कालहु हारे।।
अंधन दृष्टि दई सुखकारी।
रोग विमुक्त किए नरनारी।।
भय के भूत भगे सुन नामा।
दर्श तुम्हार लहहि विश्रामा।।
भूलेहु कतहु सुमिर जो कोई।
ताकी आधि-व्याधि सब खोई।।
जीव चराचर के तुम स्वामी।
मेंटहु भव दुख सकल नमामि।।
अधम जीव हम अघ के भाड़े।
पाहि-पाहि तब द्वारे ठाड़े।।
और न कतहुँ कोउ रखवारा।
चरण-शरण आए दरवारा।।
धरनि भई बैकुण्ठ समाना।
आए देव रुप धरि नाना।।
भुवन चारिदश सुयश तुम्हारा।
है परिसिद्ध जगत उजियारा।।
आठौ याम भजन धुनि होई।
यम यातना तहाँ नहि कोई।।
सकल जीव सुख लहहि अपारा।
सुमन वृष्टि नभ जय-जय कारा।।
प्रभु तुम हो अग जग रखवारे।
मोक्ष पाएँ तब चरण पखारे।।
केहि विधि करहि अर्चना स्वामी।।
नेम-नूँक नहि सिर्फ नमामी।।
क्षमहु नाथ अपराध हमारे।
आए अशरण-शरण तुम्हारे।।
ज्ञान ध्यान कछु जानत नाही।
त्राहि-त्राहि प्रभु पायन आही।।
बोल रहे केवल जयकारे।
तुमरे सिवा न कोउ हमारे।।
दोहाः तुम महेश परमेश हो,ब्रम्ह सनातन रुप।
सरण आपकी आ पड़े,तुम्हीं सकल जग भूप।।
हैं अज्ञानी जीव हम,करते नमन हजार।
मैटों भव वाधा सभी,गुरु रुप सरकार।।
अष्टक
हो भव पार करइया तुम्ही,भवपार करो,भव नाँव हमारी।।
एक समय भुयीं ताप-तपी,
तब पात चिहीन भए तरु झारी।
सूख गए झरते झरना,
नीर विना,सब जीव दुखारी।
कीन्ही कृपा गुरुदेव तभी,
घन मेंघन से बरसा भयी भारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करों भव नाँव हमारी।।1।।
मातु पिता के दुलारे बने,
कैलाश तजौ मन्मथ अहारी।
गोद को मोद अनंत दियो,
बनके श्री सिद्ध अनन्य पुजारी।
जग से बहरे,हो गए गहरे,
गाँऐं सभी सतकीर्ति तुम्हारी।
हो भव पार करइया तुम्ही,
भव पार करो भव नाँव हमारी।।2।।
सिद्ध पदों के आराध्य बने,
त्याग दिये भव षष्ट् विकारी।
स्वाँस पै नाम गुरु का रहा,
करुणानिधि से कर आरत भारी।
प्रभु जी भर दो भुयीं वैभव से,
कर जोरित हैं सब,आस तिहाँरी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाव हमारी।।3।।
सदमार्ग चले,सन्यास लिया,
बैरागी बने,बने नाँद विहारी।
उपदेश लिए गुरुते बहुते,
हरि नाम रटा,रसना सुख सारी।
सत् लोक मिलै,सत् साधन से,
सत्य-सनातन-वेद पुकारी।
हो भव पार करइया तुम्ही ,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।4।।
पग एक पै होय तपस्या करी,
अन्न तजा,फल-मूल अहारी।
पंचाग्नि तपीं,जलशेज लयीं,
बयारि भखी,बन ऊर्द्ध मुखारि।
वर्ष अनेकन,योग किए,
भूँख सही,तज पात सुखारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाव हमारी।।5।।
ध्यान समाधि अखण्ड लयीं,
तब सिद्ध गुरु की खुली मन तारी।
आए गुरु करने किरपा,
निज शक्ति दयी,दे आषीश हजारी।
जन जीवन के सब कष्ट हरो,
जग के कल्याण को भक्ति तुम्हारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।6।।
शत वर्ष से ज्याँदा यौं आयु भयी,
मन आयी उछंग,समाधी की त्यारी।
नाँद की माँद समाधी लयी,नद
झिलमिल तीर सुपावन बारी।
मन,मान,मना,काशी धाम बना,
बैकुण्ठ ही जानि,सुशीतल झारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।7।।
पूजन की विधि जानैं नहीं प्रभू,
आरत हो,करैं आरति त्यारी।
झालर,शंख,मृदंग बजै,
अगरान की गंध,अनंग बुहारी
ध्यान में आठौहि याम रहो,
त्याग दयीं,भव भवना सारी।।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।8।।
दोहाः शरण आपकी आ गए,रखदो सब की लाज।
और सहारा है नहीं,खे दो सकल जहाज।।
और कहाँ जाँऐं प्रभू,तुम सा और न कोय।
चरण शरण मनमस्त है,देऊ सहारा मोय।।
आरती-
जय काशी बाबा-----।
जय काशी बाबा! बाबा-जय काशी बाबा।
जो जन तुमको ध्यावे,सुख-शान्ति पावा।।
-बाबा जय काशी बाबा।।
सगुण रुप धरि,जन जीवन के,अगणित कष्ट हरे।
पावन-भू, विन्ध्याटवी में,रतनाभरण भरे।।बाबा----
विश्वनाथ प्राकट्य देखकर,वसुधा भयी नई।
रामप्रसाद-गंगादेवी की,गोदी धन्य भई।। बाबा----
जनहित कारण तपोनिष्ट हो,लीन समाधि भए।
निर्गुण,निराकार,निःरंजन,व्यापक विश्व भए।। बाबा----
नाँद-माँद में ब्रह्मनाँद पा,जन-जन हित कीना।
अलख,अगोचर,अविनाशी बन,सबको सुख दीना।। बाबा-----
एक रंग की ओढ़ि चूनरी,पचरंगी त्यागी।
प्रभू की ध्यान-अर्चना करते,हम सब बडभागी।। बाबा-----
स्वाँस-स्वाँस हो तेरा सुमिरन,स्वाँस न हो खाली।
जयति-जयति,जय चहुँ दिसि होवै,विखर रही लाली।। बाबा-----
करो मनोरथ सबके पूरे,अर्जी यह बाबा।
तन,मन,धन अर्पित है सबकुछ,ओ! काशी बाबा।। बाबा-----
दोहाः कण-कण में रमते मिले,सब सुमनों की गंध।
अगर-बगर सब ही जगह,बिखरी आप सुगंध।।
सदाँ-हृदय ब्राजे रहो,विनती बारम्बार।
तुम करुणा के रुप हो,सुनि! मनमस्त पुकार।।
वंदना
जय-जय गुरुदेवम्
जय-जय गुरुदेवं,सब जग सेवं,
अमर जमीरं,तपधारी।
निर्गुण निर्मूलं,बन स्थूलं,
अलख फकीरं,अविकारी।।1।।
हंसन अवतारी,गर्व प्रहारी,
अघम् अघारी,निर्विकारी।
योगी अदृष्टा,त्रिकाल दृष्टा,
हो बडनामी,भयहारी।।2।।
जीवन सुख राशि,काशी बासी,
सब जग के आनंद कारी।
आतम गुण आगर,सब गुण सागर,
सदाँ एक रस,सुविचारी।।3।।
अन्तर्यामी,सब जग नामी,
कैवल्यं पद,करुणा कारी।
ब्रह्माण्ड निकाया,सब जग छाया,
रुप अनूपम्,करतारी।।4।।
किरपा गुरु करदो,सबको वर दो,
जीवन सब मंगलकारी।
मानव तन पाऐ,मनमस्त सुहाऐ,
दर्शन देदो,अवतारी।।5।।
श्री काशी बाबा-गुरु माला
ध्यान
दोहा- परम हंस,काशीभगत,झिलमिल-गंगा तीर।
गुरु मणि माला फेर लो,मिटै सकल भव-पीर।।
परम हंस,विरती अलग-परमहंस पद आन।
परम हंस के गहहु पद,पावौ पद निर्वाण।।
श्री काशी बाबा चरित,जो जन मन-चितलाय।
सकल कामना पूर्ण हो,भव-बाधा मिट जाय।।
हृदय विराजो आनिकर,परमहंस महाराज।
चिंतन में गुणगान तब,ज्ञान दीजियो आज।।
दीन बंधु,करुणा यतन,लीला कीन अनेक।
सो चिंतन करना चहूँ,गुरु चरणों षिर टेक।।
पद विभूति शिर धार कर,ध्यान मध्य तब रुप।
वह अनुभूति- चाहता, देखहुँ -आप सरुप।।
कृपा आपकी के विना,नहिं संभव कछु होय।
बरद हस्थ हो शीश मम्,सब कुछ दर्शे मोय।।
सकल अंग, अंगन सहित,स्वाँस,तंत्र संचार।
रक्षा गुरुवर कीजिए,हैं अधीन सरकार।।
बार-बार पद वंदकर,विनय करहुँ कर जोरि।
सेवक पर कीजे कृपा,चरित पुजै चहुँ ओर।।
गुरु करते किरपा अवश्य,सुनि सेवक की बान।
हृदय बैठ कहते सदाँ,सुन मनमस्त अजान।।
कई जनम की साधना,जप-तप का आधार।
मानव तन तब ही मिले,देखो आँख उघार।।
सब कुछ ही,प्रारव्ध से,खेल-खेलता जीव।
महल सप्त खण्डा तभी,जब हो पक्की नींव।।
जीवन को पावन बना,श्री गुरु ज्ञानाधार।
भटको नहिं भव बीथियाँ,करलो जरा विचार।।
जप-तप व्यर्थ न होत हैं,शरण-चरण गुरु देख।
फिर भटकावा काए का,गुरु चरणों के लेख।।
कुश-कंटक झेले कितै,इन पावन ते पूँछ।
युग बीते भटकत जगत,तब बन पायी पूँछ।।
लख चैरासी भोग कर,मानव मिला शरीर।
इसे गॅंवाते व्यर्थ क्यों,क्या नहिं तुझको पीर।।
शब्द-ब्रहा संचार का दोहा छंद विधान।
ध्यान धारणा की क्रिया,का करले अनुष्ठान।।
मात-पिता हैं प्रथम गुरु,भूल नहीं अज्ञान।
जिनके पुण्य प्रताप से,यह तन मिला सुजान।।
फेर गुरु का ध्यान कर,जिससे जग मिट जाए।
गुरु प्रकाश के पुंज हैं,अज्ञ-अंघ छट जाय।।
सतमारग के पारखी,संत हंस पहिचान।
बुद्धि-विवके से जो सदाँ,नीर-क्षीर दे छान।।
ऐसे सतगुरु की शरण,जो जन भूलेहु जाय।
अगमन-निगमन सब मिटैं,फेर न ऐहि जग आय।।
धन्य-धन्य अवनी वही,जहाँ प्रगटैं सत संत।
दुःखों का अवषान हो,बरसे सुख अनंत।।
अति पुनीत बह कौंख है,जहाँ संतका बास।
गोदी पावन होत है,दम्पति पांय प्रकाश।।
गंगा देवी मातु भयीं,पिता रामप्रसाद।
उदर बीच नित ही बजी,अनहद की मृदुनाँद।।
आँगन की अॅंगनाई में,सुख के खिल गए फूल।
अंगराग-सी सोहती,पद-पदमों की धूल।।
ऐसे संत अनंत भए,काशी बाबा नेक।
निज करनी कर्तव्य की,गाढ़ी धरनी मेख।।
श्री बाबा का ध्यान हो,नित्य नियम के साथ।
संध्या वंदन हो उभय,लक्ष्य आय सब हाथ।।
मृदुभाषी,मनहर छवि,नीति रीति पहिचान।
मात-पिता सेवा करी,गुरु चरणों का ध्यान।।
तपोभूमि गालब भुयीं,जिला ग्वालियर जान।
सिद्धेश्वर गुरु बेहट में,मध्य प्रांत पहिचान।।
दक्ष प्रजापति वंश में,जन्मे संत विशेष।
काशी बाबा नाम से,जानें सारा देश।।
चैत्र कृष्ण पंचम तिथि,मंगल मंगल बार।
सन पन्द्रह सौ पाँच में,प्रकटे क्षेत्र मुरार।।
वासंती मनुहार ले,भई धरा गुल्जार।
जंगल में मंगल भए,मनहु प्रकृति उपहार।।
मात-पिता की गोद में,पाया बचपन प्यार।
हर प्रेरित हो नियति संग,नाच रहा संसार।।
भए व्यस्क तब पिता ने,सुरपुर कीना बास।
माता ने जीवन जिया,कर हर पर विष्वास।।
सीधे सरल स्वभाव से,सबका पाते प्यार।
दोनौं कर को जोड़कर,सबको करैं जुहार।।
संत भाव की झलक थी,पढ़े न ऐकऊ आँक।
हृद अन्दर में बजत थी,अनहद की मृदु ढ़ाँक।।
वे अनन्त नामी प्रभू,है अनंत विस्तार।
दर्षन पाएँगे अवश्य,हैं अनंत आधार।।
सिद्धेष्वर की तलहटी,झिलमिल पावन गंग।
प्रारव्धी कर्तव्य संग,मिला संत सत्संग।।
तानसेन की तान का,खूब लिया आनन्द।
सिद्ध गुरु की गोद में,सदाँ बजायी चंग।।
होनहार होती सदाँ,बन गए साधू वेश।
माँ से आर्शीवाद ले,घूमे सारा देश।।
गुरु आज्ञा शिर धारकर,तप से तपा शरीर।
हठयोगों की साधना,कर बन पाए पीर।।
हिम पर्वत झाडी अगम,खाई,नदी,कछार।
वियावान जंगल विषम,मिला प्रकृति उपहार।।
मिले अनेकों पंथ के,संत-हंस मति धीर।
बुद्धि-विवेकी,सूरमा,हठयोगी गम्भीर।।
ऐसे सत-संता मिले,चाटी पद तल धूल।
जीवन के भटकाव जहाँ,कभी न जाते भूल।।
ज्ञान ध्यान आराधना,के पाए बहु मंत्र।
योग क्रियाओं के अगम,मिले अनूठे तंत्र।।
जीवन की परवाह नहिं,नहिं मृत्यु का नाम।
योग साधना से सजा,जहाँ अनूठा धाम।।
कलि कल्मश मैटन प्रभू,प्रकट भए है आप।
जन जीवन उद्धार के,आप बने हैं छाप।।
उत्तर से पूर्व गए,दक्षिण-पश्चिम देख।
भाग्य विधाता जहाँ लिखे,अदभुत-अनुपम लेख।।
अगम ज्ञान भण्डार है,भारत का भू-भाग।
जड़-जंगम जहाँ गा रहे,सप्त स्वरों में राग।।
हर मौसम आता यहाँ,लिए अनूठे रंग।
धरती को पावन करैं,नद नदि यमुना-गंग।।
गुरु की आज्ञा मानकर,घूमे चारौ धाम।
संतो के सत संग से,रमे बह्म के नाम।।
वेद भेद पाऐ नहीं,शास्त्रन पंथ अनेक।
अगम पुराणों की कथा,समुझत,पाए विवेक।।
आध्यात्मिक के पंथ में,मिला बहुत आनंद।
अकथ कहानी है यही,जहाँ न कोई फंद।।
योगी गोरखनाथ जी,अरु मत्सयेन्द्र से जान।
सबकी किरपा दृष्टि से,पाया पद निर्वाण।।
साधक अन्तर्मुखी हो,करै बहिर्मुख त्याग।
इस क्रिया से सहज ही,कुण्डलिनी हो जाग।।
क्रिया भेद से बहुत हैं,कुण्डलिनी के नाम।
कुण्डलि,कुटिलांगी,शक्ति,गौरी,राधा,श्याम।।
गुरु दीक्षा की विधि है,दृष्टिपात,स्पर्श।
वाणी के आधार संग,संकल्पी उत्कर्ष।।
पाँच वृत्तियाँ योग की,जान-प्रमाण,विपर्य।
निद्रा,विकल्प,योग में,है पंचम स्मृत्य।।
योग साधना में लगा,अपना चित्त अनंत।
करै निरोधन वृत्ति का,वहीं योग का संत।।
काशी बाबा तप तपा,हठयोगों का पंथ।
आसन मुद्राऐं सभी,करते रहे अनंत।।
स्वास्तिकाशन है सरल,सुख आसन में बैठ।
सिद्धासन कुछ कठिन है,कंठ-कूप-हनु ऐंठ।।
पद्मासन हैं विविध विधि,करो सरल सी जान।
कृपा-दृष्टि गुरु की रहे,कभी न होगी हानी।।
भद्रासन,सिंहासन,बज्रासन,वीरास।
गोमुख,धनु,शव,गुप्तभी,मत्स्य,मयूरी खास।।
मुद्राऐं कीनी कई,महामुद्रा के साथ।
नभों उडडीयन,जलंधर,मूल बंध को साध।।
जिसने जहाँ सुमिरा तुम्हें,रक्षा करी हमेश।
आप अनंती वेश धर,मैंटे जन-जन क्लेश।।
महावेध,महावंध भी,खेचर योनी जान।
शक्ति चालनी,तड़ागी,बज्रोली पहिचान।।
शाम्भवी,अरु माण्डुकी,पार्थवी,आग्नेयी।
वायवीय अरु आम्मकी,पाशना आकाशीय।।
आष्वनी,काकी सहित,कीनी गुरु के पास।
जहाँ मिटते आवागमन,है पूरा विश्वास।।
प्राणायाम की साध में,कुम्भक किए अनेक।
सूर्य-भेद,उज्जाययी,शीत्कारी,शीत्लेक।।
मूर्छा कुम्मक,भ्रामरी,भरित्रका को भी जान।
और प्लावनी के करत,तैरत नाव समान।।
अष्ट सिद्धियाँ भी लहीं,अणिम,महिम,प्राप्तित्व।
लघिमा,गरिमा,प्राकाम्य संग,वसित और ईशत्व।।
अन्य अनेकों भाँति के,योगो खेले खेल।
आपन शंकल्प शक्ति से,करके सबसे मेल।।
गुरु शरण रमते रहे,गुरु आज्ञा शिर धार।
दुखियों के संकट हरे,श्री गुरु चरणाधार।।
संतो के सत्संग में,खिचीं खंजरी तान।
भंग और गाँजा-चिलम,संग पाऐ सब ज्ञान।।
गाते रहे अभंग नित,पद,कविरा के गान।
तुलसी वचनामृत सुखद,रैदासी अभियान।।
बजत मृदंगी संग में,सारंगी की टेर।
क्षण-क्षण पर मिटते दिखे,पापों के सब ढेर।।
दूर रहा संसार का,मायाजाली जाल।
अगर भूल,आया कभी,खींची उसकी खाल।।
इसी तरह शत वर्ष तक,काटे भव के जाल।
जीवन मुक्तक हो रहे,बने काल के काल।।
जीवन मुक्ति चाह तो,कर कुण्डलिनी योग।
नाँद विन्दु आधार पर,मिटते जीवन रोग।।
सब तीर्थ का तीर्थ यह,प्राणायाम विशेष।
जीवन-मुक्त लाभ सब,इससे पाओ हमेशा।।
योग क्रिया की साधना,है खाँड़े की धार।
गुरु शरण में करैं से,मिटते सकल विकार।।
गुरु कृपा पा, संत ने,बज्रोली ली ठान।
ऊद्र्ववरेता होकर किया,इसका ही अनुष्ठान।।
दूध,तेल,घृत खींचते,लिंग इंद्रिय द्वार।
पारा से अंतिम क्रिया,फिर त्यागे ओहि द्वार।।
इन्द्रिय में यदि रुक गयों,पाराकण कुछ एक।
कुष्ठ रोग के साथ में,उपजैं व्याधि अनेक।।
जड़ी-बूटियाँ बहुत लीं,रासायन के तत्व।
कई भस्म भी खा गए,स्वर्ण कणों के सत्व।।
बज्रोली की साध में,या औसधि-रस-राज।
चर्म रोग जिससे भया,या तप-तापन-साज।।
औषधि लीं,रस भी पिऐ,नहीं रोग का अंत।
गुरु कृपा को मान सब,नहिं त्यागा निज पंथ।।
अडिग साधना-साध में,रहे अंगद-पद रोप।
हॅंसते जीवन पथ जिया,कभी न कीना शोक।।
तप-तापन,तप गयी मही,प्रकृति लिखे सब लेख।
मृग-शावक संग सिंह के,भरत कुलाचैं नेक।।
बैर भाव सबनैं तजे,प्रेम पगे सब जीव।
तरु बैलें मिल इक भयीं,तप की गहरी नींव।।
हो प्रसन्न तब सिद्धगुरु,काशी के ढ़िग आन।
गोदी लेकर के कहत,तपसी हुआ महान।।
तेरे तप से यह धरा,आज बनी गो-धाम।
धन्य-धन्य काशी तुझे,तेरा सुयश ललाम।।
परम सिद्ध तुम हो गए ,जगहित कीजो काज।
आशिष-अर्पित तुम्ही को,सकल सिद्धि-सुख-साज।।
पूजन तेरा होयेगा,जैसे सूरज-चाँद।
गूँजेगी संसार में,ब्रह्मनाँद की नाँद।।
समाधिस्थ होना तुझे,झिलमिल पावन तीर।
जन-जन के संकट हरो,करो सबै वे-पीर।।
ब्रह्मनाँद को साध कर,बैठ नाँद के बीच।
गढी गूँजना के निकट,तप की धुरी-दधीच।।
वर्ष पाँच सौ बीत गए,ध्वजा रही फहराय।
पूरी करत मुराद सब,रंक होय या राय।।
जीवाजी महाराज ने,पा-यहाँ से उत्कर्ष।
मेला लगवाया यहाँ,बीते दो-सौ बर्ष।।
रंग पंचमी रंग रस,पीते अमिय समान।
सकल कामना पूर्ण का,है बाबा स्थान।।
भरतीं सबकी झोलियाँ,और ओलियन लाल।
बरस रहा है चहूँ दिसि,बाबा चरित कमाल।।
मंदिर बना विशाल है,परिकोटा चहुँ ओर।
कई धर्मशाला बनी,सुख के नाचत मोर।।
सकल आधि-व्याधि मिटैं,झालर शंखी घोर।
बाबा की जय-जय ध्वनि,मैंटत संकट घोर।।
अगर,धूप की धूम में,मिलत सबै आनंद।
बाबा का परसादि पा,हटते जीवन द्वन्द।।
जयकारौं की घोर सुन,नाचत मन के मोर।
यह सच्चा दरबार है,गहो इसी की कोर।।
बाबा की किरपा समुझ,पुण्य कथा का मूल।
श्री हर के अवतार थे,कभी न जाना भूल।।
जीवन के हर मोड़ पर,बन सूरज-राकेश।
बता रहे सद मार्ग को,संतो के संदेश।।
जीवन बीता जा रहा,चार अवस्था बीच।
जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति,अंत तुरीया सींच।।
मात-पिता गुरु आशिशों,पूर्ण साधना कीन।
सबकी अभिलाषा पुजीं,संत कृपा आधीन।।
संत दरस मिट जात हैं,मन के सभी विकार।
आतम- सुद्धि होत है,कर संतन- दीदार।।
जीवन मारग सुगम कर,जप-तप-सहित विवेक।
चौरासी नहिं,चाख नित -श्री गुरु चरणों रेख।।
मानस जप,नित ध्यान धरि,श्री गुरु चरण प्रसार।
होगा जीवन-मुक्त सच,आ बाबा दरबार।।
शब्द-ब्रह्म में लीन हो,योग क्रिया को साधि।
परम मोक्ष को पाऐगा,जहाँ न कोई व्याधि।।
कोई संशय है नहीं,गुरु शरण जो जाय।
कुल की सारी पीढ़ियाँ आत्म मोक्ष पा जाय।।
बोलो जय!गुरुदेव की,काशी संत अनन्त।
धर्म धरा मनमस्त हो,जयति जयति भगवंत।।
पावन तीर्थ बेहट है,झिलमिल पावन गंग।
संत समागम,हरिकथा,ब्राजे जहाँ अनंत।।
भोग प्रसादी,नित्य है,चरणामृत के संग।
कथा वार्ता की क्रिया,बरसहि अमृत रंग।।
धूनी रमते संत नित,नित अभंग के राग।
ज्ञानामृत बरसहिं तहाँ,जो सुनते बडभाग।।
पा भवूति पाते विभव,भव बंधन से दूर।
यह बाबा दरवार है,कर दर्शन भरपूर।।
जीवन को कर सार्थक,कर बाबा का जाप।
ध्यान-साधना करैं से,मिल जाते हैं आप।।
संकल्पी जीवन बना,दृढ़ संकल्पों साथ।
जीवन मुक्ति पाऐगा,धरि गुरु चरणों माथ।।
बोलो! श्री काशी बाबा महाराज की-जय!!