आस्था का धाम काशी बाबा2
(श्री सिद्धगुरू-काशी बाबा महाराज स्थान)
( बेहट-ग्वालियर म.प्र)
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त
समर्पण-
परम पूज्यः- श्री श्री 1008
श्री सिद्ध-सिद्द्येशवर महाराज जी
के
श्री चरण-कमलों में।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
दो शब्द
जीवन की सार्थकता के लिये,संत-भगवन्त के श्री चरणोंका आश्रय,परम आवष्यक मान
कर, श्री सिद्ध-सिद्द्येश्वर महाराज की तपो भूमि के आँगन मे यशोगान,जीवन तरण-तारण हेतु
अति आवश्यक मानकर पावन चरित नायक का आश्रय लिया गया है,जो मावन जीवन को
धन्य बनाता है। मानव जीवन की सार्थकता के लिए आप सभी की सहभागिता का मै सुभाकांक्षी
हूं।
आइए,हम सभी मिलकर इस पावन चरित गंगा में,भक्ति शक्ति के साक्षात स्वरूप
श्री-श्री 1008 श्री काषी बाबा महाराज बेहट(ग्वालियर) में
गोता लगाकर,अपने आप को
धन्य बनाये-इति सुभम्।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
चै. ओम शक्ति भव रुप तुम्हारा।
सर्बानन्द-सदाँ-उजियारा।।
दासन के सब कष्ट निवारे।
करुणाकर भव पार उतारे।।
अगम भेद के जानन हारे।
ऋषि-मुनियों के सुखद सहारे।।
गुरुवर भावानन्द निकेतन।
भक्त अभय पद दाता केतन।।
कलियुग दोश निवारक रुपा।
चरण-शरण को नहिं भव कूपा।।
सब सुख मिलहिं तुम्हारी दाया।
चरण-शरण तब जो जिब आया।।
रुप तुम्हार सच्चिदानन्दा।
जग रंजन,गंजन भव फन्दा।।
जगत वंद्य अभीष्ट फल दाता।
तुमरी शरण सभी कुछ पाता।।
दोहा-पाप परायण कलिग्रसे,मंद अंध ब्यभिचार।
भव बाधा उद्धार का,बाबा चरण अधार।।5।। मंगल---------
चौ. यज्ञ धूम भव नाशन हारी।
बरसहि जलद सुखद बर बारी।।
गगन मध्य यश ध्वज फहराहीं।
पपिहा,मोर,कीर यश गाहीं।।
पटु-बटु पढ़हिं कथा रस सारी।
सुनत श्रवण सुख लैं नरनारी।।
धरनि-धाम गो-लोक समाना।
प्रभू चरित के जहाँ गुणगाना।।
देव-देवियाँ आरती गावैं।
पा-प्रसाद अदभुत सुख पावैं।।
चरणामृत पावै जन जोई।
भव-व्यधिन्ह मोक्ष-भा सोई।।
जेा जन पूजन नित-प्रति आहीं।
दरश पाय मनमहिं -हरषाहीं।।
ध्यान- धारणा- दर्शन पावहिं।
सुखद होय निज पंथ चलावहिं।।
दोहा-बडभागी हैं रवि-शषी-उडुगन नित प्रति आँय।
परस करहिं कर किरण से मन हर्षित सुख पाँय।।6।। मंगल------
चौ. भाव साधना करहिं जो प्राणी।
पाय भगति अनुपम सुख दानी।।
बचनामृत का पान जो करहिं।
भव-बरिधि गो-पद इव तरहिं।।
सर्व व्यापक हो सुखराशी।
जीवन मुक्तक काशी-वासी।।
तुम अनंत अच्युत नारायण।
वासुदेव -यज्ञेश- परायण।।
यज्ञ रुप जग पालन हारे ।
गुरुवर कृपा अनेकन तारे।।
पुण्य जनक दुःख नाशक नामा।
बाबा ध्यान विनाशक कामा।।
गुरु तव्वार्थ-वेत्ता जानो।
शान्ति स्वरुपा नित्य बखानो।।
अपराधी-अपराध निवारे।
अंध किए चौरादि उवारे।।
दोहा-श्री गुरु चरण प्रताप से,सकल दाप मिट जाँय।
जो जन आठौ याम ही,काषी बाबहिं ध्याय।।7।। मंगल------
चौ. बहहि बयारि सुखद सब काली।
अगर गंध मंहकहि मन लाली।।
शीश सुमन धरि पादप झूमहि।
मन मनमस्त मधुप तहाँ घूमहिं।।
खग मृग मगन उछाह घनेरी।
झूमहिं प्रेम-रंग-झरबेरी।।
झूमत धरा,धान्य भरि झोरी।
खेलत मनहूँ पे्रम रंग होरी।।
सुख के साज सजी भुयी सारी।
पावन मन भावन अति प्यारी।।
दुःख-दारिद्रय कतहुँ नहिं पावैं।
बैर-क्रौध के भाव न आवैं।।
सिंह-शशक खेलहिं एक साथा।
सर्प-मयूरन- पंखन गाता।।
नीति-गीत गावहिं नर-नारी।
झालर-शंख न्यारि धुन प्यारि।।
दोहा- आश्रम बासी सुखी सब, धरनी मंगल मूल।
कंटक भए सब सुमन बत,मिटे मोह मद शूल।।8।। मंगल-------
चै. मंगल मूल मनोहर- धामा।
जीव लहहिं सुख समृद्धि नामा।।
दसहुँ दिसन सुख का संसारा।
धन बरसत तहाँ धनद निहारा।।
निज भण्डार लगा लघु ताही।
जय-जय-जय काशी सब गाही।।
चर और अचर सुखी भए भारी।
काशी महिमा सबन निहारी।।
बरद हस्थ लख काशी नाथा।
अस्तुति करहिं पाद धरि माथा।।
दरश हेतु आवहिं नर नारी।
भई भीर महिमा सुन भारी।।
साधु,सिद्ध,मुनि,पीर अपारा।
भा-बैकुण्ठ बेहट-दरबारा।।
मानव रुप देव धरि आवहिं।
आरति गायॅं परम सुख पावहिं।।
ललित ललाम गुरु का धामा।
गीत मनोहर गाबहिं बामा।।
दोहा- बैर- भाव कतहूँ नहिं,सुयश रहा चहुँ ओर।
लगै नया गौ-धाग यह सुख का ओर न छोर।।9।। मंगल-------
चै. जंगल-मंगल मोद अपारा।
भव्य धाम गुरु सबन निहारा।।
विन्ध्याटवी भयी सुख खानी।
ऋद्धि-सिद्धि तहाँ आप भुलानी।।
सिद्ध भवन भए पुलक पहारा।
लघु लागा हिमराज विचारा।।
खाँयी गहवर गुफा सिंहाहीं।
नद कछार तट मोद मनाहीं।।
वाट-वाटिका बाग सुहाने।
कूप बाबरी पार न पाने।।
वन उपवन नंदन सम तूला।
सुर-नारी झूलहिं मन झूला।।
पावन होय परस पग घूरी।
पाथर भए पारसमणि भूरी।।
तरु भए कल्प वृक्ष सुख राशी।
पाँय अमित सुख मारग बासी।।
करुणा रुप सकल सुख राशी।
जीव हृदय सुचि ज्ञान प्रकाशी।।
दोहा-नहीं आऐं यमदूत तहाँ,महिमा लखत अपार।
पहुँचे सब यमराज पहिं,चरित सुनाया सार।।10।। मंगल--------
चौ. काशी महिमा सुन यम काना।
मन चिंतित यमराज सुजाना।।
ध्यान धारि यम दृष्टि पसारी।
कृपा दृष्टि सिद्धेश्वर सारी।।
काशी-शिव रुपक जब जाना।
विनय करी यमराज सुजाना।।
विनय सुनत शिव कृपा निहारा।
नियति नीति भा सब संसार।।
सिद्ध,साधु,प्रभु लीला न्यारी।
कब जानहिं मानव संसारी।।
बाबा चरण-शरण जो जाँही।
भव वंधनहि छूट सो पाँही।।
करुणा पुँज आपका रुपा।
वेद अगम,सुचि सुगम सरुपा।।
बाबा तपोनिष्ट जग प्यारे।
गिरागम्य कवि कौन उचारे।।
जीवन का फल श्री गुरु शरणा।
नहिं संसार अग्मि में जरना।।
दोहाः- बाबा करूणा रूप है,है करूणा अवतार।
श्री चरणों मनमस्त जो,निश्चय बेड़ा पार।।11।। मंगल----
चौ. केहि विधि गान करहिं तब स्वामी।
जय-जय-जय हो,सहस्त्र नमामी।।
चार पदारथ करतल पावै।
जो गुरु चरणों ध्यान लगावैं।।
गुरु कृपा जेहि पर जब होई।
सकल सुगम पथ पावै सोई।।
बाबा शतक पढे जो कोई।
अणमादिक सिद्धि पावै सोई।।
जन जीवन का एक सहारा।
काशी सुमिर होंय भव पारा।।
काशी बाबा सिद्ध हमारे।
जिन भव अगणित जीव उबारे।।
सुमिरत नाम अभय भय हारी।
पूरण होंय कामना सारी।।
आठहु याम ध्यान जो धरहीं।
ते भव कूप कवहूँ नहिं परही।।
जीव लहहिं विश्राम अपारा।
बाबा कृपा होहि भव पारा।।
जो जन पढै-शतक मन नेहा।
सुखद होय ताकहुँ भव गेहा।।
दोहा-गुरु से बड़ा न कोई भी,गुरु सा रुप न कोय।
गुरु प्रसाद मनमस्त मन,पूर्ण भरोसे होय।।12।। मंगल-------