मैं तो ओढ चुनरिया - 21 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मैं तो ओढ चुनरिया - 21

मैं तो ओढ चुनरिया
अध्याय इक्कीस

बीस दिन की अनथक मेहनत के बाद नींव बन कर तैयार हो गयी । उस दिन हमने घर आकर पैसों की थैली निकाली और पैसे गिने । अभी भी उसमें पिचानवें रुपये पङे थे । माँ ने दो बार सिक्के गिने फिर मुझे गिनने को दिये । वाकयी पूरे पिचानवे रुपए बाकी थे यानि नींव और भरत का सारा काम सिर्फ चार सौ रुपये में निपट गया था । रात को रोटी खाने के बाद माँ ने वह थैली पिताजी के सामने रख दी । मैंने भी अपनी गुल्लक निकाली और लाकर बीच में रख दी । इस गुल्लक में मेरी टाफियों की कमाई के अलावा वक्त बेवक्त मामाओं और नानी के दिए सिक्के भी शामिल थे । गुल्लक से साठ सिक्के निकले ।
अब ये फैसला किया गया कि चिनाई जारी रखी जाए और दो कमरे बना लिये जायं । इस तरह अगले एक महीने में दो कमरे बन गये । लाल लाल ईंटों वाले दो कमरे । आँगन में एक हैंडपंप लगा था । बाहर की ओर दो फुट की दीवार। अभी यह बनकर तैयार ही हुआ था कि एक दिन एक पति पत्नि अपनी छोटी सी बच्ची के साथ आए । आदमी का नाम था चमन कुमार और पत्नि का नाम था सुहागी । उनकी एक दो साल की छोटी बच्ची भी साथ थी । मुझे वह बच्ची बङी प्यारी लगी और मैं उसके साथ खेलने लगी । चमन ने माँ से कहा – बहनजी , मैं जालंधर का रहनेवाला हूँ । यहाँ आरे पर काम करता हूँ । आप मुझे छोटा कमरा रहने के लिए देदो । माँ ने संकोच से कहा पर भाई उसमें तो अभी दरवाजे ,किवाङ कुछ नहीं है ।
ओजी आप उसकी चिंता न करो । मैं हर रोज शांम को काम करुँगा और दोनों कमरों के दरवाजे लगा दूँगा । माँ ने हामी भर दी ।
अगले ही दिन वे लोग अपना सामान लेकर आ गये । सामानके नाम पर दो छोटे छोटे संदूक एक बोरी और एक बिस्तरबंद ,कुल इतना ही सामान था । चार ईंटें एक कोने में रख कर उन पर संदूक टिका लिए गये । साथ ही लाये गये लकङी के तख्तों में से एक तख्ता दीवार में गाङ कर उस पर बरतन चिन दिये गये । संदूक पर बिस्तर बिछा कर उन्हें ढक लिया गया । हो गयी कमरे की सजावट । लकङी के बाकी तख्ते बाहर आँगन में टेढे खङे कर दिये गये । एक थैले में वे लकङ के काम आने वाले औजार भी ले आये । अब रोज अपने काम से लौट कर वह अपनी आरी और रंबा लेकर बैठ जाता । दो तीन घंटे लकङी सँवारने लगा रहता । आखिर सात दिनों में दोनों कमरों के किवाङ लग गये । इस बीच सुहागी ने आँगन में दो चूल्हे बना दिये थे ।
अब हमने भी इस नये घर में रहने का फैसला किया । वह मकान छोङते हुए सबको बहुत दुख हो रहा था । अम्माजी की बहुओं ने माँ के पाँवों में आलता लगाकर आँचल में दूबधान डालकर घर की बेटी की तरह माँ को विदा किया । अम्माजी ने धोती और दो रुपये माँ को शगुण के दिए और आते रहने का वादा लेकर गली के मोङ तक छोङने आए । नम आँखों के साथ हम इस नये घर में रहने आ गये । उस दिन घर में श्री सतनारायण की कथा का आयोजन किया गया था । उसके बाद चूरमा का प्रसाद बँटा और फिर भोज ।
मैं यहाँ आकर बहुत खुश थी । इसके कई कारण थे –
पहला यहाँ मेरी उम्र की कई लङकियाँ थी जिनके साथ मैं खेल सकती थी ।
दूसरा – यहाँ खेलने के लिए खुली जगह थी क्योंकि जगह जगह प्लाट खाली पङे थे ।
तीसरे चमन मामा की तोषी भी तो थी जिसे मैं खिला सकती थी ।
और चौथा सबसे महत्वपूर्ण यह कि यहाँ सबका आर्थिक स्तर हमारे जैसा ही था । अब किसी तरह की हीन भावना की गुंजाइश नहीं थी ।
इस मौहल्ले में शाम के समय तीन लोग अपनी अपनी साइकिल पर बङी सा गट्ठर लाद कर आते । उनके आते ही सारे मौहल्ले की औरतें और लङकियाँ उस साइकिल को चारों तरफ से घेर लेती । एक साइकिल पर धारीदार कपङे के कटे हुए कच्छे होते । दूसरी साइकिल पर पेटीकोट के कपङे । और तीसरी पर मोटी ऊन । औरतें एक एक कर अपनी पसंद का काम अपनी क्षमता के हिसाब से लेती । उनकी डायरी में नोट करवाती । करीब एक घंटा पूरी चहल पहल और शोर रहता । जब सारा काम बँट जाता तो वे लौटाने के लिए पाँच या छ दिन का समय देते और साइकिल की घंटी बजाते शहर की ओर चले जाते । औरतें कोई दस मिनट अपने दुख सुख करती और फिर वे भी अपने अपने घरों को चल पङती । उसके बाद उस पकङे काम को पूरा करने की चुनौती होती और औरतें होती । लङकियाँ घर के काम को संभालती और जब खाली होती तो पेटीकोट सिलती या स्वेटर बुनती । सही पाँचवें दिन वे तीनों लोग फिर आते . औरतों से तैयार किया हुआ माल लेकर अपनी डायरी से मिलाते और उस हिसाब से सबको पैसे बाँटते जाते । किसी को पाँच रुपए मिलते , किसी को छ और किसी को सात । पर सब उस दिन बहुत खुश होते । अगले दिन दोबारा माल लाने का वादा कर वे लोग जाते तो औरतों को दोबारा हाथ मे काम होने की उम्मीद जाग जाती । माँ अपने लिए पेटीकोट का कपङा लेती तो मेरे लिए स्वेटर की ऊन । मोटी मोटी सलाइयों पर मोटी ऊन में हल्का सा डिजाइन डालकर वह स्वेटर रात में बुनना पङता । पाँच दिनों में उसे तैयार करके लौटाना होता । बाकी मौहल्ले की लङकियाँ पाँच दिन में दो स्वेटर बुन डालती । पर उन्हें कौन सा पढने जाना होता था ।

बाकी अगली कङी में ...