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मैं तो ओढ चुनरिया - 20

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय बीस

नींव की खुदाई शुरु हो गयी । दो मजदूर सुबह आठ बजते ही आ जाते और मन लगाकर नींव की खुदाई करते । मैं स्कूल से लौटती तो माँ प्लाट में जाने के लिए तैयार मिलती । मुझे कपङे बदलवाकर वे मुझे लगभग घसीटते हुए तपती हुई सङक पर लगभग भागती हुई चलती । माथे से पसीना टपक रहा रहा होता । गरमी और धूप से मैं बेहाल हो जाती । प्यास से मेरा गला सूख रहा होता पर माँ तो अपनी ही धुन में चलती चली जाती । मैं रुआसी हो उठती । माँ कहती – तुझे नींव में खेलना है न और रेत में घर भी बनाने हैं कि नहीं । और यह सुनते ही मैं माँ का हाथ छुङाकर भाग जाना चाहती पर माँ को वह भी मंजूर नहीं । वे लपक कर मेरा हाथ इतनी जोर से पकङती कि हाथ में दर्द होने लगता । मैं हाथ छुङाने की भरसक कोशिश करती । और इसी जद्दोजहद में हम आखिर अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाते ।
वहाँ पहुँचते ही मैं किलक उठती । मजदूर मामा की गलियाँ और नहरें ज्यादा लंबी और ज्यादा गहरी हो चुकी होती । मैं माँ का हाथ छुङाकर नींव की गहराइयों में उतर जाती और इधर से उधर भागती दौङती रहती । माँ बार बार रोटी के लिए पुकारती तो बाहर आती । रोटी खाकर रेत के टीले पर बैठी घर बनाती रहती । इस बीच माँ टूटी ईंटों को हथोङे से पीट पीट कर रोङी कूटती रहती ।
फिर एक दिन चमार टोले से नगीनी आ गयी और वह रोङी कूटने का काम करने लगी । दो रुपये रोज की मजदूरी पर । फिर साथ में उसकी लङकी आ जाती । तो दोनों माँ बेटी घुटनों में सिर दिए रोङी कूटती । लङकी को कभी आठ आने मिलते , कभी एक रुपया । उसका नाम था सुमित्रा । नगीनी उसे बुलाती मितरी । दुबली पतली सी नौ दस साल की लगभग काले रंग को छूते रंग वाली लङकी । जिसकी बङी बङी आँखें और लंबी पलकें उसे मैली कुचैली होने पर भी भीङ से अलग ही दिखाती थी । बेहद सकुचाई , सिमटी सी रहती । मैंने दोस्ती के लिए हाथ बढाया । पर यह तो स्कूल जाती ही नहीं थी और न ही खेलने । उसके दिन की शुरुआत कमेटी के नल से पानी ढोने से होती । उसके बाद घर को झाङू लगाना , बरतन मांजना भी उसी के हिस्से आया था । इतना काम करके वह यहाँ काम करने आती है । मेरे हैरान होने पर उसने अपनी बङी आँखें और बङी करके कहा था – काम तो सीखना ही पङता है , वरना सास गाली नहीं देगी मुझे भी और अम्मा को भी । कल को शादी होगी तो क्या करुँगी । और वह घुटनों में सिर दे फिर से ईंटें कूटने लग जाती । शाम को एक रुपया मिला तो वह एक पैसे की दस वाली संतरे की फांक जैसी मीठी गोलियाँ लेगी जिसमें से पाँच वह खुद खाएगी । बाकी पाँच गोलियाँ एक एक करके अपने बहन भाइयों को खिलाएगी । उससे दो साल छोटी है शरबती जो घर पर अपने से छोटे बहन भाइयों को संभालती है । शरबती से छोटे पाँच भाई हैं । मैं हैरान हूँ । इतने सारे भाई यह लङकियाँ कहाँ से लेकर आई हैं । मेरा तो कोई भाई नहीं है , यहाँ तककि बहन भी नहीं । अगर एक भी होता तो कितना मजा आता उसके साथ खेलने में ।
याद आया कि आजकल घर में कोई भी रिश्तेदार आता है , ठंडी साँस भर कर एक लङका होने की बात जरुर करता है । बेटी पराया धन है । एक दिन ससुराल चली जाएगी । बेटों से ही असली रौनक होती है – यह डायलाग इतनी बार घर में बोला गया है कि मुझे रट गया है । मैं भागकर माँ से लिपट जाती हूँ , मुझे नहीं करनी शादी । मैं तो आपके पास ही रहूँगी ।
माँ पहले तो चौंक जाती है फिर मुस्कुरा कर स्थिति सामान्य करने की कोशिश करती है – कौन कर रहा है तेरी शादी और दूल्हा कहाँ है
मैं शर्मा जाती हूँ । भागकर अपने रेत के घरोंदे के पास चली जाती हूँ । वहाँ प्रकाश माली की दोनों बेटियाँ पहले से मौजूद हैं । उन्हें अपने भुट्टे भूनने के लिए थाली भर रेत चाहिए । ये बङी हैं चंपा दीदी । उम्र यही कोई तेरह साल रही होगी । सामान्य से थोङी मोटी हैं । रंग पक्का है । गहरी साँवली रंगत लिए । उस पर हँसती है तो मोतियों जैसे दाँत चमक उठते हैं । छोटी सरोज दीदी हैं । कदम पतली छरहरी । रंग बगुले जैसा उजला । बात बेबात खिलखिलाना उनकी आदत में शुमार है । मुझे देख पूछा – बुआजी कहाँ है
मैंने सवालिया नजरें नके चेहरे पर जमा दी है ।
अरे बुद्धु लङकी तुम्हारी माँ कहाँ है
ऊधर - मैंने ऊँगली से माँ की ओर इशारा किया । वे दोनों लङकियाँ उधर बढ गयी । वापसी पर रेत लेते हुए उन्होंने मेरी उँगली पकङ ली है । चल तुझे झूला झुलाएँ ।
मैं असमंजस में हूँ । छल न बुआ से पूछ लिया है । मैंने माँ की ओर देखा
चली जाओ । चोट मत लगवाना । और आधे घंटे में लौट आना ।
मैं खुशी खुशी चंपा दीदी की उँगली पकङ कर चल दी । उनका घर मैंने दूर से देखा था ।आज पहली बार अंदर जा रही थी । एक बङा सारा खेत था जिसमें तरह तरह की सब्जियाँ लगी थी । दो पेङ आम के , एक पेङ जामुन का और एक नीम का घना पेङ । नीम पर मोटे रस्से का झूला डला था । दीदी ने मेरा हाथ मुँह धुलाया । सिर में तेल डालकर दो चोटियाँ बनाई । ढेर सारी कैरियाँ खाने को दी और टपके के आम भी । फिर पटरा लाकर झूले पर बैठा दिया । शुरु में मुझे बहुत डर लगा पर दोनों बहनों के होंसला देने पर मैं बैठ गय । सरोज दीदी ने धीरे धीरे हिलोर देना शुरु किया तो मजा आने लगा । फिर तो मैं देर तक झूला झूलती रही । यहाँ तक कि आधा घंटा कब दो घंटे का हो गया , पता ही नहीं चला । वह तो माँ ने आकर आवाज दी कि चलो घर जाने का समय हो गया । आओ चलें तो बङे बेमन से झूला छोङना पङा । वह भी इस वादे के साथ कि बाकी झूला कल झूलेंगे ।

बाकी कहानी अगली कही में ...

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