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मैं तो ओढ चुनरिया - 19

मैं तो ओढ चुनरिया
अध्याय -19

रजनी और रेखा से अगला घर था लाजवंती मामी का जिनके चार लङके और दो बेटियाँ थी । मामा की साईकिल के पंक्चर लगाने की दुकान थी बेहट बस अड्डे पर । तो बङे दोनों भाई भी हर छुट्टी वाले दिन दुकान पर चले जाते और दिनभर साईकिलों में पंक्चर लगाया करते । मामी को हर रोज कोई न कोई मारी लगी रहती तो बङी रानी घर को सारे काम करती । इतने बङे परिवार के कपङे दो कनस्तरों में उबालकर सिर पर लाद लाती रजबाहे पर और रजबाहे में लकङी का तख्ता डाल थपकी से पीट पीट आठ बजे तक धो डालती । फिर घर जाकर उन्हें तार पर सूखने डालती । तब सब्जी बनाती ,रोटी बनाती , ताजा लस्सी बिलोती और गरम गरम फुल्के सेक कर अपने पिता और भाइयों को खिलाकर काम पर भेजती । दोनों छोटे भाई पढने जाते । दो रोटी खाकर वह कच्चे आँगन को गोबर से लीपती । बरतन राख से रगङ रगङ कर चमकाती । सूख गये कपङों को तार से उतार तहाती और भी ढेर सारे काम थे जो उसकी लिस्ट में शामिल थे । शाम को उसे आधे घंटे के लिए खेलने की इजाजत मिलती तो उसकी खुशी देखने लायक होती । पच्चीस मिनट में ही वह भाग खङी होती । शाम की दाल रोटी भी तो बनानी है न । वह भी रोशनी जाने से पहले । तब उस मौहल्ले में बिजली नहीं आई थी तो सब लोग कैरोसिन के दिये या लालटेन ही जलाते थे । हम रोज उसे इसी तरह काम में जुटे हुए देखते । सिर्फ ग्यारह साल की दुबली पतली लङकी और इतना सारा काम । और उस पर खासियत यह कि वह सात आठ दिन में एक स्वेटर भी बना लेती ।
उनके घर के सामने कुछ जमीन खाली पङी थी जिसमें घास और जंगली किस्म के झाङ झंखाङ उगे थे । उसके पीछे कई कब्रें थी दो पक्की और बाकी कच्ची । मात्र मिट्टी का ढेर । हर वीरवार जिसे यहाँ पीरवार कहा जाता था , इन कब्र दोशीजा लोगों के वारिस चराग जलाने आते । दिया जलाकर वहाँ गुलगुले , मीठी रोटी , जरदा , सेवइय़ा , लड्डू रख जाते । हमॆ इस पीरवार का बेसब्री से इंतजार रहता । वैसे तो हम हर रोज वहाँ खेलने जाते । बङी कब्र पर जंगलजलेबी का बङा और घना पेङ था । उसके पीछे वाली कब्र पर इमली का पेङ । उसके साथ इस ओर एक लोकाट का पेङ और दो जंगली बेरियाँ । हम लोग , खासकर राजी दौङकर कब्र की ऊँची दीवार पर चढ जाते और जंगलजलेबी तोङ कर खाया करते । कभी नीचे कब्रों पर गिरे पङे इमली , बेर और लोकाट भी मिल जाते तो मिल बाँट कर खा लेते । और पीरवार यानि गुरुवार को हमारी दावत का दिन रहता । जैसे ही कोई सीरनी चढाकर जाता , हम सारा चढाया माल गप्प गप्प खा जाते । जिस दिन कोई बङा देख लेता , उस दिन हमारी खैर नहीं होती । कान कसकर उमेठे जाते – कमजर्फों , तुम्हे घर में खाने को नहीं मिलता जो कब्रों पर से उठाकर खाने की नौबत आ गयी । लगातार भाषण पिलाया जाता । घर लाकर गंगाजल से नहलाया जाता । गंगाजल पिलाया जाता । कसमें खिलाई जाती कि दोबारा वहाँ नहीं जाना । हम ठंडे गंगाजल से टसुए बहाते हुए नहाते । कसमें खाते कि दोबारा नहीं जाएंगे पर अगले दिन फिर कब्रों पर खेल रहे होते । पेङ हमें अपनी ओर खींचते लगते । जंगलजलेबियाँ हमें पुकार रही होती । अब ऐसे में कोई कसम याद रहे भी तो कैसे । हम कबर पर पैर रखते और लपक कर चढ जाते जंगलजलेबी पर । वहाँ से इमली पर और अमरूद पर । यहाँ से वबाँ बंदरों की तरह छलांगे लगाते । जी भरकर फल खाते और कुतर कुतर कर फेंकते जाते ।
इस कब्रिस्तान के दो कदम आगे था गढीमलूक , उसके आगे चमारगढी , फिर भंगियों का टोला । इनके हमने नाम भर सुने थे । इन बस्तियों के बच्चे दोपहर भर कब्रिस्तान में खेलते पर शाम होते ही जैसे हम वहाँ पहुँचते , वे गधे के सिर के सींगों की तरह गायब हो जाते । बच्चे भी क्या , एकदंम आबनूस जैसा काला रंग , गठीला बदन , पूरे नंगधङंग । हाँ लङकियों ने कुछ उधङे , कुछ सिले बेनाप के कपङे जरुर पहने होते , लङकों को जांघिया नसीब हो जाए तो गनीमत । जहाँ हमें जूतों में भी धरती गरम लगती थी , वहाँ ये सब नंगे पाँव जमीन पर बिना सी किये भागते दौङते रहते । दस ग्यारह साल के होते ही ये माँ बाप के साथ काम में हाथ बँटाने लगते ।
रिफ्यूजियों की पीठ लगती थी सब्जियों के खेतों में । दूर दूर तक फैली क्यारियाँ थी सूरज चाचा और प्रकाश चाचा की जिनमें बोई रहती तरह तरह की सब्जियाँ । पालक मेथी से लेकर बैंगन मूली गाजर तक सब लगा रहता । बिरमी चाची और दुरगी चाची अपने बच्चों के साथ सुबह शाम इन खेतों में निराई , गुडाई करती नजर आती । इन्हीं खेतों में इनकी झुग्गियाँ बनी थी । लिपी पोची , एकदम साफ सुथरी मिट्टी से सँवारी ये झोपङियाँ नीम के डाटों पर सरकंडे का छप्पर डाल कर बनाई गयी थी । इनकी खासियत यह थी कि ये सरगियों में गरम रहती और गरमियों में ठंडी । हर रोज उठते ही इन्हे गोबर में पीली मिट्टी मिलाकर लीपा जाता तो गोबर की सोंधी महक भी घर में छाई रहती । मेहनतकश लोगों की बस्ती थी । सब मर्द , औरतें , बच्चे सुबह से शामतक हाड तोङ मेहनत करते तो जाकर दो वक्त की रोटी का जुगाङ होता । पर ये सब उसमें ही संतुष्ट और खुश रहते ।
नींव बनाने का काम शुरु हुआ । पिताजी सामान का जुगाङ कर अपने काम पर चले जाते । फिर दोनों मामा में से कोई आ जाता और काम से निपट माँ आती तो मैं भी आ जाती । जहाँ हम किराये पर रहते थे वह संभ्रांत लोगों का मौहल्ला था । ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार । गृहणियाँ अपने परिवार के लिए काम करती थी । कपङे घर पर ही सिल लिये जाते । स्वेटर भी घर पर बुने जाते । औरतें सुगढ थी । यहाँ इस मौहल्ले में लोग दूसरों का काम करके गुजारा करते थे । अपनी सफेदपोशी बरकरार रखने के लिए दिन रात खटते थे ।

शेष अगली कङी में ...

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