बिम्ब अपने और ईश्वर के बीच की बातों को सोच रहा है एवं साथ- साथ इन सभी बातों को स्वप्न के माध्यम से अपने पुत्र तक पहुंचा भी रहा है जिससे जीवित अवस्था में ही उसे ईश्वर का ज्ञान हो सके, बिम्ब ईश्वर के साथ हो रहे सवाल जबाब को आगे बढ़ाते हुए सोचता है..........................
प्रश्न- तो क्या इसका यह अर्थ हुआ कि ईश्वर अपवित्र वस्तुओं जैसे कि मदिरा, मल और मूत्र में भी रहता है ?
उत्तर- (1) पूरा संसार ईश्वर में है । क्यूंकि ईश्वर इन सब के बाहर भी है लेकिन ईश्वर के बाहर कुछ नहीं है । इसलिए संसार में सब कुछ ईश्वर से अभिव्याप्त है । मोटे तौर पर अगर इसकी समानता देखी जाये तो हम सब ईश्वर के अन्दर वैसे ही हैं जैसे कि जल से भरे बर्तन में कपडा । उस कपडे के अन्दर बाहर हर ओर जल ही जल है । उस कपडे का कोई भाग ऐसा नहीं है जो जल से भीगा न हो लेकिन उस कपडे के बाहर भी हर ओर जल ही जल है ।
(2) कोई वस्तु हमारे लिए स्वच्छ या अस्वच्छ है यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे लिए उस वस्तु की क्या उपयोगिता है । जिस आम का स्वाद हमको इतना प्रिय होता है वह जिन परमाणुओं से बनता है वही परमाणु जब अलग अलग हो जाते हैं और अन्य पदार्थों के साथ क्रिया करके मल का रूप ले लेते हैं तो वही हमारे लिए अपवित्र हो जाते हैं । वास्तव में ये सब प्राकृतिक कणों के योग से बने भिन्न भिन्न सम्मिश्रण ही हैं । हम सब का इस संसार में होने का कुछ उद्देश्य है, हम हर चीज को उस उद्देश्य की तरफ़ बढ़ने की दृष्टि से देखते हैं और कुछ को स्वीकार करते हैं जो कि उस उद्देश्य के अनुकूल हों और बाकि सब को छोड़ते चले जाते हैं । जो हम छोड़ते हैं वो सब हमारे लिए अपवित्र / बेकार होता है, और जो हम स्वीकार करते हैं मात्र वही हमारे लिए उपयोगी होता है । लेकिन ईश्वर के लिए इस संसार का ऐसा कोई उपयोग नहीं है, इसलिए उसके लिए कुछ अपवित्र नहीं है । इसके ठीक विपरीत उसका प्रयोजन हम सबको न्यायपूर्वक मुक्ति सुख का देना है, इसलिए पूरी सृष्टि में कोई भी वस्तु उसके लिए अस्पृश्य नहीं है ।
(3) दूसरी तरह से अगर समानता देखी जाये तो ईश्वर कोई ऐसे समाजसेवी की तरह नहीं है जो कि अपने वातानुकूलित कार्यालय में बैठकर योजनायें बनाना तो पसंद करता है लेकिन उन मलिन बस्तियों में जाने से गुरेज करता है जहाँ कि समाज-सेवा की वास्तविक आवश्यकता है । इसके विपरीत ईश्वर संसार के सबसे अपवित्र पदार्थ में भी रहकर उसे हमारे लाभ के लिए नियंत्रित करता है ।
(4) क्यूंकि एक मात्र वही शुद्ध्स्वरूप है इसलिए उसके हर वस्तु में होने और हर वस्तु के उसमे होने के बावजूद भी वह सबसे भिन्न और पृथक है ।
प्रश्न- क्या ईश्वर दयालु और न्यायकारी है ?
उत्तर- हाँ! वह दया और न्याय का साक्षात् उदहारण है ।
प्रश्न- लेकिन यह दोनों गुण तो एक दुसरे के विपरीत हैं । दया का अर्थ है किसी का अपराध क्षमा कर देना और न्याय का अर्थ है अपराधी को दंड देना । ये दोनों गुण एक साथ कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर- दया और न्याय वास्तव में एक ही हैं । क्यूंकि दोनों का उद्देश्य एक ही है ।
(1) दया का अर्थ अपराधी को क्षमा कर देना नहीं है । क्यूंकि अगर ऐसा हो तो बहुत से निर्दोष लोगों के प्रति अत्याचार होगा । इसलिए जब तक अपराधी के साथ न्याय नहीं किया जायेगा तब तक निर्दोष लोगों पर दया नहीं हो सकती । और अपराधी को क्षमा करना, यह अपराधी के प्रति भी दया नहीं होगी क्यूंकि ऐसा करने से उसे आगे अपराध करने के लिए बढ़ावा मिलेगा। उदाहरण के लिए, अगर एक डाकू को बिना दंड दिए छोड़ दिया जाये तो वह अनेक निर्दोषों को हानि पहुंचाएगा । किन्तु यदि उसे कारगर में रखा जाये तो इससे वह न सिर्फ दूसरों को हानि पहुँचाने से रुकेगा बल्कि उसे खुद को सुधारने का एक मौका मिलेगा और वह आगे अपराध नहीं कर पायेगा । इसलिए न्याय में ही सबके प्रति दया निहित है ।
(2) वास्तव में दया इश्वर का उद्देश्य है और न्याय उस उद्देश्य को पूरा करने का तरीका है । जब इश्वर किसी अपराधी को दंड देता है तो वास्तव में वह उसे आगे और अपराध करने से रोकता है । और निर्दोषों की उनके अत्याचारों से रक्षा करता है । इस प्रकार न्याय का मुख्य उद्देश्य सबके प्रति दया करना है ।
(3) वेदों के अनुसार और जो कुछ हम संसार में देखते हैं उसके अनुसार भी दुःख का मूल कारण अज्ञान है, यही अज्ञान दुष्कर्मों को जन्म देता है जिन्हें की हम अपराध कहते हैं । इस्ल्ये जब कोई जीव दुष्कर्म करता है तो ईश्वर उसकी दुष्कर्म करने की स्वतंत्रता को बाधित कर देता है और उसे अपनी अज्ञानता और दुखों को दूर करने का मौका देता है ।
(4) माफ़ी मांग लेने भर से ईश्वर अपराधों को क्षमा नहीं कर देता । पापों और अपराधों का मूल कारण अज्ञानता का होना है और जब तक वो नहीं मिट जाता तब तक जीव कई जन्मों तक निरंतर अपने अच्छे और बुरे कर्मों के फल को भोगता रहता है । और इस सब न्याय का उद्देश्य जीव के प्रति दया करना है जिससे की वह परम आनंद को भोग सके ।
प्रश्न- तो क्या इसका अर्थ ये है कि ईश्वर मेरे पापों को कभी भी क्षमा नहीं करेगा ? इससे तो इस्लाम और ईसाइयत अच्छे हैं। वहां अगर मैं अपने अपराध क़ुबूल कर लूं या माफ़ी मांग लूं तो मेरे पिछले सारे गुनाहों के दस्तावेज नष्ट कर दिए जाते हैं और मुझे नए सिरे से जीने का अवसर मिल जाता है ।
उत्तर – (1) ईश्वर तुम्हारे पापों को वास्तव में क्षमा तो करता है । ईश्वर की माफ़ी तुम्हारे कर्मों का न्यायपूर्वक फल देने में ही निहित है न कि पिछले कर्मों के दस्तावेज नष्ट कर देने में ।
(2) अगर वह तुम्हारे गुनाहों के दस्तावेज नष्ट कर दे तो यह उसका तुम्हारे प्रति घोर अन्याय और क्रूरता होगी । यह ऐसा ही होगा जैसे कि तुम्हे तुम्हारी वर्तमान कक्षा की योग्यता प्राप्त किये बिना ही अगली कक्षा के लिए प्रोन्नत कर देना । ऐसा करके वह तुमसे जुड़े हुए अन्य व्यक्तियों के साथ भी अन्याय करेगा।
(3) क्षमा करने का अर्थ होता है एक नया अवसर देना न कि 100% अंक दे देना जबकि आप 0 की पात्रता रखते हों । और ईश्वर यही करता है । और याद रखिये कि योग्यता का बढ़ना कोई एक पल में नहीं हो जाता, और न ही माफ़ी मांग लेने से योग्यता बढ़ जाती है । इसके लिए लम्बे समय तक समर्पण के साथ अभ्यास करना पड़ता है । केवल प्रमादी व्यक्ति ही बिना पूरा अध्ययन किये 100% अंक लेने के तरीके खोजते हैं ।
(4) यह दुर्भाग्य की बात है कि जो लोग ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के नाम पर लोगों को अपने मत/ सम्प्रदायों की ओर आकर्षित करते हैं वो खुद को और दूसरों को बेवकूफ बना रहे हैं। मान लीजिये किसी को मधुमेह की समस्या है क्या वह माफ़ी मांगने से ठीक हो सकती है ? जब एक शारीरिक समस्या का उपचार करने के लिए माफ़ी मांगना पर्याप्त नहीं है तो फिर मन जो कि मनुष्य को ज्ञात संसार का सबसे जटिल तंत्र है उसका उपचार मात्र एक माफ़ी मांग लेने से कैसे हो सकता है ।
(5) वास्तव में इनके सिद्धांतों में एक स्पष्ट त्रुटि/दोष है और वो ये है कि ये सिर्फ एक जन्म में विश्वास रखते हैं पुनर्जन्म में नहीं । इसलिए वो लोगों को आकर्षित करने के लिए ईश्वर तक पहुँचने के झूठे तरीके गढ़ना चाहते हैं। और अगर कोई उनकी बात न माने तो उसे नरक की झूठी कहानियां सुनाकर डराते हैं।
(6) वैदिक दर्शन अधिक सहज, वास्तविकता के अनुरूप और तार्किक है । उसमे न कोई नरक है जहाँ माँ के समान प्रेम करने वाला ईश्वर आपको हमेशा के लिए आग में जलने के लिए डाल देगा और न ही वो आपको अपने प्रयासों के द्वारा अपनी योग्यता बढाने और अपनी योग्यता के अनुरूप उपलब्धियां प्राप्त करने के अवसरों से वंचित करेगा । आप खुद ही देह्खिये की क्या अधिक संतोषप्रद होगा:
(अ) आपको सर्वोच्च अंक दिलाने वाला झूठा अंकपत्र, जबकि आप जानते हैं की वास्तव में आपको 0 प्राप्त हुआ है ।
(ब) दिन रात कठिन परिश्रम करके प्राप्त किये गए सर्वोच्च अंक, जबकि आप जानते हैं कि आपने विषय में विशेषज्ञता अर्जित करने के लिए अपनी ओर से अधिकतम प्रयास किया ।
इसलिए वेदों में सफलता के लिए कोई आसान या कठिन रास्ते नहीं हैं वहां तो केवल एक ही सही मार्ग है ! और सफलता उन सबसे अधिक संतोष दायक है जो कि इन छद्म आसान रास्तों पर चलने से प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है ।
क्रमशः अगला भाग - मैं ईश्वर हूँ 07
सतीश ठाकुर