अमलतास के फूल - 13 Neerja Hemendra द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अमलतास के फूल - 13

ख़्वाहिशें

      ’’ रसीदन बुआ आ गयीं..........रसीदन बुआ आ गयीं......’’ कह कर मारिया व तरन्नुम घर के मुख्य गेट से घर के अन्दर की ओर भागीं। घर में उनकी अम्मी फहमीदा रसोई में व्यस्त थीं। लड़कियों के तेज स्वर सुन कर डाँटते हुए बोलीं, ’’ कमबख्तों इतना क्यों चिल्ला रही हो? क्या हुआ? मारिया व तरन्नुम ने चहकते हुए बताया कि, रसीदन बुआ आ गयीं हैं। ’’ अभी वह अपनी अम्मी को इतना ही बता पायी थीं कि रसीदन बुआ घर के आँगन का दालान पार कर के सीधे उनके घर के आँगन में दाखिल हो चुकी थीं। उनके हाथें में रंग-बिरंगी चूड़ियों की मालायें (मल्हार) तथा कंधे पर कपड़े का एक थैला लटक रहा था। मारिया व तरन्नुम जानती थीं कि उस थैले में डब्बे वाली सुन्दर-सुन्दर चूड़ियाँ, कड़े, नेलपाॅलिश व कान के बुन्दे, झुमके होंगे, जिन्हे रसीदन बुआ नये फैशन का बताती हैं। वो होते भी सुन्दर हैं । आँगन में आ कर रसीदन बुआ दीवार से सटा कर रखे चैड़े तख्त पर बैठ गयीं। चूड़ियों की मल्हार व कंधे पर टँगा थैला तख्त पर एक किनारे रख दिया। सामने रसोई से बाहर आती फहमीदा को उन्होने मुस्कराते हुए हाथ माथे तक ले जा कर ’’सलाम ’’ बोला। प्रत्युत्तर में फहमीदा ने भी मुस्कराते हुए ’’ सलाम’’ कहा। फहमीदा उसी तख्त पर आ कर रसीदन बुआ के पास बैठ गयीं। फहमीदा तथा रसीदन एक दूसरे का हाल पूछते हुए आपस में बातें करने लगीं। 

     रसीदन का फहमीदा के परिवार से न कोई सगे-संबन्धी का रिश्ता है, न खून का नाता। है तो सिर्फ प्यार का, मोहब्बत का एक अनाम-सा रिश्ता। रसीदन फहमीदा के पति हलीम मियाँ को अपना भाई मानती हैं तथा हलीम मियाँ की पत्नी फहमीदा व उनके पाचों बच्चे, जिनमें दो लड़कियाँ तथा तीन लड़के हैं, से अत्यन्त अपनापा रखती हैं। 

   रसीदन मनहारन हैं। वह इस कस्बे के घरों में जा कर लड़कियों, महिलाओं को चूड़ियाँ पहनानेे का काम करतीं हैं। चूड़ियों के साथ कपड़े के थैले में ऋंगार की छोटी-मोटी वस्तुएँ भी रख कर कंघे पर लटका लेतीं हैं। उनको तमाम घरों से चूड़ियाँ पहनाने का बुलावा आता रहता है। यही उनके जीवन यापन का जरिया है। सहालग के दिनों में शादी-व्याह वाले घरों से उनके लिए विशेष बुलावा आता है। उन दिनों के लिए वह कुछ अच्छी व महंगी चूड़ियाँ अपने साथ रखतीं हैं। उन दिनों वह कुछ अधिक मशरूफ़ हो जातीं हैं। शादियों में पैसे वाले बड़े घरों से उन्हे चूडियों की मुहमाँगी के साथ ही कपड़े-लत्ते व खने-पीने की अनेक वस्तुएँ भी मिलती हैं। 

     रसीदन बुआ हैं भी तो हँसमुख व सरल स्वभाव की। लम्बी, पतली, सुन्दर नाक-नक्श व दप-दप करते गौर वर्ण वाली रसीदन बुआ की उम्र चालीस-पैंतालिस के आस-पास होगी। आखें में काजल, लम्बे बालों का जूड़ा तथा सीधे पल्ले की साड़ी पहन कर वह किसी नव यौवना-सी आर्कषक लगती हैं। पान खाने की शौकीन रसीदन बुआ जब मुँह में पान दबा कर हँसतीं हैं तो उनकी हँसी देखने लायक होती है। 

     रसीदन बुआ ने फहमीदा से बातें करते हुए घर में चारों तरफ अपनी नज़र दौड़ाई। वह जानती हैं कि उनके मुँहबोले भाई हलीम मियाँ इस समय ड्यूटी पर गये होगें। वह पुलिस चैकी में आरक्षी के पद पर कार्यरत हैं। उनके पाँच बच्चों में सबसे बड़े लड़के बिलाल की शादी हो चुकी है। वह अपनी बीवी हसीन जहाँ व तीन वर्षीय बेटे उमर के साथ अलग रहता है। विवाह के लगभग एक साल के अन्दर ही वह घर में हाने वाली खट-पट से आजिज हो कर अलग हो गया। रसीदन बुआ के हिसाब से कमी उसकी बहू में थी। उनके भाई का परिवार तो सभ्य व शालीन है। दो अन्य बेटे इमरान व फिरोज भी तालीम पूरी कर के कम तनख्वाह में ही सही प्राइवेट नौकरी में लग गयें हैं। दोनों छोटी बेटियाँ साजिया व तरन्नुम काॅलेज में बी0ए0 के पहले साल की पढ़ाई कर रही हैं। रसीदन बुआ के हिसाब से ये दोनों विवाह के योग्य हो चुकी हैं। हाँलाकि लड़के इन दोनों लड़कियों से बड़े हैं किन्तु वह कहती हैं कि लड़को से पहले इन लड़कियों की शादी हो जानी चाहिए। उनकी इस बात से फहमीदा व हलीम मियाँ भी सहमत हैं, और वो इनकी शादी के लिए प्रयत्न भी कर रहे हैं। फहमीदा बताती हैं कि हलीम मियाँ की नौकरी के चार वर्ष ही शेष हैं। रसीदन बुआ की इच्छा है कि उनकी नौकरी में रहते हुए ही लड़कियों का व्याह हो जाए तो अच्छा है।

     रसीदन बुआ तख्त पर बैठ कर हाथ के पंखे से अपने चेहरे पर हवा करने लगीं। आज गर्मी कुछ ज्यादा है। बाहर तो जैसे लू-सी चल रही है। साजिया व तरन्नुम भी तख्त के एक कोने में आ कर बैठ जाती हैं। वह तख्त पर रखीं चूड़ियों को छू कर देखने लगती हैं। ऐसा करते समय उनके चेहरे पर नारी सुलभ प्रसन्नता फैल जाती है। वह जानती हैं कि अम्मी व रसीदन बुआ उन्हे ज्यादा ऋंगार करने नही देतीं फिर भी रसीदन बुआ कभी-कभी नये फैशन के कड़े व चूड़ियाँ उनके लिए भी ला देती हैं। उन्हे चूड़ियाँ छूते देख वह बोल पड़ी, ’’चलों हटों लड़कियों ! यह औरतों के पहनने की चूड़ियाँ हैं, जो कलाईयों में भरी पहनी जाती हैं। तुम्हारे काम की नही हैं। ’’ यह कहते हुए थैले से निकाल कर कागज में लिपटीं जलेबियाँ उनकी ओर बढ़ा देती हैं। साजिया ने जलेबिया ले लीं। वे जानती हैं कि रसीदन बुआ जब भी आती हैं बच्चों के लिए कुछ न कुछ लाती हैं। रसीदन बुआ पुनः साजिया व तरन्नुम की तरफ मुखातिब हो कर बोलीं, ’’साढ़े बारह बज गये हैं। तुम लोगों ने कुछ खाना-पीना बनाया है कि नही, या यूँ ही घूम रही हो। ’’ साजिया व तरन्नुम एक साथ बोल पड़ी, ’’खाना तो सुबह ही बना लिया था हमने। अब्बू तो सुबह ही खाना खा कर आॅफिस जाते हैं। अभी हम आपके लिए खाना लाते हैं बुआ।’’

     फहमीदा जानतीं हैं कि रसीदन चूड़ियाँ बेचने सुबह ही घर से निकली होंगी। गर्मियों के दिन हैं। आज इसी मुहल्ले में चूड़ियाँ पहनायी हांेगी। जब भी वह इस मुहल्ले में 

 

 

फेरी लगाती हैं, हलीम मियाँ के घर ही दोपहर का खाना खा कर आराम करती हैं, तथा शाम होने के बाद घर जाती हैं। 

     साजिया उनके लिए लोटे में पानी व तरन्नुम रसोई से थाली में खाना ले कर आई। तख्त पर थाली रखते हुए वह बोली, ’’बुआ, खाना खा लीजिए। ’’रसीदन ने खाने पर एक निगाह डा़ली व लोटा ले कर आँगन के एक किनारे हाथ धो कर खाना खाने बैठ गयीं। चावल, दाल, रोटियाँ व पालक की सब्जी सब कुछ एक बड़ी-सी थाली में करीने से लगा था। रसीदन बुआ ने खाना खाने के साथ ही पालक की सब्जी की प्रशंसा भी की। खाना खाने के उपरान्त चूड़ियों की माला ( मल्हार ) को आँगन के एक कोने में सुरक्षित रख कर वह उसी तख्त पर तकिया लगा कर लेट गयीं। फहमीदा भी तख्त के पास ही प्लास्टिक की कुर्सी डाल कर बैठ गयीं । वह रसीदन से घर-गृहस्थी की बातें, उलझनें, परेशानियाँ बता कर अपना हृदय हल्का कर लेना चाहती थीं। वे रसीदन से बताती हैं कि, ’’ वेे अपनी दोनों लड़कियों की शादी शीघ्र कर देना चाहती हैं, किन्तु लड़कियों से पहले लड़कों के व्याह के रिश्ते ज्यादा आने लगे हैं। वह बहुत पेशोपेश में पड़ गयी हैं कि लड़कियों की शादी किए बिना लड़कों का निकाह कैसे कर दें? बड़े बेटे बिलाल का व्याह कर के देख लिया। उसने इस घर से कोई रिश्ता न रखा। इनके रिटायर होने में भी कम दिन रह गयें हैं। साजिया के लिए कोई अच्छा रिश्ता आ जाए तो पहले उसका व्याह कर दें।’’ रसीदन अत्यन्त अपनत्व से उनकी बातें का समर्थन करती हैं। 

   किन्तु भाग्य का लिखा कौन टाल सकता है। लड़की वालों के इतने रिश्ते आए और रिश्तेदारों का इतना दबाव पड़ा कि हलीम मियाँ को एक वर्ष के अन्दर ही एक लड़के का व्याह कर देना पड़ा। बड़ी दौड़-धूप के बाद साजिया का भी निकाह हो गया। अब उनके एक पुत्र फिरोज व एक पुत्री तरन्नुम के व्याह की जिम्मेदारी शेष रह गयी थी। हलीम मियाँ के रिटायरमेन्ट में एक वर्ष शेष रह गयें हैं। उनकी इच्छा है कि नौकरी में रहते हुए ही तरन्नुम का व्याह कर दें। रह जाएगा फिरोज, तो उसका क्या! वह लड़का है, उसके व्याह में कोई परेशानी नही होगी। उसके लिए तो लड़़की वालों की तरफ से बहुत से रिश्ते आ रहे हैं, किन्तु तरन्नुम के लिए मन मुताबिक अच्छा रिश्ता नही आ रहा है। 

     जब तक तरन्नुम का व्याह नही हो जाता उसकी आगे की पढा़ई जारी थी। इस वर्ष उसका बी0ए0 पूरा होने वाला था। हलीम मियाँ भी दो माह के पश्चात् सेवा निवृत हाने वाले थे। उनकी चिन्ता बढ़ती ही जा रही थी। तरन्नुम घर की सबसे जहीन लड़की है। कितनी सादगी से रहती है। पढ़ाई के साथ ही साथ घर के कार्यों सिलाई-कढा़ई इत्यादि में भी निपुण है। वह पढ़ लिख कर शिक्षिका बनना चाहती है। इसके लिए आगे वह बी0टी0सी0 का कोर्स करना चाहती है। ताकि छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ा सके। बच्चों से उसे विशेष स्नेह भी है। किनतु हलीम मियाँ उसका निकाह कर एक बड़ी जिम्मेदाीर से मुक्त होना चाहते हैं। एक दिन रसीदन भी कह रही थीं कि, ’’ सयानी लड़की को बिना व्याहे घर में रखने से दोजख़ नसीब होता है। ’’ हलीम मियाँ दीनी व्यक्ति हैं, किन्तु वह रूढ़िगत् परम्पराओं से इतर आधुनिक व तरक्की का भी नज़रिया रखते हैं। वह लड़कियों की तालीम के खिलाफ नही हैं, किन्तु तरन्नुम के विवाह को ले कर वह भी काफ़ी फिक्रमन्द हैं। इस मसले पर वह रसीदन व फहमीदा ही बातों से सहमत हैं। लेकिन बात वहीं पर आ कर खत्म हो जाती है कि तरन्नुम के लिए किसी पढ़े-लिखे घर से अच्छा रिश्ता नही आ रहा है। 

  वक्त अपनी रफ्तार से फिसलता जा रहा था। सारे कार्य भले ही रूक जाएँ किन्तु समय नही ठहरता। कुदरत, मौसम सब अपनी तयशुदा चाल से चलते ही रहते हैं। उधर हलीम मियाँ सेवा निवृत्त हो गये, उधर तरन्नुम ने घर वालों के सहयोग या कहें कि उससे भी ज्यादा अपनी दृढ़ इच्छा के बल पर बी0टी0सी0 में प्रवेश ले लिया। नाते रिश्तेदारों के दबाव के चलते हलीम मियाँ को फिरोज का भी व्याह कर देना पड़ा। फिरोज व्याह के बाद अपनी अम्मी- अब्बू के साथ ही रहता व उनकी सेवा-खिदमत भी करता। वक्त सरकता रहा। धीरे-धीरे तरन्नुम की बी0टी0सी0 की शिक्षा पूरी हो गयी थी। फिरोज भी एक पुत्री का पिता बन गया।

     रसीदन बुआ कभी- कभी तरन्नुम के लिए कड़े, बुन्दे, चूड़ियाँ ला कर दे देतीं। वह जानती थीं कि तरन्नुम यह सब लेने बाजार नही जाएगी। तरन्नुम भी ऋंगार की ये सब चीजें बड़े शौक से पहनने लगी थी। किसी अनजाने शख्स के लिए सुन्दर दिखने का अरमान उसने सबसे छुपा कर अपने हृदय में पाल रखा था। कभी-कभी कढ़ाईदार, ज़री-गोटे वाले सलवार कुत्र्ते भी पहनती। आर्थिक मजबूरियाँ उसे उसे ज्यादा फैशनपरस्त कपड़े व गहने पहनने की इजाज़त नही देते। वो तो बुआ ला कर दे देती हैं तो पहन लेती है। हम उम्र लड़कियों की तरह कभी-कभी सज लेती है। बी0टी0सी0 कर लेने के बाद वह घर पर ही रहती है। अम्मी, अब्बू तथा उसकी भी यही इच्छा है कि अब वह इस प्रकार घर में बैठी न रहे ,नौकरी के लिए कोशिश करे। 

      एक दिन रसीदन बुआ के साथ उनकी छोटी बहन भी हलीम मियाँ के घर आयीं। वह बहुत दिनों बाद, दिनों क्या वर्षों बाद आयी हैं। तरन्नुम को याद है जब वह छोटी-सी थी तब वह एक बार आयी थीं। उसके बाद अब आयी हैं। कहते हैं मुम्बई में वह अपने शौहर के साथ रहती हैं। बला की खूबसूरत हैं वो। रसीदन बुआ से भी सुन्दर। किसी नवाबजादी, राजकुमारी या सौन्दर्य की देवी-सी। न क्रीम, न पाउडर, न कोई साज-श्रृंगार फिर भी दप-दप करता उनका रूप-सौन्दर्य। तरन्नुम तो उन्हे बस देखती ही रही। उनका उठना-बैठना, अपनत्व से सबसे बोलना तरन्नुम को आकृष्ट करता रहा। उनका नाम जैबुन्निशाँ है। रसीदन बुआ उन्हे ज़ैबुन कह कर पुकारतीं हैं। लोग कहते हैं उनका व्याह अच्छे घर में नही हुआ था। उनका शौहर ज़ाहिल व शराबी था। वह उनकी काबिलियत व सुन्दरता से इष्र्या करता था। शक कर के व तरह-तरह के लाँछन लगा कर उन्हे खूब प्रताड़ित करता था। तंग आ कर ज़ैबुन्निशाँ मुम्बई चली गयीं। वहीं बस गयीं। लोग उनके बारे में भी अनाप-शनाप बोलते हैं। लागों का क्या? तरन्नुम उनके बारे में उल्टी-सीधी बाते सुन कर डर जाती है। उसे ज़ैबुन बुआ से सहानुभूति व समाज से डर लगने लगता है। कुछ दिनों तक रसीदन बुआ के पास रहने के बाद जैबुन बुआ वापस मुम्बई चली गयीं। 

     आहिस्ता-आहिस्ता वक्त गुज़रता रहा। तरन्नुम शिक्षिका की नौकरी के लिए तेजी से कोशिशें करने लगी। रसीदन बुआ भी आती रहतीं। ईद का चाँद भी साल-दर-साल निकलता। पूरी कायनात पर खुशियों की वर्षा करता, चला जाता। तरन्नुम के जीवन में खास बदलाव नही आ पा रहा था। सिर्फ एक बदलाव यही आया कि उसके प्रयत्नों के कारण एक सरकारी प्राथमिक विद्याालय में उसे शिक्षिका की नौकरी मिल गयी। जीवन में फैलते जा रहे अकेलेपन से निकल कर वह कुछ व्यस्त होने लगी। ऊपर वाले को तरन्नुम की यह खुशी भरी व्यस्तता रास नही आयी। एक दिन हलीम मियाँ अचानक चल बसे। घर में आये इस तूफान का सबसे ज्यादा असर तरन्नुम व उसकी अम्मी पर पड़ा। तूफान उनका सब कुछ बहा कर ले गया। तरन्नुम अधिकतर खामोश रहने लगी। खामोशी से विद्यालय जाती। शेष समय घर के कार्य करती। फ़िरोज की पत्नी अपने बच्चों में लगी रहती। उसकी दो लड़कियाँ व दो पुत्र हो गये थे। फहमीदा बेग़म दिनों-दिन कमजोर होती जा रही थीं। उम्र से ज़्यादा वो फ़िक्र से बीमार रहने लगीं। तरन्नुम की फ़िक्र उन्हे बेहाल किए जा रही थी। उसके सभी भाई अपनी घर-गृहस्थी में मशरूफ हो गये थे। तरन्नुम के व्याह की तरफ से बेपरवाह। फिरोज भी अपने चार बच्चो, इस महंगाई व प्राइवेट नौकरी के साथ अपनी गृहस्थी को किसी प्रकार चलाने की कोशिश कर रहा था। हलीम मियाँ के पेन्शन के पैसे फहमीदा की दवाइयों पर ज्यादा खर्च होते, घर में कम। शुक्र है ऊपर वाले का कि तरन्नुम भी अपनी तनख्वाह के पैसे घर लाने लगी है। पूरे के पूरे पैसे वह घर की जरूरतों पर खर्च कर देती है। 

    फिरोज़ की बीवी जो पहले तरन्नुम को देख कर मुँह बनाये रहती थी, अब उससे हँस- बोल लेती है। फिरोज की नौकरी के पैसों से उसका घर खर्च पूरा नही पड़ता। वह तरननुम के पैसों की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखती है। यही कारण है कि तरन्नुम से अब वह अच्छा व्यवहार करती है। दुनिया के इन जंजालों को झेलते-झेलते एक दिन फहमीदा इन जंजालों सेे दूर चली गयीं। तरन्नुम फिरोज़ की गृहस्थी की गाड़ी के आवश्यक पुर्जे के रूप में फिट होने लगी। फहमीदा के न रहने पर उसके व्याह की रही-सही चर्चा भी ख़त्म हो गयी। 

     प्रति वर्ष की भाँति आज फिर चाँद रात आयी है। कल सारी दुनिया ईद मानायेगी। घर में सबके लिए नये कपड़े, गहने व अनेक पकवान बने हैं। तरन्नुम ईद के चाँद का दीदार करने के बाद छत पर ही बैठी है। नये कपड़े तो उसके लिए भी बने हैं। वह किसके लिए नये कपड़े पहनेगी? कौन देखेगा कि ये कपड़े उसके ऊपर जँच रहे हैं या नही! श्रृंगार किए हुए तो उसे अरसा हो गया। बचपन में रसीदन बुआ की लायी चूड़ियाँ, बुन्दे, झुमके देख कर उसने भी छुप-छुप कर अरमान सजाये थे। किन्तु........। इस समय उसके हृदय के इस वीरानेपन को काई नही समझ सकता। ईद का यह चाँद भी नही, तभी तो यह हर साल निकलता है। 

आज ईद के दिन रसीदन बुआ भी आयी हैं। उनके लिये इस अब घर में कुछ नही रखा है, किन्तु उन्हे इस घर की आदत-सी पड़ गयी है। बुआ भी उम्र की दहलीजों पर पाँव रखते-रखते वृ़द्धावस्था के अन्तिम पड़ाव पर आ पहुँची हैं। तरन्नुम रातों को रोती है चुप-चाप, सुबह भाई की गृहस्थी में शामिल हो हँस लेती है। आज ईद के दिन बुआ को देख कर उसे अम्मी-अब्बू बहुत याद आ रहे हैं। वह बुआ के गले लग कर ज़ार-ज़ार रोती जा रही है। बुआ बख़ूबी समझती हैं तरन्नुम के रोने की वजह। वह उसके माथे पर स्नेह से हाथ फेरती हैं। तरन्नुम के साथ बुआ का चेहरा भी आँसुओं से बेतरह भीग जाता है। तरन्नुम अम्मी-अब्बू की यादों में समाती जा रही है।                     

लेखिका - नीरजा हेमेन्द्र