वह है
मेरे फ्लैट के सामने वाले फ्लैट से आज अचानक रोशनदान से छन कर प्रकाश बाहर आ रहा था। एक वर्ष से बन्द पड़े उस मकान में शायद कोई रहने आ गया है। रोशनदान से छन कर आती प्रकाश की किरणों को देख कर मेरे हृदय मे प्रसन्नता के साथ ही साथ आगन्तुक के प्रति उत्सुकता के भाव भी जागृत होने लगे। इसका कारण कदाचित् यह होगा कि इस शहर में आये हुए मुझे एक वर्ष से कुछ ही अधिक हुए हैं। मैं पति के स्थानान्तरण के पश्चात् प्रथम बार दिल्ली से लखनऊ आयी थी तो मन में अनेक आशंकायें उत्पन्न हो रहीं थीं कि न जाने यह शहर कैसा होगा? यहाँ के लोग कैसे होंगे? मुझे यहाँ अच्छा लगेगा या नही? ऐसे अनेक प्रश्न......। इनका कारण भी यह था कि मैं दिल्ली में ही पैदा हुई व दिल्ली में ही पली-बढ़ी थी। दिल्ली से बाहर किसी अन्य स्थान पर प्रथम बार आयी थी। यहाँ आ कर मैं अपने परिवार जिनमें मैं, मेरे पति व दो बच्चे थे के साथ इस फ्लैट में शिफ्ट हो गयी। धीरे-धीरे हमें यहाँ अच्छा लगने लगा। बच्चों को तो यह शहर दिल्ली से भी अच्छा लगा। काॅलेज में उनके कुछ अच्छे मित्र भी बन गये। पति भी यहाँ आफिस के कार्यों में व्यस्त होने लगे। उन्हे कभी-कभी कार्यालय के कार्यों से बाहर भी जाना पड़ता। उनके बाहर जाने से भी मुझे कभी असुविधा नही हुई। यह शहर मुझे अपेक्षाकृत शान्त व सुरक्षित लगा। यहँा अन्य बड़े शहरों जैसी आपाधापी व भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी नही थी। मैं देख रही थी कि नवाबों के इस पुराने शहर मेें धीरे-धीरे एक नया शहर विकसित हो रहा था जो बहुमंजिली इमारतों व आर्कषक पार्कों-स्मारकों से सुसज्जित हो रहा था। सुविधायें व रोजगार की संभावनायें इस शहर को क्षेत्रफल के साथ ही साथ इसके स्वरूप को भी विस्तृत कर रहीं थीं। अब कहीं-कहीं अपार भीड़ व अपाधापी भी दिखने लगी थी।
शहर की ऊँची-ऊँची प्रचीन कलात्मक भवनों व नवाबों के रिहायसी अट्ालिकाओं की गुम्बदों व मेहराबों से टकरा कर आने वाली हवाओं में मुझे एक अजीब-सी मादकता की अनुभूति होती थी, जो प्रत्येक ऋतु में पाजेबों की झंकार व रानियों की चूड़ियों की खनक-सी हवाओं में मौजूद रहती। पुराने लखनऊ में रहने वाले स्थनीय निवासियों की सुसंस्कृत बोलचाल की भाषा, रहन-सहन व खान-पान एक सम्पूर्ण विकसित सभ्यता की दास्तान बयां करता। धीरे-धीरे हमने इस शहर को अपना बना लिया और इस शहर ने हमें।
सामने वाले फ्लैट से आज अचानक साँझ ढ़ले रोशनदान से आते हुए प्रकाश को देख कर मैंने यह सूचना अपने पति व बच्चों को किसी खुशखबरी की मानिन्द दी क्यों कि अपार्टमेन्ट के इस हिस्से में रहने वाली मैं अकेली थी। इस बात से मुझे कभी-कभी सूनापन व नीरसता का बोध होता था। मैं चाहती थी कि इस तरफ भी कोई रहने आ जाए ताकि इधर भी कुछ चहल-पहल व सक्रियता बढ़ जाए। इसलिए उस फ्लैट में किसी के आ जाने से मुझे अच्छा लगा। दूसरे दिन से घर के कार्यों को करते-करते यदा-कदा मैं उस फ्लैट की बालकनी की तरफ देख लेती कि उस नये परिवार का कोई सदस्य बाल कनी में आते-जाते दिख जाये। इस प्रकार दो दिन हो गये, किन्तु मुझे उस परिवार का कोई सदस्य दिखाई नही दिया। आज सहसा उस घर की बालकनी में एक महिला दिखीं। वह बालकनी में कपड़े फैला रही थीं। मैंने परिचय बढ़ाने के उद्देश्य से उत्सुकतावश उनकी तरफ देखा। अपनी तरफ मुझे इस प्रकार देखते हुए देख कर वो कुछ असहज-सी हो गयीं। वह लगभग पचास वर्ष की महिला थीं। सामान्य से कुछ ज्यादा वजन, गेहुएँ रंग व सामान्य व्यक्तिव की वो महिला कलफ लगी सूती साड़ी पहने हुए थीं। कुछ ही क्षणों के उपरान्त एक बच्ची आकर उनसे बातें करने लगी। वह कोई आठ- नौ वर्ष की बच्ची थी। कपड़े डालने के बाद वो उसे दुलारते हुए ले कर अन्दर चलीं गयीं।
दो-तीन दिनों के पश्चात् एक दिन लिफ्ट में वो छोटी-सी बच्ची अपनी माँ के साथ मिली गई। औपचरिक बातें प्रारम्भ हुईं और बातों ही बातों में यह भी पता चला कि उस दिन बालकनी में दिखने वाली वो महिला इस बच्ची की नानी हैं। ये लोग इस शहर में नये आये हैं। इस बच्ची की माँ जिनका नाम प्रोतिमा है, एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत हैंै। स्थानान्तरण के पश्चात् वह इस शहर में आयी हैं।
अब तो आते-जाते कभी लिफ्ट में, कभी इस अपार्टमेन्ट के प्रांगण में इन लोगों से यदा-कदा मुलाकात हो जाती। इधर कई दिनों से बच्ची की नानी नही दिख रही थीं। एक दिन अपार्टमेन्ट के प्रंागण में मुझे प्रोतिमा मिल गयी। वह कार्यालय से वापस आ रही थी। अभिवादन व कुशलक्षेम के आदान प्रदान के पश्चात् ज्ञात हुआ कि प्रोतिमा की माँ वापस अपने घर चली गयी हैं। वह पश्चिम बंगाल के एक छोटे-से गाँव की रहने वाली थीं। वहाँ उनका बेटा-बहू दो पोतियाँ रहती हैं। प्रोतिमा के स्थानान्तरण के पश्चात् नयी जगह पर उसके घर को व्यवस्थित कराने में उसकी मदद करने हेतु कुछ दिनों के लिए आयी थीं। बच्ची अपनी नानी से खूब हिल-मिल गयी थी। उसे भी उनसे बहुत सहारा मिल रहा था। उनके जाने से उत्पन्न अकेलेपन की उदास रेखायें उन दोनों के चेहरे पर परिलक्षित हो रहीं थीं।
समय का पहिया अपनी ही गति से घूमता रहा। कैसे ये दिन और रात ऋतुओं के रूप मंे परिवर्तित हो जाते हैं ? ये ऋतुयें भी कितनी अजीब होतीं हैं। समय चक्र के साथ अपनी प्रकृति बदलतीं ही हैं, किन्तु मुझे ऐसा क्यों लगता है कि ये हमारी मनःस्थिति के अनुरूप भी परिवर्तित हो जाती हैं।
लखनऊ की कठोर सर्दी की ऋतु धीरे-धीरे जा रही थी। फरवरी माह के आगमन के साथ यहाँ की हवायें खुशगवार हो उठी थीं। पेड़-़पौधे, पुष्प-लतायें सब प्रफुिल्लत हो कर नवश्रृंगार करना चाह रहे थे। यूँ तो येे वासन्ती हवायें सम्पूर्ण सृष्टि में नव-उमंग, नव- उल्लास, नव-श्रंृगार का संचरण करती हैं, किन्तु मुझे कभी-कभी ये वियोग, उदासी व एक अन्तहीन प्रतीक्षा का एहसास कराती प्रतीत होती हैं। मैं जब भी प्रोतिमा को देखती मुझे उसकी आँखों में न जाने क्यों सूनापन व एक अन्तहीन प्रतीक्षा का भाव तैरता नज़र आता। कुछ खोया हुआ ढूँढते उसके गहरे नेत्र हृदय में उतर जाते।
उस दिन घर के कार्यों को समाप्त कर के मैं बैठी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी। इस समय दोपहर में कौन हो सकता है ? बच्चे चार बजे के पश्चात् ही काॅलेज से आयेंगे। मैंने दरवाजे पर लगे मैजिक आई से देखा सामने प्रोतिमा खड़ी थी। उसे देख कर मन आश्वस्त हुआ व मैने दरवाजा खोला। अन्दर आने का संकेत पाते ही प्रोतिमा ड्राइंगरूम में आ गयी व सोफे पर चुप-सी बैठ गयी। आर्कषण चेहरे, बड़ी आँखें, मध्यम कद, गेहुएँ रंग व लम्बे बालों वाली प्रोतिमा में मुझे किसी आर्दश नायिका की सी छवि दिखाई देती थी। सूती कलफ लगी साड़ियाँ या सलवार कमीज के साथ बनाव श्रृंगार के नाम पर लम्बे बालों की एक ढ़ीली चोटी व चाल में एक ठहराव-सी गति।
प्रोतिमा प्रथम बार मेरे घर आयी थी। मैंने कुशलक्षेम पूछा। प्रोतिमा बताने लगी कि आज आवश्यक कार्यवश वह कार्यालय से कुछ विलम्ब से घर आयेगी। उसकी बच्ची को विद्यालय से आने के पश्चात् कुछ देर के लिए उसे मैं अपने पास रख लूँ। मुझे यह बताते हुए उसकी आँखों में अत्यन्त कृतज्ञता के भाव थे। मंैने तुरन्त उसे सहज करते हुए आश्वस्त किया कि वह बेफिक्र रहे। उसकी नन्ही-सी बेटी मेरी देखभाल में सुरक्षित रहेगी। प्रोतिमा से मैंने एक कप चाय पीने का आग्रह किया। उसने देर होने की बात कहते हुए चाय पीने से मना कर दिया व जाने लगी। मेरे आश्वस्त करने के पश्चात् भी उसके चेहरे पर विवशता व चिन्ता की मिली-जुली रेखायें स्पष्ट परिलक्षित हो रही थीं।
उसके बाद तो प्रोतिमा की बेटी अक्सर मेरे पास आकर रूक जाती। मैं उसे अपने बच्चों-सा स्नेह देती। वह हम सबसे ऐसे घुल-मिल गई थी, जैसे मेरे घर की सदस्य हो। इधर दो-चार दिनों से प्रोतिमा के फ्लैट की बत्ती नही जल रही थी। वह बालकनी में भी नही दिख रही थी। वह अचानक कहाँ चली गयी। इस शहर में उसका कोई अपना नही था। फिर वह कहाँ चली गई। मन में अच्छे-बुरे अनेक प्रश्न उठने लगे तो मैंने प्रोतिमा का मोबाइल नम्बर, जो उसने मुझे अपनी बच्ची के यहाँ रूकने की अवधि में आवश्यकता पड़ने पर सम्पर्क करने के लिए दिया था, मिलाया। फोन प्रोतिमा ने उठाया और बताया कि ’’कुछ आवश्यक कार्यसे वह कोलकाता आई है। दस-पन्द्रह दिनों के बाद वह वापस आ जाएगी।’’ फोन करने तथा उसका हाल पूछने के लिए उसने मुझे विनम्रतापूर्वक धन्यवाद दिया। मुझे भी अच्छा लगा कि सब कुछ ठीक है तथा प्रोतिमा कुछ दिनों बाद वापस आ जायेगी।
गर्मी श्नैः श्नैः अपने आने की दस्तक देने लगी थी। धूप में गर्मी का तीखापन उतर आया था। प्रातः सायं की ठंड़ी हवायें सुखद एहसास देने लगी थीं। लखनऊ की सर्दी कठोर होती है तो यहाँ की गर्मी भी कम कठोर नही होती। ऐसी गर्मी में दोपहर को बाहर निकलना एक चुनौती से कम नही लगता। आज तो गर्मी अपने तेवर दिख रही थी। मैं घर के रोजमर्रा के कार्यों को समाप्त करके कुछ देर विश्राम करने की सोच रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी। मैंने घड़ी की तरफ देखा, घड़ी तीन बजा रही थी। मैने दरवाजा खोला। सामने प्रोतिमा खड़ी थी। इस भरी दोपहरी में पसीने से लथ-पथ। अपनी छोटी-सी बच्ची की उंगली थामें। मैंने उसका कुशल क्षेम पूछा तो उसने बताया कि सब ठीक है। मेरे द्वारा दिये गए ठंडे पानी के गिलास को वह पूरा पी गयी। वह कोलकाता से आज ही आने के बाद मुझसे मिलने आ गई थी। कुछ देर रूकने के पश्चात् वह बताने लगी कि ’’उसकी माँ अपनी बढ़ती उम्र के कारण अब उसके पास नही आ पाएंगी। वह भी अब कोलकाता कम ही जा पायेगी। उसका वहाँ माँ के अतिरिक्त और है कौन? ’’ मेरे मन में इस बच्ची के पिता को ले कर अनेक प्रश्न उठते थे। आज उसकी बातों से मेरे प्रश्नों का उत्तर स्वतः मिल गया। अर्थात, उसे अकेले ही इस बच्ची की परवरिश करनी है। जीवन के कठोर धरातल पर, धूप-छाँव में चलते हुए, यह यात्रा पूरी करनी है। उसकी बच्ची मुझसे घुल-मिल गयी तथा बाल सुलभ बातें करने लगी। थोड़ी देर बैठने के पश्चात् प्रोतिमा मुझसे विदा ले कर जाने लगी। मैं प्रोतिमा को जाते हुए देख रही थी मुझे उसकी चाल में गति के साथ आत्मविश्वास भी नज़र आया। आत्मविश्वास से लबरेज उसके कदम आगे बढ़ते जा रहे थे। उसने दृढ़ता से अपनी बच्ची का हाथ थाम रखा था।
लेखिका- नीरजा हेमेन्द्र