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सरहद - 1

1

चीड़ के पेड़ों की टहनियां तेज हवा के दबाव से जोरां से हिलती हैं सायं-सायं के कनफोडू षोर से काँंप उठती हूँ। इन चीड़ों से ढेर सूखी पिरूल भी लगातार झर रही है। ऊपर चढ़ने की कोशिश करते पाँव नीचे फिसलने लगते हैं। इस पहाड़ी पर पहले से ही ढेर सा पिरूल जमा है, फिर नये पिरूल का गिरना जारी रहा तो चढ़ पाउंगी इस पहाड़ी की उकाल (चढ़ाई)?

रीढ़ में सर्द लहर उठ रही है। क्या होगा मेरा? तलवार की धार पर चढ़ने वाली जिन्दगी और ये पहाड़ी! पिरूल पर बमुश्किल पाँव टिकाकर पीठ टटोलती हूँ, इस पर एक फँछा बंधा है, जिस के भीतर दो साल का बच्चा है। भूखा प्यासा सो गया है शायद! क्या सोचा होगा इसने-माँ कहां ले जा रही है? फँछे में बाँधकर, अपने घर से दूर पौ फटने से पहले?

कुम्हला गया बेचारा! कितनी बार बोला था- माँऽऽ माँ! नीते उताल... दुदु पिला दे माँ! ‘‘पर मैं इसको बहलाती रही-पिलाती हूँ, मेरे लाल मेरे कनु! थोड़ा ऊपर चलकर बावड़ी के पास, हाथ मुँह धुलाकर पिलाऊँगी तुझे दुदु। खाने के लिये केला भी दुँगी मेरे बच्चे, ‘‘मेरी छाती में दूध मचल रहा है। ब्लाउज भी गीला हो गया है, पर कुछ भी हो रूकना नहीं है, रूक गई तो रूक जायेगी जिंदगी। कोई खींच लेगा अपनी सरहद में... बांदी बना लेगा..। नहीं मैं रूक नहीं सकती, चलते ही जाना है मुझे... मलतब चढ़ते ही जाना है उकाल (चढ़ाई)! एक चीत्कार आग की लौ सी लहरा कर राख करने लगी है! सीना...! फिसलते कदमों को संतुलन साधते हुए ऊपर धकेलती हूँ, चढती हूँ, ऐसे जैसे पाँडव चढ़ते गये एक-एक सीढ़़ी और गल-गल कर बिला गये मिट्टी में! सिर्फ धर्मराज ही बचे, वैसे ही मुझे बचाना है खुद को, मेरी देह पर दो आँखे लगी है-पीछा कर रही है।

मेरा भूखा प्यासा बिलखता बच्चा सोकर फिर कुनकुनाने लगा है। सुनो इसकी कातर पुकार- माँ! हम तहां जाले? ‘मेरी आँखों में धुआँ भर रहा है। वह झकझोर रहा है पिताजी के पास जाले हम?

‘‘नहीं बेटा नानी के गांव जाले हम! अभी तो मुझे खुद भी पता नहीं कि जा भी पायेंगे या नहीं...?

‘‘माँ! माँ! भूख लगी नीते उताल।’’ वह छटपटा रहा है मेरा कलेजा मुँह को आ रहा है। कितना समझाऊँ अपने जिगर के टुकड़े को कि मेरे लाल चलना ही जिदंगी है पर अभी चली ही कितना हूँ?

अभी तो मीलों चलना है मतलब चढ़ते जाना है-यह खड़ी पहाड़ी, निचाट सुनसान, मौन के जंगल बस मेरी ही पीड़ा का हाहाकार और पंछियों का कोलाहल। बाकी दूर-दूर तक कोई नहीं! मेरा भी मन हो रहा है कि अड़स जाऊँ भीटे पर, तनिक उबड़-खाबड़ साँसों को नियंत्रित कर लूँ..., भागते-भागते थक चुकी हूँ जाने कब से भाग रही हूँ। कुछ दिनों से...? वर्षों से? शायद शदियों से? या कई जन्मों से मैं ही अकेली भाग रही हूँ? इस पृथ्वी पर...? और भी स्त्रियाँ  भाग रही हैं? द्रौपदी भागी हो शायद किसी युग में...? जब कुन्ती ने उसे अपने पाँच पुत्रों के बीच बंटने को कहा होगा उसके भीतर लावा खलबलाया होगा.... उसने भी भागना चाहा होगा? एक अकेली स्त्री पाँच पुरूषों की आग को कैसे सह सकती?

उसकी मन आत्मा देह पर फफोले पड़ जाते? उसकी पीड़ा को समझ पाये वे धनुर्धर? नहीं न? कुंती भी नहीं समझी! समझी होती तो आज इस अवांछित आग को ढोने के लिये मुझे भी विवश न किया जाता? मेरे भीतर जलजला उठ रहा है। आंखे धुँआ-धुँआ हो रही है। आंखों का पानी पोंछने के लिये उंगलियां बढ़ाती हूँ पर पोरों पर पानी नहीं। सिर्फ सफेद कण! क्या है यह? नमक है शायद....नमक ही बचा है अब! यही रहा अनगिन आँखों की किर किरी! किस मिट्टी की बनी है वे? उनमें भी नमक था? होता तो नमक हलाली करती? तेजाब से जलाते शब्द फूट रहे हैं! जिंदगी की कुल उन्नीस सीढ़ी चढ़ती हुई मैं कितने युगों की पीड़ा समेटे हूँ कोई जान पायेगा? इस गाँव में जहाँ मैंने सुख-दुख साझा किये जिसने मुझे फलने-फूलने का आशीष दिया, एकाएक नदी की धारा में चट्टान बन कर क्यों खड़े हो गये? बहते पानी को तालाब में सड़ाने को उन्मुक्त क्यों हुए? कितना गिड़ गिड़ायी थी पर किसी ने न सुनी मेरी पुकार! वे पंच देव जिन्हें सुबहों शाम पूजती रही अपनी रोटी बनाने में चाहे आलस किया हो पर इन्हें भाग देने में कभी कंजूसी न की, कहाँ गये थे वे सारे देवी देवता? मेरे इस कातर समय में कहां बिला गये सब? अग्नि, जल, वायु और प्रकृति की ओर से कोई चमत्कार क्यों नहीं हुआ? और वे पांच गांवों के हजारों  जन, किसी ने क्यों फटकार नहीं लगाई? सभी के होंठों पर लेई जमी रही! जब मैं उनकी ओर बारी-बारी याचना भरी आँखों से टुकर-टुकर ताक रही थी तो उनकी फुसफुसाहट मेरे कानों में पिघला सीसा घुसेड़ती रही-तू औरत है रमोली, अभिमान तुझे कहीं का न छोड़ेगा, पंचों की राय मान ले कब तक भागती रहेगी। भागकर जायेगी भी कहां? द्रौपदी की सुनी थी जो तेरी सुनी जायेगी? यही एक रास्ता है वरना तू जानती है अपना हश्र ‘‘धरती के ओर-छोर से सिर्फ वही आवाजें-तू औरत है रमोली औरत... दंभ किस बात का ठहरा तुझे? ‘‘मेरी आत्मा चीत्कार कर रही थी-मैं जीती जागती स्त्री हूँ, मेरा दिल भी है, और दिमाग भी, अपना भला बुरा सोचने की क्षमता है मुझमें। चारों दिशाओं से आवाजों का कनफोडू शोर, मेरे दिमाग पर हथौड़ा मारने को हुआ!

‘‘क्यों छीनना चाहते हो मेरा सुखी संसार? क्या मिलेगा तुम्हें मुझे तिल-तिल मारकर? इससे बेहतर है मृत्यु दण्ड ही दे दो मुझे?’’ कितनी अबोध थी मैं, नहीं जानती थी कि उनका फैसला न माना तो मृत्यु उनकी जीभ में रखी है, उनके एक शब्द उच्चारने पर मेरा सिर धड़ से अलग हो सकता है, सिर धड़ से अलग न हो, तो भी रात में गला दबा दें या विष पिला दें? जिनसे मैं इंसाफ की उम्मीद रख रही थी उनके फैसले में मेरी मृत्यु अट्टाहस लगा रही थी। सब की आंखों में घृणा, क्रोध और धिक्कार था मेरे प्रति। मैं बकरी से ज्यादा कुछ नहीं थी और वह शैतान तो कच्चा चबाने को उतारू था। उसकी आँखों में कामुकता नंगा नृत्य कर रही थी।

मेरा बच्चा रो रोकर हलकान जा रहा है! बार-बार बाहर निकलने की कोशिश में थक कर घड़ी भर को निढाल, फिर बिलखने लगता है। मैं कैसी बदनसीब माँ हूँ जो घड़ी भर के लिये उसे उतार कर दूध नहीं पिला सकती। हे धरती माँ! मेरे धैर्य की परीक्षा कब तक लेती रहेगी? सीता को अपनी गोद में शरण दी थी मुझे कहां ठौर देगी? कहां टिकेंगे मेरे पाँव-इस लड़खड़ाती देह थामें? इन कोमल पाँवों के लिये तेरी विराट गोद में कहीं है कोई जगह? शब्दों का रेला बह रहा है घायल आत्मा पंख कटे पंछी सी फड़फड़ा रही है। जीवनदेने वाले तुझसे इतना अन्याय क्यों हो रहा है? उस पर तू उपर बैठा तमाशा देख रहा? अगर तू है तो...?

बच्चे की भूख अब और सहन नहीं होती पर पल भर के लिये भी बैठ गई तो?

कहीं वो आ गया तो....? नहीं... नहीं...वह नहीं आ सकता उसके पंख थोड़े ही है। जो उड़कर इतने लम्बे रास्ते को पार कर लेगा? पर इतनी देर में उसे पता चलना ही हुआ? नहीं... उसे तो पहले ही जानवरों के साथ जंगल भेज दिया था, और जंगल भी तो दूर ही हुआ। फिर खतरे की गंध क्यों आ रही है?

अड़स ही जाती हूं इसी भीटे पर दूध की धार इन नन्हें फड़फड़ाते होंठों पर डाल ही देती हूं तभी मेरा चैन पाना हुआ, पर फिर वही शंका कहीं चील की तरह उड़कर उसने झपटा मार लिया तो?

पर क्यों? अब क्या है उसका मुझसे? मन हो रहा था उसका गला दबाकर पुछूं -क्यों अचानक आ गया? क्यों ग्रहण सा लग गया मेरी जिंदगी पर.....? मैं तो उसी दिन तुझसे छूट गई थी जब मुझे अचानक छोड़कर चला गया था। अब उस छूटे हुए को फिर से पकड़ने आ गया! एक बार भी नहीं सोचा कि रमोली भी तुझे छोड़ सकती है,? मेरी स्मृतियों में भी अब तू कहीं नहीं था। अब तो जितना भी गलीच शब्द दुनिया में है, वे सब तुझ पर उडेलना चाहती हूँ। अब तो तुझे देख घृणा का ज्वार उमड़ रहा है, थू पड़े तेरी मर्दानगी पर। कितनी बार थूका था इसके ऊपर, पर, गलीच पर कोई असर नहीं हुआ!

मेरे पास कलम दवात तो थी, पर चिट्ठी लिखने का मौका ही कहाँ मिला। लिखती कि मेरे स्वामी मुझ से खुषकिम्मत तो जंगल के पशु व पंछी ही ठहरे, जिन्हें कहीं भी जाने की आजादी हुई।

इतना पढ़ना लिखना तो माँ ने सिखा ही दिया, उस समय पहाड़ में पाठषाला भी बहुत कम थीं, लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं था, कोई माता-पिता उदार दिल के हुए तो लड़कियों को मिडिल करा देते थे, कुछ चिट्ठी लिखने पढ़ने तक ही लड़की को पाठषाला भेजते थे, उन्हीं में मैं भी एक ठहरी!

हमारे गाँव से दो मील दूर दूसरा गाँव ठहरा, उसके वाषिन्दे मास्टर मोहन जोषी हुए। वे पिता जी के लंगोटिया यार ठहरे! माँ ने सोचा कि मास्टर जी अपने साथी की बेटी को पढ़ना सिखा ही देंगे, पीपल के छतनार पेड़ के नीचे टाट पट्टी बिछाकर आस-पास के गाँवों के बच्चे आकर पढ़ने आते। माँ मुझे मास्टर जी के पास ले गई, मास्टर जी ने भी खुषी की हिलोर में कहा कि- हाँ बौजी रमोली बिटिया को आखर पढ़ना लिखना सिखा देंगे।

माँ खुष होकर बोली थी- तुम्हारी अहसान मंद हूँ मास्टर जी तुमको पुण्य लगेगा, विद्यादान से बड़ा कोई दान जो क्या ठहरा! मास्टर जी रमोली के पिताजी की आत्मा भी सोरग में संतुश्ट हुई बल’’ अगले दिन माँ दो किलो घी का टिन मास्टर जी की रसोई में रख गई। पीपल के पेड़ के नीचे अपनी टाट की बोरी बिछाकर मैं पाटी बोल्ख्या निकाल कर मास्टर जी की तरफ मुँह करके बैठी, मास्टर जी बोले थे पहले ‘ओम’ लिखना, उन्होंने ओम का उच्चारण किया- हमने भी अनुसरण किया- ओम... ओम... ओम पर लिखना नहीं आया। खुले आंगन की इस पाठषाला में सभी लड़के थे, अगले तीन दिनों के भीतर दो लड़कियां आईं तो मुझे अच्छा लगा।

अभी पन्द्रह दिन ही हुए थे कि षर्मा मास्टर जी ने माँ से जाने क्या कहा? मेरी पाटी अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः के बाद सूनी पड़ गई। मैं घर में रहकर पाटी को निहारती रहती, तो पाटी कहती- लिख रमोली लिख आखर लिख, मेरी देह पर अ से अनार, आ से आम लिख, पर मुझे क्या पता था कि आखर तो मेरी देह पर लिखे जाने हैं बल। ऐसे आखर जिन्हें पढ़ते हुए आँखों में स्याह अंधेरा चिपचिपाने लगता है, दस साल की देह पर दो भूखी आँखे जाने कब अपनी वासना के आखर लिखने को आतुर ठहरी, यह तो बहुत बाद में माँ ने बताया कि मास्टर जी के बीस वर्शीय साले जिसकी तेरह वर्श की स्त्री पहाड़ से गिरकर मर गई थी, उसकी हवस की पूर्ति के लिये मुझ अनाथ से ज्यादा सुलभ लड़की और कहाँ हुई बल?

षर्मा मास्टर ने माँ के आगे षर्त रखी बल। माँ बोली थी मास्टर जी, तुम तो साक्षात् सरस्वती का रूप ठहरे, तुम तो अधरम की बात नहीं करो जी! इतनी छोटी बेटी है मेरी कुल दस बरस की, बीस बरस के रंडुवे मरद को सौंप दूँ .... अपनी फूल सी बच्ची को ऊपर जाकर क्या मुंह दिखाऊँगी। अपने देवता को... बोले थे पारवती! कुछ भी हो मेरी बेटियों को आखर पढ़ना लिखना जरूर सिखाना...‘‘ पर मास्टर जी नहीं पसीजे तो मुझे गाँव की पीपल पाठषाला को छोड़कर दूर की पाठषाला में जाना पड़ा।

एक बार तो मैं निराष हो गई कि अब पाठषाला का मुँह देखना नसीब में नहीं! अपने गाँव से चार मील दूर अकेली कैसे जा पाऊँगी? मैंने कलावती जो मेरी हमउम्र और कुटुम्ब की बहन थी, उसे मनाने की बहुतेरी कोषिष की थी कि वह भी मेरे साथ पाठषाला चले, पर वह डर गई, उसकी माँ ने कहा कि जंगल का रास्ता, जंगली जानवरों का डर, पढ़ना, लिखना, सीखना है, तो षर्मा मास्टर की पाठषाला में जाओ...। उन्हें क्या पता कि पीपल पाठषाला में मेरे लिए किस तरह पढ़ाई की साजिष चल रही है... हम अपना मुँह खोलते तो भी कोई फर्क पड़ने वाला न था। छोटी-छोटी लड़कियाँ बड़ी उम्र के पुरूशों के साथ बाँध दी जातीं!

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