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चैट बॉक्स.… - 3

भाग ३

पाँच सालों के दौरान मुझे बहुत सी बुक्स पढ़ने, टीवी देखने और समझने का मौका मिला, भाई मुझे बुक्स लाकर देते,मैं पढ़ती और पढ़ कर उन्हें वापिस कर देती कि कहीं मेरे कमरे में ये सब किताबे देख कर भाई और भाभी के बीच कोई झगड़ा ना हो जाए |ना चाहते हुए भी घर के हर काम की ज़िम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ली हुई थी क्यों कि मैं भाभी को ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहती थी कि मेरी वजह से उन दोनों में लड़ाई हो जाए |

दी..मेरा भाई बहुत अच्छा है, जानती हो क्यों...क्योंकि उन्हें कभी मुझ में कभी कोई कमी नज़र ही नहीं आती थी जबकि मैं ये अच्छे से जानती थी कि मैं ओर लड़कियों की तरह ना तो खूबसूरत थी ना सुंदर और ना ही मेरा साइज़ 0 था जैसे की करिश्मा और करीना कपूर का था....हम आज की लड़कियों की मॉडल हीरोइन्स...मैं ऐसी भी तो नहीं थी कि ..जिसकी वजह से मैं खुद देख देख कर इतराती रहती |

भाभी की हर सुबह मुझे ये ही कहते हुए होती थी कि इस कोयले की खान से कौन शादी करेगा? भगवान ने इसे ना रंग,ना रूप और ना ही कोई शेप ही देकर नहीं भेजा |हर जगह तो इसका मज़ाक बनता है|बस सारी उम्र ये मेरी छाती पर ही धरी बैठी रहेगी मुझे जलाने के लिए | खुद तो कोयला है ही, पर इसे देख-देख कर जलती मैं हूँ |'

क्या कहती भाभी को? किस मुहँ से उनसे लड़ती,जबकि मैं जानती थी कि मेरा रंग काला नहीं था, हाँ सावंली और थोड़ी भारी जरुर थी पर बेढंगी कभी नहीं थी | जब भी अपने आप को शीशे में देखती तो इतराना तो दूर कभी देख कर मुस्कुरा भी नहीं सकती थी |

तभी स्वाति ने उसे टोकते हुए कहा '' पर वन्दु ! तुम ऐसी भी साँवली नहीं हो कि तुम्हारी भाभी तुम्हें ताने दे | व्यवहारिकता के नाते ही वो तुम से प्यार से भी पेश आ सकती थी''|

''नहीं दी ! आज से पाँच साल पहले में साँवली ही थी | ये देखो मेरी पहले की फोटो |'' और वंदना ने अपने पर्स में से कुछ फ़ोटोज़ निकाल कर स्वाति के सामने रख दिये |

स्वाति ने सभी फोटो बहुत ध्यान से देखे और सिर्फ हल्की सी मुस्कान दी |

वंदना ने अपनी बात को ज़ारी रखा ....पता है दी ! मैं अभी उन्नीस साल की भी नहीं थी कि पता नहीं कहाँ से भाभी मेरे लिए एक रिश्ता ढूंढकर लाई | उन्होंने अपनी तरफ  से पूरी तैयारी कर ली थी कि वो मुझे विदा करवा के ही दम लेंगी |पता नहीं वो लड़के वालों को क्या पट्टी पढ़ा कर लाई थी कि उन्होने मुझे देखते ही पसंद कर लिया |पर मैं उस लड़के के लिए हाँ नहीं कर पाई , एक तो मेरी उम्र अभी उन्नीस साल थी और मुझे वो लड़का अपनी उम्र से बहुत बड़ा लग रहा था और दी ....उसके आधे से ज्यादा बाल सफ़ेद थे |मैंने रिश्ते के लिए साफ मना कर दिया |वो दिन मेरे लिए किसी कयामत से कम नहीं था |

भाभी मुझे घसीटे हुए मेरे कमरे में ले गई....और तब तक मुझे मारती रही, जब तक उनका गुस्सा शांत नहीं हो गया और मैं भी अपनी ज़िद्द में थी कि मुझे इस लड़के से शादी नहीं करनी ...मैं भाभी से तब-तक मार खाती रही, जब तक भाभी शांत नहीं हो गई |ये बात अलग थी कि उनके मारे बहुत से थप्पड़ मुझे ना लग कर कभी पलंग को, तो कभी दीवार पर लग जाते थे |

उनके इतना मारने पर भी मुझे रोना नहीं आया .....एक दम सुन्न और ढीढ़ बनकर उन से मार खाये जा रही थी और बस ये ही सोच रही थी कि हर किसी को उसके हिस्से की आज़ादी मिल गई...पर मेरी जैसी लड़कियों को असली आज़ादी कब मिलेगी ....हमारे लिए आज़ादी का कौन सा दिन आएगा |

पहले तो माँ के पेट में ही मार दिया जाता है और मेरी जैसी जो पैदा हो जाती हैं,उन्हें ये समाज और उनके घरवाले ही जिन्दा मारते रहते हैं....जब तक हम मौत को खुद से गले ना लगा लें|

उस दिन के बाद भाभी के तानों और लड़के दिखाने का सिलसिला आम हो गया था कि लड़के वाले आते, मुझे देखते ...भाई-भाभी के सामने अच्छे से बोलते, हूँ-हा हाहा करते, बेशर्मो की तरह खा पी कर चलते बनते|

लगातार ५ सालों तक के सब चलता रहा, भाभी रिश्ते लाती रही और लड़के मुझे नापसंद करते रहे | कभी बडी उम्र का लड़का तो कभी गंजा लड़का और कभी कभी विधुर |मैं हर बार मरती, मार खाती और हर बार अकेले में चीखे मार कर रो कर खुद को हल्का कर लेती थी  |पर दी ...एक बात यहाँ सही हुई कि भाभी की ज़ुबान जरूर कड़वी थी, मुझे मारा भी बहुत,पर मेरी शादी जबरन किसी से नहीं कारवाई | पता नहीं इस का क्या कारण था |

तभी स्वाति बोली '' वो इस लिया गुड़िया क्यों कि तुम्हारी भाभी तुम से छुटकारा पाना चाहती थी पर वो चाह कर भी तुम्हारी चुप्पी और सादगी से हार जाती थी | और बच्चे तुम इतनी तकलीफ में थी तो कभी तुमने अपनी भाभी के पास बैठ कर बात क्यों नहीं की ? वो भी एक औरत हैं , तुम्हारे दिल की आवाज़ जरूर सुनती ''|

''दी! आप को क्या लगता है ....क्या मैंने कोशिश नहीं की होगी ?

दी बहुत कोशिश की ...पर वो हार बार बात शुरू तो करती थी पर जैसे जैसे बात आगे बढ़ती ...उनकी ज़ुबान गंदी शुरू हो जाती ....ताने...कभी कभी गाली निकाल देना ...ये शुरू शुरू में तो कम था पर धीरे-धीरे बढ़ता गया और कुछ वक़्त के बाद उन्होने मुझ से बात करनी तो क्या ....मेरी शक्ल देखनी भी बंद कर दी |

जिस कमरे में मैं होती....वो वहाँ आती ही नहीं थी ....मेरे रसोई में जाते ही वो अपने कमरे में चल देती | मेरे हाथ का खाना, खाना तक बंद कर दिया था ....चाय के वक़्त आवाज़ लगाती थी तो वो मना कर देती थी और थोड़ी ही देर के बाद वो अपने लिए चाय बना अपने कमरे में चली जाती थी |

एक-एक महीने तक हम दोनों में कोई बात नहीं हुआ करती थी |फिर मैंने खुद को ही समेट लिए |
दी..हमारे धर्मशास्त्रों में भी कहा गया हैं कि ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र देवता''....अर्थात नारी को ज्ञान, सम्पति का स्त्रोत माना गया हैं तथा वह देवताओं के सम्मान पूजनीय हैं |मैंने कभी नहीं चाह की भाभी मुझे पूजे या मुझे बहुत-बहुत सम्मान दे |बस मेरी तो छोटी सी ही इच्छा रही है कि बस वो मुझे अपना मान कर अपना ले |

मुझे बहुत अफ़सोस होता था कि ‘क्यों मेरी भाभी मुझे और मेरे दिल को नहीं समझ पा रही थी कि मुझे सिर्फ और सिर्फ उनके प्यार की जरूरत है | वो क्यों नहीं समझ पा रही थी कि मैं ऐसे ही, किसी के साथ खुश नहीं रह सकती, मुझे हर कोई व्यक्ति खुश नहीं रख सकता...मैं सिर्फ उसी के साथ खुश रह सकती हूँ जो मुझे,मेरी भावनाओं को समझे, ना कि मेरे रंग-रूप और सुंदरता को और इसी बात को उन्होनें कभी जानने या समझने की कोशिश ही नहीं की |

जिंदगी तब और कठिन हो जाती है जब आपके अपने आप को समझ कर भी नहीं समझते और फिर भी ना जाने क्यों मैं हर वक्त ऐसा महसूस करती रहती कि भाभी,मेरी माँ बन कर मेरा साथ देने चली आए, पर ऐसा कभी हुआ नहीं |

मैं खुद से क्या चाहती हूँ...कभी समझ नहीं पाई ,मन में एक खालीपन सा क्यों है  एक ऐसी कमी, एक ऐसा बचपन जो मैंने जी कर भी कभी नहीं जिया |एक ऐसा प्यार जो मैंने पा कर भी कभी महसूस नहीं किया| किसी को टूट कर प्यार करना क्या होता ...वो भाव कैसा होता है जब आप किसी को अपनी प्यार की छावं में लेते है? क्या वो भी मेरे इन भावों को समझ पाएगा ,पता नहीं ?????? मेरी इस अस्थिर जिन्दगी में विचारों की हलचल को आराम कब मिलेगा,मैं नहीं जानती थी ??

स्वाति के मुंह से बरबस ही निकाल पड़ता है ''ओह''| और वो फिर से वंदना को सुनने लगती है |

स्वाति दी.........(वन्दु ने अपनी बात जारी रखी ....)

जिन्दगी मे कई बार ऐसे वक़्त आते हैं जब ये सोचना बेहद जरूरी होता है कि जीवन के किस हिस्से को आगे ले जाने की जरूरत है?

इस घर में मेरी क्या औकात है,शायद इसे ही सोचते हुए इस बार भाई मेरे लिए रिश्ता लेकर आए |लड़का देखने में अच्छा था और उसके बड़े भैया-भाई, मम्मी-पापा सब दुबई में रहते थे |नितिन ....ये ही नाम था उसका वो अपनी चाची और बाकी के परिवार के साथ यहीं...इंडिया में....राजकोट(गुजरात)में सेटल था और यहाँ का काम देखता था |बहुत अमीर घर था ....भाई के अनुसार उन्होनें  मुझे पसंद ही इस लिए किया था कि फोटो में कि मैं उन्हें बहुत सिंपल और घरेलू लगी थी |

मेरे साँवलेपन से भी किसी को कोई दिक्कत नहीं थी....भाई आज रिश्ता पक्का करके ही घर आए थे उनकी ये ही बात मेरे और भाभी के लिए किसी हिरोशिमा बम ब्लास्ट से कम नहीं थी......पर भाभी के लिए ज्यादा | अब उनके भी ना करने का तो कोई मतलब ही नहीं था |

एक ही हफ्ते में एक बड़े से होटल में बहुत शानदार तरीके से मेरी शादी हो गई| शादी का सारा खर्चा नितिन के परिवार ने किया |

दी......शादी के एक महीने बाद मुझे जिंदगी ने एक ओर सरप्राइज़ दिया कि मेरी भाभी, जो मुझ से हर वक़्त खफा रहती थी.....अब वो मुझ पर नाराज़ नहीं होती थी |मायके जाने पर (मायके के नाम पर भैया-भाभी ही तो सब कुछ थे)अब वो मुझ से कड़वा नहीं बोलती थी |मैंने ऐसा महसूस किया कि मानों मैंने अपनी जिंदगी की वो अनदेखी जंग जीत ली थी जिसके लिए मैं एक अरसे से तड़प रही थी|भाभी एक दोस्त के रूप में मुझ से जुडने लगी थी |पर ऐसा क्यों हो रहा था, उस वक़्त ये बात मेरे दिमाग में नहीं आ रही थी .....बस मैं खुश थी इतनी खुश की मुझे माँ तो नहीं पर माँ जैसी १०% जरूर मिल गई  थी...कम से कम उस घर में मेरे आने-जाने से वो अब अपनी खुशी ज़ाहिर करती थी |

तभी स्वाति ने उसे बीच में ही टोक कर पूछा'' तो वन्दु तुमने इस बात को जानने की भी कभी कोशिश नहीं की | जो भाभी कल तक तुम्हारी दुश्मन थी .....तुमसे बात नहीं कर रही थी.... तू उसके लिए बस एक अनचाहा बोझ थी....फिर भी तू खुश थी ??? ये कैसी खुशी थी तेरी बच्चे ?

'' हाँ दी! मैंने सच में कुछ भी जानने की कोशिश ही नहीं .....अगर ये भी झूठ था तो भी मैं इसी के सहारे अपनी बाकि  की जिंदगी निकाल देना चाहती थी ''|

ना चाहते हुए भी कभी कभी कुछ रिश्ते अपने आप बन जाते है और दी ...ऐसा ही रिश्ता मेरा 'नितिन' से बन गया | रिश्ता अनदेखा तो नहीं था पर बिना पहचान के जरुर था|

नितिन का तो मुझे पता नहीं पर मैं नितिन के आकर्षण में बंधी किसी चंचल हिरणी की तरह कुलांचे भर रही थी | मैं सुन्दर दिखना चाहती थी .....शादी के बाद पैसे की चमक से मैं लापरवाह हो गई थी....घर पर कोई था ही नहीं जो मुझे बेकार के खर्चे के लिए टोकता |मेरा ज्यादातर टाइम अब ब्यूटीपार्लर जा कर फेशिअल, पेडिक्योर, मेनिक्योर, हेयर स्पा, हेयर कलर ओर ना जाने क्या क्या करवाने में बीतने लगा | मैं बस सुन्दर दिखना चाहती थी...किसी भी कीमत पर |

मैं अपने पहनावे को लेकर पहले से ज्यादा सचेत  हो चुकी थी ताकि ऐसा कोई भी मौका ना चुके कि नितिन मुझ से दूर हो,ऐसा मैं अपने आप से सोचने लगी थी, जबकि नितिन की ओर से ऐसी कोई भी बात नहीं कही गई थी जिस की वजह से मैं उसे किसी भी शक के दायरे में रखती |........  

(क्रमशः)

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