बैंगन - 37 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बैंगन - 37

आपको आश्चर्य हो रहा है न? मैं इस तरह चोरों की तरह निकल कर क्यों भागा!
घर में जो कुछ चल रहा था उससे न जाने क्यों, मुझे कुछ शंका सी होने लगी थी।
लेकिन वाशरूम के भीतर घुस कर जब मैंने उसके खुफिया स्विच को घुमाया तो कुछ नहीं हुआ। मैंने कई बार कोशिश की, मगर वाशरूम वैसे ही स्थिर बना रहा। तो क्या भाई ने इसका कनेक्शन हटवा कर इसे स्थिर बनवा लिया?
लेकिन मैंने तो इस बारे में कभी किसी को कुछ बताया नहीं था। तो क्या भाई को अपने आप ही ये पता चल गया कि मैं इस ख़ुफ़िया रास्ते और तकनीकी डिवाइस के बारे में जानता हूं? या फिर ये भी तो हो सकता है कि वह पहले से ही ऐसा करवा लेने वाले हों। यदि उन्हें इस ख़ुफ़िया रास्ते का कोई ग़लत उपयोग करना ही होता तो वह इसे साधारण तरीके से खुला हुआ क्यों छोड़ते? इस पर ताला लगा कर इसे अपने कंट्रोल में तो रखते।
ख़ैर, ये सब अटकलें लगाने का अब वक्त नहीं था। थोड़ी देर बाद जब मुझे सब कुछ शांत हो जाने का भरोसा हो गया तो मैं चुपचाप यहां से आगे के दरवाज़े से ही निकल कर बाहर चला गया।
लेकिन मैं डर किससे रहा था? घर से निकल कर क्यों चला गया? मुझे तो वैसे भी घर में अच्छे तरीके से विदाई दी ही जा रही थी। फ़िर चोरों की तरह निकल भागने की ज़रूरत कहां आ पड़ी?
अरे मैं डर गया था।
जब मैं अचानक घबरा कर छिप गया तो बाद में मुझे ये लगने लगा कि अब सबके सामने आते ही सब मुझसे ही पूछेंगे कि मैं क्यों छिप गया? मैंने क्या किया था?
और बस, इसी शंका से बचने के लिए मैं घर से निकल भागा।
लेकिन सड़क पर आते ही मेरे सामने ये सवाल नाग की तरह फन फैलाए खड़ा हो गया कि अब मैं कहां जाऊं? मेरा अपना सामान तो भीतर भाई के बंगले पर ही था। वो सब सामान भी अंदर ही था जो भाई -भाभी द्वारा मुझे दिया जा रहा था। ऐसे में बस या ट्रेन से वापस अपने घर लौट जाने का तो कोई औचित्य नहीं था।
अपने घर इतने दिनों बाद जाऊं और वो भी चोरों की तरह छिप कर अचानक? अपना सामान यहां छोड़ कर, यहां किसी को बिना बताए? वहां सबको क्या जवाब दूंगा! और अगर उन लोगों ने भाई से फ़ोन करके कुछ पूछ लिया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। जब भाई बताएगा कि मैं यहां किसी को बिना बताए सामान छोड़ कर भागा हूं तो मुझे शहर भर में पागल घोषित होने से कोई नहीं बचा सकेगा।
नहीं- नहीं, सवाल ही नहीं। ऐसा हरगिज़ नहीं करूंगा।
तो ऐसे में एक ही रास्ता था कि मैं तन्मय के घर चला जाऊं। माना कि तन्नू यहां नहीं है पर उसका घर तो है। उसके पिता पुजारी जी तो घर पर होंगे ही। मैं जल्दी से एक रिक्शा पकड़ कर मंदिर की ओर ही निकल गया।
पुजारी जी मंदिर से लौटे नहीं थे। मैंने मंदिर के मुख्य दरवाजे पर पहुंच कर जब दूर से ही उन्हें नमस्कार में हाथ जोड़े, वो आरती का थाल हाथ में उठाए आरती करने में तल्लीन थे।
पर उन्होंने मुझे देख लिया। उन्होंने आरती की थाली को एक हाथ में पकड़ कर दूसरा हाथ कमर के पास अपनी धोती में डाला और घर की चाबी निकाल कर आरती की भीड़ में खड़े एक लड़के को इशारा किया। लड़का बिना एक पल की भी देर किए लपक कर पुजारी जी के हाथ से चाबी लेकर मेरी ओर आने लगा।
घर पहुंच कर लड़के ने ताला खोला और रसोई में रखे मटके से एक गिलास भर कर मुझे पानी पिलाया।
सचमुच इस समय मुझे ज़ोर से प्यास लगी थी और पानी मुझे अमृत तुल्य ही लगा।
थोड़ी देर बाद ही मैं कमरे में पड़ी खाट पर पसरा हुआ था और लड़का रसोई में मेरे लिए चाय बना रहा था।
लड़के ने ही मुझे बताया कि आज खाने का टिफिन किसी यजमान के घर से आया है जो मंदिर में ही रखा है, और वह लड़का थोड़ी देर में जाकर ले आयेगा।
लड़के ने थोड़ा ज़ोर देकर पूछा कि अगर मुझे अभी भूख लगी हो तो वह अभी जाकर ही खाने का टिफिन ले आए।
मैंने हाथ के इशारे से उसे मना कर दिया। वह वापस जाने को उद्यत हो गया। किंतु जाते - जाते वह एक बार फ़िर पलट कर मेरे पास आया और बोला- आपका बिस्तर ऊपर छत पर रख कर आऊं या फिर आप यहीं कमरे में पंडित जी के पास सो जाओगे?
मैंने मुंह से बिना कुछ बोले ऊपर छत की ओर इशारा कर दिया।
लड़का सिर खुजाता हुआ झाड़ू उठा कर छत की सीढ़ी लगाने लगा।