दोपहर को हम लोग काफ़ी देर बाज़ार में चहल कदमी कर लेने के बाद कोई ऐसी जगह तलाश कर रहे थे जहां आराम से बैठकर खाना खा सकें।
प्रायः किसी नई जगह जाने पर "अच्छी" जगह होने का पैमाना यही होता है कि जहां ज़्यादा लोग भोजन कर रहे हों वहां खाना बढ़िया ही होगा। हालांकि हमेशा ऐसा नहीं होता, कई बार सस्ता खाना मिलने से भी भीड़ लग जाती है। किसी किसी शानदार सी जगह पर लज़ीज़ खाना होने पर भी कम लोग जाते हैं क्योंकि वो जगह महंगी होती है। टूरिस्ट प्लेस पर तो ऐसा अक्सर होता है।
इधर- उधर घूमते हुए मुझे एक अत्यंत शानदार सा भव्य होटल दिखाई दिया। बड़े से लॉन के पार्श्व में आलीशान होटल की इमारत थी किंतु खाने की मेजें भी अपेक्षाकृत काफ़ी भरी हुई थीं।
ये जगह किसी हेरिटेज होटल की तरह भव्य तो दिखता ही था, यहां की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि यहां विदेशी पर्यटकों का भारी जमावड़ा था।
बहुत सारे लोग खाना खा रहे थे जिनमें भारतीय भी अच्छी खासी तादाद में थे।
मेरे कदम उसी ओर बढ़ गए।
मुझे वहां जाता देख कर तन्मय को कुछ संकोच सा हुआ। शायद वह मन ही मन ये सोच रहा हो कि ये जगह तो काफ़ी महंगी होगी। किंतु एक नज़र अपने कपड़ों पर डालता हुआ वह मेरे पीछे- पीछे आने लगा। उसने कल ही खरीदी गई नई टीशर्ट और जींस पहन रखी थी। इस बात ने शायद उसके कॉन्फिडेंस लेवल में कुछ बढ़ोतरी की।
कौने की एक खाली टेबल पर हम दोनों बैठ गए।
उड़ती सी नज़र वहां जमा लोगों पर डालता हुआ वह भी मेरे सामने की कुर्सी पर बैठ गया।
मेरा ध्यान एक ख़ास बात पर गया। मैंने देखा कि होटल की शानदार क्रॉकरी और कटलरी के होते हुए भी अधिकांश लोग हाथ से, देसी पद्धति से ही खाना खा रहे हैं। खास तौर पर विदेशी लोगों को इस तरह खाते देखना दिलचस्प था।
और मज़ेदार बात ये थी कि रोटी, परांठा या नान आदि के इंतजार में बैठे लोग अंगुलियों को चाट- चाट कर स्वाद का मज़ा ले रहे थे। वेटर लड़के दौड़ - दौड़ कर भोजन परोस रहे थे।
जब मैं कई युवतियों के साथ साथ पुरुषों को भी इस तरह अंगुलियों को चाट कर खाना खाते हुए गौर कर चुका तो तुरंत मेरा ध्यान सामने कुछ ऊंचाई पर लगे एक विशाल बोर्ड पर भी गया जहां बड़े आकर्षक रंग- बिरंगे अक्षरों में "आज की ख़ास पेशकश" अर्थात "टुडे'ज़ स्पेशल" व्यंजन का ज़िक्र था।
इसमें "बैंगन का भरता" लिखा हुआ था।
मुझे सहसा याद आया कि बहुत से लोग तो बैंगन खाना ही पसंद नहीं करते किंतु कुछ लोगों की यह पसंदीदा सब्ज़ी है। और अचंभे की बात ये थी कि इस होटल ने आज की ख़ास पेशकश कह कर बैंगन परोसा था।
वैसे बैंगन की सबसे ज़्यादा पसंद की जाने वाली फॉर्म इसका भर्ता ही मानी जाती है।
बैंगन को लेकर कई तरह की कहावतें भी मैंने सुनी थीं। ऐसे लोग जो खुद किसी बात को न मानते हुए भी दूसरों को उसे अपनाने का उपदेश दें, उन्हें कहा जाता था कि ख़ुद गुरुजी बैंगन खाएं, दूसरों को शिक्षा दें (न खाने की)। बैंगन को गैस बढ़ाने वाला भी माना जाता है। बड़ी उम्र के लोगों को दो कारणों से बैंगन न खाने की सलाह दी जाती है- एक तो इससे गैस बनती है ये कह कर, दूसरे जिन लोगों के दांत नहीं होते, कमज़ोर होते हैं या फिर दूर दूर होते हैं उन्हें इसके बीजों से होने वाली परेशानी को लेकर। लोग ये भी कहते थे कि अगर बैंगन का बीज पेट में कहीं फंसा रह जाए तो उस पर ठोस भोज्य पदार्थों के जम जाने से पथरी बन जाने का ख़तरा पैदा हो जाता है।
बहरहाल यहां तो इन सब बातों की जम कर धज्जियां उड़ाई जा रही थीं और देसी विदेशी मेहमान अंगुलियों को चाट- चाट कर इसका लुत्फ़ उठा रहे थे।
मेरे चेहरे पर न जाने क्यों, हल्की सी मुस्कान भी तैर गई। तन्मय आश्चर्य से मेरी ओर देख रहा था और शायद ये कयास लगाने में जुटा था कि मैं क्यों हंस रहा हूं।
सच कहूं, मुझे तो बरसों पुरानी एक घटना भी याद आ गई थी जो विद्यार्थी जीवन में कभी एक मैस में खाना खाते हुए घटी थी। ज़रा सी बात पर लड़कों के बीच तू- तू -मैं -मैं की नौबत तक आ पहुंची थी।
उस दिन खाने में बैंगन की ही सब्ज़ी बनी थी और लड़के तरह- तरह से बैंगन को लेकर अपनी ना- पसंद जाहिर कर रहे थे। तभी एक लड़के ने कहा- " कहत कबीर सुनो भई साधो... बैंगन खाओ तड़ातड़ पा..."! बात तो केवल बैंगन से पेट में गैस बनने को लेकर थी पर आख़िर साहित्य के विद्यार्थी कबीर की हेठी कैसे सह लेते?