बैंगन - 24 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बैंगन - 24

रात को एक ढाबे में खाना खाने के बाद मैं और तन्मय पुष्कर से निकल कर जाती उस वीरान सड़क पर बहुत देर तक घूमते रहे जो इन दिनों पर्यटकों की आमद कम हो जाने के चलते सुनसान सी ही हो जाती थी। दोपहर यहां पहुंचने के साथ ही हमने इस क्षेत्र के लगभग ख़ाली पड़े हुए इन कॉटेज में एक कमरा ले लिया था और शाम तक पुष्कर के मंदिरों और बाज़ार की ख़ूब सैर की।
मैं मेले या त्यौहार के दिनों में भी कई बार पुष्कर आ चुका था जब यहां बहुत भीड़ भाड़ रहती थी और सरोवर श्रद्धालुओं के स्नान व दर्शन से आबाद रहता था। यहां के होटल, धर्मशालाएं और ढाबे भी गुलज़ार रहते थे।
ये छोटा सा कस्बा विदेशी पर्यटकों का भी अच्छा खासा आकर्षण केंद्र था और यहां देशी- विदेशी परिधानों में घूमते कई विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा रहता था। अब तो कई विदेशी लोग स्थाई रूप से भी यहां बस गए थे जो दुकानों और सड़कों पर पर्याप्त संख्या में दिखाई देते रहते थे। बहुत से लोग तो अब बोलचाल और पहनावे में पाश्चात्य ढंग भूल कर पूरी तरह भारतीय ही हो गए थे।
राजस्थान प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता बाहरी लोगों को खूब रास आई थी।
तन्मय की मायूसी और उदासी अब काफ़ी कम हो गई थी और वह धीरे धीरे सामान्य होने लगा था। मंदिर के अहाते में अपने पिता के साए में उन्मुक्त जिंदगी जीते रहे उस युवक के लिए पुलिस की हिरासत में रह आना एक बड़ा झटका था जिससे उबरने में उसे मुझसे पूरी सहायता मिली। उसे मुझ पर पूरा विश्वास भी हो गया था और वह मुझे अपना शुभचिंतक समझने लगा था। मैंने यद्यपि उसे अपने भाई के रोजगार के संबंध में अपने मन की शंका के निवारण के लिए एक अनोखे किस्म की तहकीकात में लगाया था तथापि वो यह बात भी अच्छी तरह जानता था कि हम लोग किसी खूंखार अपराधी के खिलाफ नहीं लड़ रहे थे। बस कुछ ऐसी बातें ही जानने की कोशिश कर रहे थे जो हमसे छिपाए जाने का अंदेशा था।
फ़िर इतने दिनों से मेरे साथ रह कर तन्मय को इतना विश्वास भी हो गया था कि मैं पैसे के मामले में कोई कंजूस नहीं हूं। मेरे पास उसे अपने रोजगार से लग जाने और ठीकठाक पैसा आसानी से मिल जाने का भी पूरा भरोसा था। मेरे भाई की मिल्कियत और संपन्नता तो वो खुद अपनी आंखों से देख ही आया था।
उसने शाम को संकोच से खुद ही देखा भी था जब मैंने बाज़ार से उसे कुछ कपड़े दिला दिए थे। मेरे पास बैग में दो कमीज़ें, पैंट, पायजामा- कुर्ता ज़रूर थे पर वो तो लगभग पहने हुए कपड़ों में ही मेरे साथ चला आया था। अतः उसके लिए भी कुछ कपड़े और अंडर गारमेंट्स हमने बाज़ार से शाम को ही खरीदे थे। ये भी तय नहीं था कि हम लोग यहां कितने दिन तक ठहरेंगे और वापस कब जाएंगे।
इतनी उथल- पुथल के बाद मैं मन से पूरी तरह सामान्य हो जाने के बाद ही वापस लौटना चाहता था।
मेरे दिमाग़ में यह उधेड़- बुन भी चल रही थी कि सब कुछ सामान्य पाए जाने पर मैं तन्मय को या तो भाई के पास उसके लंबे- चौड़े कामकाज में कहीं नौकरी से लगवा दूंगा या अपने साथ अपनी दुकान में काम करने के लिए ले जाऊंगा।
वह अपने पिता की ओर से निश्चिंत था और कहीं भी रह सकता था जहां उसका रोजगार हो।
रात को घूम फ़िर कर जब हम कमरे पर आकर सोने के लिए लेटे तो मैंने उससे पूछा- क्या तूने उस लड़की "चिमनी" को कभी खोजने की कोशिश नहीं की, जिसके पिता ने उससे शादी का प्रस्ताव देकर दहेज में पहले ही तुझे तांगा दे दिया था।
इस सवाल पर तन्नू कुछ चुप सा हो गया। उसे कुछ न बोलते देख मैंने थोड़ा और कुरेदने की कोशिश की। दरअसल मैं उसे उसका कष्ट भुला कर पहले की तरह सामान्य बनाने की कोशिश कर रहा था।
काफ़ी ज़ोर देने के बाद तन्मय ने मुझे बताया कि लड़की उससे काफ़ी बड़ी थी और आसपास के लड़कों को ये भी अंदेशा था कि वह पहले से किसी और लड़के से मिलती जुलती थी।
फ़िर आगे कोई नौबत ही कहां आई। उसी शाम तो वो घर से चली गई जिस दिन उसके पिता ने पुजारी जी को तांगा सौंपा और शादी की पेशकश की।
हम देर तक बातें करके सोए।