विश्वासघात--भाग(७) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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विश्वासघात--भाग(७)


शाम का वक्त था.....
डाक्टर महेश्वरी अपने दवाखाने में कुछ उदास सी बैठी थी,तभी विजयेन्द्र उसके पास पहुँचा और महेश्वरी को उदास देखकर पूछ बैठा.....
क्या हुआ डाक्टरनी साहिबा! कुछ उदास सी मालूम होतीं हैं? क्या मैं आपकी उदासी का कारण जान सकता हूँ, विजयेन्द्र ने पूछा।।
कुछ नहीं मास्टर साहब बहुत दिन हो गए हैं ,बाबा का कोई ख़त नहीं आया,जो ख़त मैने उन्हें भेजा था उसका जवाब भी उन्होंने नहीं दिया,मन घबरा रहा है कि कहीं उनकी तबियत खराब ना हो,महेश्वरी बोली।।
तो कल डाकखाने चलकर टेलीफोन करके पूछ लीजिए कि क्या बात है? विजयेन्द्र बोला।।
सच,आप मुझे डाकखाने ले चलेंगें, लेकिन इस तरह बार बार आपसे मदद लेना मुझे अच्छा नहीं लगता ,पता नहीं आप क्या सोचते होंगें, महेश्वरी बोली।।
हाँ,वो तो है, सोचता तो मैं भी हूँ कि इतनी पढ़ी लिखी काबिल डाक्टरनी इस छोटे से गाँव में आकर लोगों की मदद कर रही हैं, चाहती तो शहर में किसी बड़े अस्पताल में ठाठ से बिना मेहनत की मोटी कमाई पाती,विजयेन्द्र बोला।।
लोगों की मदद करना तो अच्छा काम होता है, महेश्वरी बोली।।
वही तो कि लोगों की मदद करना अच्छा काम होता है, विजयेन्द्र बोला।।
वाह...वाह...मास्टर साहब! बातें बनाना तो कोई आपसे सीखे,महेश्वरी बोली।।
ना ना मैने तो आपके संकोच का समाधान बताया हैं, विजयेन्द्र बोला।।
अच्छा! ये बताइएं कोई खा़स काम जो आप यहाँ पर तशरीफ़ लाएं,महेश्वरी ने पूछा।।
हाँ,कल रात ना माँ के हाथ पर किसी कीड़े ने काट लिया,कुछ चकत्ते से पड़ गए है अगर आपके पास कोई दवा हो तो,विजयेन्द्र बोला।।
हाँ,है ना,ये मलहम ले जाइए,इससे आराम लग जाएगा, महेश्वरी बोली।।
तो फिर कल दो घंटे का समय निकाल लीजिए, कम्पाउंडर साहब यहाँ सम्भाल लेगें और मैं भी हेडमास्टर साहब से दो घंटे की छुट्टी ले लेता हूँ, डाकखाने चलकर घर टेलीफोन कर लीजिए,विजयेन्द्र बोला।।
ठीक है तो सुबह नौ बजे तैयार रहूँगी, महेश्वरी बोली।।
मै अब चलता हूँ, सुबह मिलते हैं और इतना कहकर विजयेन्द्र चला गया।।

सुबह हुई और नौ बजे विजयेन्द्र अपनी साइकिल लेकर महेश्वरी के पास जा पहुँचा,महेश्वरी भी तैयार खड़ी थी,उसने फौऱन विजयेन्द्र से पूछा___
माँ को मलहम से आराम लगा।।
हाँ,डाक्टरनी साहिबा!रात को माँ दवा लगाकर सोई थी,सुबह तक सारे चकत्ते गायब थे,विजयेन्द्र बोला।।
बहुत अच्छी बात है, माँ को आराम लग गया,अच्छा चलिए चलते हैं, महेश्वरी बोली।।
हाँ,चलिए बैठिए साइकिल में,विजयेन्द्र बोला।।
और दोनों साइकिल में बैठकर बातें करते हुए चल पड़े डाकखाने की ओर,___
पता है माँ आपको बहुत आशीर्वाद दे रही थी,कह रही थी बहुत अच्छी डाक्टरनी है, एक बार में आराम लग गया,कभी खाने पर घर बुलाओ, तो मैने माँ से कहा कि माँ इतनी बड़ी डाक्टरनी है हम जैसे गरीब लोगों के यहाँ थोड़े ही आएंगी,विजयेन्द्र बोला।।
तब तो आपकी माँ मुझे बहुत घमंडी समझती होगीं, महेश्वरी बोली।।
जी,नहीं, वो बोली कि डाक्टरनी घमंडी नहीं दयालु है तभी तो गाँव के लोगों की भलाई कर रही है, विजयेन्द्र बोला।।
अच्छा, तो आपकी माँ ने मेरे बारें में ऐसा कहा,महेश्वरी बोली।।
हाँ,वो तो और भी ना जाने क्या क्या तारीफ कर ही थी,विजयेन्द्र बोला।।
अच्छा तो और क्या कह रही थीं माँ,महेश्वरी ने पूछा।।.......

और ऐसे ही बातें करते करते दोनों डाकखाने जा पहुँचे,डाकबाबू ने देखा तो बहुत खुश हुए___
महेश्वरी ने उनसे कहा कि काका! टेलीफोन करने आई हूँ, बहुत दिनों से बाबा का कोई ख़त नहीं आया।।
हाँ,बिटिया! तो कर लो टेलीफोन, डाकबाबू बोले।।
और उधर महेश्वरी ने फोन लगाया तो पता चला कि शक्तिसिंह सच में कुछ दिनों से बीमार थे और शक्तिसिंह ने कहा कि____
बेला बिटिया! तुम्हारे पिता दयाशंकर मिल गए हैं, वो मेरे ही साथ रह रहे हैं और मैने भी उनको बता दिया है कि तुम्हारी बेटी बेला बहुत बड़ी डाक्टर बन गई है और उसे सब डाक्टर महेश्वरी बुलाते हैं, मैं तुम्हें ख़त लिखना चाहता था लेकिन तबियत खराब हो गई, वो भी तुम्हारे शहर आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं।।
क्या कहा बाबा! मेरे बापू मिल गए, कहाँ मिले आपको,उनसे आपने पूछा कि क्या हुआ था,महेश्वरी बोली।।
हाँ,सब पूछ लिया हैं बेला बिटिया!अब तुम समय निकाल कर किसी दिन आ जाओ,कहो तो इतवार को मोटर भिजवा दूँ,शक्तिसिंह बोले।।
हाँ,बाबा! सिर्फ़ एक दिन रूककर बापू से मिलकर चली आऊँगी, महेश्वरी बोली।।
ठीक है तो मै मोटर भिजवा दूँगा, शक्तिसिंह बोले।।
हाँ,बाबा!ठीक है, अब टेलीफोन काटती हूँ और इतना कहकर महेश्वरी ने फोन काट दिया और मारे खुशी के उसकी आँखों के आँसू बंद नही हो रहे थें।
वो बाहर आई और उसकी आँखों में आँसू देखकर विजयेन्द्र घबरा गया,उसने सोचा ना जाने क्या बात हो गई जो डाक्टरनी साहिबा रो रहीं हैं और उसने महेश्वरी से रोने का कारण पूछा.....
क्या हुआ? डाँक्टरनी साहिबा! सब कुशल मंगल तो है ना!!
हाँ,मास्टर साहब!मेरे बापू बचपन में मुझसे बिछड़ गए थे और वो अब मेरे बाबा को मिल गए है इसलिए ये खबर सुनकर मेरी आँखें छलक पड़ी,महेश्वरी बोली।।
ये तो बहुत खुशी की बात है, चलिए अब चलें नहीं तो काकी ने अगर रोक लिया तो बिना खाए नहीं जाने देंगीं,विजयेन्द्र बोला।।
हाँ....हाँ....चलिए,देर हो जाएंगी, इससे पहले की काकी बाहर आएं,महेश्वरी बोली और दोनों ही डाकबाबू से इजाजत लेकर वापस गाँव की ओर चल पड़े।।
अच्छा तो आपका नाम क्या है मास्टर साहब, महेश्वरी ने पूछा।।
जी,आपको अभी तक मेरा नाम नहीं पता,विजयेन्द्र ने पूछा।।
जी नहीं!आपने कभी बताया ही नहीं, महेश्वरी बोली।।
जी,मेरा नाम विजयेन्द्र है और माँ प्यार से विजय बुलाती है, विजयेन्द्र बोला।।
ओह...विजयेन्द्र ...विजय...,महेश्वरी बोली।।
क्यों क्या हुआ? नाम अच्छा नहीं लगा,विजयेन्द्र ने पूछा।।
नहीं !ऐसा नहीं है, मैं भी किसी विजयेन्द्र नामक शख्स को जानती थी लेकिन.......महेश्वरी ये कहते कहते रूक गई।।
लेकिन... अब..,रूक क्यों गईं बोलिए,विजयेन्द्र बोला।।
कुछ नहीं ऐसे ही,फिर कभी बताऊँगी, देखिए गाँव आ गया,महेश्वरी बोली।।
आपने बात अधूरी क्यों छोड़ दी? विजयेन्द्र ने पूछा।।
कभी कभी कुछ बातें जिन्द़गी में अधूरी ही रह जातीं हैं, जो दिल पर एक जख्म सा छोड़ जातीं हैं, जिसकी दवा समय के पास भी नहीं होती,बस कभी कभी दर्द सा उठता है लेकिन दर्द को सहन करने की आदत पड़ गई हैं और इसके आगें कुछ ना पूछिए,विजयेन्द्र बाबू! मैं बता ना सकूँगीं,महेश्वरी बोली।
जैसी आपकी मर्जी, लेकिन मन का दर्द बाँटने से दर्द कम हो जाता है, विजयेन्द्र बोला।।
लेकिन मुझे इस दर्द के साथ जीने की आदत हो गई है, महेश्वरी बोली।।
तो क्या आप उनसे मौहब्बत करतीं थीं, विजयेन्द्र ने पूछा।।
ये मेरा निजी मामला है विजयेन्द्र बाबू! कृपया आप इसमें दख़ल ना दे तो ही अच्छा!महेश्वरी बोली।।
बहुत अच्छी बात है, मै भला क्यों आपके निजी मामलों में दखल देनें लगा,आप मेरी हैं ही कौन? विजयेन्द्र बोला।।
आप तो बुरा मान गए, विजयेन्द्र बाबू! महेश्वरी बोली।।
भला मैं क्यों बुरा मानूँगा? मैं अब पाठशाला जाता हूँ, हेडमास्टर साहब मेरा इंतजार कर रहें होगें,और ऐसा कहकर विजयेन्द्र चला गया और महेश्वरी उसे जाते हुए देखती रही लेकिन विजयेन्द्र ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।।
महेश्वरी को विजयेन्द्र का ऐसा शुष्क व्यवहार अच्छा ना लगा और वो अपना मन मसोस रह गई लेकिन उसने फिर सोचा व्यवहार तो उसने भी उसके साथ अच्छा नहीं किया फिर विजयेन्द्र से क्यो वो अच्छे व्यवहार की उम्मीद कर रही है लेकिन वो उसे बताती भी क्या कि उसने तो बचपन मे ही मौहब्बत कर ली थी अपने विजय से,जिसकी यादेँ वो अब भी अपने दिल से नहीं निकाल पाई है और उदास मन से वो अपने दवाखाने में जा बैठी।।
उधर विजयेन्द्र का मन भी महेश्वरी के बोल से खट्टा हो गया था,उसे भी कुछ अच्छा नहीं लग रहा था,वो दोपहर को खाना खाने घर भी नहीं गया और स्कूल की छुट्टी होते ही नहर किनारे जा पहुँचा,सड़क के किनारें साइकिल खड़ी की और नहर की पुलिया पर बैठकर नहर के पानी में पत्थर मारने लगा।।
महेश्वरी का मन भी नहीं लग रहा था और वो स्कूल पहुँच गई विजयेन्द्र के बारें में पूछते हुए,घर जाते हुए बच्चों ने कहा कि मास्टर साहब शायद नहर के किनारे वाली सड़क पर गए हैं और महेश्वरी भी वहीं जा पहुँची,दूर से देखा तो विजयेन्द्र पानी में पत्थर फेंक रहा था,उसने भी कुछ पत्थर बीने और विजयेन्द्र के पीछे जाकर खड़ी हो गई,पानी मे फेंकते फेंकते जब विजयेन्द्र के पत्थर खत्म हो गए तो बोली ये लो।।
महेश्वरी की आवाज सुनकर विजयेन्द्र चौंक पड़ा,ये देखकर महेश्वरी को हँसी आ गई,वो बोली___
डर गए क्या?
अब कोई भूतनियों की तरह पीछे आकर खड़ा हो जाएगा तो डर ही जाऊँगा ना,विजयेन्द्र बोला।।
क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ?महेश्वरी ने पूछा।।
जी नहीं, विजयेन्द्र बोला।।
लेकिन क्यों? इतने ख़फा है मुझसे आप,महेश्वरी ने पूछा।।
भला आपसे ख़फा होने वाला मैं कौन होता हूँ? विजयेन्द्र बोला।।
अरे,माफ़ भी कर दीजिए, गलती हो गई, इतने दूर आपको ढूढ़ते ढूढ़ते आपसे माफ़ी माँगने आईं हूँ, माफ़ भी कर दीजिए ना!महेश्वरी बोली।।
अच्छा, ठीक है माफ़ किया,विजयेन्द्र बोला।।
शाम होने को आई थीं,डूबते सूरज की लालिमा चारों ओर फैल रही थी,कल कल करता नहर का पानी अपनी गति से बह रहा था,अपने कोटरों को लौटते हुए पंक्षी कलरव करते हुए बढ़े जा रहे थें,ऐसा मनमोहक दृश्य देखकर महेश्वरी का उदास मन खुश हो गया और दोनों कुछ देर वहीं बैठकर बातें करते रहे।।

क्रमशः...
सरोज वर्मा....