चरण स्पर्श कर वह अपनी बड़ी-सी गाड़ी में बैठा और पलक झपकते ही नजरों से ओझल भी हो गया...। मेन गेट पर खड़े बुजुर्ग बस भाव शून्य हो थोड़ी देर वहां ठहरे रहे और फिर अपने कदमों को वापस उस बड़े से अहाते की ओर मोड़ लिया...। वह किसी खयाल में डूबे आगे बढ़ रहे थे कि एकदम से आवाज आई... ‘ शर्मा जी बेटा चला गया क्या? इस बार तो बहुत देर तक साथ रहे आप दोनों...।‘ ये कहते हुए शर्मा जी के ही हमउम्र आहलूवालिया जी पौधों को पानी देने लगे। न उन्हें जवाब सुनने की इच्छा थी और न ही शर्मा जी को देने की। सर्दी का मौसम था। उस दिन का तापमान जरा और लुढ़का हुआ था। हां, हल्की सी धूप जरूर गर्माहट का एहसास करा रही थी। लेकिन ठंडी हवाएं उसका असर शरीर पर बमुश्किल ही होने दे रही थीं।
फिर भी शर्मा जी ने सोचा कि कमरे में जाने से अच्छा होगा कि गार्डन में ही बैठ जाऊं। उन्होंने कुर्सी उठायी और एक कोने में जाकर अपना आसन जमा लिया। फूलों की क्यारियों के बीच स्थित यह उनका पसंदीदा कोना था। मजाल थी कि कोई और आकर वहां बैठ सके। हां, तभी नीले रंग की एक तितली ने जरूर हिमाकत की और वह उनके पांव से चिपककर बैठ गई। एक मन हुआ कि झिड़क दें, वह उड़ जाएगी। लेकिन ऐसा किया नहीं। तितली रानी कुछ क्षण वहां विश्राम करने के बाद फुर्र हो गईं। तभी श्यामलाल शाम की चाय लेकर आया।
शर्मा जी ने पूछा, ‘आज बिस्कुट नहीं लाए?’
‘खत्म हो गई है। कल लेकर आऊंगा,’ श्यामलाल ने जवाब में कहा। लेकिन न जाने फिर क्या खयाल आया कि पूछ डाला, ‘बिट्टू भइया कुछ लेकर नहीं आए? ‘
शर्मा जी चुप रहे और आधी प्याली चाय उसे वापस करते हुए बोले, ‘मैंने दीनदयाल जी को सब दे दिया। उन्हें जरूरत थी।‘
सांझ होने ही वाली थी। पार्क के समीप स्थित मंदिर में रौशनी हो गई थी। बरामदे की बत्तियां भी जगमगा रही थीं। शर्मा जी अपने कमरे में पहुंचे। वहां समीप के बिस्तर पर आहलूवालिया जी फोन पर किसी से बात कर रहे थे। लेकिन शर्मा जी को देखते ही आंखों में भर आए पानी को छिपाने की कोशिश करने लगे। शर्मा जी ने भी तकिये के पास पड़ी किताब उठायी और कमरे से बाहर निकल गए। वे बरामदे में लगी कुर्सी पर बैठने ही जा रहे थे कि सोनू दौड़ता हुआ आया और बोला कि बाबा, ‘रिसेप्शन पर आपका फोन आया हुआ है।‘
शर्मा जी को शायद पूर्वाभास था कि किसका फोन आया होगा। उन्होंने झट सोनू से कहा, ‘फोन करने वाले को बोल दो, ठीक है। अपना ध्यान रखना।‘ 15-16 साल का, दुबला-पतला सोनू कुछ पूछना चाहता था। लेकिन बाबा के गंभीर चेहरे को देखकर हिम्मत नहीं कर सका। जिस तेजी से आया था, वैसे ही दौड़ता हुआ आंखों से ओझल हो गया।
‘ फोन करने की जहमत क्यों उठा रहा है, यही एक वाक्य तो दोहराना होता है, मैं ठीक से पहुंच गया घर....। मैं ठीक हूं। मेरा कारोबार ठीक से नहीं चल रहा। मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती...मैं, मैं और मैं....। ‘ हाथ में किताब थामे शर्मा जी धीमे-धीमे ये सब बुदबुदाए जा रहे थे। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब आहलूवालिया जी दबे पांव उनके बगल में आकर बैठ गए थे और चश्मे के शीशे को बमुश्किल कुर्ते से साफ करने की कोशिश कर रहे थे। इसी बीच उन्होंने खयालों में खोये शर्मा जी से पूछा, ‘सब कुशल मंगल है न। तुम इतनी धीमी रौशनी में यहां किताब पढ़ने बैठे हो?’
गहरी श्वास लेते हुए शर्मा जी ने कहा, ‘कमरे का ताप सहन नहीं हो रहा था, तो यहां आकर बैठ गया।‘
अनमने से स्वर में आहलूवालिया जी ने जवाब दिया, ‘हां, सच ही कह रहे हो। ये रिश्ते होते ही हैं ऐसे। संग रहो तब दिक्कत। दूर रहो, तो भी शिकायतें अपना रोना रोते ही रहती हैं।‘
‘क्या हुआ, बताओ भी’, अब शर्मा जी ने आग्रह किया।
‘तेजिंदर का फोन आया था। कह रहा था कि उसे बेंगलुरू से नौकरी का कोई बड़ा ऑफर आया है। लेकिन लवली दिल्ली छोड़ना नहीं चाहती है। ठीक ही है। सरकारी नौकरी एवं सारी सहूलियतें हैं। फिर क्यों छोड़े वह दिल्ली ?तेजिंदर को तो हर तीन साल में अपनी जॉब बदलनी ही होती है। कई बार घर भी बैठना पड़ता है। तब लवली ही सब संभालती है।‘
शर्मा जी ने आहलूवालिया जी को बीच में रोकते हुए कहा, ‘पूरी कहानी तो सुना दी। अब असल मुद्दे पर आओ। तेजिंदर ने फोन पर क्या कहा?’
आहलूवालिया जी कुछ क्षण के लिए अवाक रह गए... !! उन्हें अपने दोस्त से ऐसे रुखे से जवाब की उम्मीद नहीं थी। फिर भी खुद को संभालते हुए कहा, ‘बेटे को शिकायत है कि अगर मैं घर छोड़कर आश्रम में रहने नहीं आता, तो कोई दिक्कत नहीं होती। वह आराम से बेंगलुरू शिफ्ट हो सकता था।‘ लेकिन तुमने घर तो उनकी वजह से ही छोड़ा था न और बीते पांच साल में वे दोनों एक बार भी मिलने नहीं आए! फिर उम्मीद क्यों पाल रखी है अब तक? शर्मा जी ने सीधे-सीधे अपनी बात कह दी थी। कुछ देर के लिए वहां सन्नाटा छा गया, जिससे हवा की आवाजें स्पष्ट सुनाई देने लगीं। सायं सायं....शर्मा जी की अंगुलियां ठंडी हो रही थीं। उनकी नजर बरामदे में टंगी घड़ी पर गई...
खामोशी टूटी। ‘ओह साढ़े आठ बज गए ! ’ वे कुर्सी से उठते हुए बोले, ‘चलो अब डाइनिंग हॉल में। भोजन कर लेते हैं, फिर कमरे में चलेंगे। बाहर और देर रुके, तो लेने के देने पड़ सकते हैं।‘ शर्मा जी आगे बढ़े। पीछे छोटे-छोटे कदमों से आहलूवालिया जी भी साथ चल पड़े। हवा में सांभर की खुशबू तैर रही थी।
‘लगता है फिर से साउथ इंडियन भोजन बना है,’ आहलूवालिया जी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा। ‘ये नया रसोइया केरल का है शायद। उसे बोलना पड़ेगा कि कभी छोले भठूरे भी बना दिया करे।‘
हा हा हा.....शर्मा जी ने ऐसा ठहाका लगाया कि डाइनिंग हॉल में बैठे सभी लोगों की नजर दरवाजे की ओर चली गई।
‘क्या हुआ शर्मा अंकल?’, डाइनिंग हॉल में भोजन परोस रहे रमेश ने पूछा।
‘अर्रे कुछ नहीं। बस आज छोले भठूरे खाने का दिल कर रहा था। क्या बना है वैसे डिनर में?’
रमेश ने कहा, ‘बड़ा-सांभर।‘
शर्मा जी, ‘अच्छा। तब तो हमें उपवास करना पड़ेगा।‘ और वे दोबारा जोर से हंस पड़े। लेकिन आहलूवालिया जी के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। वे दोनों एक टेबल पर बैठे और पंद्रह मिनट में ही भोजन कर, कमरे की ओर वापस चल दिए।
कमरे में वैसे तो तीन लोगों के बिस्तर लगे थे। लेकिन एक खाली था। वैसे वहां सब कुछ बहुत करीने से लगा था। शर्मा जी के बेड के पास उनका छोटा-सा स्टडी टेबल था, जिस पर कुछेक किताबें व डायरियां रखी हुई थीं। पेन स्टैंड के साथ एक छोटा-सा ट्रांजिस्टर भी था। इस पर वे फुर्सत में गाने सुना करते थे। देश-दुनिया की खबरों में उनकी कोई रुचि नहीं थी। इसलिए न रेडियो और न टीवी पर समाचार सुनते या देखते थे। हां, रोजाना डायरी जरूर लिखते थे और फिर उसे अपनी अलमारी में बंद कर देते थे। आहलूवालिया जी और शर्मा जी बीते पांच साल से साथ रह रहे थे। शर्मा जी उनसे दो साल पहले ही वृद्धाश्रम में आ गए थे। लेकिन दोनों में से कभी किसी ने एक-दूसरे की निजी या बीती जिंदगी को जानने की कोशिश नहीं की। जितना दोनों ने एक-दूसरे को बताया, वही जानकारी दोनों के पास थी।
72 के करीब पहुंच चुके शर्मा जी थोड़े अधिक मिलनसार एवं दयालु थे। आश्रम में कभी भी किसी को कोई जरूरत होती, तो वे बिना पूछे व मांगे उनकी हर संभव मदद को तैयार रहते थे। यहां तक कि घर से आने वाली कोई चीज अपने पास नहीं रखते थे, बल्कि उसे दूसरों में बांट देते थे। जितना उनका हृदय कोमल था, स्वभाव उदारचित्त, उतना ही ईमानदार एवं खुद्दार व्यक्तित्व था उनका। लाग-लपेट एवं शिकवा-शिकायतों से दूर ही रहते थे। कृषि विभाग के उच्च पद से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने अपनी संपत्ति के दो हिस्से किए। एक अपने इकलौते बेटे को सौंपा और दूसरा आश्रम को दान कर दिया। साधारण जीवन जीने के आदि पहले से थे, तो आश्रम में सहज ही सबसे घुलमिल गए। लेकिन आहलूवालिया जी के मन को यह सवाल अक्सर परेशान करता था कि शर्मा जी कभी अपने बेटे से बात नहीं करते थे। जब वह मिलने आता था, तब भी नहीं और न ही फोन पर। लेकिन बेटा भी ऐसा था कि न महीने में एक बार चक्कर लगाना भूलता था और न ही हफ्ते में एक दिन फोन करना !
शर्मा जी लोहे की अलमारी में डायरी रख, चाबी लगा रहे थे। तभी आहलूवालिया जी का संयम मानो जवाब दे गया और उन्होंने बिना संकोच सवाल कर डाला.... ‘ आखिर ऐसा क्या है डायरी में, जो इसे बाहर टेबल पर छोड़ नहीं सकते। मैं तो तुम्हारे किसी सामान को हाथ नहीं लगाता। फिर ये डायरी क्यों बार-बार बंद कर देते हो? ‘
‘क्या मैंने तुमसे कभी पूछा कि तुम एक टूटे शीशे वाले चश्मे को हमेशा अपनी जेब में क्यों रखे रहते हो?,’ शर्मा जी ने उल्टा आहलूवालिया जी से सवाल कर डाला, जिसके लिए वे तैयार नहीं थे। सो, चुपचाप रजाई ओढ़ी और आंखें मूंद लीं। दरअसल, लंबे अर्से से साथ रहने के कारण दोनों को एक-दूसरे की हरकतों एवं आदतों की खबर लग चुकी थी। इसलिए सुबह आहलूवालिया जी के लिए नींबू की चाय बनाना या समय पर दवाइयां देना न शर्मा जी भूलते थे और न ही आहलूवालिया जी उन्हें सुबह-सुबह फूलों का गुलदस्ता देना। क्योंकि शर्मा जी को दो ही चीजें विशेष पसंद थीं- फूल और अपनी डायरी। 83 वर्ष की आयु में वैसे तो वे काफी फिट थे। नियमित रूप से योग एवं व्यायाम करना, अहले सुबह जॉगिंग करना उनकी दिनचर्या का अहम हिस्सा थी। फूल-पौधों का तो बच्चों-सा खयाल रखते थे। लेकिन दवाइयां लेना याद नहीं रहता था। हालांकि, उन्होंने कभी इसके लिए किसी कुछ कहा नहीं। शर्मा जी ने स्वेच्छा से यह जिम्मेदारी संभाल रखी थी।
आधी रात गुजर चुकी थी। शर्मा जी को अचानक बेचैनी होने लगी। उन्होंने हाथ बढ़ाकर टेबल पर रखी पानी की बोतल उठाने की कोशिश की। लेकिन बोतल जमीन पर गिर गई। तेज आवाज से आहलूवालिया जी भी उठ बैठे। कमरे में धीमी रौशनी होने के कारण साफ नजर नहीं आ रहा था। उन्होंने पूछा, क्या हुआ? ये आवाज कैसी थी?
शर्मा जी बोल नहीं पा रहे थे। मुंह से हल्की सी आवाज निकली भर थी, जिससे आहलूवालिया जी को आभास हो गया कि कुछ गड़बड़ है। वे तत्काल बिस्तर से उठे। ट्यूब लाइट जलाई। और फिर शर्मा जी की हालत देख परेशान हो गए....। वे बिस्तर पर बेहोश थे। एक पांव लटका हुआ था और दूसरा बेड पर था। उन्होंने उन पर ठंडे पानी का छींटा मारा। लेकिन कोई असर होता न देख, फौरन आश्रम के केयरटेकर महेश को फोन लगाया। आधी रात में भला कौन एक बार में फोन उठाता है। दो-तीन बार कोशिश के बाद भी जब फोन नहीं उठा, तो वे सोनू को उठाने लगे, जो उनके कमरे के बगल में ही सोता था।
सोनू फौरन महेश के कमरे की ओर दौड़ा। जोर-जोर दरवाजा खटखटाने पर महेश बाहर निकला, तो उसे शर्मा जी की हालत के बारे में बताया। उसने बिना देर किए समीप के अस्पताल में फोन किया। 15 मिनट के भीतर एंबुलेंस आ गई। लेकिन शर्मा जी का होश में न आना, सभी के डर को बढ़ा रहा था। अगले एक घंटे में डॉक्टरों ने सूचित किया कि अगर दस मिनट की भी देर होती, तो मरीज को बचाना मुश्किल था। शर्मा जी को हृदयाघात यानी हार्ट अटैक आया था। वे आईसीयू में थे। हालत स्थिर थी, लेकिन खतरे से बाहर नहीं।
महेश, सोनू, आहलूवालिया जी सुबह होने का इंतजार कर रहे थे, ताकि उनके बेटे स्वदेश को सूचित कर सकें। रात भर वे सभी बिना पलक झपकाए, अस्पताल के गलियारे की लोहे की ठंडी कुर्सी पर बैठे रहे। जबकि पतली-सी स्वेटर एवं एक शॉल लपेटे आहलूवालिया जी कॉरिडर में लगी बाला जी की मूर्ति के आगे एक टांग पर खड़े प्रार्थना करते रहे। सोनू ने उन्हें कई बार बैठने को कहा। सबको चिंता थी कि कहीं उनकी तबीयत न बिगड़ जाए। लेकिन वे मानो किसी परम सत्ता के साथ लीन थे। कुछ ही घंटों में सुबह हो गई। महेश ने शर्मा जी के बेटे को सारी घटना की सूचना दे दी।
आहलूवालिया जी ने डॉक्टर से मरीज की खैरियत पूछी। पता चला कि अभी हालत स्थिर है, लेकिन निगरानी रखी जा रही है। करीब ही हाथों में चाय लिए खड़े सोनू ने यूं विश्वास से कहा कि अंकल जी फाइटर हैं। जल्द ठीक हो जाएंगे। आहलूवालिया जी ने उसकी पीठ पर स्नेह भरा हाथ रख ये हामी भरी कि सब ठीक है, सब ठीक होगा। डॉक्टर की बात पर सबने एकमत भरोसा किया और एक किनारे बैठ कटिंग चाय पीने लगे। सोनू से आहलूवालिया जी ने बोला, ‘बहुत दिनों के बाद ऐसी कटिंग वाली चाय पी रहा हूं। वह भी मीठी वाली। हां, ठंड के कारण चाय में उतनी गर्माहट नहीं रही। लेकिन वाहे गुरू से यही प्रार्थना है कि मैं जल्दी ही शर्मा जी के हाथ से बनी नींबू की चाय पी सकूं।‘ ‘जी जरूर अंकल, ऐसा ही होगा।‘ एक भारी-सी आवाज ने दोनों को पीछे मुड़कर देखने के लिए मजबूर किया। सामने स्वदेश खड़ा था। उसने सीधे डॉक्टर से मिलने की इच्छा जतायी, तो सोनू उसे लेकर वार्ड की ओर चल पड़ा। कुछ देर बाद दोनों लौटे और आहलूवालिया जी से वापस आश्रम जाने को कहा, ताकि उनकी तबीयत पर असर न पड़े। लेकिन वे कहां सुनने वाले थे किसी की। आंखें बंद कर ली, यह जताने के लिए कि उन्हें कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा।
दोपहर होने को आई थी। महेश आश्रम से भोजन लेकर आया था। सबने अस्पताल की कैंटीन में साथ बैठकर जैसे-तैसे खाना खाया, मन तो किसी का नहीं हो रहा था। लेकिन शरीर के लिए ऐसा करना जरूरी जो था। खाने के बाद स्वदेश ने आहलूवालिया जी को धन्यवाद दिया, ‘आपने पापा की जान बचायी। इसके लिए बहुत शुक्रिया अंकल।‘ पता नहीं क्यों, गंभीर एवं बहुत नापतौल कर बोलने वाले आहलूवालिया जी से रहा नहीं गया और उन्होंने कटाक्ष किया,‘इतना ही प्रेम है, तो उन्हें अकेले आश्रम में क्यों छोड़ दिया?’ स्वदेश ने भी फौरन जवाब दिया, ‘मैंने नहीं छोड़ा। वे अपनी मर्जी से चले गए। मैंने और नेहा ने बहुत रोकने की कोशिश की थी।‘
आहलूवालिया जी हैरान थे। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा कुछ हो सकता है। उन्होंने फिर सवाल किया,‘अगर ऐसा है, तो वे तुमसे बात क्यों नहीं करते हैं? फोन पर भी नहीं!’ स्वदेश ने पहले तो टालने की कोशिश की। लेकिन जोर देने पर बताया कि, ‘हम पापा के अकेलेपन को दूर करना चाहते थे। काम की व्यस्तता के कारण उन्हें जो समय देना चाहिए था, वह नहीं दे पाते थे। उधर, मां के गुजरने के पंद्रह साल बाद भी उनकी जिंदगी उनमें ही अटकी पड़ी थी। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने घर से निकलना या दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलना-जुलना भी बंद कर दिया था।‘ फिर भी ये क्या जवाब हुआ बेटे? अकेलापन दूर करने के लिए उन्हें अनजाने लोगों के बीच रहने को मजबूर कर दिया...!
स्वदेश ने कहा, ‘हम चाहते थे कि पापा और मौसी की शादी हो जाए। मौसा जी के देहांत के बाद वह हमारे साथ ही रहती थीं, क्योंकि उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। पापा इसके लिए तैयार नहीं थे और न ही मौसी। इस तरह, एक रात वे बिना किसी को बताए आश्रम चले गए। हमारे लिए सिर्फ एक चिट्ठी छोड़ी...वह दिन था और आज की तारीख। पापा ने हमसे कोई बात नहीं की...।‘ इसी बीच, भागती हुई आई एक नर्स ने पूछा, यहां आहलूवालिया जी कौन हैं? चलिए मरीज आपको बुला रहे हैं। स्वदेश भी उठ खड़ा हुआ..। मैं भी आता हूं। नर्स ने मना कर दिया, एक से ज्यादा कोई नहीं आ सकता आइसीयू में...। आहलूवालिया जी उसे ढांढस बंधाते हुए नर्स के साथ चल दिए। छोटे-छोटे कदमों से वे आगे बढ़ रहे थे और पीछे बाकी सभी हो लिए थे।
आइसीयू में तमाम मशीनी उपकरणों से घिरे शर्मा जी को देख आहलूवालिया जी ने एकदम से कहा, तुस्सी चंगे हो जाओगे। घबराओ नहीं। शर्मा जी ने कुछ बोला नहीं, बल्कि वहां खड़ी एक सीनियर नर्स की ओर नजरों से इशारा किया। नर्स आई और उसने कागज का एक टुकड़ा आहलूवालिया जी को थमाया। पास में चश्मा नहीं था, तो उन्होंने नर्स से ही उसे खोलने व पढ़ने का आग्रह किया। ‘ मेरी अलमारी की चाबी तकिये के नीचे है। उसे खोलकर डायरी निकाल लेना। उसमें एक लिफाफा भी होगा। स्वदेश आए, तो उसे सौंप देना।‘ आहलूवालिया जी को एकबारगी विश्वास नहीं हुआ कि जो बीते पांच साल में नहीं हुआ। वह एक रात में कैसे संभव हो सकता है। लेकिन उन्होंने मन की इस बात को चेहरे पर आने नहीं दिया। दोनों ने नजरों से एक-दूसरे को विदाई दी। शर्मा जी के हाथों को स्पर्श कर भरोसा दिलाने की कोशिश की कि घबराओ नहीं....और फिर आहिस्ता-आहिस्ता कमरे से बाहर चले गए। हालांकि, मन में उलझन बनी रही कि शर्मा जी ने ऐसा क्यों किया...?
रात के नौ बज रहे थे। अचानक डॉक्टर का फोन महेश के पास आया कि वे ऊपर आइसीयू के बाहर आ जाएं। आश्रम पहुंच चुके महेश ने आहलूवालिया जी को फोन कर बताया, जो अस्पताल में ही टिके हुए थे। साथ में सिर्फ सोनू था। वे लोग जल्दी-जल्दी लिफ्ट की ओर मुड़े। आइसीयू चौथी मंजिल पर था। लिफ्ट से बाहर निकलते ही डॉक्टर इंतजार में खड़े मिले...we are sorry. he breathed his last at 8.45pm.
‘ अभी आठ बजे ही तो मिले थे हम..., ‘ आहलूवालिया जी ने धीमे स्वर में कहा था। इतनी जल्दी क्या थी जाने की...’ ??
हफ्ता गुजर गया था। लेकिन न आहलूवालिया जी हिम्मत कर पा रहे थे, अलमारी खोलने की और न ही कोई और। स्वदेश ने भी कोई हड़बड़ी या तीव्र इच्छा नहीं दिखाई थी अपने पिता के सामान आदि को ले जाने की। अब आहलूवालिया जी की जेब में टूटे चश्मे के साथ चाबी भी रहने आ गई थी। 15 दिन होने को आए थे। उन्होंने स्वदेश को फोन कर आश्रम बुलाया, संस्था के बाकी सदस्यों को भी अपने कमरे में इकट्ठा किया। सबके आने पर उन्होंने अलमारी खोली, जिसके लॉकर में भूरे रंग की डायरी रखी थी। आहलूवालिया जी ने उसे निकाला...हल्के से उस पर हाथ फेरा, अपना इतना कीमती सामान मुझे सौंपकर कहां उड़ गए पंछी की तरह...!
डायरी में एक लिफाफा मिला। अंदर कुछ कागजात थे। उन्होंने उसे स्वदेश को सौंप दिया। अब हिम्मत कर, उन्होंने डायरी के पन्नों पर नजर दौड़ायी...। जिसके बारे में जानने एवं देखने की किसी समय लालसा होती थी, उसके पन्नों को पहले अनमने ढंग से पलटा..। अचानक एक ब्लैक ऐंड व्हाइट तस्वीर मिली। युवा शर्मा जी शादी के जोड़े में बड़े आकर्षक लग रहे थे। मीनाक्षी (उनकी पत्नी) भी उन्हें कड़ी टक्कर दे रही थीं। क्या मन हुआ, आहलूवालिया जी ने डायरी में लिखे शब्दों पर ध्यान देना शुरू किया...
‘ वो उड़ गई परियों की दुनिया में...
मैं रह गया अकेला इसे वीराने आंगन में
लेकिन वादा रहा हे प्रिय
आ जाऊंगा उड़ कर पास तुम्हारे एक दिन
फिर रूठ कर जाओगी किस संसार में...’
आह...यह तो शर्मा जी की कविताओं का भंडारा है, आहलूवालिया जी ने बुदबुदाया। लेकिन वह स्वदेश के कानों तक पहुंच गया। अगले ही क्षण उसने लिफाफे के कागजात एवं उसमें रखे छोटे से पत्र को पढ़ा, ‘ स्वदेश, कविताओं का यह संग्रह तुम्हारी मां को समर्पित है। संभव हो, तो इसे प्रकाशित करा देना। और ये कागजात घर के समीप उस खाली जमीन के हैं, जहां तुम्हारी मां अक्सर बच्चों को संगीत सिखाया करती थी। उसे प्रकृति के बीच रहना पसंद था। वह जमीन अब तुम्हारी है। वहां एक संगीत विद्यालय बनवा सको, जहां हर तबके के बच्चे आकर प्रशिक्षण ले सकें....। ये दोनों कार्य संपन्न हो सकें, तो वह हमारी ओर से तुम्हारी मां को एक प्यार भरी श्रद्धांजलि होगी....
अंशु सिंह