आकाश में पक्षियों के झुंड को उड़ते देखना किसके मन को नहीं भाएगा, लेकिन उसकी आंखों में पता नहीं क्यों एक उदासी छायी हुई थी...। वह छत के एक कोने में दीवार का सहारा लिए, भाव शून्य सी सिर्फ उड़ती चिड़ियों को निहारे जा रही थी। नीचे खड़े दादा जी की आवाज भी मानो उसके कानों तक नहीं पहुंच पा रही थी...या वह उसे सुनकर भी अनसुना कर रही थी। शुभी, शुभी पुकारते पुकारते थक चुके दादा जी को अचानक गोपी दिखाई दिया। उन्होंने उसे छत पर खड़ी शुभी को आवाज लगाने को कहा...।
‘आप क्यों नहीं बुला लेते बाबू जी,’ गोपी ने फटाक से जवाब दिया। ‘मुझे भैया जी का खाना लेकर अस्पताल जाना है। समय नहीं है।‘
‘पोती तो पोती, नौकरों की हिम्मत कितनी बढ़ गई है आजकल। किसी को मेरी बात की परवाह नहीं है। बूढ़ा जो हो गया हूं।‘ ये बुदबुदाते हुए दादा जी गेट के बाहर निकल गए। सामने सड़क के उस पार एक पार्क था, जहां रोजाना शाम को वे टहलने के लिए जाते थे और दोस्तों के साथ समय बिताते थे।
इधर, छत के कोने में एक ही मुद्रा में खड़ी शुभी को अचानक पिता का खयाल आता है कि उनके लिए खीर बनानी है। वह तेज कदमों से सीढ़ियां उतरती हुई सीधे रसोई में पहुंचती है और गोपी से पूछती है, ‘तुमने खाना तैयार कर दिया क्या? मैं बस जल्दी से खीर बना देती हूं। वह भी लेते जाना। आज मैं अस्पताल नहीं आऊंगी। मां के साथ रहूंगी।‘
गोपी, ‘ठीक है दीदी जी।‘
गोपी को एकदम से याद आता है कि दादा जी शुभी को आवाज लगाने को कह रहे थे। वह शुभी से पूछता है, ‘बाबू जी ढूंढ रहे थे, बात हुई आपकी?’
हैरानी से पूछती है शुभी, ‘कब ढूंढ रहे थे? मैं कहां थी? मुझे बुलाया क्यों नहीं?’
गोपी सन्न ! वह मन ही मन सोचने लगता है, दीदी ने सुना ही नहीं...
फिर उसने बोला, ‘मैं सब्जियां लेकर आ रहा था तो आप ऊपर छत पर खड़ी थीं और बाबू जी आपको पुकारे जा रहे थे। आप कोई जवाब नहीं दे रही थीं, तब उन्होंने मुझे पुकारने को कहा। लेकिन मैं जल्दी में था। अंदर आ गया।‘
गोपी पर थोड़ा गुस्सा होते हुए शुभी ने पूछा, ‘कहां हैं दादा जी?’
पार्क जा रहे थे शायद। वहीं जाने का समय था तब।
शुभी, ‘अच्छा। अब तो लौट आए होंगे। मैं देखकर आती हूं कमरे में। तुम खीर देखते रहना।‘
कमरे में दादा जी नहीं मिले, तो शुभी आंगन की ओर बढ़ी। पार्क से लौटने के बाद दादा जी वहीं बैठा करते थे कुछ देर। लेकिन वहां भी वे नहीं मिले। शुभी को चिंता होने लगी, कहां चले गए होंगे ? लेकिन उन्हें और तलाशे बिना वह वापस रसोई में जाती है। खीर तैयार हो चुका था। गोपी उसे टिफिन में रख रहा था।
शुभी उसे निर्देश देती है, ‘ड्राइवर भइया के साथ जाना और पापा को अपने सामने खाना खिलाकर आना। मैं फोन करूंगी, तो बात करा देना उनसे।‘
‘जी दीदी,’ गोपी ने कहा और वह बाहर निकल गया।
शुभी मां के कमरे में दाखिल होती है।
‘इतनी जल्दी आ गई बेटा अस्पताल से?’, बिस्तर पर लेटीं शर्मिला ने पूछा।
‘नहीं मां। आज गई नहीं। गोपी को भेजा है टिफिन के साथ। कल से मेरे फाइनल एग्जाम शुरू हो रहे हैं। थोड़ी पढ़ाई करनी है।‘
‘कैसा समय आ गया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ये दिन देखना पड़ेगा। मैं बिस्तर पर, तुम्हारे पापा अस्पताल में...! और इस उम्र में उनके पिता, तेरे दादा जी को अपने बेटे के साथ अस्पताल में रहना पड़ेगा !’
‘क्या कह रही हो मां ? दादा जी अस्पताल में हैं? कब गए वे ? , ‘ हैरान और परेशान शुभी ने काफी उत्सुकता से पूछा था।
‘तुम्हें नहीं मालूम क्या ?’
‘नहीं,’ शुभी ने जवाब दिया।
कमरे में आए थे कुछ देर पहले और कहा कि वे पड़ोस के नवीन अंकल के साथ अस्पताल जा रहे हैं। रात में वहीं रुकेंगे। मुझे लगा कि तुम भी साथ गई हो।
शुभी को भीतर से ग्लानि हुई। ‘मैंने क्यों नहीं दादा जी की आवाज सुनी? पहली बार जब पापा को ब्रेन स्ट्रोक हुआ था और वे कई महीने अस्पताल में रहे थे, तब भी हमने दादा जी को कभी रात में वहां रुकने नहीं दिया। मां या मैं ही रुकते थे।‘
‘क्या सोचने लगी बेटा ? ‘
‘कुछ नहीं मां, सारी गलती मेरी ही है। मैं अस्पताल जा रही हूं। दादा जी को गोपी के साथ भेज दूंगी। नेहा को फोन कर दे रही हूं। वो आपके साथ रहेगी।‘
‘लेकिन तुम्हारी परीक्षा है ना कल बेटा? ‘
‘किताबें लेकर जा रही हूं, वहीं रिवाइज कर लूंगी। पास ही तो होना है। कोई डिस्टिंक्शन थोड़े ही लाना है।‘
शुभी अलमारी से किताबें निकालने के बाद नेहा को फोन करती है। कुछ ही पल में नेहा आ जाती है। उसे जरूरी हिदायत देकर, वह स्कूटी से अस्पताल के लिए निकल जाती है।
शर्मिला पश्चाताप में खुद को कोसे जा रही थीं, ‘हे ईश्वर, क्या चाहता है तू? सब कुछ तो खत्म हो गया। रिश्ते-नाते, नौकरी, सपने..., कुछ नहीं बचा। सिर्फ एक ही आस है कि शुभी के पापा फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकें। डेढ़ साल हो गए हैं। ब्रेक स्ट्रोक के बाद से जो बिस्तर पकड़ा है, उससे उठ नहीं पा रहे हैं। इतना इलाज हुआ। अच्छे से अच्छे डाक्टरों को दिखाया। लेकिन तन और मन दोनों पर असर होता नहीं दिखाई दे रहा। जैसे उन्होंने जीने की इच्छा ही छोड़ दी है। दोबारा से अस्पताल पहुंच गए हैं। हफ्ता हो चुका है।‘
शर्मिला सोचे जा रही थीं। और आंसुओं से उनका तकिया गिला हो रहा था। तभी नेहा अंदर आती है, ‘आंटी, आपके लिए खाना लेकर आई हूं।‘
‘मुझे भूख नहीं है बेटा। तुमने खाना खाया ?’
नेहा आग्रह करती है, ‘थोड़ा खा लीजिए आंटी।‘ वह पास जाती है। शर्मिला अपने आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास कर रही होती हैं।
‘आंटी, हिम्मत रखें। आप तो इस परिवार की धुरी हैं। जितनी अथक सेवा आपने की है। अंकल को एक बच्चे की तरह संभाला है, वह कोई दूसरा कर ही नहीं सकता था। आपने उनकी देखभाल करने और परिवार को एक सूत्र में बांधे रखने में जरा सी भी कसर नहीं छोड़ी। लेकिन यह नियति थी कि किसी ने आपके त्याग को नहीं समझा। आंटी, आप ही तो कहा करती हैं कि मुश्किल वक्त में ही अपनों की पहचान होती है। संयुक्त परिवार में रहकर भी आप हमेशा से अकेली ही थीं। अब बस उनका छद्म प्यार, उनका दिखावा दुनिया के सामने आ गया है। चिंता मत कीजिए। आपके पास शुभी जैसा हीरा है।‘
शर्मिला नेहा को गले लगा लेती हैं। ‘कितनी बड़ी हो गई है मेरी बेटी। तुम मेरे लिए कभी शुभी से कम नहीं रही। तुम्हारी मां मेरी बचपन की सहेली थी। सहेली कम, बहनें ज्यादा थे हम। मुझसे दो साल छोटी थी, लेकिन परवाह किसी बड़े की तरह करती थी। उसे भी काल ने असमय ही अपने गर्भ में समा लिया।‘ दोनों कुछ क्षणों के लिए नि:शब्द बैठी रहीं। फिर नेहा ने गहरी श्वास लेते हुए कहा, ‘आंटी आप खाना लीजिए। दवाइयां भी लेनी है।‘ उसने अपने हाथों से खाना खिलाया और बड़े अधिकार से उन्हें सोने की हिदायत देकर कमरे से बाहर निकल गई।
गोपी दादा जी को लेकर लौट आया था। वे ड्राइंग रूम में गुमसुम से बैठे हुए थे। नेहा को देखकर, उन्होंने उसे करीब आने को कहा। वह उनके पास जाकर बैठ गई। ‘क्या हुआ बाबा? ,‘
‘क्या होगा बच्चे ? हमारे परिवार को पता नहीं किसकी नजर लग गई है। अच्छा-खासा कारखाना चल रहा था अशोक का। प्लाई वुड के साथ फर्नीचर भी बनने शुरू हो गए थे। बड़े ऑर्डर मिल रहे थे। लग रहा था कि बिजनेस में जो जोखिम उठाने का निर्णय लिया था, वह व्यर्थ नहीं गया। शर्मिला की कॉलेज की सुरक्षित नौकरी थी। दोनों शुभी को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजना चाहते थे। किसे पता था कि किस्मत ऐसा चक्रव्यूह रचेगी कि सब उसमें उलझ कर रह जाएंगे ?’
‘जी’, आप सच कह रहे हैं बाबा। एक हादसे में सब मिट्टी हो जाएगा, कहां पता था। न अंकल को उनके पार्टनर सूरज ने कारोबार में धोखा दिया होता। न उन्हें ब्रेन स्ट्रोक होता और न हम सभी यूं लाचार हो जाते। फिर भी हमें हिम्मत नहीं हारनी है बाबा।‘ नेहा के शब्दों में स्नेह के साथ एक विश्वास था।
‘मुझे तो अब शुभी से डर लगने लगा है। इतनी शांत वह कभी नहीं थी। इन दिनों कई बार उसकी आवाज सुनने के लिए तरस जाता हूं।‘
‘मैं बात करूंगी शुभी से,’ नेहा ने दादा जी को एक दिलासा-सा दिया। हालांकि उसे खुद ही नहीं मालूम था कि वह शुभी को कितना समझा पाएगी। अगली सुबह नेहा के पास शुभी का फोन आता है, ‘मैं यहीं से कॉलेज निकल जाऊंगी। तुम गोपी और दादा जी को अस्पताल भेज देना। मेरे लौटने तक मां के साथ रहना।‘ नेहा ने चुपचाप उसकी बात सुनी और ऑल द बेस्ट कहकर फोन रख दिया।
शुभी बीआइटी मेसरा की छात्र थी और फाइनल ईयर की परीक्षा दे रही थी। यह उसके पापा का सपना था कि बेटी इंजीनियर बने। उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाए। बेटी के लिए भी पापा से बढ़कर कुछ और नहीं था। उनका सपना, उसका अपना सपना बन चुका था। जितनी तीक्ष्ण बुद्धि थी, उतनी ही सरल। अशोक जी के जिगरी दोस्त ने शर्मिला जी से अपने बेटे सुभाष के लिए शुभी का हाथ मांगा था। और साथ में उसकी विदेश की पढ़ाई की जिम्मेदारी उठाने का आश्वासन दिया था। लेकिन स्वाभिमानी शुभी को वह प्रस्ताव मंजूर नहीं था। उसने रिश्ते के लिए ना कह दिया। मां के समझाने के बावजूद उनके तर्क का कोई प्रभाव बेटी पर नहीं हुआ।
दूसरा हफ्ता गुजर गया। अशोक जी की हालत में हलका सा सुधार दिखने पर, डॉक्टरों ने उन्हें वापस घर ले जाने को कहा। अशोक घर लौट आए। शर्मिला ने उनके कमरे को सलीके से तैयार कर दिया था। अशोक की आवाज साथ नहीं देती थी, लेकिन उनकी आंखों को शर्मिला जी ने पढ़ लिया था- वह घर लौटकर निश्चिंत दिख रहे थे। कमरा भी भरा हुआ था। उनकी नजरों के सामने शुभी, दादा जी, नेहा, गोपी, कुछ खास पड़ोसी और दोस्त, सभी थे। हालांकि, एक शख्स को वे निरंतर देखे जा रहे थे, जो शायद कमरे के अंदर आने से संकोच कर रहे थे। शुभी दरवाजे के पास जाती है और सूरज अंकल से अंदर आने का आग्रह करती है। दादा जी शर्मिला के कानों में फुसफुसाते हैं, ‘ये यहां क्यों आया है? और क्या छीनना चाहता है अब? एक यह छत ही तो है हमारे पास...! ’
50-55 वर्ष के होंगे सूरज। शुभी के जोर देने पर वह उसकी बात मान लेते हैं और सीधे आकर अशोक जी के पांव को पकड़ रोने लगते हैं.... ‘मेरी गलतियों की कोई माफी नहीं है, जानता हूं। फिर भी माफ कर दो दोस्त।‘ उनका माथा पांव पर था और आंखों से अश्रुधारा बहती जा रही थी। अशोक की आंखें ये सब देख रही थीं, लेकिन उनके बेजान पांवों में कोई महसूसता नहीं हो रही थी। उनका पांव या हाथ पर कोई बस जो नहीं रहा था। शुभी सूरज अंकल को ढांढस बंधाने का प्रयास करती है। वे वहीं फर्श पर बैठ जाते हैं। ‘मेरी करनी की सजा मुझे मिल गई है। बिलकुल अकेला और खाली हो चुका हूं। न परिवार रहा और न फैक्ट्री बची। पिछले महीने कार दुर्घटना में तुम्हारी आंटी और भाई दोनों हमेशा के लिए छोड़ गए...।‘
‘शांत हो जाइए अंकल। कुदरत के आगे किसी की चली है क्या ? ऊपर वाला देर से ही सही न्याय जरूर करता है। बाकी तो अपने कर्मों का फल हमें भुगतना ही पड़ता है, ‘ शुभी की आवाज में थोड़ी तल्खी भी थी और अफसोस भी।
‘मैं प्रायश्चित करना चाहता हूं बेटा। तुम्हारी मां और पूरे परिवार से क्षमा मांगता हूं। मेरे पास जो भी थोड़ी पूंजी, जमीन आदि थे, वह सब मैंने तुम्हारे नाम कर दिया है। ये हैं सारे कागजात।‘ ‘मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकती हूं अंकल। मुझे सिर्फ पापा का सपना पूरा करना है। आप दोबारा से फैक्ट्री शुरू करने की कोशिश करें, क्योंकि उससे बहुत से परिवारों की रोजी-रोटी जुड़ी थी। उनके बच्चे पढ़ पा रहे थे। दो वक्त का भोजन कर पा रहे थे।’ ये कहते हुए वह कमरे से बाहर निकल जाती है। शुभी अपने पिता की तरह अंतर्मुखी थी। बहुत कम ही ऐसे मौके होते थे, जब वह अपनी भावनाओं को खुलकर सबके सामने प्रकट करती थी। पिता और घर की बदली परिस्थितियों ने उसे अंदर तक हिला दिया था। लेकिन दिल के किसी कोने में अपने दर्द को छिपाए, वह एक साहसी बेटी होने की जिम्मेदारी निभा रही थी। उसे स्वयं पर विश्वास था। कुछ दिनों बाद परीक्षा के नतीजे आए, जिसमें उसने अपने बैच में टॉप किया था। उसे स्कॉलरशिप मिली। दादा जी ने अपनी पूरी बचत लाडली पोती को सौंप दी। जिसे लेने से वह इंकार नहीं कर सकी। उसने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से मास्टर्स किया और आज बेंगलुरू में एक मल्टीनेशनल कंपनी के लिए काम कर रही है। मां और गोपी उसकी जिंदगी हैं। पापा तो न होते हुए भी हर कदम पर उसके साथ रहते हैं...। उसे संतोष है कि वह उनके सपने को पूरा कर पायी। अल्लमामा इकबाल ने कहा है कि खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है? जीवन ने कितनी ही परीक्षाएं लीं शुभी की, लेकिन उसने कभी अपने मन को हारने नहीं दिया। बीते हुए कल को आज पर हावी नहीं होने दिया...। उसे स्वीकार कर बढ़ती गई।
-अंशु सिंह