हांटेड बंगला Farhan Sir द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हांटेड बंगला


आरुष और अदिति एक साथ एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। अदिति बहुत ग़रीब परिवार से थी परंतु पढ़ाई में बहुत होशियार थी। अब दोनों बीए फाइनल ईयर में थे। पहली बार दोनों की मुलाकात दो साल पहले हुई थी, जब दोनों इस कॉलेज में एडमिशन लेने आए थे। पढ़ाई के दौरान कब अदिति को आरुष से प्यार हो गया, उसे पता ही नहीं चला। दोनों का काफ़ी समय एक दूसरे के साथ ही गुज़रता।

कुछ समय बाद उनकी परीक्षाएं समाप्त हो गईं। आरुष को शहर में ही एक ठीक-ठाक जगह नौकरी मिल गई। कभी-कभी चोरी छुपे वह एक दूसरे से मिल लेते। अक्सर उनके मिलने की जगह क्राइस्ट चर्च का सुनसान कब्रिस्तान होता क्योंकि अधिकतर वहां सन्नाटा ही रहता। किसी के देखे जाने का डर भी नहीं होता।

चर्च के एक ओर एक बड़ा रेस्टोरेंट था। जहां दिन में अक्सर कॉलेज बंक करके लड़के-लड़कियां वहां आ जाते थे। कभी-कभी शाम के वक्त कुछ नए शादीशुदा जोड़े भी अकेले में कुछ समय बिताने के लिए आ जाते थे। दूसरी ओर थोड़ी दूरी पर एक बहुत बड़ा बंगला बना था। जिसके बारे में मशहूर था कि वह भूतिया बंगला है। हर अमावस की रात 8 बजे इसमें किसी ना किसी का खून होता था। इसीलिए बंगला बंद रहता था।

एक दिन आरुष और अदिति शाम के वक्त एक दूसरे से वहां मिले। वे टहलते हुए उस बंगले तक आ गए। उन्हें बातें करते-करते थोड़ी देर हो गई। शाम का धुंधलका गहरा कर रात में बदलने लगा।

"आज बंगले के अंदर चल कर देखते हैं।" आरुष ने बंगले की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

"नहीं, मैं नहीं जाऊंगी इसके अंदर। सुना है यह भूतिया बंगला है।" उसने डरते हुए कहा।

"अरे! तुम भी कहां लोगों की बातों में आ गईं। आज के ज़माने की होकर भूत-प्रेत में विश्वास रखती हो। ऐसा कुछ नहीं होता। यह तो सिर्फ़ मन का एक वहम है।" आरुष ने कहा।

वह उसका हाथ पकड़कर वहां तक ले गया। बंगले को देखकर लगता था कि किसी ज़माने में बहुत शानदार रहा होगा। बंगले के मेन गेट पर बड़ा सा ताला लगा था। साइड की तरफ़ लकड़ी का एक दरवाज़ा था। जिसकी लकड़ी पुरानी होने की वजह से गल गई थी। उसने तेज़ लात मारकर दरवाज़े का एक पल्ला तोड़ दिया। अदिति ने उसे ऐसा करने के लिए मना किया, लेकिन उस पर एक जुनून सवार था। वह अदिति को पकड़कर बंगले के अंदर ले गया।

"मेरा बस चले तो मैं शादी के बाद इसी बंगले में आकर रहूं।" आरूष ने कहा।

"मुझे तो बहुत डर लग रहा है।" अदिति ने चारों तरफ़ नज़रें घूमाते हुए कहा।

बंगले के अंदर सामने दीवार पर एक बड़ी सी घड़ी लगी थी। जिसकी सुइयां 8 बजे पर रुकी हुई थीं। उसका घंटा भी रुका हुआ था। एक ओर शानदार सोफ़े लगे थे। जो धूल में अटे हुए थे। दूसरी ओर लकड़ी की एक शानदार डाइनिंग टेबल के चारों और आठ कुर्सियां लगी थीं। उन पर भी काफ़ी धूल थी।

कोनों में मकड़ी के बड़े-बड़े जाले लगे थे। बंगले के बीच से सीढ़ियां ऊपर की ओर जा रही थीं। जो कुछ ऊपर जा कर दो अलग-अलग दिशाओं में बंट गईं थीं। सीढ़ियों के दोनों ओर लकड़ी की मीनाकारी किया हुआ फ्रेम था। बीचों-बीच में एक काफ़ी बड़ा शीशे का झूमर लटक रहा था। जिस पर कुछ जंगली कबूतरों ने अपना घोंसला रख छोड़ा था। बंगले का फ़र्श कबूतरों की बीट से भरा पड़ा था।

"मेरा तो दिल चाह रहा है तुमसे आज ही शादी कर लूं।" उसने अदिति का हाथ खींचकर अपने गले लगाने की कोशिश करते हुए कहा।

"यह क्या कर रहे हो तुम?" अदिति ने अपने आप को छुड़ाते हुए कहा।

"इतना क्यों घबरा रही हो?" उसने दोबारा हाथ पकड़ते हुए कहा।

"नहीं, मेरे पास मत आओ। मुझे तुमसे डर लग रहा है। चलो, यहां से चलें।" वह उसे पकड़कर बंगले के बाहर ले आई।

"तुम तो प्यार भी नहीं करने देतीं।" उसने शरारत भरे लहजे में कहा।

"इतनी जल्दी भी क्या है? वह दिन भी दूर नहीं।" उसने शरमाते हुए कहा।

दोनों अक्सर ही बंगले के अंदर आने लगे। आरुष के माता-पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी थी।

एक दिन रिश्ता लगाने वाले पंडित जी ने कहा "मैं आपके बेटे के लिए ऐसा रिश्ता लाया हूं, जिसे आप मना नहीं कर सकते। लड़की बड़ी सुशील और सुंदर है तथा धनाढ्य परिवार से है।"

आरूष के माता-पिता को शालिनी बहुत पसंद आई। उसके पिता के वैभव ने उन्हें ज़्यादा आकर्षित किया। जब अदिति को यह बात पता चली तो उसे बहुत बेचैनी हुई। वह बहुत परेशान हो गई। उसने आरुष को मिलने के लिए उसी बंगले में बुलाया।

"मुझे पता चला है कि तुम्हारी शादी किसी दूसरी जगह हो रही है।" अदिति ने कहा।

"बिल्कुल ठीक सुना है तुमने।" आरुष ने रूखेपन से कहा।

"तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं।" अदिति ने कहा।

"लेकिन केवल प्यार के सहारे ही तो नहीं जिया जा सकता। जीवन बिताने के लिए पैसों की भी ज़रूरत होती है, जो तुम्हारे पास नहीं हैं।" उसने उसी तरह रूखेपन से कहा।

"तो तुम लालच में उससे शादी कर रहे हो। तुमने मेरे साथ प्यार का ढोंग किया था।" अदिति ने गुस्से में कहा।

"तुम इसे लालच कह सकती हो।" उसने अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराते हुए कहा।

"मैं तुम्हारे बिना मर जाऊंगी आरूष।" अदिति ने रोते हुए कहा।

"कोई किसी के लिए नहीं मरता।" उसने चेहरे पर अजीब से भाव लाते हुए कहा।

"तुम मुझे इस तरह धोखा नहीं दे सकते। मैं मरने की बात सिर्फ़ कह ही नहीं रही हूं। मर कर भी दिखा दूंगी। " उसने आरुष का हाथ पकड़ते हुए कहा।

"तो मर जाओ। मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता।" उसने अदिति से हाथ छुड़ाकर तेज़ आवाज़ में कहा।

"मैं तो मर जाऊंगी, लेकिन तुम्हें भी चैन से नहीं जीने दूंगी। मैं तुमसे अपनी मौत का बदला ज़रूर लूंगी आरूष। उस लड़की को भी नहीं छोड़ूंगी, जिसने मुझसे तुम्हें छीना है। यह याद रखना।" उसने रोते-रोते चीख़ कर कहा।

आरुष पर उसके रोने और चीख़ने का कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वह अदिति को वहां अकेला छोड़कर चला गया। उसे महसूस हुआ कि उसकी दुनिया ही उजड़ गई। अदिति ने अपने आप को समझाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन वह अपने प्रयासों में सफ़ल नहीं हो सकी। उसके दिन बेचैनी में कटने लगे। कई रात उसे नींद नहीं आई।

एक दिन रात के अंधेरे में तेज़ बारिश हो रही थी। रह-रहकर बिजली गरज रही थी। वह उस काली रात में बिना किसी को बताए घर से बाहर निकल आई और भीगते हुए बंगले तक पहुंच गई। उसने अपने गले में दुपट्टे का फंदा बनाकर खुद को फांसी लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।

उसके इस तरह परलोक जाने से उसके माता-पिता को बहुत दुख हुआ। उन्होंने श्मशान में उसका अंतिम संस्कार कर दिया, लेकिन उसे मुक्ति नहीं मिली। अदिति की आत्मा उसी श्मशान में भटकती रही।

श्मशान का चांडाल ख़ाली समय में गुड़िया बनाने का काम करता था। वह दिन भर में केवल एक गुड़िया बनाता। उसकी बनाई गुड़िया देखने में किसी चुड़ैल की तरह बहुत ही डरावनी और ख़तरनाक होती। हर गुड़िया एक-दूसरे से अलग होने के कारण उसे बाज़ार में अधिक पैसे मिलते।

कई साल तक अदिति की आत्मा श्मशान में भटकती रही। इसी बीच उसी श्मशान में एक तांत्रिक उग्र साधना करने आया। अदिति की आत्मा उसकी साधना में बाधक बनती, उसे परेशान करती। अदिति के चीत्कार और तंग करने से नाराज होकर उसने अदिति को अपने तंत्र पाश में बांधकर उसकी आत्मा को चांडाल की गुड़िया में बंद कर दिया।

उस समय चांडाल किसी के अंतिम संस्कार में व्यस्त था। उसे यह बात नहीं पता कि उसकी गुड़िया में आत्मा क़ैद है। उसने बाज़ार जाकर गुड़िया को बेच दिया।

शाम को एक छोटी बच्ची पारुल अपने माता-पिता के साथ दुकान पर आई। जैसे ही पारुल ने इस गुड़िया को देखा तो गुड़िया उसे देख कर मुस्कुराई। वह उस गुड़िया को देखकर मचल गई और उसे लेने की ज़िद करने लगी। उसकी ज़िद देखकर पिता ने वह गुड़िया उसे ख़रीद कर दे दी।

जैसे ही पारुल ने गुड़िया को गोद में लिया। तभी अचानक उसकी मां को लगा जैसे उस गुड़िया ने अपनी पलकें झपकाईं। वह एकदम से सहम गयी और उस गुड़िया को ग़ौर से देखने लगी। उसको वह गुड़िया अजीब सी लगी। उसने पारुल के हाथ से छीन कर गुड़िया दुकानदार को वापस करना चाही।

जैसे ही मां ने गुड़िया, पारुल के हाथों से छीनने की कोशिश की। उस समय पारुल की आँखों में अजीब सा गुस्सा आया। उसने घबराकर अपने हाथ पीछे किए तो पारुल के होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान तैर गई। उसे इस तरह देख वह डर गयी।

कुछ और ज़रूरी सामान लेकर वह लोग दुकान से उतर गए। पारुल गुड़िया को अपने कंधे पर रखकर आगे-आगे और उसके माता-पिता पीछे चलने लगे। बीच में उसका पिता आइसक्रीम लेने के लिए रुक गया। उसकी मां उसे हल्के-हल्के आगे चलते हुए देख रही थी। मां के देखते ही देखते अचानक उस गुड़िया की आँखे चमकने लगीं और वह मुस्कुराने लगी। उसे कुछ गड़बड़ लगी।

उसने अपने पति से इस गुड़िया को दुकान पर वापस करने के लिए कहा।

पति ने कहा "अरे! यह तुम्हारा वहम है। गुड़िया की आंखों पर धूप पड़ने की वजह से उसकी आंखें चमकी होंगी।"

घर आने के बाद पारुल पूरा दिन गुड़िया से खेलती रही। शाम को मां कमरे में उसे खाना खिलाने के लिए बुलाने आई।

"मां, मैं अभी आई।" पारुल ने कहा।
जैसे ही मां कमरे से बाहर निकली। पारुल ने सामने बैठे-बैठे ही अपनी गर्दन पूरी पीछे की तरफ़ मोड़ कर कहा "जाते जाते दरवाज़ा बंद करती जाना।"

मां के मुंह से एक तेज़ चीख़ निकली। पारुल उसकी तरफ़ देख कर रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरायी और गुड़िया को अपनी गोद में ले लिया।
उसकी चीख़ सुनकर पति भी दौड़ता हुआ आया।

"क्या हुआ? इतनी ज़ोर से क्यों चीख़ीं?" उसने हड़बड़ा कर पूछा।

"मैंने तुमसे कहा था न कि यह गुड़िया वापस कर दो। यह ठीक नहीं है। इसमें ज़रूर कुछ गड़बड़ है।" उसने चीख़ते हुए कहा।

"तुम्हें भी बेकार ही हर बात का वहम हो जाता है।" पति ने समझाते हुए कहा।

"मैं नहीं खिलाऊंगी इसको खाना। तुम ही खिलाओ।" कह कर वह चली गई।

रात का खाना खाने के बाद सब लोग सोने चले गए। गहरी रात में अचानक पारुल की नींद उचाट हुई और वह अपनी गुड़िया लेकर छत पर चली गई। वह काफ़ी देर उसके साथ खेलती रही।

खटपट की आवाज़ें सुन कर पिता की नींद खुली तो उसे महसूस हुआ कि ये आवाज़ें छत से आ रही हैं। वह छत पर गया।

पारुल को देखते ही उसकी आँखे फटी रह गयीं। पारुल छत की दीवार पर एक पैर से खड़े होकर हवा में उड़ते हुए चमगादड़ों को पकड़ रही थी। उसके खुले हुए बाल हवा में उड़ रहे थे। पूरी छत पर उल्लूओं और चमगादड़ों के पंख और खून ही खून बिखरा पड़ा था। पारुल के हाथ में कुछ मांस के टुकड़े थे जिन्हें वह ख़तरनाक तरीक़े से खा रही थी। उसका पूरा मुंह, हाथ और कपड़े खून से सने हुए थे।

उसे देख कर वह उबकाई लेते और उल्टियां करते हुए नीचे भागा। वह डर के मारे थर थर कांप रहा था। उसने छत का दरवाज़ा बंद कर दिया और बेहोश होकर गिर पड़ा।

सुबह आंख खुलने पर उसने खुद को बिस्तर पर लेटा हुआ पाया। उसकी पत्नी भी बराबर में गहरी नींद सो रही थी। वह उठा और उसने पारुल के कमरे का दरवाज़ा खोलकर देखा। पारुल आराम से अपने बिस्तर पर गुड़िया लिए हुए सो रही थी।

उसे लगा कि उसने रात में एक बुरा ख़्वाब देखा। वह तैयार होकर ऑफिस चला गया और पत्नी से शाम का खाना बाहर खाने के लिए कह कर गया। ऑफिस में पूरे दिन उसका काम में मन नहीं लगा। शाम को वह ऑफिस से जल्दी घर आ गया। सभी लोग तैयार होकर बाहर खाना खाने के लिए निकले। घर से निकलते समय पारुल ने अपनी गुड़िया हाथ में ले ली।

उसने एक टैक्सी रोक कर चर्च के सामने वाले रेस्टोरेंट चलने के लिए कहा। रेस्टोरेंट पहुंचकर उसने टैक्सी ड्राइवर को किराया अदा किया। पारुल कार का दरवाज़ा खोल कर अपनी गुड़िया हाथ में लेकर चर्च की तरफ़ दौड़ पड़ी। उसकी मां ने उसे आवाज़ दी और उसे रोकने के लिए उसके पीछे पीछे भागी।

दौड़ते-दौड़ते पारुल बंगले के अंदर चली गई। उसके पीछे पीछे उसके माता-पिता भी बंगले के अंदर आ गए। उन्हें पारुल कहीं भी नहीं दिखाई दी। दोनों उसको लगातार आवाज़ें देते रहे।

अचानक एक तरफ़ से बहुत तेज़ गुर्राहट की आवाज़ आई। उन्होंने चौंक कर उस ओर देखा। वह देखकर दंग रह गए। गुड़िया हवा में उनके चारों ओर चक्कर लगा रही थी। उसके मुंह से अजीब सी आवाज़ें निकल रही थीं।

" मैं तुम दोनों को ऐसी भयानक मौत दूंगी कि देखने वालों के रोंगटे खड़े हो जाएंगे।" कहते हुए वह गुड़िया आदमी की तरफ़ लपकी।

"हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? तुम हमारे साथ ऐसा क्यों कर रही हो?" आदमी ने पूछा।

"तू... तूने ही मेरी ज़िंदगी बर्बाद की। मैंने तुझसे कहा था न, यह कहानी तेरी मौत के साथ ही ख़त्म होगी। मैं अदिति हूं...आरुष।" गुड़िया ने कहा।

उसने आरुष को हवा में उछाल दिया। वह ज़ोर से नीचे गिरा तो गुड़िया उसके कपड़े फाड़ कर उसके सीने पर बैठ गयी।

"देख, इस समय घड़ी में क्या बजा है।" गुड़िया के मुंह से गुर्राहट भरी आवाज़ निकली।

आरूष ने घड़ी की तरफ़ नज़रें उठा कर देखा। घड़ी में 8 बजने वाले थे।

गुड़िया ने दोनों हाथों से उसका पेट चीर दिया। उसकी आंते बाहर निकल आईं। वह खुद को बचाने के लिए चीख़ता रहा। तभी घड़ी के घंटे के बजने की आवाज़ आई। टन-टन, घड़ी ने पूरे 8 बजा दिए।

उसे मारकर गुड़िया शालिनी की तरफ़ बढ़ी। बंगले में चारों तरफ़ से अजीब-अजीब आवाज़ें आ रहे थीं।

"मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? तुम मुझे क्यों मार रही हो?" शालिनी ने चीख़ते हुए पूछा।

"तेरी वजह से ही मैं पिछले कई साल से श्मशान में बेचैन भटक रही हूं। तेरे रुपयों के लालच में ही उसने तुझसे शादी की थी। तूने ही मेरे आरुष को मुझ से छीना था।" गुड़िया ने कहा।

उसकी आंखों से खून टपक रहा था।

उसने आरूष की आंतें शालिनी के मुहँ में ठूंस दीं। वह उल्टियां करने लगी। गुड़िया लगातार अपने गले से तेज़ खूंखार आवाज़ें निकाल रही थी। कुछ ही देर में शालिनी के भी प्राण पखेरू हो गए। पूरे बंगले में मौत का सन्नाटा छा गया।

बंगले के अंदर से आती चीख़-पुकार सुनकर रेस्टोरेंट में बैठे और सड़क से गुज़रने वाले लोग दौड़कर बंगले के पास आ गए। तब तक अंदर से आवाज़ों का आना बंद हो गया था, लेकिन डर की वजह से किसी की भी उसके अंदर घुसने की हिम्मत नहीं हुई।

सुबह बंगले में लोगों को सिर्फ़ खून और गोश्त के लोथड़े ही मिले। अदिति का बदला पूरा हो चुका था। उसकी आत्मा गुड़िया से निकल कर चली गई। किसी को यह पता नहीं चल पाया कि उन्हें किसने मारा?

लोगों ने देखा पारुल एक कोने में बैठी हुई गुड़िया के साथ खेल रही थी।