अबकी बार...लल्लन प्रधान
पार्ट-4
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लल्लन के जवाहर नृत्य महोत्सव में दिए गए रुपयों की चर्चा कई दिनों तक गांव में होती रही।लोग अपनी-अपनी बुद्धि- बल से लल्लन के दिये 21000₹ का जोड़-गुणा-भाग कर रहे थे।शुकुल को उस दिन से ही दाल में कुछ काला नजर आ रहा था।उनका राजनीतिक मस्तिष्क यह स्वीकारने को तैयार न था कि 21000 ₹ लल्लन अपनी जेब से देगा।धीरे धीरे उनकी शंकाएं मिटती गयीं और अब गली-कूचों में चर्चा सरेआम हो गयी थी कि गौरीबदन इस दफे चुनाव नहीं लड़ेंगे।साथ ही ये भी कि उनका दायां हाथ लल्लन की पीठ पर रहेगा।
चुनावी सरगर्मियां तेज होने लगी थीं।गांव अब गांव नही बल्कि शतरंज की बिसात हो गए थे।सम्भावित प्रत्याशियों द्वारा वोटरों को लुभाने के लिए चालें चली जाने लगी थीं।दुकानों, चाय के ठीहों,चबूतरों पर राजनीतिक गुणा-भाग होने लगा था।
यद्यपि पंकज शुक्ला के भाषण ने जगतपुरा के लोगों में अस्थायी ही सही लेकिन कुछ तो प्रभाव डाला ही था।लोग सोचने को मजबूर हो गए थे।पंकज ने गांव की सच्चाई बिना ढके सबके सामने रख दी थी।हालांकि वह जानते थे कि सच सुनने में चाहे जितना अच्छा लगे पर उस पर अमल कम लोग ही कर पाते हैं।चुनाव आते-आते जातिवादी हवा फिर से चलने लगेगी और गांव की सच्चाई फिर से दबा-छुपा दी जाएगी।पंकज यह भी जानते थे कि जाति की दीवारों को ढहाए बिना चुनाव जीतना मुश्किल है।क्या उन्हें भी गौरीबदन या नाहर सिंह की तरह "सोशल इंजीनियरिंग"पर ध्यान देना चाहिए? नहीं!! उनके मन से स्पष्ट आवाज आई।"चाहे जीतूं या हारूँ, छल/बल का प्रयोग नही करूँगा।यदि मैंने भी ऐसा किया तो मुझमें और गौरीबदन में क्या फर्क रह जायेगा।चुनाव जीतना या फिर लड़ना भी क्या इतना जरूरी है कि हम उसके लिए खुद को नीचे गिरा लें?हम चुनाव लड़ते ही क्यों हैं? गांव का विकास करने के लिए या खुद को नीचे गिराने के लिए?नही,मैं ये अपराध न करूँगा।अपनी गुडविल के दम पर कचहरी में चुनाव लड़ा,एक पैसा खर्च नही किया और जीत गया, वैसे ही गांव में भी लड़ूंगा।"
पंकज अकेले थे।अकेले होने के नुकसान हैं तो फायदे भी हैं।पंकज के पास जनबल भले न हो आत्मबल भरपूर था। बड़ी-बड़ी लड़ाइयां आत्मबल से ही जीती गयी हैं, धन या जन बल सिर्फ बाहरी कारक हैं जो बहुत महत्व नही रखते।
नाहर सिंह का चुनावी कैम्पेन जारी था।उनकी सुबह जगतपुरा में तो शाम मलिनपुरा में बीतती।हवाएं नाहर को स्पष्ट इशारा दे रही थीं लेकिन नाहर भी कच्चे खिलाड़ी नही थे जो जीत की आशा देख मुतमईन हो बैठ जाते।वह बखूबी जानते थे कि हवाओं पर भरोसा कइयों को ले डूबा है।
इधर लल्लन का अपना ही स्वैग था।उसने गौरीबदन के रुपयों से पोस्टर,बिल्ले छपवाए,वाल पेंटिंग करवाई, यहां तक कि दुदाही का पीपा भी चुनावी रंग में रंग डाला था।बच्चों और युवावर्ग में लल्लन का जबरदस्त क्रेज था।
इधर गौरीबदन और नाहर की जोर आजमाइश चलने लगी थी।दोनों पैसे से तर थे सो पैसे को पानी की माफिक बहा रहे थे।नाहर सिंह के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का चुनाव हो गया था।ठाकुर बिरादरी की पंचायत को उन्होंने इस दफे चुनाव जीतने का भरोसा दिया है यदि वह हार गए तो पंचायत दोबारा उनपर विश्वास न करेगी जबकि गौरीबदन किसी भी हाल में नाहर को हारता हुआ देखने के लिए पैसा खर्च कर रहे थे।गौरीबदन भले ही चुनाव में न खड़े हों लेकिन नाहर की हार गौरीबदन को मनोवैज्ञानिक जीत दिला देगी।
चुनाव करीब आते ही जोरों शोरों से तैयारियां चलने लगीं थीं।नामांकन के पहले दिन ही लल्लन बैंड-बाजे के साथ ब्लॉक नामांकन कराने पहुंचा।सफेद कुर्ते और नीली जीन्स में काला चश्मा लगाए लल्लन आज देखते ही बनता था।उसने कई ट्रैक्टरों में युवाओं, महिलाओं, बच्चों और हर मुहल्ले से 1-2गणमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया।लल्लन का व्यवहार ऐसा था कि कोई मना नही कर सका।जबकि लल्लन गौरीबदन की स्कार्पियो में सवार था।जुलूस ग्राम पंचायत की हर गली-मोहल्ले से गुजारे गए।कर्णभेदी नारों से जगतपुरा में एक ही नारा गूंज रहा था-अबकी बार...लल्लन प्रधान।
गांव की गलियों और प्रमुख मंदिरों से होते हुए जुलूस ब्लॉक पहुंचा तो दोपहर हो चुकी थी।लल्लन ने सबको जलपान कराया।करीब 3 बजे लल्लन ने बजरंग बली का नाम लेकर नामांकन दाखिल कर दिया।प्रस्तावक गौरीबदन बने।
जिस वक्त लल्लन नामांकन करवा रहा था उस वक्त नाहर अपने कमरे में शुकुल के साथ बैठे आगे की रणनीति तय कर रहे थे।लल्लन के नामांकन में 300 लोगों की भीड़ ने नाहर की चिंता बढ़ा दी थी।यद्यपि शुकुल भीड़ की कीमिया जानते थे।
"जरूरी नही कि नामांकन में इकट्ठी भीड़ लल्लन को वोट ही देगी।कुछ तो खाने-पीने के लालच में गए हैं।" शुकुल ने नाहर से कहा।
नाहर को आशंका थी कि गौरीबदन कछवाहन टोला का अपना वोट लल्लन को ट्रांसफर करवा देंगे।जबकि छेदू भी बैठने को राजी नही था।
"छेदू के लिए कुछ करना पड़ेगा।भले ही ये न जीते लेकिन वोट तो काटेगा ही।क्या कहते हो?"नाहर ने पूछा।
"मलिनपुरा का वोट छेदू के रहते आपको नही मिलेगा लेकिन चिंता की कोई बात नहीं, हम उसका इंतजाम कर देंगे।"शुकुल ने भरोसा दिलाया।
अगले 2 घण्टे तक नाहर और शुकुल ग्राम-पंचायत के 1-1 वोट का खाका खींचते रहे।
अब तक लगभग सारे उम्मीदवारों ने नामांकन दाखिल कर दिया था जबकि अभी चुनाव-चिन्ह आवंटित नही हुए थे।नाहर सिंह ने भी अपने नामांकन में खूब मजमा जुटाया।शुकुल उनके प्रस्तावक बने थे।
चुनाव प्रचार जोरों से जारी था।जगतपुरा पंचायत की सड़कें,दुकानें और मकान;बैनरों,पोस्टरों से पट गयीं थीं।एक प्रत्याशी की गाड़ी सड़कों से गुजर न पाती कि दूसरा प्रत्याशी DJ बजाते हुए आ धमकता था।सबसे हाई वोल्टेज प्रचार नाहर सिंह का था उन्होंने पास के जिले से 2 नर्तकियां बुला ली थीं जो उनकी गाड़ियों में बजते DJ पर जमकर नृत्य करती थीं।गाड़ी जहां रुक जाती,मजमा लग जाता था।क्या बूढ़े क्या जवान सब काम-धाम छोड़कर नर्तकियों के लटके-झटके देखने लगे जाते थे।हलकों में खबर थी कि नाहर ने ये नर्तकियां 2000₹ प्रतिदिन के हिसाब से वोटिंग के दिन तक के लिए बुक कर रखी थीं।अब जगतपुरा और मलिनपुरा में चुनाव से ज्यादा चर्चा इस बात की होती थी कि नाहर की गाड़ी मोहल्ले में कब आएगी।अब तक टक्कर देता आया लल्लन नाहर के इस दांव से पिछड़ रहा था।लल्लन चाहता था कि नाहर की 2 नर्तकियों के बदले 4 नर्तकियां भाड़े पर बुला ली जाएं। उसने गौरीबदन से सलाह ली।
"रंडियों के बदले रंडियां नचवाओगे तो चुनाव हार जाओगे। इमेज खराब हो जाएगी।" गौरीबदन ने कहा
"फिर का कीन जाए?"लल्लन थोड़ा परेशान नजर आ रहा था।
गौरीबदन कुछ देर विचारणीय मुद्रा में बैठे रहे,कमरे में मुर्दा शांति छाई हुई थी।
"कूटनीति का सहारा लो"
"मतलब??"
" 2-4 जागरूक बुजुर्गों,महिलाओं को खोजो जो इस नाच गाने के खिलाफ हों,एक प्रार्थना-पत्र में उनके दस्तखत करवाओ और थाने में दे आओ।कह देना कि गांव की महिलाओं और बच्चों पर खराब असर पड़ रहा है।साथ मे दरोगा बाबू की मुट्ठी भी गर्म कर देना,समस्या हल हो जाएगी।"
लल्लन ने कुछ देर इस पर विचार किया।उसे यह विचार पसंद आया।कहना न होगा कि गौरीबदन की कूटनीतिक बुद्धि से वह प्रभावित हो गया था।
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इस बीच प्रत्याशियों के चुनाव चिन्ह आवंटित हो गए थे। नाहर को "ईंट" तो लल्लन को "घोड़ा" चुनाव चिन्ह आवंटित हुआ था जबकि पंकज को "कलम" मिली थी।छेदू को "कन्नी",बन्ने खां को "झोपड़ी" और मलिनपुरा के बैजनाथ को "हंसिया" मिला।इसके अलावा बचे 2-3 उम्मीदवारों को भी ऐसे ही चुनाव चिन्ह आवंटित हुए।
लल्लन को "घोड़ा" मिलते ही सबसे पहले उसने पास के ईंट-भट्ठे में जाकर ईंटो की ढुलाई करने वाले से घोड़ा किराए पर ले आया।अब वह घोड़े पर बैठकर चुनाव प्रचार के लिए निकलता था।
वोटिंग में अभी 1 सप्ताह का समय था।ग्राम पंचायत चुनावों में यह एक सप्ताह "निर्णायक"होता है।सारे प्रत्याशी इन 7 दिनों को अपने नाम कर लेना चाहते थे, पूरी तरह से।प्रत्याशी से ग्राम प्रधान बनने के बीच की दूरी यह 7 दिन थे ।जैसे T-20 क्रिकेट में अंतिम ओवर निर्णायक होते हैं।इससे खास फर्क नही पड़ता कि आपने अब तक कैसा खेला,यदि अंतिम ओवरों में ढिलाई कर दी तो जीता हुआ मैच भी हाथ से फिसल जाता है। ठीक वैसे ही पंचायत चुनावों में भी होता है यदि सीट जीतने की सम्भावना के बीच मुतमईन होकर बैठ गए तो खरगोश और कछुआ वाली कहानी चरितार्थ हो जाएगी।लल्लन सहित बाकी प्रत्याशी इस बात को भली-भांति जानते-समझते थे तभी तो सब रात-दिन एक किये हुए थे।खाना, नहाना,पाखाना सब भूल जाते थे लेकिन वोट मांगना नही भूलते थे।
गांव के लिए सबसे आश्चर्यजनक पंकज का व्यवहार था।अन्य प्रत्याशियों की भांति पंकज चुनाव-प्रचार में बहुत ज्यादा पैसा खर्च नही कर रहे थे।जहां लल्लन,नाहर, छेदू पैसे को पानी की तरह बहाने पर आमादा थे वहीं पंकज ने बस जरूरत भर की प्रचार-सामग्री छपवाई थी।कोई खास ताम-झाम नही,न रैली न दारू न मुर्गा कुछ भी नहीं,बस पंकज थे उनके हाथ मे प्रचार सामग्री थी और शर्ट की ऊपरी जेब मे पेन था जो कि उनका चुनाव चिन्ह भी था।कुछ लोग तो उन्हें हारा हुआ मान रहे थे और रेस से बाहर मानने लगे थे लेकिन क्या सच में पंकज ने हार मान ली थी??
जारी है...