अबकी बार... लल्लन प्रधान Bhupendra Singh chauhan द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अबकी बार... लल्लन प्रधान


जगतपुरा....ऐसा गांव जो अब भी गांव है ।शहरों की चकाचौंध और आधुनिकता से दूर एकांत में बसे इस गांव की खूबी है कि यह अपने मे ही खुश हैं।इसकी अपनी दुनिया है।करीब 3000 की आबादी वाले जगतपुरा में कई जातियों में बंटे हिन्दू रहते हैं तो एक मोहल्ला मुसलमानों का भी है।ग्राम पंचायत चुनाव में जगतपुरा के साथ एक गांव और जुड़ जाता है-मलिनपुरा।मलिनपुरा दलित बाहुल्य छोटा सा पुरवा है जो कभी जगतपुरा का ही हिस्सा था।
यह कहानी है लल्लन यादव की।जगतपुरा के ऊंच मोहल्ले के रहने वाले बबोले यादव के इकलौते लड़के लल्लन बचपन से ही दूध-दही के बीच पले-बढ़े हैं इसलिए हष्ट-पुष्ट शरीर के मालिक हैं।जवानी में ताव में दंगल हांक देने वाले लल्लन अब भी उसी हौंक में अंगौछा डाल सीना तान कर चलते हैं।फौज में भर्ती होकर देश सेवा का उनका सपना आनुवंशिकी की भेंट चढ़ गया था।उनके खानदान में लंबाई में कोई 5 फुट से आगे जा नही पाया।छोटी गांठ के लल्लन जब एड़ी उचका कर लम्बाई नापते तब भी 5.2 फुट(5 फुट 2 इंच) तक ही पहुंच पाते थे।
लल्लन शुरू से ही दबंग रहे हैं रोक दाब किसी की मानते नही हैं।बजरंग बली के उपासक हैं और डरने को वह मानसिक रोग मानते हैं।कामदेव को हमेशा लँगोट से बांधकर रखने वाले लल्लन एक दिन अपने मित्र बेचन मिश्रा की बारात में जो गए तो दिल वहीं छोड़ आये।बेचन की साली पे लल्लन का जो दिल आया तो फिर वह जिद पर अड़ गए। शादी करेंगे तो उसी से नही तो आजन्म ब्रह्मचारी रहेंगे,लल्लन ने बारात से आते ही घोषणा कर दी थी।पिता बबोले बड़ी मुश्किल में पड़े।लल्लन पे तो इश्क का भूत सवार था सो उन्हें और कुछ दिख नही रहा था जबकि बबोले जानते थे कि लड़की है ब्राह्मण और M.A.,B.Ed भी जबकि लल्लन ठहरे अंगूठाछाप।ब्याह होना मुश्किल है सो आन पड़ी इस मुश्किल में गांव के बुजुर्गों ने बबोले को सुझाया कि बैल को खूंटे से बांध देना ही उचित है।ऊंच-नीच के डर से बबोले को भी यही ठीक लगा सो उन्होंने बेचनपुर के विशम्भर यादव(पू. प्रधान)की लड़की से लल्लन का रिश्ता तय कर दिया।रिश्ता तय होते ही लल्लन ने धरती-आसमान एक कर दिया।मिट्टी का तेल ऊपर उड़ेला,घर से भागे भी लेकिन होनी के आगे लल्लन के सारे दांव पेंच खाली गए।विशम्भर यादव की लड़की सोनम यादव लल्लन की ब्याहता बन विदा होकर घर आ गयी।लल्लन न पहले खुश थे न अब सो उन्होंने एक नजर भी अपनी अर्धांगिनी को नही देखा।शादी के बाद भी दिन-दिनभर घर से बाहर रहने वाले लल्लन रात को आते भी तो खाना खाकर बाहर चारपाई डाल कर सो जाते।
वक्त गुजरता रहा।गुस्से की भी मियाद होती है।एक दिन जो अचानक पत्नी का चेहरा दिखा तो लल्लन को भूल का अहसास हुआ।मेरी वजह से इसका जीवन बर्बाद हो रहा है।यह मेरी ब्याहता बन कर आई,मेरे नाम से श्रृंगार,उपवास करती है और एक मैं हूँ जिसने 2 शब्द बोलना तो दूर आंख उठाकर भी नही देखा।नही!! मैं इतना निष्ठुर कैसे हो गया!!वह लड़की जो कुछ घण्टो के लिए मिली वह मेरी आशनाई थी उसकी सजा मैं इसे क्यों दूं!! लल्लन को उस भूले हुए पथिक की भांति गलती का अहसास हुआ जिसे सही रास्ते का अब ज्ञान हुआ हो।लल्लन अब पत्नी के खूब आगे-पीछे घूमते,मनुहार करते।समय पर घर आ जाते। मन से नफरत जो गयी तो प्रेम हौले से सरक आया।
अब उनका काम मे भी खूब मन लगता था। उन्होंने अब दूध का कारोबार शुरू कर दिया था।कभी लल्लन पहलवान के नाम से जाने जाने वाले लल्लन अब लल्लन दुदहा हो गए थे।दूध में हौंक के डिटर्जेट और पानी मिलाना वह कारोबार का अनिवार्य हिस्सा मानते थे।उनकी दुदाही गांव के हर मुहल्ले में थी।
बतरस में माहिर लल्लन की उम्मीदें तब और परवान चढ़ीं जब प्रधानी के चुनाव आ गए।बिगुल फुंका तो औरों की तरह लल्लन भी अपना व्यवहार और किस्मत आजमाने रणभूमि में उतर पड़े।
वह अकेले नही थे जिनकी उम्मीदें हिलोरें मार रही थीं।बाभन मुहल्ला के पंकज शुक्ला(एडवोकेट),कछवाहन टोला के गौरी बदन सिंह(निवर्तमान प्रधान),मलिनपुरा के छेदू कोरी और मुसलमानों में बन्ने खां प्रमुख थे।इनके अलावा 3-4 प्रत्याशी भी मौज-मौज में परचा भर आये थे।
"का हो ललनवा, सुना है ई बार तुमहुँ खड़े हुई रह्यो!!"पतुरिया टोला के शुकुल ने लल्लन से पूछा।
"हाँ चाचा!ई बार हमहुँ अपन किस्मत आजमा लेव चाहत हन"लल्लन ने शुकुल की भैंस दुहते हुए कहा।
"उ तो ठीक है लेकिन उ बदनवा कोउ का जीतै देहि भला !!देख लेहो पिछली दफे की तरह ई दफे भी लास्ट मा पैसा बंटवा के सीट मार लई जइ।!!"शुकुल ने शंका जाहिर की।
"अरे चाचा,हिम्मत मर्दे मदद खुदा, बस आप सबका आशीर्वाद रहौ तो अदनवा-बदनवा हमरे सामने कोउ न टिकी।"लल्लन ने लीटर को थोड़ा टेढ़ा कर दूध नापते हुए कहा।
"अरे हमार तो आशीर्वाद हइये है तुम्हरे साथ, हमरी तरफ से बिफिकिर रहौ."
"चाचा बस उ वकील साहेब की वजह से थोड़ा चिंतित हन। वो शुकुल और आप शुकुल कहूँ बाद मा??"लल्लन ने बात अधूरी छोड़ते हुए कहा।
"अरे ओखी फिकर न करौ,चाहे कोउ का वोट देन मगर पनकजवा का न देब।ऊ ससुर अबै जब मोटरसाइकिल मा चश्मा लगा के रंगबाजी मा चलत है तो आदमी का आदमी नही समझत, जीतै पर तो धरती मा पांव न धरी।"

"बस चाचा सीट निकला देव हमार, सब काम सबते पहिले तुम्हरे हुइहें।लैटरिंग,आवास सब दिलावब"लल्लन ने चलते चलते पांव छूते हुए कहा।
"पक्की है सीट तुम्हार....अब की बार लल्लन प्रधान..."शुकुल ने जोर से नारा लगाया तो लल्लन की बांछे खिल उठीं।उसने जाते- जाते एक दफे फिर से शुकुल चाचा के पांव छू लिए।
★★
राजनीति उस वेश्या की भांति है जिसके धर्म मे किसी एक का होकर रहना नही लिखा।पिछले 5 साल से गौरी बदन सिंह प्रधान थे तो इस बार गांव की हवा नया प्रधान चुनने के मूड में थी।इसी हवा को अपनी ओर बहाने के प्रयास में सारे उम्मीदवार हाथ-पैर मार रहे थे।छेदू कोरी मलिनपुरा का वोट पक्का समझते थे जबकि कुछ मोहल्लों में भी उसने सेंध लगा दी थी।पंकज शुक्ला बाभन मुहल्ला के ब्राह्मण वोट को लेकर आश्वस्त थे तो कुछ वोट उन्हें उन ठाकुरों का मिलना पक्का था जो गौरी बदन सिंह से नाखुश थे।बन्ने खां की उम्मीद सिर्फ अपने मोहल्ले के 10 घरों के वोट से थी।इसलिए वो रेस से बाहर माना जा रहा था जबकि लल्लन ऊंच मोहल्ला के यादवों में अच्छी पकड़ बनाये हुए था लेकिन सीट जीतने के लिए उसे ठाकुरों और पंडितों के वोट की दरकार थी।यदि ब्राह्मण वोट उसे मिल जाएं तो सीट पक्की थी लेकिन पंकज शुक्ला के रहते फिलहाल ब्राह्मण कहीं और वोट करने को तैयार नही थे।
वोटिंग के 2 दिन बचे थे सारे उम्मीदवार जोड़-तोड़ में रात दिन एक किये थे।कसमें और दारू खिलायी-पिलायी जा रहीं थीं।कोई साड़ी, कम्बल बंटवा रहा था तो कोई रिश्ते-नातेदारी से दबाव डलवा रहा था।सबमे एक बात कामन थी,निश्चिंत कोई नही था।राजनीति के सिद्धहस्त खिलाड़ी गौरी बदन सिंह भी उलझन में थे क्योंकि वोटरों का मूड समझ नही आ रहा था।मोटे तौर पर पंकज शुक्ला जीतते नजर आ रहे थे क्योंकि उनकी पकड़ दोनो गांवों के हर मुहल्ले में थी।लल्लन यादव दूध का बेच पानी की तरह चुनाव में बहा रहे थे।सुंदर कांड और भंडारा भी करवा दिया था जबकि नेग में सबको 101 रुपये भी बंटवा दिया था।शुकुल चाचा बराबर लल्लन का प्रचार कर रहे थे।
वोटिंग का दिन आया तो हवा फिर से बदली हुई नजर आने लगी ।पंकज शुक्ला की तरफ बहने वाली हवा अब लल्लन यादव की ओर बहती नजर आ रही थी।शुकुल चाचा की वजह से ब्राम्हण वोट लल्लन को मिलता दिख रहा था।ऐसा अकारण नही था।शुकुल की पैठ अपनी बिरादरी में अच्छी खासी थी जबकि वोटिंग से 2 दिन पहले की रात को शुकुल लल्लन को साथ लेकर ब्राम्हण बिरादरी से लल्लन के पक्ष में वोट करने की कसमें भी खिलवा आये थे।
वोटिंग शांतिपूर्वक सम्पन्न हुई।गौरी बदन ने एड़ी चोटी का जोर लगा सीट अपने पास रखने की हरसंभव कोशिश की थी।
आखिर वोट खुलने का दिन भी आया।लल्लन यादव मुतमईन थे और लड्डुओं का आर्डर दे दिया था।
वोट खुलने शुरू हुए तो लल्लन यादव ने शुरू से ही बढ़त बना ली।
2 राउंड की वोटिंग तक आगे चलने के बाद लल्लन अब गौरी बदन से पीछे होने लगे थे जबकि तीसरे नम्बर पर छेदू कोरी आ पहुंचे थे।पंकज शुक्ला चौथे नंबर में खिसक गये।
अगले 2 राउंड तक गौरी बदन बढ़त बनाये रहे लेकिन सबको चौंकाते हुए छेदू दूसरे नम्बर पर आ गया था।
फाइनल राउंड में पहुंचते ही वोट धड़ाधड़ छेदू के निकलने लगे।सब हैरान थे।गौरी बदन अब दूसरे नम्बर में आ चुके थे।
वोटिंग समाप्त हुई।छेदू कोरी 150 वोटों से जीत गये।जबकि गौरी बदन दूसरे और लल्लन यादव तीसरे नम्बर पर रहे।सबसे ज्यादा आहत लल्लन यादव थे। उन्हें नही पता था कि राजनीति कैसे-कैसे गुल खिला सकती है।
शुकुल चाचा ने वोटिंग की रात ब्राम्हण वोट छेदू को ट्रांसफर करवा दिए थे जबकि बन्ने खां को बैठा दिया गया था सो मुसलमानों के एकमुश्त वोट भी छेदू को मिले।लल्लन यादव का इस्तेमाल गौरी बदन सिंह और पंकज शुक्ला को हराने के लिए किया गया था।
~Bhupendra_singh_Chauhan