छुट-पुट अफसाने - 34 Veena Vij द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छुट-पुट अफसाने - 34

एपिसोड---34

कई बार जीवन में कुछ घटनाएं केवल इसलिए घटित हो जाती हैं कि वे अपने घटने से केवल एक संस्मरण बनकर रह जाएं। जैसे:-

हेलो-! आप वीना मैनी बोल रही हैं?

जी हां, आप कौन?

मैं, पुष्पा झा। कुछ याद आया ?

इसी एक पल में इतना तो समझ आ गया था कि यह मेरा maiden name कोई स्कूल, कॉलेज की छात्रा ही ले रही होगी। कॉलेज में पुष्पा झा थी एक, हमारी Arts group कक्षा में। उसी पल मैंने उत्तर दिया कि नाम तो पहचाना लग रहा है लेकिन चेहरा याद नहीं आ रहा। उसने उसी रौ में बोला, " चेहरे तो वैसे भी इन 50 सालों में वैसे रहे ही नहीं। क्या पहचानोगी?"

"अच्छा बताओ फिर आज कैसे याद आई और कहां से बोल रही हो?"

"तुम्हारे जालंधर से!"

अब चौकने की बारी मेरी थी।" किसी के घर आई हो क्या यहां पर?"

"नहीं स्टेशन पर हूं मेरी एक सहेली साथ है! हम दोनों जबलपुर से कन्या महाविद्यालय में संस्कृत पेपर पढ़ने आईं हैं। उनकी100th anniversary celebration में। बस वहीं पहुंच रहे हैं सीधे।"

"हम आकर तुम्हें स्टेशन से घर ले आते हैं फिर इकट्ठे चलेंगे मुझे भी निमंत्रण आया है।"

"नहीं भाई हमने टैक्सी ले ली है अब जाकर वहां फ्रेश होंगे फिर तैयार होकर हॉल में मिलते हैं। मैंने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी होगी और मेरी सहेली ने फिरोजी। आगे से तीसरी पंक्ति में हम दोनों बैठी होंगी।और तुम...?"

"मैंने नेट की fawn कलर की साड़ी पहनी होगी! चलो मिलते हैं। पहुंचती हूं घंटे भर में।"

‌‌ पुष्पा झा के ख्यालों में गुम, मैं अतीत में झांकते हुए होम साइंस कॉलेज जबलपुर पहुंच उसे पहचानने का यत्न कर रही थी। तब का यथार्थ समक्ष था। बहुत कुछ फिल्म की तरह दिमाग में घूमे जा रहा था। उसकी पहचान देता कोई छोर पकड़ में नहीं आ रहा था। मुझे पता ही नहीं चला मैंने कब स्नान किया, नाश्ता किया और तैयार होकर अमित (अपने दामाद) के साथ कन्या महाविद्यालय पहुंच गई थी। रवि जी कश्मीर में थे तब।

मेरी नजरें मैडम विनोद कालरा HOD हिंदी को ढूंढ रही थीं। एक छात्रा ने बताया वे हॉल में हैं। बहरहाल, वही लक्ष्य था। स्टेज के साथ वाले दरवाजे से जैसे ही मैं अंदर दाखिल हुई विनोद स्टेज से नीचे उतरते हुए, " वीना दीदी आइए!" कह कर मेरे पास आ गईं थीं। वे मुझे साथ लेकर बैठा रही थीं कि मेरे समक्ष दो लेडीस आकर खड़ी हो गईं

थीं। गुलाबी साड़ी में जरा भारी डीलडोल की पुष्पा 5 फुट हाइट की और साथ में उसकी सहेली उससे 3-4"लंबी ! मैंने छूटते ही कहा, "पुष्पा?"और उसे बाहों में भर लिया। मुझे अपनी क्लास की दुबली- पतली, काफी सांवली, छोटी सी लड़की याद आ गई थी अब।

प्रोग्राम शुरू होने में अभी देर थी, तो हम तीनों बाहर आ गए। पुष्पा ने पूछा ", तुझे हैरानी नहीं हुई कि मुझे तेरा नंबर कैसे मिला?

के.एम.वी. के प्रांगण में एक पेड़ के नीचे बनी जगत पर बैठते हुए मैंने कहा, " बिल्कुल हुई।"

इस पर उसने मुझे जो कुछ सुनाया, उसमें मुझे एकदम साफ कुदरत का हाथ नजर आया। भला ऐसा भी कहीं होता है! वह बोली, "वीना! मैं संस्कृत की स्कॉलर हूं नेशनल लेवल की। पिछले दिनों रशिया भी हो कर आई हूं । कन्या महाविद्यालय वालों ने भी मुझे यहां पर पेपर पढ़ने के लिए निमंत्रित किया है। काफी समय तक " मानकुंवर बाई आर्ट्स कॉलेज" जबलपुर में संस्कृत पढ़ाती रही हूं।

जबलपुर से पंजाब आने के लिए कटनी स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी, तो वहां दो लेडिस आकर हमारे सामने बैठ गईं। जब गाड़ी चली तो आमने सामने बैठे होने के कारण मैंने यूं ही कह दिया कि आपकी कटनी की एक लड़की हमारे साथ होम साइंस कॉलेज जबलपुर में पढ़ती थी "वीना मैनी"! मैं उसे बहुत पसंद करती थी क्योंकि वह हर activity में हिस्सा लेती थी।सदा मुस्कुराती रहती थी और हम सब से हंस कर बात करती थी। (उसके मुंह से अपनी तारीफ़ सुनकर मैं हैरान थी कि इसने तब कभी इंगित भी नहीं किया था इस ओर! )

सुन न! मेरी बात सुनकर वे बोलीं कि हम वीना के परिवार को अच्छी तरह जानते हैं। वह जालंधर में और गर्मियों में कश्मीर में रहती हैं आजकल। जालंधर का नाम सुनते ही मैं तो उतावली हो गई। मैंने उनसे रिक्वेस्ट की कि मुझे वीना का एड्रेस या फोन नंबर दे सकती हैं आप? इसे संयोग ही कहिए कि हम जालंधर ही जा रही हैं। उन्होंने कहा- लो जी! अभी पता करके देते हैं।

उनमें से एक ने कटनी तेरे ताया जी की बहू को फोन लगाया और बोला कि आप हमें वीना का जालंधर का फोन नंबर दे सकते हो? तो उन्होंने उसी समय तुम्हारा फोन नंबर दे दिया!(बात करते-करते पुष्पा ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथ में ले लिए थे) तूं सोच भी नहीं सकती कि मेरा खुशी के मारे ट्रेन में समय काटना मुश्किल हो रहा था। देख ले, मैंने तुझे ढूंढे ही लिया।"

पुष्पा की बातों ने मुझे भीतर गहरे छू लिया था। मेरी आंखें भर आई थीं। भीतर हाल से माइक पर आवाज आई तो हम भीतर जाकर अपनी-अपनी निश्चित सीटों पर बैठ गए थे। विनोद कालरा मंच संभाले हुए थी। इन दोनों ने भी अपने-अपने पेपर पढ़े। फंक्शन बहुत शानदार हुआ उसके बाद बाहर लंच के लिए सब को बुलाया गया।

लंच के बाद मैंने उन दोनों से घर चलने के लिए कहा तो वह बोलीं कि उनकी शाम की वापसी की ट्रेन है। लेकिन पुष्पा ने कहा कि वह मुझसे ढेर सारी बातें करना चाहती है। सो मैं वहीं घंटा और रुक गई। उसने अपने जीवन के ग्रहण लगने की कथा भी सुनाई।

वह भी कभी दुल्हन बनी थी। ससुराल वालों को पसंद नहीं थी। दहेज नहीं लाई थी। घर का सारा काम नहीं करती थी क्योंकि वह जॉब करती थी। उन्होंने घर से निकाल दिया। गरीबी और मुफलिसी ने मायके के दरवाजे भी बंद कर दिए थे। पर कहते हैं ना जो होता है अच्छे के लिए होता है। उसने एक कमरा किराए से ले लिया। अकेली अपने दम पर जॉब भी करती रही और पढ़ाई भी जारी रखी। संस्कृत में पी.एच.डी की।

‌‌उसके रिसर्च पेपर्स कई नामी यूनिवर्सिटीज में गए थे। अब कॉलेज में संस्कृत पढ़ाती है। अब उसे जगह-जगह बुलाया जाता है। उसने मुझसे एक वायदा लिया कि मैं उसके पास एक बार जबलपुर अवश्य आऊं। और वह नेह भरी बदरी मेरे जीवन में अकस्मात स्नेह बरसा कर चली गई।

क्या मालूम था उसकी will power इतनी strong निकलेगी कि मेरा उस ओर जाने का कोई सबब बन जाएगा। अगले साल ही मेरी cousins दिल्ली से मेरे ताया जी के पोते के मुंडन में मुझे अपने साथ कटनी ले गईं। मैंने पुष्पा झा को फोन किया और function के बाद उससे किया वादा निभाने जबलपुर cousin के घर पहुंची। वह तो सच में पलके बिछाए मेरी राह देख रही थी। उसने होम साइंस कॉलेज, मानकुंवर बाई आर्ट्स कॉलेज और हवाबाग कॉलेज में मेरे लिए मीटिंग्स का टाइम ले लिया था। जनवरी 2012 में। 50 साल बाद जगह तो वही थी लेकिन सब कुछ बदल चुका था। इंसानों से लेकर बिल्डिंग्स। सड़कें भी और मोहल्ले भी सभी बदले हुए थे। मुझे वहां वीआईपी ट्रीटमेंट दिया गया। स्टाफ और प्रिंसिपल्स के साथ मीटिंग्स हुईं। उन सब की कॉलेज पत्रिका में लेख भी छपे। और उन्होंने मुझे वह पत्रिकाएं भेजीं।

सबसे प्यारी बात यह थी कि मेरे cousin गुलशन की कार होते हुए भी उसने कहा कि मैंने ऑटो सारे दिन के लिए बुक किया हुआ है तुम्हारे लिए, हम उसी में चलेंगे। उसकी भावनाओं और उसके निश्छल स्नेह को देखते हुए मैंने हामी में सिर हिला दिया व गुलशन को समझा दिया।

शाम को जब वह मुझे मेरे कजन के घर छोड़ने आई तो हम दोनों के खिले मन यूं उदास हो रहे थे जैसे दूर क्षितिज की खिली लालिमा स्लेटी हो चली हो। जनवरी के महीने में भी कुछ खास सर्दी नहीं थी वहां। फिर भी मौसम में मीठा- मीठा भीगापन था। उसके जाते ही मेरी नज़रें दूऽऽ र तक उसके Auto को निहारती रहीं ....

वीणा विज'उदित'

18/6/2020