एपिसोड--10
जाने-अनजाने झोली में ढेरों यादें, लम्हे, एहसास, मुस्कुराहटें, खिलखिलाहटें बटोरते रहते हैं हम सब । जब कभी उनमें से किसी भी एहसास के साथ वक्त बिताने को दिल करे तो सब एक से एक बढ़कर आगे मुंह निकालते हैं-- मैं-, पहले मैं-, नहीं पहले मैं ! चलो, आज यही सही...
असल में हम पुराने समय में वास्तविकता के धरातल पर नहीं, अपितु काल्पनिकता की उड़ानें भरते थे। कारण, एकदम साफ है। हमें काल्पनिक कहानियां सुनाई जातीं थी । परियों, राजा-रानी, राजकुमार- राजकुमारियां, राक्षस- चुड़ैल या भूतों की बनावटी कहानियां । अभी भी ज़हन में हैं। सुनते-सुनते कभी हम सपनों के सातवें आसमान पर पहुंच जाते थे, तो कभी भयवश टांगें जोड़कर घुटनों के इर्द-गिर्द जफ्फी डाल लेते थे, पर मजाल है किसी माई के लाल ने पलटकर पूछा हो-- ऐसे कैसे हो गया? या कोई और सवाल । कारण --? हमारी पीढ़ी लल्लू थी( आप कहोगे "तब बच्चे भोले होते थे") चलो मान लेते हैं। फिर क्यों ं Bioscope wala आता था, तो उसकी गोल मोरियों से मुंह सटाए चूड़ियों के ढेरों डिजाइन देखने के बाद भी " नंगी धोबन " सुनने की आस में आंखें बिछाए रहते थे। :)
स्कूल में आख़री घंटी बजते ही हम "चूरन वाले" के खोमचे पर पहुंच कर टके का चूरन लेते थे, जिसको एसिड से जलाकर वो भैया इतना अधिक खट्टा कर देता था कि जीभ जलती थी, पर मज़ा आता था। कभी बुढ़िया से " उबले बेर" व "मुकैया" भी लेते थे । तब स्कूल की बस नहीं होती थी। हमारे बाडस्ले स्कूल की दो बैलों की, सफेद कपड़ों से सजी बैलगाड़ी होती थी । हमने उसकी सवारी भी इसी के चक्कर में छोड़ दी यह कहकर कि हम भी पैदल स्कूल जाया करेंगे बाकि लड़कियों की तरह। असल में वो बैलगाड़ी स्कूल के भीतर से चलती थी और हमें तो बाहर से चूरन, जीरा वट्टी, बेर, शहतूत, मुकैया और आमपापड़ वगैरह लेना होता था । उन चीजों को याद करते ही मेरा मुंह उनके स्वाद से भर गया है ।
एक बार, चूरन और खट्टा करने के चक्कर में बार-बार सलाई एसिड में डालने से पूरे एसिड की शीशी में आग लगने से इतनी जोर का धमाका हुआ कि लगा स्कूल के पास से गुजरती रेलगाड़ी का डब्बा फट गया है। पर उससे खोमचे वाले की दाईं बांह फट गई थी और चूरन लेने वाले लड़के का माथा फट गया था । हमने स्कूल गेट के पास से देखा, करीब के बीड़ी कारखाने से लोग उसकी ओर भागे आ रहे थे । अगर उस दिन हम वहां होते तो हम भी मारे गए थे। वो दृश्य आज भी सजीव है मेरे सम्मुख। बेहद डर गए थे हम । ज़िंदगी में फिर कभी भूल से भी चूरन को हाथ नहीं लगाया मैंने तो ।
वीना भास्कर (त्रिवेदी ) नर्सरी के बाद दिल्ली चली गई थी। चार वर्ष बाद लौटी तो वो बैलगाड़ी में स्कूल आने लगी । कई बार मैं खट्टे उबले बेर लेकर बैलगाड़ी में पीछे बैठ उसे भी साथ में बेर खिलाया करती थी। दोस्ती प्रगाढ़ हो गई थी । हम एक- दूसरे के घर भी खेलने जाया करते थे। निशा जौहर भी साथ होती थी । कई बार हम परियां बनतीं थीं। मम्मी के दुपट्टे को फैला कर दोनों हाथों के अंगूठों से कोने बांध लेते थे, बीच में सिर पर सुइयों से अटका लेते थे। फिर सोन परी, नीलम परी, लाल परी, जल परी वगैरह बनकर झूठ-मूठ की हवा में तैराकी करते थे। यह खेल मेरे सपनों में मैं कई बार खेल चुकी हूं । क्योंकि सपने अपनी मर्ज़ी से आते-जाते हैं। लाख कोशिश कर लो, पर आप अपनी मर्ज़ी का सपना नहीं देख सकते हैं। ये ultimate सच है !
एक बात के लिए मम्मी पर गुस्सा आता था। जब भी किसी सहेली के घर जाना होता था, वो बोलतीं थीं, "साथ में बहन को ले जाओ "। अपनी सखियों में बहन को साथ ले जाना-- मुझे कभी नहीं भाया था । और वहां खेल-कूद में देर हो जाती थी तो घर पहुंचने पर डांट खाने का डर सताता था । हम रास्ते में पत्थर पर पत्थर चढ़ा कर रख देते थे । लो जी, इस टोटके से डर भाग जाता था काफी हद तक ।साथ में घर पहुंचने तक cross finger भी किए रहते थे। पता नहीं कब, किसने यह सब सिखा दिया था । मज़े की बात है कि इस से हम बच भी जाते थे।
हां, गर्मियों की भरी दुपहरी में जब मम्मी-पापा के खर्राटे चलते तो हम आपस में कहते "ये दोनों खर्राटों में सवाल-जवाब कर रहे हैं।" यह आया सवाल --यह मिला जवाब ।और खूब हंसते थे दबे-दबे।
बचपन में हर बात पर मस्ती और शरारत सूझती थी । कभी कांच की टूटी चूड़ियां एकत्र करने चुपचाप निकल जाती थी मैं अपनी सहेली फुल्ली को साथ लेकर । उन टुकड़ों से मैं तरह-तरह के डिजाइन फर्श पर बनाती थी कोने वाले कमरे में ।तब बड़े घरों में ढेरों कमरे होते थे, बिना नाम के भी। वहीं हम " "गुड्डी-पटोले "यानि कि "गुड्डा- गुड़िया" भी खेलते थे, सब सहेलियों के साथ। मैं हमेशा गुड्डे वाली बनती थी-- बारात लेकर जाती थी। तब हम सब की मां लोग भी हमारे साथ बच्चियां बन जातीं थीं। घर के सामने वाले मैदान में ईंटों के चूल्हों पर तब खाना बनता था और पंगत में बैठकर सब खाते थे। काश, आजकल के बच्चे फोन छोड़कर इन रेशमी एहसासों को महसूस कर पाते ! ये एहसास हमारे बचपन की धरोहर हैं, हमारे बेशकीमती खजाने हैं।
" सटापू " खेलते-खेलते दोपहर से शाम हो जाती थी ।या फिर "पिट्टू" के सात गोल पत्थरों की तह जमाते अंधेरा आता भी दिखाई नहीं देता था। "नदी-पहाड़" खेलने में फुर्ती काम आती थी। फिर पत्थरों पर छोटी-छोटी लकीरें उकेर कर उन्हें छिपा देना। दूसरी पार्टी का उनको ढूंढना जैसे कोई खजाना ढूंढना हो । ये सारे खेल बचपन को सरस और प्रफुल्ल बनाते थे।
फिर, भूख भी जोरों से लगती थी और खाने के नखरे भी नहीं होते थे। पढ़ाई भी जम के करते थे। यदि कभी कहीं बाजार में कोई टीचर मिल जाए तो सादर अभिवादन करते थे हम लोग । लेकिन, अब ? समझ नहीं आ रही कि हम अधिक सभ्य हो गए हैं कि विपरीत चल पड़े हैं । खैर...
"कोक "नहीं "बंटे वाली लैमन" की बोतलें होतीं थीं तब, बर्फ में लगीं। बाल्टी में चूसने वाले आम और उस पर बर्फ डाल कर ठंडे आम सारा परिवार इकट्ठे बैठकर चूसता था। हमारे नौकर "गणेश" ने हमें गिटक की "पीपनी" बनानी भी सिखाई थी, जो बजती थीं ।
भाई के "बंटे" (कंचे)भी संभालते थे, कभी-कभी साथ जाकर। गिल्ली-डंडा खेलते वक्त यूं ही साथ चल कर उत्साह बढ़ाते थे। हां, बसंत में पतंग की डोरी की चखरी घुमाने में बहुत आनन्द आता था। मीठी-मीठी यादें बचपन को समृद्धशाली बनातीं हैं। ढेरों किस्से भी हैं ।पेड़ों पर चढ़ने, ढेरों शरारतों के! कुछ गर्मियों के तो कुछ सर्दियों के।
विचारेंगे, क्योंकि
विचार चलते हैं, तो हम में ऊर्जा आती है । और हम रचनात्मक हो पाते हैं। नव-वर्ष में आपको भी ऊर्जावान होने की शुभकामनाएं-!
मिलते हैं अगले हफ्ते...
वीणा विज'उदित
3/1/2020