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छुट-पुट अफसाने - 11

एपिसोड - - 11

गहरी नींद में जब भजन की सुरीली आवाज आकर कान से टकराती तो मैं तकिये को कान से भींच लेती। क्योंकि मुझे अभी और नींद लेनी होती थी। रात देर तक जागकर पढ़ने की आदत मेरी तभी से आज तक है। मम्मी प्रातःकाल पांच बजे नहा - धोकर चौड़ी लेस लगा दुपट्टा सिर पर ओढ़, सिंदूर की बड़ी बिंदी लगाकर हवन करती थीं। फिर भजन गाती थीं। ये भजन की गूंज हमारे मोहल्ले के लोगों के लिए अलार्म-घड़ी थी। पर मैं जानती थी कि अभी तो भगवान भास्कर अपनी यात्रा प्रारंभ करने हेतु रथ पर आरूढ़ भी नहीं हुए होंगे। उन्हें रथ लेकर आने तो दो, मैं स्वागत करने उठ जाऊंगी मां! लेकिन इस पर वो भोर - गान गातीं...

"जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है।।

उठ नींद से आंखें खोल जरा, प्रभु जागत है तूं सोवत है।।

मजबूरन उठना ही पड़ता था।

मैं पूछती कि सुबह तो कोई आता नहीं, फिर तैयार क्यों होती हो? तो वे बोलतीं, " मैं सुबह VIP के सामने जाती हूं। क्या वहां तैयार हुए बिना बैठ सकती हूँ? " और मैं सुबह - सुबह मम्मी को सजी हुई देखकर मुस्कुरा कर उठ जाती थी। वे मृगछाल पर बैठकर हवन करतीं थीं।

पापा शिकार के शौकीन थे। तब शिकार करना ban नहीं था। मम्मी की फर्माइश पर पापा ने चार मृग छाल तैयार करवा दीं थीं स्वयं शिकार करके।

वे जंगलात के ठेकेदार थे। उन्होंने देहरादून से Forestry की डिग्री ली थी। वे टॉपर थे, इसलिए दूसरे ठेकेदार भी उन्हें दिखा कर जंगल का ठेका लेते थे। कश्मीर में राह चलते वे वृक्षों की उम्र बताते थे। मैंने भी उनसे सीखा था।

वे अमरकंटक के जंगलों का ठेका लेते थे। नर्मदा नदी का उद्गम वहीं अमरकंटक के पहाड़ों से देखा है हमने और उसका विकराल रुप भी भड़ोंच में देखा है, जब वो भीषण गर्जन करती अपने गंतव्य में समाती है।

कई बार हम सब भी पापा के साथ जंगल घूमने जाते थे। वहां खेल -खेल में पेड़ों पर भी चढ़ते थे।कभी कपड़े फट जाते थे तो कभी खरोंचे लग जाती थीं। पुराने कपड़े, बिस्तर व अनाज ट्रक में रखवा कर मम्मी मजदूरों के लिए भेजतीं थीं। लेकिन हम जीप में पापा के साथ जाते थे। वे सिर पर अंग्रेजी हैट पहने, खाकी निक्कर, पैरों में घुटने तक लम्बे रबर शू पहने और कमर में कारतूसों की बैल्ट बांधे होते थे। कद छैः फुट होने के कारण बहुत रोबीले लगते थे।

तीतर, चीतल(छोटा हिरन) और जंगली सूअर का शिकार तो वे आम करते थे लेकिन एक बार पापा ने चीते का शिकार करके बड़ी शान से शहर भर में गाड़ी घुमाई थी। मैं भी तब साथ थी। मैं तो चीता देख कर डर के मारे नीचे छुप गई थी। शिकार देखकर लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती थी, थोड़ा- थोड़ा टुकड़ा मांगने के लिये। कहते हैं ताजे शिकार का मीट बेहद स्वादिष्ट होता है तभी तो। घर में बड़े-बड़े मर्तबानों में मांसाहारी अचार भरे होते थे। लेकिन मैं नहीं खा पाती थी ये सब nonveg । करेले, बैंगन, भें (कमल जड़) और काबुली चने का अचार भी बनता था घर में। बाकि अचारों के अलावा।

हमारे घर के पिछवाड़े छोटी सी गली थी। गली के पार कटनी के इकलौते गुरुद्वारे का पिछला दरवाजा था। हमारा भीतर जाना वहीं से होता था। बल्कि मेन रोड पर पहुंचने का शॉर्टकट गुरुद्वारे के इसी रास्ते से होता था। अधिकतर शाम को रैह, साब का पाठ करने जाना और सुखासन के बाद"वाहे गुरु" जपते घर आते थे हम लोग। गुरु पूरब पर 'शबद' याद करना और माईक के सामने बोलना। क्योंकि कॉपी, पेंसिल ईनाम मिलता था। उस वक्त का पागलपन था यह भी।

इसी तरह होली का त्योहार आने के दो दिन पहले भाई लोगों के साथ मिलकर रंग-बिरंगी झंडियां डोरी में लेई से चिपकाते थे ।' लेई ' मम्मी से बनवा कर घर से लाते थे। शहर के मोहल्लों का आपस में सजावट का कम्पीटीशन होता था। सो, छोटे-छोटे हम वानरों की सेना क्या जोश से काम करती थी! होलिका जलाने का उत्साह तो कुछ न पूछो। होलिका पर इतना रोष कि जैसे उसने हमारे सच्चे बच्चे प्रह्लाद को जलाने की आखिर सोची कैसे। घर-घर से दो-चार लकड़ियां लाकर इकट्ठी करते थे।होली की एक रात पहले "होलिका- दहन" होता था। लाउड स्पीकर पर गाने भी लगते थे। मोहल्ले के लोगों से जो चंदा इकट्ठा किया होता था, उससे लकड़ी व प्रसाद आता था। उन्हें अगले दिन प्रसाद भी पहुंचाया जाता था।

उस बचपन और आज के बचपन में संस्कारों की अमिट छाप छूटने का अंतर हम सब भली-भांति समझते हैं। अंजाने में ही अपनी संस्कृति की चादर ओढ़ लेते थे हम। सुबह से लेकर रात ढलने की प्रक्रिया के मध्य हम अपने लिए मेंहदी के पत्ते तोड़ कर फ्राक की झोली भरने, या मोगरे की कलियां तोड़ कर मम्मी के जूडे़ पर सजाने की शामें अपने लिए उगा लेते थे ।

(तब मेंहदी के कोन नहीं होते थे)सिल-बट्टे पर पीसते थे मेंहदी के पत्ते। मम्मी करवा -चौथ पर हथेली पर पिसे पत्ते रख कर मुट्ठी बंद कर लेती थीं ।बिंदी भी नहीं होती थी । माथे पर ज़रा सा तेल या वैसलीन लगाकर मोरी वाला पैसा बीच में रखकर उस पर सिंदूर भर देती थीं।पैसा हटाते ही ऐ मोटी सिंदूर की बिंदी चमकती थी । और लिपस्टिक तो अपनी शादी में भी उन्होंने रंगले दातुन की लगाई थी यानि कि अखरोट की छाल का दातुन । कितना सीधा-साधा श्रृंगार होता था न! वो भी समय था फिर, जब लिपिस्टिक केवल "लाल" रंग की ही होती थी । सन् 1960 में पापा मम्मी के लिए Lakme का श्रृंगार बाक्स दिल्ली से लाए तो हमने उसमें लिपिस्टिक के बारह शेड्स पहली बार देखे और खूब हैरान भी हुए । समय करवट बदल रहा था ।अतीत के एक और गलियारे पे नज़र डल रही है...

बड़ा सा रेडियो मर्फी का, जो घर की शान होता था।उसी मर्फी का कैलेंडर, जिस पर प्यारा सा बच्चा मुंह पर उंगली रखे था हर घर में दिख ही जाता था। बुधवार को "अमीन सयानी " की आवाज़ में "बिनाका गीत माला" का सारे हफ्ते इंतजार रहता था कि देखें इस बार पहली पायदान पर कौन सा गाना पहुंचा है! और "विविध भारती" तो सभी का पसंदीदा प्रोग्राम होता था। मैं तो बेहद बुद्धू थी । राज़ की बात है.. बता ही देती हूं । जब कोई भी आसपास नहीं होता था, तो मैं रेडियो के पिछले हिस्से में झांक कर देखने की कोशिश करती रहती थी कि आखिर वहां इतने लोग कैसे बैठ कर गा-बजा रहे हैं ! (अलादीन के जादुई चिराग वाली कहानी से प्रभावित हो सकता है ऐसा ख़्याल )

पचास के दशक में, जैसा भी था बडा़ प्यारा था बचपन ! ढेरों छुट-पुट अफसाने लिए.....

मिलते हैं, 

वीणा विज 'उदित'

10/1/2020

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