श्रद्धासुमन रेखा पविया द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रद्धासुमन

आज पापाजी के बिना एक वर्ष्‍ हो गया। आज ही के दिन तो उन्‍होनें अंतिम सांस ली थी और इस क्षणभंगुर संसार को छोडकर परमात्‍मा में विलीन हो गये थे। मन ही मन पिता को श्रद्धांजली देती हुई निर्मला अतीत में जा पहॅुचीं। पापाजी लो‍कनिर्माण विभाग में इंजीनियर थे। घर से दूर रहकर ताउम्र नौकरी की। अपनें कर्तव्‍यों को पूरा करने के लिये घर में रहने का सुख क्‍या होता है , कभी उन्‍होंनें जाना ही नहीं। शाम को दफ्तर से लौटकर पत्नि के हाथ की चाय या बच्‍चों की ध्‍माचौकडी , उनके लिये एक सुखद अहसास थी। इसकी टीस उनके मन में जरूर रही होगी परन्‍तु धैर्य एवं मजबूती से एक नायक की तरह अपने कर्तव्‍य पथ पर आगे बढते ही गये। नौकरी के सिलसिलें में जहॉ कहीं भी उनका स्‍थानांतरण होता वहॉ के जीर्ण-शीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाते रहे। शिक्षा एवं उच्‍च शिक्षा के लिए हम सब भाई-बहन मॉ के साथ गृहनगर में ही रहते थे। मॉ भी शिक्षित थी सो बच्‍चों की शिक्षा के लिये त्‍याग की मूर्ति बनी रहीं एवं बडी कुशलता से गृहस्‍थी को संभाला। तभी फोन की घंटी बजने से वह अतीत से वर्तमान में आ गई।
‘’ओह यह तो कंपनी का फोन है। पता नहीं कौन- कौन सी पॉलिसी समझाते है कंपनी वाले। ओह १२:०० बज गये। बच्‍चे भी आने वाले होगें। लंच की तैयारी में जुट गई परन्‍तु वह बैचेन सी है। आज रह-रह कर मन अपने पापाजी के पास पहॅुच रहा है। रोजाना ही फोन कर हालचाल जान लिया करते थे। सच अब तो मेरा फोन भी उनके फोन का इंतजार करते-करते मानों थक सा गया है। पुन: फोन की घंटी बजी परन्‍तु अब यह कंपनी का नहीं वरन उसके मित्र रूद्र का फोन है।
‘’हैलो।‘’
‘’क्‍या हाल है क्‍या कर रही हो’’
‘’कुछ खास नहीं।‘’ भर्राई सी आवाज में वह बोली।
‘’अरे। आज तुम्‍हारी आवाज रानी मुखर्जी जैसी लग रही है जरा भारी सी।‘’
कुछ देर दोनों शांत रहे।
‘’क्‍या हुआ इज देयर एनी प्रॉब्‍लम सब ठीक है ना।‘’
‘’यू नो। आज के दिन एक साल पहले हमारें पापाजी शांत हो गये थे।‘’
सुबक-सुबक कर रोते हुये उसने खुद को संभालने की कोशिश की।
‘’बहुत याद आ रही है उनकी।‘’
‘’वो तो आयेगी ही। पिता की छत्रछाया जैसा सुकून और कहा।‘’
‘’मन का एक कोना ना जाने क्‍यॅू खाली सा हो गया। उनके जाने के बाद जाना कि उनका होना एक टॉनिक की तरह था। जैसे कि वह चार्जर हो और मैं एक बैटरी जो कभी-कभी खाली हो जाती है तो कभी धीमी।‘’
सच पिता संबल है पिता साहस हैं। हम तभी तक बच्‍चे हैं जब तक हमारें सिर पर मॉ-बाप का हाथ है।
‘’मेरे पापाजी बहुत अच्‍छे सिंगर थे। मुकेश के गीत तो उनकी आवाज पर खूब जचते। धर्मपरायण्‍ता तो कूट-कूट कर भरी थी। रामायण का पाठ करना उनकी दिनचर्या का एक अनूठा हिस्‍सा थे।‘’ रूद्र धैर्य से उसकी बातें सुनकर अपनी मित्रता निभा रहा था और निर्मला अपने पापाजी को याद कर कभी गमगीन तो कभी मन को हल्‍का कर रही थी।
‘’ उनकी यह छाप तो तुम पर भी है। बहुत अच्‍छा गाती हो तुम भी। मन के तार झंकत हो जाते है।‘’
‘’हुम्‍म सही कहा तुमने । मैं भी तो रोज रामायण का पाठ करती हॅू। पर इस ओर मेरा ध्‍यान ही नहीं गया। अब उसके स्‍वर में जरा संतोष सा प्रतीत हुआ।
‘’फिर यह दुनिया एक रंगमंच है और हम इंसान एक कलाकार अपना-अपना किरदार निभाकर सभी को एक न एक दिन मंच से वापिस जाना होगा।‘’
तुम्‍ही ने सेक्‍सपियर की ये पॅक्तियॉ मुझे सुनाई थी एक दिन। उस ने ढांढस बंधाने की कोशिश की।
‘’सच फिर मेरे पापाजी ने तो एक गरिमामयी उम्दा किरदार निभाया है। आखिर यह जीवन माता-पिता की ही तो देन है। हमारे अस्तित्‍व उन्‍हीं का तो प्रतिबिम्‍ब है। फिर यह सोचना गलत होगा कि वे अब नहीं रहे।
निर्मला ने अपने माता-पिता को श्रद्धासुमन अर्पित किये और उन्‍हीं के द्धारा दी गई रामायण को पडने बैठ गयी।
रेखा पबिया, दतिया (मध्‍य प्रदेश)
स्वरचित