छुट-पुट अफसाने - 30 Veena Vij द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

छुट-पुट अफसाने - 30

एपिसोड---30

देखा एक ख़्वाब तो ये सिलसिले हुए...

जी हां, यह खुली आंखों के देखे ख्वाब थे। सुनते हैं खुली आंखों के ख्वाब पूरे हो जाते हैं। बंद आंखों के ख्वाब तो आंखें खुलते ही रफूचक्कर हो जाते हैं। ख्वाबों के सिलसिले चल पड़े थे।

मायके से तो लड़कियों का कभी मन भरता ही नहीं लेकिन एक दिन जाना ही होता है। सो भीगी आंखों से मन को सींचते हुए चल पड़े थे हम कटनी से औरंगाबाद। मैंने पूछा ही नहीं था कि हम वहां क्यों जा रहे हैं? और यह आदत जीवन पर्यंत चलती रही ।

"माझी मेरी किस्मत के जी चाहे जहां ले चल ।"

अपन तो यही मानकर चल पड़ते थे बस। औरंगाबाद पहुंचकर, वहां एलोरा की बस सर्विस देखकर मैंने इनकी ओर अर्थ पूर्ण मुस्कुराहट से देखा तो ये भी उसी तरह मुस्कुरा दिए। Excitement में मैंने इनके दोनों हाथ पकड़ लिए थे पब्लिक में । विजय भरी मुस्कान खिल गई थी इन के चेहरे पर, क्योंकि इन्हें सरप्राइजेज देने मैं मजा आता है।

'एलोरा " औरंगाबाद से 30 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में स्थित है। तकरीबन आधे घंटे में हम वहां पहुंच गए थे। यहां ढेरों भव्य मंदिर हैं जो चट्टानों के कटाव की एक श्रृंखला के रूप में हैं। यह गुफाएं लगता था किलोमीटर में फैली हुई हैं । बेसाल्टिक चट्टानों को काटकर उनके अग्रभाग और आंतरिक दीवारों पर मूर्तियां बनाई गई हैं। भीतर जाने के लिए खंभे वाले बरामदे यानिकि स्तंभ बने हुए हैं। दूर तक फैले पर्वतों के दामन में वही दिखाई देते हैं। आश्चर्य की बात यह थी कि इन गुफाओं में काफी अंधेरा था। दोपहर के 12:00 बजे भीतर दो -तीन बल्ब टिमटिमा रहे थे । जिनकी रोशनी में हम मूर्ति कला को देख पा रहे थे।

अब प्रश्न उठता है कि अंधेरे में मूर्तियां कैसे बनाई गई होंगी। और वो भी 200 BC में ? वहां पर गाईड ने बताया--- बाहर मैदान में पन्नी की चादरें (Aluminium foil )इस कोण से बिछाई जाती थीं कि जब सूर्य चमकता था तो उस पन्नी की रोशनी गुफा के भीतर टॉर्च जैसे आती थी । उसी रोशनी में यह मूर्तियां बनाई गई हैं। आश्चर्यचकित कर देने वाली बातें थीं। आसानी से विश्वास करने को मन नहीं हो रहा था। फिर सोचा यही सच होगा क्योंकि उस जमाने में लाइट तो थी नहीं।

‌‌यहां शिव मंदिर है। जिसे कैलाश नाथ गुफा कहते हैं। 10- 12 बौद्ध गुफाएं हैं । ढेर सारे हिंदू मंदिर हैं। और थोड़े से जैन मंदिर भी हैं। हिंदू और बौद्ध चित्रों के साथ - साथ नृत्य करने वाले बौनो के जीवंत दृश्य भी शामिल हैं। तथागत की दीर्घाकार प्रतिमा बनी हुई हैं। रावण के दशानन की प्रतिमा भी देखी। खंभों या स्तम्भों पर भी चित्रकारी है। कहीं हाथी है तो कहीं नंदी बैल बने हैं। कुछ गुफाओं में घुमंतू भिक्षुओं के लिए विश्राम गृह भी हैं। बेहद रोचक था सब कुछ। हमें यहां शाम हो गई थी और खूब भूख लग रही थी। खाने का वहां कोई इंतजाम नहीं था।

‌ सो, हम लोगों ने बस स्टैंड पर आकर कुछ खाया । फिर वहां से भुसावल नाना जी के घर के लिए चल पड़े थे । रात्रि विश्राम वहीं था। नाना जी, मामा- मामी और 6- बच्चे । घर रौनक से भरा हुआ था। मामा जी की चारों बेटियां जवान थीं। आधी रात तक गपशप चलती रही। सोने का कोई नाम ही नहीं ले रहा था, घर में पहले जीजा आए थे। सबको बहुत चाव था। आंगन की धूप कंगूरे छू रही थी जब सब सो के उठे। फिर दोपहर बाद वे हमें ताप्ती नदी पर बने नए पुल पर घुमाने ले गए। बेहद शोर था ताप्ती के बहाव में। पुल से दूर, जहां तक नजर जाती थी, ताप्ती की भव्यता और विशालता नयनाभिराम व मनमोहक थी।  ‌

अगले दिन हम जलगांव के लिए निकल पड़े क्योंकि मंझले और छोटे दोनों मामा वहां थे और हमारा भैया भी उन दिनों उन्हीं के पास गया हुआ था। भाई से मिलने के लिए मैं उदास थी। शायद रवि जी ने इसीलिए यह प्रोग्राम बना लिया था। मेरी समझदानी मैं अब यह बात आ रही थी। मैं मन ही मन उनकी मुरीद हो गई थी।

चूंकि यह महाराष्ट्र था। पंजाबी होते हुए भी खाने-पीने के तौर-तरीकों में महाराष्ट्रीयन संस्कृति की झलक थी। इनको यह खाना नहीं भा रहा था। हमें नागपुर से मुंबई के लिए गाड़ी पकड़नी थी। नागपुर जाने से पहले वर्धा से 8 किलोमीटर दूरी पर गांधी जी का सेवाग्राम था। बापू के प्रति श्रद्धा के कारण स्वतंत्र भारत के उस तीर्थ के दर्शन करके, उनके आवास को नमन करके हम स्टेशन के लिए रवाना हो गए थे।

यहां एक अनपेक्षित मजेदार घटना घटी। जिस डिब्बे में हम चढ़ने लगे थे, उसी डिब्बे से Mrs Pinto नीचे उतर रही थीं। नीचे उतरते ही उन्होंने मुझे बाहों में भर लिया तो मैंने रविजी को उनसे मिलवाया। 7 वर्षों बाद मैं उनसे मिल रही थी। वे Robertson college से Home science college में English पढ़ाने आती थीं। और मेरी NCC officer भी थीं। लो जी, उन्होंने जमकर मेरी तारीफों के पुल बांधने आरम्भ कर दिए तो मुझे उन्हें चुप कराना पड़ा। समय ही कहां था हमारे पास?:) बाद में सोच कर हम हैरान हो रहे थे कि ऐसा भी कभी होता है!! कुछ भी कहो बेहद खुशी हुई थी उनको मिलकर।

मुंबई पहुंचते ही वी टी स्टेशन से हम सीधे Padder road इनकी सुरक्षा दीदी के घर गए। मुंबई तो मैंने भी और इन्होंने भी अपने-अपने समय में घूमी हुई थी। लेकिन इकट्ठे घूमने की बात ही कुछ और थी। हमारे पहुंचने पर रवि जी के चचेरे भाई बलराज विज ( ‌जो " वचन" फिल्म के हीरो थे) का फोन आया। उन्होंने सुरक्षा दीदी को फोन पर कहा कि दोनों पहुंच गए हैं तो उनको लेकर प्रोग्राम पर आ जाओ। सन्मुखनंदा हॉल में प्रोग्राम था, (उस जमाने में वह एशिया में biggest hall था) वही प्रोग्राम करवा रहे थे । हॉल की भव्यता देखकर मैं हैरान थी !

हम सब को पहली पंक्ति में बैठाया गया। किशोर कुमार जी का लाइव प्रोग्राम था। सच बताऊं तो, उस समय ऐसा लग रहा था जैसे जमीन के ज़र्रे ने आसमां को छू लिया हो। खूब स्नेह पूर्ण व्यवहार था सबका वैसी ही आवभगत हो रही थी। सुरक्षा दीदी की दो बेटियां और एक बेटा था। तीनों ही मॉडल्स लग रहे थे। उनके घर में सामने टेबल पर एक फिल्मफेयर मैगजीन पड़ी थी। जिस के पूरे कवर पेज पर उनकी छोटी बेटी की पूरी तस्वीर थी । उन्होंने बताया यह मिस फिल्म फेयर बनी थी। किस वर्ष ...? पक्का याद नहीं।पर मेरी नजर में वह काफी ऊंची उठ गई थी। क्योंकि हम लोग तो इस तरह की बातें सोच भी नहीं सकते थे। और अब अपने ही परिवार में ऐसी हस्ती मौजूद थी और मेरे सामने थी। लगता था मैं दिन में सपने देख रही हूं।

उनका फ्लैट बहुत शानदार तरीके से सजा हुआ था लेकिन रात को उसके भेद खुलने शुरू हुए --- एक सोफा खुलने से पलंग बन गया। एक पार्टीशन दीवार, हाथ से नीचे की गई तो वह भी पलंग बन गया। बाकि 2 बेडरूम सेट का फ्लैट तो था ही । सुबह किचन विंडो खोलने से प्रेस टेबल बन गई थी। लगता था उन की दीवारों में से कब कहां क्या निकल आए, कुछ पता नहीं। रीमा मेरे पास आकर बैठ गई थी और मुझसे बातें कर रही थी। यह देख कर दीदी हैरान हो रही थीं ---! बोलीं, "यह तो किसी को बुलाती भी नहीं और वीना भाभी के साथ खूब घुलमिल गई है। " देर रात डिनर के लिए वे हमें एक मशहूर रेस्तरां में ले गए ।वहां फिल्मी जगत की ढेरों हस्तियां दिखी थीं।

ऐसे लोगों की रात में, दिन शुरू होता है ।और सुबह तक वो रात जागती है। वैसे भी बॉलीवुड की जिंदगी में दिन सबका बिज़ी होता है और रातें रंगभरी, चमकीली होती हैं ।यह तो मजबूरी है उनकी। यही जिंदगी भी।

गैस के सिलेंडर तो होते ही नहीं थे वहां, गैस पानी के नल की तरह पाइप्स में आती थी उस जमाने में भी। पीछे से सप्लाई चलती रहती है। कुल मिलाकर पंजाब का, मुंबई से कोई मुकाबला नहीं था। बॉलीवुड के कारण मुंबई बहुत एडवांस है। और मुझ पर तो बढ़िया इंप्रेशन पड़ रहा था। आई. एस. जौहर मामा जी के घर जाना ही नहीं हो पाया । क्योंकि उस समय वे फिल्म की शूट के लिए बाहर गए हुए थे। अलबत्ता अगले दिन हम मेरी हॉस्टल की फ्रेंड जो अब डॉक्टर बन चुकी थी डॉ आशा मेहता बक्शी के घर जा रहे थे। वह हमें लेने आ गए थे।

हम दोनों सहेलियां रात भर बातें करतीं रहीं। अपनी अपनी जिंदगी का लेखा-जोखा सुनाती रहीं, एक दूसरे को। जबकि अगले दिन हम लोग सब Elephanta caves देखने जा रहे थे । Gateway of India से समुंदर में मोटर बोट में बैठकर करीब 10 या 12 किलोमीटर दूर हम एक निकटवर्ती टापू पर गए। यहां भी दूर से एलोरा जैसे पहाड़ी के दामन में स्तंभ दिखाई दे रहे थे। ऊपर जाकर देखा तो ढेरों कलात्मक गुफाएं थीं। वहां शिव जी को कई रूपों में पत्थरों पर उकेरा गया है। सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करती है "त्रिमूर्ति " जो 17 फीट ऊंची थी। शिव जी का अर्धनारीश्वर रूप भी मनमोहक था। दक्षिण भारतीय शैली में कलाकृतियां बनी हुई थीं। शिवजी के अलावा जैन धर्म से संबंधित भी दो गुफाएं थीं। सब देखते- देखते दोपहर ढल रही थी और खाने का इंतजाम साथ में था इसलिए वहीं एक पत्थर पर चादर बिछा कर हम चारों ने खाना भी खाया। समुद्र से थोड़ी ऊंचाई के कारण हवा के झोंके तंग कर रहे थे लेकिन वह यादें बन रहे थे। और सांझ ढले इधर-उधर नरीमन प्वाइंट पर घूमते हम घर लौटे थे।

सुबह फिर कवायद होनी थी । हम " आरे मिल्क कॉलोनी "जा रहे थे । जो पवई लेक के पास है । वह स्थान काफी नीचा है । बहुत बढ़िया पार्क बना हुआ हुआ है। वहां दो हाउसबोट भी खड़ी देखीं और हम हैरान रह गए कि यहां कैसे आ गई हाउसबोट्स? तो वहां बैठे चौकीदार ने बताया कि राज कपूर की फिल्म "बरसात" में हाउसबोट के बहुत से दृश्य यहां फिल्माए गए थे। तभी ये बनवाई गई थीं । हैरानी हुई जानकर। खैर दिन भर हम घूमते रहे और रात को वड़ा पाव खाने का शौक पूरा करके घर लौटे और सुबह हम इनके दोस्त जग्गी खन्ना जी के घर जा रहे थे।

उन दिनों उनके छोटे भाई मुकेश खन्ना फिल्म इंस्टीट्यूट पुणे में ट्रेनिंग ले रहे थे। जिन्हें बाद में महाभारत सीरियल में "भीष्म पितामह" से खूबसूरत पहचान मिली। और जो "शक्तिमान" बनकर बच्चों के ख्वाबों में बस गए हैं। उनका परिवार तो मानो बाहें फैलाए रवि और उसकी दुल्हन का इंतजार कर रहे था। आंखों की सर्जरी होने से उनकी माता जी की आंखों की रोशनी चली गई थी। तो वह मुझे पास से उठने ही नहीं दे रही थीं। मेरे चेहरे को टटोल- टटोलकर अपनी सुंदर-सुंदर बहुओं से पूछ रही थीं कि देखने में कैसी है रवि की वौटी (दुल्हन)?

मुझे बोली, "तूने देखा मेरी बहुओं को ? मैंने ढूंढ- ढूंढ कर नगीने लाए हैं अपने घर में। वह सच ही कह रही थीं।

चौपाटी की चाट, पाव भाजी, भेल, वडा पाव इस तरह के बंबइया खाने खूब खाए हमने वहां मरीन ड्राइव में जहां वो रहते थे। उनकी कपड़े की मिल गोरेगांव में थी ।अगले दिन जग्गी भैया हमें अपने साथ गोरेगांव खन्ना मिल्स दिखाने ले गए। मिल बहुत बड़ी थी जहां सैकड़ों मजदूर काम कर रहे थे। मिल से चलते समय भैया ने एक बड़ा सा पैकेट मेरे हाथ में थमा दिया। मुझे समझ आ गया था इसमें साड़ियां हैं लेकिन वहां बोलने की कोई गुंजाइश नहीं थी सो चुपचाप ले लिया और घर पहुंच कर मांजी के सामने रख दिया। उसमें net work की 5 साड़ियां थीं। वह बोलीं, " मैंने तो बहुत लाड- चाव से इसके लिए भारी साड़ियां रखी हुई हैं। "

बोलीं, "चलो यह भी पहन लेना बेटा यह अपनी मिल की हैं।"भाभी लोग हमें सिद्धिविनायक मंदिर भी लेकर गईं।

Queen necklace, hanging garden, aquarium etc. सब घुमाया। लेकिन रवि जी ना तो राज कपूर जी के लेकर गए मुझे और ना ही ओम प्रकाश जी के पास। हालांकि उनसे वायदा किया था क्योंकि उनके अपने उसूल हैं। कि कहीं किसी ने पहलगाम वाली दोस्ती यहां मुंबई में ना दिखाई तो मेरा उनसे रिश्ता टूट जाएगा। यहां ये लोग बहुत बिजी होते हैं। वहां ये हमें ढूंढते आते हैं।

उनकी रज़ा में ही मेरी रज़ा थी।

मुंबई से "बग्गूभाई एंड पार्टी टूर्स एंड ट्रेवल्स" वाले गुजराती भाई हर साल कश्मीर आते थे उन दिनों। इस वर्ष भी उनके तीनों बेटे, बेटी और एक बहू साथ आए थे जो मुझे भी मिले थे। वह हमारे लिए गुजराती नाश्ता बना कर लाते थे जिन्हें पूरन पूरी कहते हैं। रवि जी की पसंद का नाश्ता । वे भी वहीं मेरीन ड्राइव में एक बिल्डिंग छोड़कर रहते थे। हमें एक दिन उनके साथ भी रहना पड़ा, उनका आग्रह था। मुंबई में चप्पल घर के अंदर नहीं लेकर जाते हैं । यह वहां का रिवाज है जो मुझे बहुत पसंद आया था। क्योंकि कश्मीर में भी ऐसे ही होता है।

वह रसोई घर में साफ-सुथरी जमीन पर नीचे बैठकर सब खाना खाते थे। रसोई घर में दो बड़े थाल में खाना परोसा गया था। एक में सारे मर्द जाकर बैठ गए इकट्ठे खाना खाने और एक में सब औरतें इकट्ठी खाने बैठ गईं । हम दोनों ने भी उनके साथ ही खाया । इस एकता में कुछ अलग ही आनंद की अनुभूति हो रही थी। मैंने तो ऐसा कभी ना देखा था ना सुना था।

कभी भी कुछ नया काम करो और वह मन को भा जाए तो हार्दिक प्रसन्नता होती है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा था। रवि जी को गुजराती लोग बहुत पसंद हैं, शुद्ध शाकाहारी और मीठा खाने वाले। उनके घर सब जमीन पर सोते थे हम भी एक रात वही सोए । कोई तामझाम नहीं बेहद सादगी भरा व्यवहार था उनका । अब मुझे समझ आ रही थी कि इन्हें यह परिवार क्यों इतना पसंद है।

Worli beach पर इनके एक दोस्त मिस्टर चौहान ने हमें डिनर पर बुलाया था इसी बहाने उन्होंने वहां घुमाया भी । "Mackenna's gold" movie की बहुत धूम थी उन दिनों । हम वहीं जग्गी खन्ना ‌भाई साहब के साथ देख कर आए थे।इस बार मुंबई मुझे बहुत भाया था। क्योंकि तब के मुंबई और रवि जी के साथ वाले मुंबई में जमीन आसमान का फर्क था। सोच का, हसरतों का और उमंगों का फर्क !!!

 

वीणा विज'उदित'

22/5/2020