छुट-पुट अफसाने - 24 Veena Vij द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छुट-पुट अफसाने - 24

एपिसोड---24

आत्मविभोर कर देता है कुछ घटनाओं का याद आना। हमारे पंजाब भ्रमण का अगला पड़ाव " लुधियाना" था। और पहली बार लुधियाना जाना मुझे रोमांचित कर रहा था ।

जब मैं बी.एड कर रही थी जबलपुर के "हवाबाग कॉलेज" में तब मेरे साथ उषा सिब्बल पढ़ती थी। हमारी गूढ़ मित्रता के कारण वह भी मेरी लोकल गार्जियन बन गई थी बाद में।मैं होस्टलर थी, इसलिए एक दिन मेरा लंच बॉक्स उसके घर से आता था और दूसरे दिन " शिरीन" एक पारसी फ्रेंड थी मेरी उसके घर से आता था। हम तीनों की अच्छी दोस्ती थी। मैं वहीं आगे एम.एड करने लग गई थी ।लेकिन उषा की शादी लुधियाने" हीरो" परिवार में हो गई थी। चूंकि वह मेरे जीजा की बहन थी तो मेरे डैडी शादी में आए थे और अब मेरी शादी जालंधर में हुई तो उसने बढ़-चढ़कर मेरी शादी में हिस्सा लिया था। शिरीन ना जाने कहां दुनिया की भीड़ में

खो गई, फिर कभी नहीं मिली । अलबत्ता ऊषा लोग हमें लुधियाना आने के लिए हर दिन फोन करते थे, कि तभी एक और बुलावा आया- जिससे मैं हर्ष मिश्रित उत्साह से भर उठी थी।

आचार्य रजनीश (ओशो ) का पत्र मुझे जालंधर में मिला।

" मै 21, 22, 23, 24 मार्च को लुधियाना में बोल रहा हूं तुम रवि को लेकर वहां मुझे आकर मिलो ।

प्रिय वीणा को, 

रजनीश के प्रणाम !

*

उनके लेखन का यही अंदाज था।

आपको बता दूं कि सन् 1963 तक उन्होंने मुझे होम साइंस कॉलेज जबलपुर में पढ़ाया था। वैसे वे रॉबर्टसन कॉलेज में पढ़ाते थे। लेकिन हमारी क्लासेस लेने होम साइंस कॉलेज भी आते थे। दर्शनशास्त्र में मेरी अभिरुचि कुछ अधिक होने के कारण मैं उनकी विशेष प्रिय विद्यार्थी थी। बाद में जैन समाज को संबोधित करने वे जब भी कटनी आते तो मुझे भी उस सभा में आने का निमंत्रण मिलता था। और स्टेज पर आदर सहित बिठाया जाता था। उनकी पुस्तकें पतली -पतली व उनके पत्र मुझे मिलते रहे, कई वर्षों तक। मेरे पत्रों का उल्लेख उनके लेखन में भी है। चंडीगढ़ की चंद्रकांता अग्निहोत्री "प्रदीपा मा' से मैंने" कई बातें शेयर करी है ओशो की, जब वे मात्र आचार्य थे।

खैर, अब हम 24 मार्च को लुधियाना अति उत्साह से भरे जा रहे थे बीजी को भी साथ लेकर। वहां पहुंचकर घंटाघर क्रॉस करते ही दाहिनी तरफ स्टेशन था और सामने जगरावां पुल। हम पुल से पहले बाईं ओर एक गली में मुड़ गए। वहां बीजी की मामी का घर था ।(कितनी सरल व साधारण मानसिकता थी हमारी तब । किसी रिश्तेदार का घर रास्ते में आए तो हम उसे मिलते थे ना कि आज की तरह कि क्या करना मिलकर उससे कोई काम नहीं है) सो, रास्ते में उन्हें मिलकर ही आगे बढ़ना था। वे यादें तो आज भी जीवंत हैं मेरी आंखों के समक्ष।

भारी-भरकम ऊंचा गेट देखकर, घर के शानदार होने का अंदाजा लग गया था। उन दिनों फोन तो होते नहीं थे कि किसी को आने की खबर पहले दे दी जाए। और गेट खुला मिल जाए। सो, बंद दरवाजे की बड़ी सी सांकल खटखटाई रवि जी ने । नौकर ने आकर भारी चरमराता गेट खोला । तभी अप्रत्याशित - ढेरों कुत्तों के भौंकने की आवाजें आईं भीतर से। कुछ भूत बंगले सा दहशत वाला माहौल बन गया था भीतर जाते हुए । देखते हैं कि सामने 3 फुट ऊंचे तख्त पर एक बुजुर्ग औरत ढेरों तकियों के सहारे बैठी हैं और उनके दोनों तरफ छोटे-छोटे, बहुत ही प्यारे पमेरियन व टॉय डॉग खड़े भौंक रहे हैं गेट की ओर मुंह किए।

इसी के साथ कुछ और कुत्ते पीछे सलाखों में कैद खूंखार, भारी भरकम एलसेशियन व बुलडॉग भी भौंके जा रहे हैं। कुल मिलाकर वहां आठ कुत्ते गुर्रा रहे थे, जिन्हें उन्होंने बहुत लाड़ से चुप कराया। मामा जी अपने जमाने में भारतीय रेलवे के चीफ इंजीनियर थे । उनकी बहुत शान थी तब । बेटा बहू तो अब यहां आते नहीं थे। यहां केवल उनकी तलाकशुदा बेटी रहती थी, कमला मासी। बहुत फैशनेबल और अप टू डेट लेडी। हैरानी की बात यह थी कि वो आंगन था और वहां पांच दरवाजों पर बड़े-बड़े ताले लटक रहे थे । केवल एक कमरा खुला था जहां से मासी जी ने निकलकर हमारा स्वागत किया।

बाद में वे हमें घर के खूब खुले छत पर ले गईं । और वहां कैक्टस का बाग दिखाया ।आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि कैक्टस के इतने सुंदर पौधे भी होते हैं! कइयों में फूल भी लगे थे। वहां ढेरों गमलों में बेइंतेहा किस्में थीं । बहुत ही प्रभावित किया उस टेरेस गार्डन ने। इतने ढेर कुत्ते और कैक्टस का गार्डन टेरेस पर-- दोनों ही अजूबा थे हमारे लिए।

हर कमरे के मुंह पर ताला और लम्बी -लम्बी चाबियों का भारी भरकम गुच्छा उनके तकिए के नीचे रखा था। लगा, ये असुरक्षित और असहज महसूस करती होंगी बुढ़ापे में, तभी ऐसा इंतजाम करके रखा है या अपनी पुरानी शान बरकरार रख कर अपना मन बहलाती हैं!

जो भी हो कुत्तों की महक (smell)उनके कपड़ों से भी आ रही थी। इस उम्र में ईश्वर भजन की अपेक्षा --उनका दीन ईमान धर्म सब कुत्ते ही थे। ऐसा लगा मानो अगले जनम में, वे भी इसी योनी में जायेंगी। हैरतंगेज माहौल से अजीब सी सोच लिए, वहां से हम सिविल लाइंस के लिए निकले । जहां क्वालिटी आइस क्रीम वालों के घर ओशो आए हुए थे।

वहां पहुंचकर देखा, काफी भीड़ थी।शायद उन्हें इंतजार था हमारा, क्योंकि जालंधर की गाड़ी देखते ही वे हमें आदर सहित भीतर हॉल में ले गए। हॉल खचाखच भरा था सामने गोल तख्त पर लाल रंग का झालर वाला शनील का कपड़ा बिछा था। जिस पर मध्य में ओशो बैठे थे। हमें देखते ही ओशो ने बोलना बंद कर दिया और हमारे प्रणाम करने पर बीजी व हम दोनों को आशीर्वाद दिया । फिर अपने दोनों तरफ प्यार से बिठा कर श्रोताओं को मेरा व इनका परिचय दिया। लोग मंत्र मुक्त भाव से उन्हें सुन रहे थे। लगा, ओशो ने रवि जी और बीजी की नजरों में मुझे ऊंचा उठा दिया है। कृतज्ञ भाव से मैं भर गई थी। उनकी कुछ बातें मेरे जीवन का आदर्श बन चुकी थीं।

पहली--जो पल अभी है वह बीत जाएगा, उसे हंस कर गुजारो। सदा प्रसन्न रहो।(मैं सदा खुश रहती हूं)

दूसरी-- दो लोगों के प्रेम के बीच अहम् को कभी ना आने दो- यही सच्चा प्रेम है।(यही कोशिश रहती है )

तीसरी-- हर रात को जीवन की आखिरी रात समझकर, अपना पूरा काम समाप्त करके सोवो क्या मालूम कल हो ना हो।(यहां चूक हो जाती है)

उनके प्रवचन के बाद लोगों का तांता बंध गया मुझसे मिलकर बहुत कुछ पूछने को। यहां तक की क्वालिटी आइसक्रीम वाले होस्ट कपल भी बिछे जा रहे थे, हमारे स्वागतार्थ । मेरे आचार्य अब "ओशो "बन चुके थे। उन्होंने आश्रम आने के लिए रवि जी से आग्रह किया किंतु हम सारा जीवन यूं ही व्यस्त रह गए और कभी वहां जाने का सोचा भी नहीं । गोयाकि हमें ख्याल ही नहीं रहा।

वहां से विदा हो कर हम मॉडल टाउन में उषा के घर की ओर बढ़े। लुधियाना मॉडल टाउन में अजब रिवाज है । घर पहचानने के लिए घर का नंबर बोलते हैं ना कि घर वालों का नाम। जैसे 36 नंबर जाना है। 72 नंबर वालों के घर कल कीर्तन है । शाम को 40 नंबर पर मिलेगे,  etc.etc रोचकता पूर्ण लगा। खैर, उनके घर खिलखिला हट भरा माहौल रहा। कॉलेज की सहेलियां जब मिल जाए तो बातें कभी खत्म ही नहीं होतीं। ऊषा प्यारी सी बिटिया "सारिका" की मां बन चुकी थी। उसकी सासू माताजी "ज्वालापुर आश्रम हरिद्वार" से लुधियाना आई हुई थीं उन दिनों सो, हमारे बीजी को उनका साथ मिल गया था।देर रात गए हम वापिस जालंधर लौटे थे।

भांति-भांति के अनुभवों को एकत्रित करती मैं पंजाब दर्शन कर रही थी। तब जालंधर में दर्शन स्थल "देवी तलाब मंदिर" ही था केवल।13 अप्रैल बैसाखी पर वहां मेला लगता था। बैसाखी मनाने और मंदिर के दर्शन करने हम वहां गए थे। तब मंदिर इतना भव्य नहीं था। लेकिन मन में श्रद्धा थी और विश्वास प्रबल था। बस, मेरा पंजाब अभी यहीं तक था। असली पंजाब जो गांव, खेतों और खलिहानों में बसता है उसके दर्शन तो बाद में दूरदर्शन की खातिर हुए।

अब तो हमने कश्मीर जाना है....

वीणा विज'उदित'

16/4/20

 

प्रस्तुत है -- सन् 1974 में बम्बई, पैडर रोड से स्वामी वैराग्या अमृता भगवा वेश में पहलगाम आए थे ग्रुप लेकर शिविर लगाने । सब के गले में माला थी, जिसमें तब भगवान रजनीश की तस्वीर थी । उनके हाथ मुझे कुछ किताबें एवम् यह तस्वीर आचार्य रजनीश जी ने भेजी थी।