एपिसोड--20
ना अंधेरी गलियों में गुम होती हैं ना पूर्णचंद्र के प्रकाश में स्नान कर धवल रूप धरती हैं । कृष्ण पक्ष हो या शुक्ल पक्ष
विचारधाराएं तो चलती ही रहती हैं। घटनाएं या अफसाने
घटते ही रहते हैं। अफसाने अतीत की कोठरियां हैं, जो दरीचों में से भी बाहर आने को अकुलाते रहते हैं।
सन् 1970 की बात है। 12मार्च को हमारी शादी हुई तो हम हनीमून पर न जाकर ससुराल परिवार में सबसे मेरी घनिष्ठता बढ़ाने निकल पड़े। मैं "कटनी " एम .पी से थी। मुझे तो पंजाब के बाकि किसी शहर का नाम भी नहीं मालूम था सिवाय जालंधर, अमृतसर, लुधियाना व पटियाला के। पंजाब-भ्रमण करना मेरे लिए अल्हादकारी था। बड़ी ननद श्री मती राज चोपड़ा मोगे रहतीं थीं। सबसे पहले हम उनके पास पहुंचे तो वे लोग हमें "P मार्का" सरसों के तेल वाले अपने घनिष्ठ मित्र मि.पुरी के घर व बाद में फैक्टरी दिखाने ले गए। वहां तेल की फैक्टरी में खूब सफाई और scientific way में काम हो रहा था। काफी प्रभावित किया उनकी कार्यपद्धति ने । मैंने कटनी में कोल्हू पर बैल की आंखों पर पट्टी बांधे उसे घूम -घूम कर सरसों का तेल निकालते देखा था। मेरे लिए यह concept ही भिन्न और नवीन था।सो, रोचक रहा ।
हम दोनों Vanguard( बड़ी गाड़ी )से आए थे। रवि जी स्वयं ही ड्राइव करते थे। बहनजी लोगों ने घूमने का प्रोग्राम बनाया और हम सब साथ चल पड़े मुझे पंजाब-दर्शन कराने को । जीजाजी ITO थे, ये उनका इलाका था । सो वे हमें अब वेरका मिल्क प्लांट दिखाने ले गए। वह तो बहुत अजूबा सा लगा । ढेरों किलो दूध एक बड़े से टैंक में डालकर उसको मशीनों से पैकेटों में भरा जाता था । भरने से पूर्व उसकी क्रीम निकाल कर उसका मक्खन बनाया जाता था जिसे टिन के डिब्बों में डालकर आर्मी सप्लाई के लिए मशीनें भरती थीं और पैक करती थीं साफ सुथरा ।बचे दूध का मिलकर पाउडर बनता था। आजकल तो TV से सारा ज्ञान मिल जाता है। तब हमें कुछ समझ नहीं होती थी। सफाई के लिहाज से पैकेटों का दूध मुझे आज भी प्रभावित करता है। आंखों के समक्ष वेरका की कार्य प्रणाली आ जाती है, भरोसा बढ़ जाता है।
हमारा अगला पड़ाव था, फिरोजपुर बॉर्डर। यानी कि हुसैनीवाला बॉर्डर। जो फिरोजपुर से 10 किलोमीटर दूर पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बॉर्डर पर है। मैं मध्यप्रदेश में पली-बढ़ी थी। मैंने देशभक्ति के किस्से पढ़े और सुने थे लेकिन पाकिस्तान और हिंदुस्तान का बॉर्डर देखना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। मेरा जन्म लाहौर का है, फिर भी पाकिस्तानी सेना के जवानों को देखने की मुझे उत्सुकता हो रही थी। जब हम रिट्रीट देख रहे थे तो मेरे शरीर का रोयां- रोयां देश भक्ति में दुख में डूबा हुआ था। वहीं समाधि-स्थल पर जब शहीद त्रिमूर्ति यानि कि शहीदे आज़म भगतसिंह, राजगुरु जी और सुखदेव जी टी पर ऊ मूर्तिया अश्रुपूरित नेत्रों से देखीं तो शरीर के रोंगटे खड़े हो गए थे । उनकी तीन समाधियों के साथ वहां दो समाधियां और भी थीं। एक थी बटुकेश्वर दत्त स्वतंत्रता सेनानी की जो 1965 में बनी थी। और दूसरी भगत सिंह की माता विद्यावती जी की थी। जो मर कर भी अपने बेटे के पास रहना चाहती थीं।
ऐसा लगा मेरा पंजाब आना सफल हो गया। मैंने अपने वतन के तीर्थ -स्थल के दर्शन कर लिए। बचपन में एक फिल्म देखी थी "जागृति"! उसमें अभिभट्टाचार्य (actor) स्कूल के बच्चों को घुमाने ले जाता है और गाता है...
" आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की
इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की।
वन्दे मातरम् ! वन्दे मातरम् ! वन्दे मातरम्
मैं भी तो बलिदान और शहीदों की धरती के दर्शन कर रही थी। जहां मेरा रोम रोम सक्रिय हो उठा था। इन तीनों को फांसी 24 मार्च 1932 को होनी थी लेकिन फिरंगियों ने जनता कहीं बवाल न मचा दे इस बात से डरकर 23 मार्च की शाम को ही इन्हें फांसी पर लटका दिया था। फांसी तो लाहौर में दी गई थी, लेकिन इनके पार्थिव शरीरों को हुसैनीवाला लाकर अग्नि दी गई थी कि कहीं जनता रोष में वहांउपद्रव न मचा दे।
उस दिन हम शहीद भगतसिंह के जन्मस्थल"खटकड़कलां "नहीं" जा पाए थे, याद नहीं किस कारण। शायद समय कम था । तब क्या मालूम था कि कभी ऐसे दिन भी आएंगें मेरे जीवन में कि मैं यहां बार-बार आऊंगी। मैंने दूरदर्शन जालंधर पर, "शहीद भगत सिंह" नाटक में उनकी माता का किरदार निभाया और मन ही मन माता विद्यावती को नमन कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया। उसके 1 वर्ष पश्चात पुनः पंजाबी नाटक "भगत सिंह दी वापसी " theatre play में फिर माता विद्यावती का किरदार निभाया और हम सब खटकड़कलां गए भगत सिंह जी के ज़द्दी घर में शूटिंग करने । जेल में भी शूटिंग करी। वहां इस पर विदेश के लिए फिल्म बनाई गई थी, उन्हीं कलाकारों के साथ।
तीसरी बार फिर, मैं शहीद भगतसिंह की माता जी का किरदार निभाने वाली थी। मुंबई से हमारे दूरदर्शन के पुराने डायरेक्टर श्री सुरेंद्र साहनी जी आए, जो नेशनल हुकअप के लिए भगत सिंह पर टैली फिल्म बना रहे थे।
अब तो बार-बार खटकड़कलां के चक्कर लग रहे थे। मेरी किस्मत में उस मंजी (चारपाई) पर बैठकर डायलाग बोलने लिखे थे, जिस पर हमारे देश के लाडले ने देश की चिंता में करवटें बदल-बदल कर कई रातें आंखों में काटीं थीं । उसके टीन के संदूक में कपड़े रखने लिखे थे। उसके आंगन के कुएं से पानी भरना और वह पानी पीना भी लिखा था । घर की कच्ची छत पर चढ़कर उसे उडीकना भी लिखा था।
उन दिनों मैं रब का शुकराना करती थकती नहीं थी। अभी भी उन पलों में दोबारा जी रही हूं और मेरी आंखें भर आईं हैं। मन सशक्त और बहुमूल्य अतीत को दोहरा कर अनुपम संतुष्टि पाता है। अपने भाग्य पर इतराता भी है। सोचती हूं, कितनी करमावाली हूं न मैं ?
शहीदे आज़म भगत सिंह, राजगुरु जी और सुखदेव जी का बलिदान दिवस 23मार्च को है। उनके जज़्बे को नमन । आइए वतन के लोगों की भलाई के लिए हम सब भी एकजुट होकर आगे बढ़ें और विश्वव्यापी संकट से उबरने में साथ दें।
वीणा विज'उदित'
20/3/20