एपिसोड---16
पुराने लोग जी जान से रिश्ते -नाते निभाते थे। नाराज़ भी वही लोग होते थे, जिन्हें यह गुमां होता था कि मुझे मनाने वाले लोग हैं। और अधिकतर घर के दामादों को विरासत में यह अधिकार दहेज के साथ मुफ़्त में ही मिल जाता था । वैसे तो हर कोई किसी न किसी घर का दामाद होता ही है, लेकिन अपनी पारी आने पर ही वो भी ये जलवे दिखाते थे। क्योंकि जो मर्जी हो जाए, जनवासे से बारात तो सब रिश्तेदारों को साथ लेकर ही चलती थी तब। गुलाबी पगड़ी बांधे सब रिश्तेदार शान से एकजुट हो आगे बढ़ते थे। मान होता था अपनों पर, अपनी बिरादरी पर। हमारे इकलौते भाई की शादी पर हमारे फूफा जी ने भी ये तेवर दिखाए थे। अब क्यूं दिखाए ..? तो यह मैंने आरम्भ में ही कहा था कि धीरे-धीरे अफसाने सुनाऊंगी... लीजिए आ गया है वह वक़्त।
मेरे पापा किसी काम से दिल्ली गए हुए थे। पीछे से यही छोटे फूफा जी ( याद है...जिन्हें पापा बीना से सपरिवार लाए थे विस्थापित करने) हमारे घर आए । बोले, " कमला रानी, (हमारी मां) बहुत बड़ी मुसीबत की घड़ी आ गई है। हमने जो ट्रंक बनाने की फैक्ट्री लगाई है, उसका मालिक खड़े पैर पैसे मांग रहा है पूरे। आप ही मदद करो अब। हम तो यहां किशनलाल जी (हमारे पापा) के सहारे हैं और वो यहां हैं नहीं । अब आप ही कुछ करो ।"
तब फोन तो होते नहीं थे। मम्मी उनसे परदा करतीं थीं । उन्हें लगा इस मुसीबत में ये कहां जाएंगे। तब पैसा-गहना सब घर में गोदरेज की अलमारी में ही रखा होता था ।पहले उनको बैठाया और पानी पीने को दिया। फिर कहा कि वो घबराएं नहीं। भीतर जाकर मुझे कहा कि फलां सिल्क का दुपट्टा दे मुझे । दुपट्टे को दोहरा करके उसमें अपनी ढेर सारी सोने की चूड़ियां, गोखड़ू (मोटे कंगन), सोने की पाईयों का रानी हार, नौलखा हार वाला सैट डाल कर उनके पास ले गईं। और बोलीं, " भाइया जी, ये सब ले जाओ और इनको गिरवी रखकर पैसों से अभी तो अपनी इज्ज़त बचा लो। बाद में पैसे देकर छुड़ाकर वापिस दे देना। जो बात करनी होगी, इनके पापा दिल्ली से आने पर कर लेंगे।"और गठान बांध कर घर की जमा- पूंजी उनके हवाले कर दी । हम बच्चे पास बैठे मां का मुंह देखते रहे । हमें इल्म था कि यह सारा गहना लाहौर का बना हुआ है लेकिन मुसीबत के वक़्त अपने लोग बांह नहीं थामेंगे, तो फिर रिश्ते -नाते किस काम के? यही सुनते थे पापा से। लगा, मम्मी ठीक कर रही हैं ।
पापा के वापिस आने पर, उन्होंने दबी ज़ुबान से भाइया जी से बात की कि कमला के गहने अब वापिस दे दें । लेकिन वे बोले पैसों का इंतजाम नहीं हो सका अभी। बार-बार यही सुनकर पांच वर्ष बाद पापा के सब्र का बांध आखीर टूट ही गया । फूफा जी और उनके भाई ने फैक्ट्री अपने नाम करवा ली थी । बोले, "जो कर सकते हो कर लो।कौन गवाह है इस सब का?" बुआ को भी डांटकर बैठा दिया। वो अजीब धर्मसंकट में फंस गईं थीं । नाराज़गी चल रही थी । हमारे इकलौते भाई की शादी पर उन्हें भी बुलाना था, सो कुछ रिश्तेदार आए मध्यस्थ बनने, तो फैंसला हुआ कि हमारे भाई के नाम फैक्ट्री का आधा हिस्सा कर देंगे ।
पैंसठ वर्ष बीत गए हैं इस घटनाक्रम को बीते। वही कौरवों वाली ढीटाई ....कि सुई की नोक जितना हिस्सा भी नहीं देंगे ।और कभी नहीं दिया कुछ भी । यह सच्ची महाभारत की कहानी है, क्योंकि यह आंखन देखी है ।तभी तो सब कुछ बदल गया है, आजकल । क्या बढ़िया सिला मिला पापा को भलाई का?
पर है एक और बड़ी अदालत । ऊपर वाले की । उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती लेकिन यहीं वो स्वर्ग-नरक दिखा देता है। और...यही हुआ।
एक बहुत शानदार शादी पर हम पहुंचे तो देखा कि भाई का परिवार ही कहीं नहीं दिखा। कुछ नाराज़गी थी, नहीं बुलाया गया था । उनके पापा याद आ गए।आधे परिवार का न होना दिल को कचोट गया । हां, उनके ससुराल के लोगों का खूब जमावड़ा लगा था । दोस्त भी थे, सो शादी तो धूमधाम से हो ही रही थी । लेकिन खून का उबाल नहीं था।झ अपने लोगों की कमी के कारण, कुछ चुभ रहा था
भौतिकतावादी विचारधारा ने जकड़ लिया है इंसान की फितरत को । संयुक्त परिवारों की बात ही कुछ और थी। घर के चप्पे-चप्पे से रिश्तों की खनखनाहट सुनाई देती थी । वहीं एकल परिवारों में केवल टी.वी. की आवाज़ ही पसरी रहती है, वो भी अलग-अलग कमरे में से अलग आवाज़। उसे छीनने भी "मोबाइल"नाम का जिन्न आ गया है।
अब जो चाहे मर्ज़ी कहो, अपने हैं तो रिश्ते हैं । ये एहसास के पक्के धागे हैं। जिनसे जुड़े हैं वहीं बंधे हैं ।
वीणा विज'उदित