एपिसोड--14
चटख चांदनी रात में बर्फ के दरिया पर चांदनी को फिसलते देख कर भाव विभोर हो रही थी मैं!
...सामने टी वी चल रहा था और मैं चांद की जगमग में सराबोर सन् 1963 में पहुंच गई थी। उस रात हम सब, घर की बेटियां और बहुएं खुली जीप में मैहर की सड़कों पर गेड़ियां मार रहीं थीं गाने गाते हुए। जीप चला रहा था कमला (मेरी cousin) का देवर, जो इलाहाबाद के hostel से आया था। शर्त थी कि सब चांद पर गाने गायेंगे। और जीप घूमती रहेगी। और वो गाने थे...
" ये रात ये चांदनी फिर कहां, सुन जा दिल की दास्तां
• तारों की ज़ुबां पर है मोहब्बत की कहानी, ऐ चांद मुबारक हो तुझे रात सुहानी
• चांद आहें भरेगा हम तो दिल थाम लेंगे
• चंदा की चांदनी में झूमे-झूमे दिल मेरा
• चंदा मामा दूर के, पुए बनाए दूध के
• आ जा सनम मधुर चांदनी में हम तुम मिले तो
• ऐ चांद जहां वो जाएं, तुम साथ चले जाना
• धीरे-धीरे चल चांद गगन में
• दम भर जो उधर मुंह फेरे ओ चंदा...
और भी न जाने कितने ही गाने थे चांद पर, कि खत्म होने को नहीं आ रहे थे ।(आपको भी याद आ रहे हैं न !) तभी शीला भाभी ने याद दिलाया कि वक्त हो रहा है सम्मेलन का। चलो सब वहां जल्दी पहुंचें, नहीं तो बीच में जाकर बैठना अच्छा नहीं लगेगा ।,
असल में हम तो "बाबा अलाउद्दीन खां" साहब के संगीत सम्मेलन में शामिल होने आए थे। कटनी से 65-67 कि.मी. उत्तर की ओर सतना जाने से पूर्व "मैहर" एक छोटा सा कस्बा है, जो "शारदा माता " के पहाड़ की चोटी पर स्थित मंदिर के लिए जाना जाता है। जहां मंदिर के कपाट सुबह खुलने से पूर्व ही आल्हा-ऊदल मां की ज्योत जला जाते हैं, और पूजा कर जाते हैं। यही मान्यता है ।
सन्1918 में बाबा ने इसी स्थान को चुना और "मैहर बैण्ड"( जिसे अब "मैहर वाद्य वृन्द" कहते हैं)एवं "मैहर संगीत घराने" की स्थापना की थी। बाबा सरोद, सितार एवं ध्रुपद गायकी के लिए जाने जाते थे। उन्होंने "लोलो और मुन्ने खां से दीक्षा ली थी । बाबा २०वीं सदी के सबसे महान संगीत शिक्षक माने जाते थे। उन्होंने "जल-तरंग", "नल-तरंग"और "चन्द्र-तरंग" वाद्य यंत्रों का अविष्कार किया था। उन्हें १९५८ में "पद्म श्री"और १९७१में "पद्म विभूषण" सम्मान भी मिले थे । उनके पुत्र "उस्ताद अली अकबर खां" भी सरोद वादक थे। उन्होंने ही पाश्चात्य देशों का "सरोद" वाद्ययंत्र से परिचय करवाया था, अमेरिका में अपना प्रोग्राम दे कर।
पंडित रविशंकर भी बाबा के शिष्य थे। उन्होंने बाबा की बेटी" अन्नपूर्णा" से इसलिए विवाह किया था कि बाबा कहीं अपने पुत्र को अधिक शिक्षा न दे दें । वे दामाद बनकर उनके प्रिय बने और पूरी शिक्षा प्राप्त की। बाबा प्रति वर्ष दिसम्बर में " संगीत सम्मेलन " करते थे। तब क्रिसमस की छुट्टियों में हम पांच दिनों के लिए मैहर में संगीत सम्मेलन में सम्मिलित होने जाते थे। घर से रजाईयां और गद्दे वहां ट्रक में भिजवा देते थे, क्योंकि पंडाल में कड़ाके की ठंड लगती थी पर हमें सारी-सारी रात वहां जागकर संगीत का आनंद लेना होता था नीचे गद्दे बिछाकर और ऊपर रजाईयां ओढ़कर । बीच में जब पक्के राग होते थे, तभी कुछ नींद आ जाती थी । वैसे भोर की आहट होते ही राग भैरवी से इसको विराम मिलता था । और भोर होने पर चिड़ियों का चहचहाना सुनते ही हम मेरे ताया जी के बेटे जो वहां रहते थे, उनके घर चले जाते थे । खा-पीकर दिन भर वहां सोते थे, शाम को फिर मस्ती का कोई नया शुगल होता था । कभी अन्ताक्षरी की महफिल तो कभी "पाबो " ताश की गेम खेलते थे या फिर पहेलियां बूझने की हार-जीत । यानि कि बेहद मस्ती होती थी ।
बाबा को प्रणाम स्वरूप सभी मशहूर कलाकार अपना संगीत भेंट करते थे । कोई पैसे नहीं दिए जाते थे । शास्त्रीय संगीतकार पंडित सामता प्रसाद तबला वादक बनारस घराने से थे। उनकी उंगलियों का थिरकना जादू लगता था। उन्होंने 1957 में फिल्म *जनम-जनम के फेरे * में तबला बजाया था। फिर अन्य कई फिल्मों में भी तबला बजाया था । *भारत रत्न *उस्ताद बिस्मिल्लाह खान शहनाई वादक, उस्ताद विलायत खां सितार वादक, पन्नालाल घोष बांसुरी वादक, बसंत राय, बहादुर राय और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया व अन्य कई कलाकार आते थे ।
बाबा के शिष्य श्री निखिल बैनर्जी सितार वादक कटनी में लल्लू भैया के घर उनकी बेटी कुसुम जो मेरी सितार गुरु थीं, उनको कभी- कभी सितार सिखाने आते थे! मुझे भी सीखने का मौका मिला किन्तु मैं कुछ कारणों से इस कला को दूर तक निभा नहीं पाई । हां कई दिग्गज कलाकार बाबा का आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु वहां आते थे। बाबा ने कई नए रागों…