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एकलव्य 17

17 युद्धभूमि में दर्शन !

.......और एक दिन बहुप्रक्षित महायुद्ध आरम्भ हो गया । हालांकि दोनो ओर से न आक्रमण का आदेश हुआ था और न कोई तीर चला । सेनायें आमने सामने आ डटी थी । यौद्धा अपने हथियार चमका रहे थे ।

संजय ने जो कुछ धृतराष्ट्र को सुनाया उसे गुप्त भाषा में लिखकर पुष्पक ने अपने राजा को सारा वृतांत भेज दिया । जिसे उस भरी राजसभा में मंत्री शंखधर उसे पढने का प्रयास कर रहे थे ।

सहसा उन्होंने सिर ऊॅंचा किया ......... और कहा, ’’अब तो दोनों सेनायें आमने सामने कुरूक्षेत्र के मैदान में आकर खड़ी हो गई हैं। भाई भाई शत्रु के रूप में एक दूसरे के सामने खड़े हैं। युद्धभूमि में अर्जुन के सामने, अपने सभी परिजनों अर्थात काका, काका के बेटे , अपने पितामह, कुलगुरू, और उन सबके साथ गुरूदेव द्रोणाचार्य दिख गये तो सुना है उसने क्या कहा।‘‘

निषादराज पारस ने पूछा “क्या कहा है अर्जुन?”

शंखधर ने बताया, “यही कि, हे जनार्दन भूभाग और क्षणभंगुर राज्य के लिए मैं अपने परिजनों,गुरूवर और आदरणीय लोगों तथा रक्तसंबंधियों-नातेदारों से युद्ध नहीं चाहता हूँ। उसने अपना गाण्डीव भी श्रीकृष्ण के चरणों में रख दिया है।”

राजमाता वेणु बोली, “यह तो विचित्र स्थिति उपस्थित हो गई हैं।

शंखधर ने शंका समाधान किया, “श्रीकृष्ण उसे समझाने का प्रयास कर रहे हैं। वे उन्हें क्या समझा रहे हैं यह बात तो गुप्तचर पुष्पक प्रस्तुत नहीं कर सका है। उसने इतना संकेत तो दिया है कि श्रीकृष्ण उसे दर्शन का पाठ पढ़ा रहे हैं कि अर्जुन तू न किसी को मार सकता न तेरे मारे से कोई मरेगा, ये सब तो मेरे मारे से मर रहे हैं, तू न भी मारेगा तो ये सब मर जायेंगे । मरना जीना किसी के हाथ नहीं । मरने से किसी व्यक्ति का संसार समाप्त नहीं हो जाता, बस देह बदल कर आत्मा नयी देह में आ जाती है। तू संभवतः मेरे मुंह से कुछ गंभीर उपदेश सुनना चाहता है । फिर श्रीकृष्ण ने गंभीर बातें कहीं ”

पारस ने शंका और समाधान साथ साथ प्रस्तुत किये, “वह किसलिये ? जिससे अर्जुन युद्ध कर सके।’

शंखधर ने बात आगे बडाई, “हाँ देव दर्शन और युद्ध। मुझे तो लगता था कि गुरूदेव द्रोण केवल अस्त्र शस्त्रों के आचार्य रहे हैं उनके पास दर्शन का अभाव रहा है वहीं दरिद्रता उनके चेलों में हैं।”

राजमाता वेणु बोली, “मैं फिर भी नहीं समझी, युद्धभूमि में दर्शन का महत्व प्रतिपादित करने का कौनसा औचित्य है?”

मंत्री शंखधर ने उत्तर दिया, “राजमाता, श्री कृष्ण ने सान्दीपनी आश्रम में सब विधाओं के साथ दर्शन का पाठ भी पढ़ा हैं। अर्जुन ने दर्शन के दर्शन भी नहीं किये, सो श्री कृष्ण की हर बात अर्जुन को नयी और अनूठी लगी। इसीलिये तो मैं हर बार सोचता रहा हूँ, गुरूदेव द्रोण अधूरे आचार्य रहे हैं। उस अधूरेपन की पूर्ति आज श्रीकृष्ण युद्धभूमि में स्वयं कर रहे हैं।’

राजमाता वेणु ने उत्सुकता व्यक्त की, “मंत्रीवर, आप बात को और अधिक रहस्यात्मक बना रहे हैं।”

ष्शंखधर ने आशंका का समाधान किया, “नहीं राजमाता मैं अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहा हूँ। मैं तो गुप्तचर पुष्पक के संदेश के माघ्यम से ही सम्पूर्ण बातें बतला रहा हूँ।

वेणु ने उत्सुकता प्रगट की,‘‘युद्धभूमि में दर्शन ? हमें कुछ समझाने का प्रयास करें।”

ष्शंखधर ने कहा, “राजमाता, अर्जुन ने सामने जब अपने परिजनों को देखा तो सोचने लगा कि युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव छूटा जा रहा है। हे कृष्ण! न तो मैं विजय चाहता हूँ और न ही राजसुख। हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन ? ऐसे भोगी जीवन से क्या लाभ ? इन सब को मारकर हम कैसे सुखी रहेंगे ?”

राजमाता वेणु के मुख से शब्द निकले, “मंत्रीवर, इस समय अर्जुन व्यर्थ ही ऐसी बातें कह रहा है। आप अन्यथा न लें, ऐसा वैराग्य अर्जुन को उस दिन नहीं हुआ जिस दिन किसी निरपराध शिष्य का अंगुष्ठ कटवा लिया। चलो चेतना तो आई, देर से ही सही इस घटना ने अर्जुन की आंखें तो खोल दी।”

ष्शंखधर बोला,‘‘राजमाता, गुरूदेव ने यदि अस्त्र शस्त्र के साथ जीवन जीने की कला सिखायी होती तो निश्चय ही यह युद्ध नहीं होता। गुरूदेव सान्दीपनी ने अपने शिष्यों को जीवन दर्शन का पाठ भी पढ़ाया है, उसी का परिणाम है कि आज युद्धभूमि में श्रीकृष्ण अर्जुन को दर्शन का उपदेश दे रहे हैं।

वेणु बोली ‘‘क्यों लगे हैं वे उन्हें दर्शन का पाठ पढ़ाने। बेचारा अर्जुन युद्ध टाल रहा है। कभी मानव सभ्यता की पहिचान मिटेगी तो इन युद्धों से। श्रीकृष्ण हैं कि युद्धों को अनिवार्य बना देना चाहते हैं।

निषादराज पारस बोला, ‘‘आप ठीक सोचती हैं इससे आने वाले समय में युद्धों की अनिवार्यता सिद्ध हो जायेगी।’’

वेणु बोली,‘‘निषादराज यह पाठ इनको युद्धभूमि से पहले पढ़ाया जाता तो इसका भिन्न अर्थ होता किन्तु युद्ध के मैदान में उनका यह सन्देश हमें रूचिकर नहीं लग रहा है।’’

शंखधर व्यंग करते हुये बोला, ‘‘राजमाता, अर्जुन द्वारा युद्ध न करने की बात को जाने कैसे-कैसे तर्को द्वारा निरर्थक सिद्ध करना, युद्ध मानव संस्कृति के हित में तो नहीं लगता।’’

वेणु ने भी उसके स्वर में स्वर मिलाया, ‘मंत्रीवर, युद्ध न हों समस्या के समाधान बातचीत के माध्यम से निकाले जाये, आदमी को इस बात पर गहराई से विचार करना पड़ेगा। दर्शन में ऐसा क्या है जो.....।’’

ष्शंखधर ने उसी भाव में उत्तर दिया, ‘‘दर्शन असाधारण चिन्तन है। जैसे हम कर्म करें किन्तु फल की इच्छा न करें। ऐसे उपदेश श्रीकृष्ण अर्जुन को सुना रहे हैं।’’

राजमाता वेणु ने आवेश में आते हुये कहा,‘‘ अर्जुन मूर्ख नहीं है, वह ऐसे विचारों को मानने वाला नहीं है। अरे ! बिना फल की इच्छा के कोई कर्म क्यों करना चाहेगा ?’’ पारस ने अपनी बात रखी, ‘‘अरे ! मुझे भी यही लगता है श्री कृष्ण अर्जुन को ऐसा अव्यवहारिक शास्त्र क्यों समझाने लगे हैं।’’ इससे तो अर्जुन युद्ध के प्रति और निश्क्रिय हो जावेगा।’’

वेणु बोली ‘‘वत्स कोई श्रमिक श्रम करे और उसका प्रतिफल न चाहे तो वह भूखा मर जावेगा। समझ नहीं आता श्रीकृष्ण ये क्या उपदेश दे रहा है। श्री कृष्ण इतने विवेकशील होते तो निषादराज की हत्या न करते, कहीं उनके उपदेश से मानव सभ्यता भ्रमित हो गई,तब क्या होगा ?’’

पारस बोला,‘‘अब होगा क्या ? आदमी निराशा के गर्त में डूब जायेगा। इन सभी बातों से निवृत होने के लिये, हमें अपनी शिक्षा प्रणाली पर ध्यान देना होगा। हमें ऐसी शिक्षा पद्धति चाहिये जो हमारी जातिवादी व्यवस्था का उचित समाधान दे सके। ये ऊँच नीच की खाई, राजा प्रजा के भेदभाव समाप्त हो जाये। आदमी लोकनिन्दा के भय से पुनः अपने आपको नियन्त्रित कर सके।

राजमाता वेणु सोचने लगी- हम कहीं कुछ सुधार करना चाहतें हैं तो सबसे पहिले शिक्षा व्यवस्था में सुधार करलें ।

दोपहर बाद वृद्ध मन्त्री चक्रधर ने कक्ष में प्रवेश करते हुये कहा, ’निषादराज की जय हो।

निषादराज पारस ने हर्ष व्यक्त करते हुये कहा ‘‘ आज वृद्ध मंत्रीवर बहुत दिनों बाद पधारे हैं । ’’

वृद्ध चक्रधर बोले ‘‘ निषादराज मेरे स्वास्थ्य की स्थिति से अवगत हैं ही........किन्तु कुरुक्षेत्र की स्थिती को देखकर उपस्थित होना पडा । ’’

यह सुनकर पारस ने उत्सुकता प्रगट की, “कहें, मन्त्रीवर, कुरूक्षेत्र के क्या समाचार हैं ?”

वृद्ध मंत्री चक्रधर बोले, “देव, कुरूक्षेत्र का युद्ध विकराल रूप धारण करता जा रहा है।”

ष्शंखधर ने शंका प्रगट की, “इसका अर्थ है अर्जुन ने गाण्डीव उठा लिया है।”

वृद्ध मंत्री चक्रधर बोले “हां पुत्र, श्री कृष्ण के तर्कों के समक्ष अर्जुन ने घुटने टेक दिये हैं। अब दिन प्रतिदिन युद्ध विकराल होता जा रहा है। पहले ही दिन पाण्डवों के सेनापति श्वेत घमासान युद्ध करते हुये भीष्म पितामाह के द्वारा मारे गये। दुर्योधन, कौरव वीरों को युद्ध के लिये प्रोत्साहित करने में लगा रहता है। भीमसेन ने कलिंगराज भानुमान और उसके हाथी का वध कर दिया हैं।”

पारस ने आश्चर्य व्यक्त किया, “अरे ! ”

वृद्ध मंत्री चक्रधर ने वर्णन किया,’हां निषादराज श्री कृष्ण ने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की थी किन्तु भीष्म पितामाह उनकी प्रतिज्ञा तोड़ने में सफल रहे। भीष्मपितामह के युद्ध की विकरालता और पाण्डवों की सेना की कातरता देखकर श्री कृष्ण उन पर सुदर्शन चक्र लेकर मारने के लिये दौड़ पड़े।’

यह देखकर भीष्म जी उनसे कहने लगे, “बस बस श्री कृष्ण ! मुझे तो तुम्हारी प्रतिज्ञा तोड़ना थी।

यह सुनकर कृष्ण को चुप रह जाना पड़ा।”

राजमाता वेणु बोल़ीं, “यह युद्ध क्या एक खेल हो गया है, श्री कृष्ण तो बचपन से ही नट मण्डली का प्रमुख रहा है।”

अब वृद्ध मन्त्री चक्रधर पुनः बोले, “ युद्ध में भीष्म पितामाह ने सेना का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। अश्वत्थामा और शिखण्डी का भी घमासान युद्ध देखने को मिला है। इन दिनों इच्छा मृत्युवाले भीष्मपितामह दक्षिणायन सूर्य के चक्कर में बाणों की शैया पर पड़े हैं।”

वेणु ने प्रश्न कर दिया, “ क्या वे अभी जीवित हैं ?”

वृद्ध मन्त्री चक्रधर ने ही उत्तर दिया, “हां वे अभी जीवित है। लोग हैं कि उनसे परामर्श लेने के लिये उनके पास पहुंच रहे हैं। वे ज्ञान के भण्डार हें । राजनीति और दर्शन पर उनका समान अधिकार है, वे हर प्रश्न का सही उत्तर देते हैं । मै तो सोचता हूँ हमारे निषादराज के मन में कोई प्रश्न हो तो उनके पास जाकर पूछ आना चाहिये।”

वेणु ने राय दी, “मैं तो कहती हूँ मन्त्री शंखधर, निषादराज को साथ लेकर चले जाओ। वे इस समय के सबसे वयोवृद्ध एवं श्रेष्ठज्ञानी हैं। इस नाते उसने मिलने अवश्य जाना चहिये।”

यही तय हुआ ।

अगले दिन निषादराज पारस और मन्त्री शंखधर अविलम्ब अपने अपने अश्वों पर सवार होकर उनके दर्शन के लिये निकल पड़े।

निषादराज एकलव्य कई प्रश्नों की माला लिये हुये जब युद्धभूमि में पहुंचे, उस दिन का युद्ध बन्द हो चुका था। दीपक जल चुके थे । संध्या थी और दोनों पक्षों के लोग, भीष्मपितामह के पास आते जा रहे थे। वे बाणों की शैया पर लेटे हुये हैं। बिस्मय था कि पाण्डवों के सेनापति युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ वहां उपस्थित थे।

इस स्थिति में सकुचाते हुये पारस बोला, “हिरण्यधेनु के पौत्र एकलव्य के पुत्र पारस का पितामाह के चरणों में प्रणाम स्वीकार हो।”

यह सुनकर उनके मुख से शब्द निकले, यशस्वी हो । कहो निषादराज पारस कैसे हो ?”

“ठीक हूँ पितामह। एक प्रश्न लिये आपके पास तक चला आया।’’

“कहिये वत्स, इस समय ही सही तुमसे मिलन तो हो सका।”

“पितामह मैने अपने पूर्वजों का इतिहास पिताजी एकलव्य से सुना है। हम निषादवंशी महाराज प्रथु के बड़े भाई की सन्तान हैं।”

“हां हैं। इसमें किसी को क्या सन्देह।”

“पितामह, फिर प्रथु के वंशज हमें छोटा क्यों मानते हैं ?”

“निषादराज, जो किसी को छोटा मानता है, छोटा वही है। किसी के मानने से न कोई छोटा हो जाता है न बड़ा।”

“पितामह, गुरूदक्षिणा में मेरे पिताजी से अंगूठा मांग कर गुरूदेव द्रोणाचार्य ......और श्री कृष्ण ने उनको मारकर हमारे साथ न्याय किया है या अन्याय ?”

भीष्मपितामाह ने बाणशैया पर पडे पडे कहा,“वत्स पारस, यदि उनको मारा न गया होता तो संभवतः आज मैं इस बाणों की शैया पर न पड़ा होता। इतना बड़ा महाभारत का युद्ध जिसमें पता नहीं कितने वीर मारे जा चुके हैं और कितने और मारे जायेंगे, सब ऐसी ही भूलों का प्रायश्चित कर रहे हैं। अब ये भूलें बहुत बड़े घाव बन गये हैं।”

“पितामह, वर्तमान समय की शिक्षण व्यवस्था पर भी कुछ कहें।”

“वत्स पारस यदि हम कुछ सुधार करना चाहते है तो सबसे पहले शिक्षा प्रणाली को सुधार लें। उसके पश्चात् तो सब कुछ सुधर जावेगा। यदि यहां की शिक्षा प्रणाली ठीक रही होती तो अर्जुन को युद्ध के मैदान मे मोह नहीं होता। श्रीकृष्ण द्वारा उसे शिक्षित करना पड़ा, तब कहीं उसके कदम आगे बढ पाये हैं। जो शिक्षा अर्जुन को युद्धभूमि में मिली है, वही शिक्षा यदि सभी को पहले मिल गई होती तो यह युद्ध ही नहीं होता।”

“पितामह, अब मेरे लिये क्या आज्ञा है ?”

“निषादराज, भीलजातियों के कल्याण के लिये सतत् प्रयास करते रहे।”

इसके पश्चात् निषादराज पारस और मन्त्री शंखधर उन्हें प्रणाम करके निषादपुरम लौट आये।

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’सामान्य जन जीवन की कहानी से जो कुछ प्रथक घटित होता है उससे सीख लेने के लिये लोग उसे याद रखना चाहते हैं। ऐसी कुछ बातें लम्बे समय तक स्मृति में बनी रहती है।’ राजमाता वेणु जन जीवन में घटित होने वाली घटनाओें से सीख लेती रहती थीं।

महाभारत युद्ध के अनेक समाचार गुप्तचर पुष्पक से मिले । भीष्म पितामह के बाण शैयाशायी हो जाने के पश्चात आचार्य द्रोण को कौरव दल का सेनापति बनाया गया। इससे कौरवों में जीत का उत्साह भर गया। आचार्य द्रोण ने अनेक व्यूह बनाकर पाण्डवों को मुसीबत में डाला लेकिन हर बार वे असफल हुऐ, केवल अभिमन्यु के प्रसंग को छोड़कर । पुष्पक ने अभिमन्यु का मार्मिक प्रसंग विस्तार से लिख कर भेजा था । उसे पढकर............

...........आज पारस ने मन ही मन गुरूदेव द्रोणाचार्य को सम्बोधित करते हुये कहा कि गुरुदेव आपके सामने अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश किया। उसने बड़े बड़े महारथियों के छक्के छुड़ा दिये। जब अभिमन्यु की वीरता से वे परास्त हो गये तो कर्ण जैसे छः धुरन्धर महारथियों ने मिलकर उस अकेले बालक का वध कर दिया। गुरूदेव आप जानते हैं इस कृत्य का भारत वर्ष के इतिहास पर क्या प्रभाव पड़ेगा। आपकी इस युद्ध प्रणाली से सीख लेकर, आने वाले समय में, यु़द्ध के कोई नियम ही नहीं रह जायेंगे। युद्ध का लक्ष्य मा़त्र विजय प्राप्त करना होगा। यदि कोई युद्ध के नियमों की बात भी करेगा तो लोग कह देगे, आचार्य द्रोण जैसों ने जब युद्ध के नियमों की चिन्ता नहीं की तब शेष मानव जाति में युद्ध के नियमों की चिन्ता करने वाला कौन होगा ?

अरे गुरुदेव ! मेरे पिताजी का अंगुष्ठ लेकर भी आप कुछ नहीं सीख सके। आपके शाम, दाम, दण्ड और भेद के समस्त नियमों का उद्देश्य विजय प्राप्त करना ही रहा है। गुरुदेव, अभिमन्यु वध का दृश्य मेरे सामने से नहीं हट रहा है। क्या यही वीरता रही आप सबकी ? कहां गयी आपकी उत्कृष्ट धनुर्विद्या, जिसके सामने आज सारा विश्व नतमस्तक है ? दुर्योधन को तो सत्ता चाहिये इसलिये वह तो विवश है लेकिन कर्ण पर हमारा विश्वास रहा है। इस प्रांगण में आकर तो वह विश्वास भी धराशायी हो गया। क्या सब शिष्यों ने आपसे यही शिक्षा ग्रहण की है ? आप की बड़ी कृपा रही जो आपने मेरे पिताजी को अपना शिष्य स्वीकार नहीं किया,अन्यथा आप ऐसी ही अनीति उन्हें सिखाते।श्री कृष्ण ने यदि मेरे पिताजी की हत्या न की होती तो अभिमन्यु के साथ ऐसा अन्याय न होता । ऐसी स्थिती में मेरे पिताजी अन्याय का साथ न देते।

उस दिन जो समाचार मिला उसे सुनकर पारस बौखला ही गया, उसे लगा- सारा संसार अपनी गति भूल कर स्थिर हो गया है । अब ऐसे में उसका क्या कर्तव्य बनता है, उसके सामने प्रश्न खड़ा हो गया, वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है । वह न केवल बिस्मय में डूब गया बल्कि उसका क्षत्रियों के युद्ध नियमों और आचरण संहिता पर अविश्वास हो गया । उसे घृणा हो आई इस नियमावली पर, लेकिन उतना ही क्रोध था, उसके मन में । .......अब किसे अपने गुरू का प्रतीक मानकर अपना अभ्यास करेंगे हम ।

समाचार था कि जब पाण्डवों को भयभीत देखकर श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे पाण्डव ! द्रोणाचार्य धनुर्धारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इनके हाथ में धनुष रहने पर इन्हें कोई भी जीत नहीं सकता। जब तक ये हथियार न डाल दें तब तक इनका कोई भी वध नहीं कर सकता। उन्हें हराने की क्षमता विश्व में मात्र भगवान परशुराम के अतिरिक्त किसी अन्य में नहीं है । अब तो हमें राजनीति या कूटनीतिक युद्धप्रणाली से काम लेना होगा ।.............मैं समझता हूँ अश्वत्थामा के मारे जाने पर ये युद्ध नहीं करेंगे। अतः कोई आकर इन्हें अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुना दे, तो ये युद्ध से विरत हो जायेंगे ।

यह सुनकर भीम और नकुल सहदेव प्रसन्न हुए, अर्जुन किंचित उदास हुआ पर चुप रहा।

हां, युधिष्ठिर ने इस बात को बड़ी कठिनाई से स्वीकारा।

विचार विमर्ष के बाद श्रीकृष्ण ने ही उपाय खोजा- पाण्डवों के पक्ष में युद्ध कर रहे मालवा के राजा इन्द्रवर्मा के पास अश्वत्थामा नाम का एक हाथी था। योजना के अनुसार अपनी ही सेना के उस हाथी को भीमसेन ने गदा से मार डाला। उसके पश्चात् वह द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर जोर से कहने लगा, “अश्वत्थामा मारा गया। अश्वत्थामा मारा गया।”

आचार्य द्रोण को भीमसेन की बात पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने धर्म से विचलित होकर धृष्टद्युम्न पर धावा बोल दिया। उसके ऊपर अनेकों बाणों की वर्षा कर दी।

यह देखकर पांचाल महारथियों ने धृष्टद्युम्न की रक्षा की। उस युद्ध में धृष्टद्युम्न तो बच गया किन्तु पांचाल महारथियों का सफाया हो गया।

आचार्य को भीमसेन के कथन पर विश्वास नहीं हुआ, हॉं उन्हें चिन्ता जरूर होने लगी थी , तो उन्होंने व्यथित होकर युधिष्ठर से पूछ लिया, “क्या वास्तव में अश्वत्थामा मारा गया ?”

इस संदर्भ मे पारस सोचने लगा- आचार्य द्रोण जानते थे कि युधिष्ठिर राज्य पाने के लिये झूठ नहीं बोल सकते। लेकिन युधिष्ठिर भी राज्य के लोभ में आ गये होंगे। जब इनके समक्ष मेरे पिताजी ने अपना अंगुष्ठ काटकर श्री गुरूदेव के चरणों में अर्पित किया, उस दिन भी ये अपने भ्राता को श्रेष्ठ देखने के लोभ में आ गये।

युधिष्ठिर चुपचाप खड़े थे कि क्या उत्तर दें कि इसी समय भीमसेन युधिष्ठिर के पास जाकर बोला- ’’ आप स्मरण करा दें भ्राता कि, आचार्य द्रोण के बध का उपाय सुनकर मैंने अपनी सेना के अश्वत्थामा हाथी को मार डाला है। आपको मात्र यह कहना है कि हां अश्वत्थामा मारा या गया है, आप को पाप भी नहीं लगेगा और असत्य भाषण के दोषी भी नहीं होगे,क्यों कि सचमुच अश्वत्थामा मर चुका है, ये कौन पूछता है कि वह कौन मरा हाथी या मनुष्य।’’

द्वंद्व में फंसे युधिष्ठिर आचार्य द्रोण के पास जाकर बोले, “अश्वत्थामा मारा गया।”

उन्होंने यह वाक्य उच्च स्वर में कहने के पश्चात धीमें से कह दिया, “पता नहीं वह नर था अथवा हाथी।”

युधिष्ठिर की धीमें कही हुई बात को आचार्य सुन नहीं पाये। उन्हें युधिष्ठिर की बात का पूरा विश्वास हो गया। वे पुत्र शोक में डूब गये। धृष्टद्युम्न ने जब द्रोणाचार्य को शोकाकुल देखा तो इस स्थिति का लाभ उठाने के लिये उसने आचार्य पर तीव्र प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया। जिससे वह अपने पिता द्रुपद का बदला चुकता कर सके। धृष्टद्युम्न के तेज प्रहार से आचार्य को मूर्छा आ गई। एक क्षण में वे सम्हले और प्रहारों को काटते रहे। इसके पश्चात उन्होंने धृष्टद्युम्न के घोड़े को मार डाला। आचार्य द्रोण ने धृष्टद्युम्न का वध करने की इच्छा से एक उत्तम बाण चलाया। सात्यकी यह सब देख रहा था उसने उस तीक्ष्ण बाण को काट दिया।

इस समय युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव और भीमसेन आचार्य के निकट पहुँच गये। उसी समय आचार्य के बांये अंग फड़कने लगे। वे और अधिक घमासान युद्ध करने लगे। भीमसेन तो झूठों में प्रमुख है ही। उसने आचार्य के रथ के पास जाकर कहना शुरू कर दिया, “आचार्य यदि ब्राह्मण अपना धर्म छोड़कर युद्ध न करते तो आज क्षत्रियों का भीषण संहार न होता। प्राणियों की हिन्सा न करना सभी धर्मो में श्रेष्ठ बतलाया गया है। आप ब्राह्मणों ने ही ये नियम हम सभी के लिये बनाये हैं। आप हैं कि उन्हीं नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। आप तो गुरूदेव उन ब्राह्मणों में भी सबसे श्रेष्ठ हैं। आपने ब्राह्मण होकर भी स्त्री पुरूष और धन के लोभ में इन क्षत्रिय राजाओं का संहार कर डाला हैं। जिसके लिये आपने अस्त्र उठाये हैं, आप जिसका मुख देखकर जी रहे हैं वह अश्वत्थामा तो आपकी दृष्टि से दूर मरा पड़ा है। इन कौरवों ने आपको इसकी सूचना तक नहीं दी। धर्मराज युधिष्ठिर के कहने पर भी आप को विश्वास नहीं हुआ।’ जब भीमसेन की यह बातें सुनी तो द्रोणाचार्य ने तत्काल धनुष डाल दिया। अपने पक्ष के वीर योद्धाओं से पुकार कर कहने लगे, “कर्ण, कृपाचार्य और दुर्योधन अब तुम लोग स्वयं युद्ध के लिये प्रयत्न करो। अब मैं तो अस्त्रों का त्याग करता हूँ। यह कहकर उन्होंने करूण स्वर में अश्वत्थामा का नाम ले लेकर पुकारा। उसके पश्चात वे रथ के पिछले भाग में जाकर ध्यान में बैठ गये। युद्वभूमि में इस प्रकार ओम् की धारणा करके उस अविनाशी परमात्मा के ध्यान में लीन हो गये जिसमे बडे बडे सन्तों के सामर्थ्य की बात नहीं है।

इसी समय धृष्टधुम्न तलवार लेकर उनके पास पहुंच गया। वे तो योग निष्ठ थे वे योग धारण के द्वारा पुराण पुरुष विष्णु के ध्यान में थे। उन्होंने मुंह को कुछ उपर उठाया और सीने को आगे की और तानकर स्थिर किया, फिर विशुद्ध तत्व में स्थित होकर हृदय कमल में एकाक्षर ओम् ब्रह्म की धारणा करके अविनाशी परमात्मा में लीन हो गये। यह सब देखकर भी धृष्टधुम्न ने अपनी तलवार से उनका सिर काट लिया।

समाचार पूरा होते होते पारस के मन में क्षोभ पैदा हो चुका था, वह गुरूद्रोही धृष्टद्युम्न के प्रति क्रोध से भर चुका था ।

वह सोच रहा था .............पुत्र मोह के चिन्तन में आचार्य कैसे ओम् ब्रह्म के ध्यान में समाधिस्त हो पाये होंगे ?..............इस स्थिति में क्या पुत्र का एक पल के लिये भी ध्यान हट पाया होगा ? ...........कैसे ओम् ब्रह्म की बातंे संजय जी से जानकर गुप्तचर पुष्पक ने भेज दी है। यह कल्पना वास्तविक सत्य से प्रथक लगती है।.सहसा उन्हें लगा................मैं भी कैसा हूँ ? आचार्य के सम्बन्ध में भेजी इस उत्कृष्ट सूचना पर सन्देह कर रहा हंू। वे कोई साधारण योगी नहीं थे। मैं आज तक आचार्य को दर्शन से पृथक मानता रहा। उन्होंने इस विधि के द्वारा युद्धभूमि में प्राण त्याग करके हमें यह सन्देश दे दिया है कि वे दर्शन से दूर नहीं थे। दुर्भाग्य यह रहा है कि उन्हें दर्शन के जिज्ञासु शिष्य ही नहीं मिले। इसमें आचार्य का क्या दोष ? वे बलपूर्वक किसी को दर्शन तो नहीं सिखा सकते थे। मैं तो अपने प्रश्नों से दूसरो के उत्तर जोड़ने में अभ्यस्त हो गया हूँ। हम चाहे तो अपने मन को कैसे भी समझा सकते हैं। सब अपनी दृष्टि, अपने अन्तः के प्रश्न और उत्तर हैं। इस घटना का वर्णन हमारा गुप्तचर पुष्पक संजय के अनुसार न करता तो हम उनकी मृत्यु के बारे में सत्य को भी नहीं जान पाते। इस घटना के बाद तो मुझे इस युद्ध से कोई मोह नहीं रह गया।

निषादराज पारस ने तत्काल मन्त्री शंखधर को सूचित करके, अपने गुप्तचर पुष्पक को युद्धभूमि से वापस बुला लिया। बाद में उनने अपने नाविकों से सुना कि यह युद्ध अठारह दिनों तक चलता रहा। भीषण मार काट के पश्चात् विजय श्री पाण्डवों को मिली। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो गया।

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