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एकलव्य 9

9 द्रोपदी के स्वयंवर में एकलव्य

द्रोपदी स्वयंबर की सूचना सम्पूर्ण भारत वर्ष के राजाओं को हो गई।

द्रोपदी ! विश्व की अद्वितीय सुन्दरी !! कहते हैं अग्निशिखा सी सुंदर इस युवती ने अग्नि कुण्ड से जन्म लिया है !

बड़े बड़े धनुर्धर उसे पाने की लालसा लगाने लगे। देश के अधिकांश धनुर्धर उस स्वयंवर में भाग लेने का मन बनाने लगे। कुछ को द्रोपदी वरण से भी कोई मोह नहीं था तो भी धनुर्विद्या के परीक्षण का अवसर हाथ से खोना नहीं चाहते थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में देश के जन समूह के सामने आने का यह अवसर था।

युवराज एकलव्य भी कोई कम न था। अंगुष्ठ के अभाव में भी वह अभ्यास के बल पर पुनः सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन गया। देवी वेणु भी अपने अन्तःपुर के धनुर्विद्या की अभ्यास स्थली में अभ्यास करने लगीं थी। युवराज भी उसकी प्रतिभा से प्रभावित थे ही, उसके अभ्यास से प्रेरणा लेकर वे और तीव्र अभ्यास करने लगे।

जब यह बात देवी वेणु को ज्ञात हुई कि पांचाल नरेश अपनी पुत्री द्रोपदी का स्वयंवर कर रहे हैं। देश के सभी राजा, महाराजा, धनुर्धर उसमें भाग लेने के लिये पहुँच रहे हैं। तो वह हंसती हुई एकलव्य से बोली‘‘युवराज आप द्रोपदी के स्वयंवर में भाग लेने के लिये क्यों नहीं जा रहे हैं ?’’

एकलव्य ने कहा, “मैं वहां जाकर क्या करूँगा ?”

प्रश्न सुनकर वेणु बोली, “आप यदि वहां जाने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं तो आज्ञा दें मैं चली जाती हूँ।”

एकलव्य ठहाका मारकर हँसते हुये बोला, “तब तो द्रोपदी तुम्हें वरण कर लेगी।”

वेणु ने उत्तर दिया, “मुझे वरण नहीं करेगी किन्तु आपको वरण तो कर ही लेगी।”

एकलव्य ने आश्चर्य व्यक्त किया, ‘‘अरे ! देवी आप यह क्या कह रहीं हैं ? अपने लिये सौत की व्यवस्था करना चाहती हो ! मैं कुछ समझा नहीं।”

’युवराज, न समझने जैसी कोई बात नहीं है। देश के राजाओं के मध्य, वहां धनुर्धारी होने के अवसर को हम खोना नहीं चाहते। फिर अनायास ही देश की अद्वितीय सुन्दरी हाथ लगेगी। ऐसा कौन सा राजा है जो उससे विवाह न करना चाहेगा ?’

एकलव्य ने अपने मन में पनप रही भावना को व्यक्त किया, “सुना है दुर्योधन और कर्ण उसे पाने के लिये व्याकुल हैं। और अर्जुन ...........।”

“उस बेचारे का नाम क्यों लेते हो ? वह तो अपने परिजनों के साथ लाक्षाग्रह में भस्म हो गया है। बेचारा अर्जुन ...........।’

’अरे ! मैंने तो सुना है अर्जुन जीवित है। पता नहीं कैसे उस लाक्षागृह में से अपनी माँ और भाइयों के साथ निकल भागा ?”

“किन्तु युवराज, उसमें किसके मृत शरीर मिले हैं ?”

“सुना है कोई दूसरे लोग उस लाक्षागृह में आकर ठहर गये थे। वे भी छह लोग ही थे। ये भी छह। यह संयोग ही रहा है।”

“युवराज यदि अर्जुन जीवित बच गया है तब तो देखना द्रोपदी को वह अपने हाथ से निकलने नहीं देगा। ऐसे अवसर पर आपको वहां अवश्य ही पहुँचना चाहिये। जो भी हो मेरी इच्छा है कि यह विश्व सुंदरी द्रोपदी अर्जुन के यहां नहीं, हमारे यहां हो।

एक तीर से दोहरे लक्ष्यबेध के अवसर को हमें खोना नहीं चाहिये। तभी मेरे मन को शान्ति मिल सकेगी। बोलियेऽ ऽ ऽ जायेंगे न आप ?”

“हमारी धनुर्धर रानी की यह आज्ञा हो तो भला ऐसा कौन सा एकलव्य होगा जो आपकी बात को अस्वीकार कर पायेगा।”

“देखना युवराज, कहीं आप द्रोपदी को ले आये तो इस दासी को भुला नहीं देना।”

“ऐसी बात है तो मैं वहां नहीं जाता। मैं नहीं चाहता कोई द्रोपदी हमारी रानी का मन दुखाये।”

“अरे, अरे ! युवराज, आप यह क्या कहते हैं मुझे चाहे जो सहना पड़े, आप द्रोपदी को निषादपुरम में लेकर ही आयेंगे।”

उनकी यह बात जाने कैसे महारानी सलिला ने सुन ली। वे समझ गई, दोनों किस विषय में चर्चा कर रहे हैं। कुछ सोचकर बोलीं, “ये कुरूवंशी एक दूसरे का शीश उतारने में लगे हैं। अगर हम उनके बीच किसी भी स्थिति में खड़े हुए तो वे हमें भी छोड़ने वाले नहीं हैं।”

एकलव्य ने माँ को संतुश्ट किया, “माता जी अंगुष्ठ दान जैसा ही कोई प्रसंग खड़ा हो गया तो मैं विवश हूँ अन्यथा मेरे लक्ष्यबेध को कोई रोक नहीं पायेगा।”

वह माता जी को सांत्वना देकर स्वयंवर में जाने के लिये राज परिवार की भेशभूषा में अपने को

सुसज्जित करने के लिये राजप्रसाद के अपने कक्ष में चला गया।

निषादपुरम के सभी लोग देख रहे थे- आज चुपचाप हमारे युवराज सजधज कर पांचाल नरेश के यहां द्रोपदी के स्वयंवर में भाग लेने के लिये जा रहे हैं।

जब एकलव्य पांचाल नरेश के यहां स्वयंवर में पहुँचा, उसने देखा कि स्वयंवर का मण्डप राजकीय वैभव से सुसज्जित है। चारों ओर से इसकी सुरक्षा के प्रबंध कर दिये गये थे। राज द्रुपद के द्वारा आमन्त्रित राजा लोग और राजकुमार स्वयंवर मण्डप में अपने लिये बनाये हुये विमानों के समान मंचों पर विराजमान थे।

स्वयंवर का प्रांगण खचाखच भर चुका था। उसे प्रांगण के एक कोने में स्थान मिल पाया। वहां बैठ कर उसने प्रांगण के बीचों बीच बने उस विशाल मंच पर दृष्टि डाली।

उसने देखा एक ंऊंचे और लम्बे से दण्ड के ऊपर गोलाकार थाली नुमा छिद्रदार एक यन्त्र लगा है जो अनवरत तीब्र गति से चक्कर काट रहा है। उस थाली नुमा यंत्र के ऊपर जोड़ी गई एक मछली की प्रतिकृति थालीयंत्र की विपरीत दिशा में घूम रही है । नीचे मंच पर एक विशाल धनुष और लगभग सौ बाण रखे हैं । प्रतियोगी को मंच पर बिछे नर्म रोंयेदार बिछौने पर वीरासन में बैठ कर थालीयंत्र के छिद्र में से मत्स्य का वेधन करना है । इसी समय द्रुपद के द्वारा की जा रही घोषणा राजपुरूषों के कानों में सुनाई पड़ी, “जो वीर इस धनुष पर इन बाणों से उस ऊपर घूमने वाले यन्त्र के छिद्र में से लक्ष्यबेध करेगा वही मेरी पुत्री को प्राप्त कर सकेगा। मेरी पुत्री उसी वीर का वरण करेगी ।’ ठीक इसी समय द्रुपद कुमारी, कृष्णा सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित हाथ में वरमाला लिये हुये मन्द मन्द गति से चलते हुये स्वयंवर मण्डप में आई। लोगों ने मानो अपनी समूची प्राणशक्ति नेत्रों में केन्द्रित कर ली ओर उस विश्वसुन्दरी के दिप दिप करते सुडौल और एक दृष्टि में ही दर्शक को मोह लेने वाले मुख मण्डल और कमल सी सुकोमल हथेलियों को देखने लगे।

इसी समय धृष्टधुम्न ने अपनी बहन द्रोपदी के पास खड़े होकर प्रिय वाणी में कहा, “स्वयंवर के उद्देश्य से पधारे नरपति और राजकुमारो ! ये धनुष है और ये बाण हैं और यह लक्ष्य भी आपके समक्ष है। अब आप की बारी है । आप लोग घूमते हुये यन्त्र के छिद्र में से लक्ष्यवेध कर सकते हैं। इसके लिए हरेक को पांच बाण प्रयोग करने की छूट होगी । जो वीर, रूपवान और कुलीन पुरूष यह महान् कार्य करेगा, मेरी प्यारी बहन उसकी अर्द्धांगिनी बनेगी।”

वह अपनी बहन को सम्बोधित करके बोला, “देखो बहन, इस मण्डप में दुर्योधन, दुर्मख, दुष्प्रषण, विकर्ण,दुःशासन आदि अपने परम प्रिय महान धनुर्धर कर्ण को लेकर यहां आये हैं। यहां अश्वत्थामा, भोज भानूमान,राजा विराट, चौण्ड्रक, शैल्य, शिशुपाल और जरासन्ध आदि सुप्रसिद्ध राजा महाराजा भी उपस्थित हैं। जो इस लक्ष्य को बेध दे, बहन द्रोपदी, तुम उसी के गले में यह वरमाला डाल देना।”

एकलव्य ने देखा कि लगभग इसी समय वासुदेवनन्दन बलराम जी, श्री कृष्ण जी तथा अनेक प्रधान यदुवंशी भी इस महोत्सव को देखने के लिये विशाल प्रांगण के भीतर आये क्योंकि भाट लोग उनकी जय जय कार के नारे लगाने लगे । एकलव्य ने धैर्य से श्रीकृष्ण को देखा- यह जगत के मोहन कृष्ण हैं। सचमुच कैसा श्रेष्ठ और सुडौल बदन है इनका । बिस्मय तो यह है कि वे हर परिचित-अपरिचित को देख कर मुस्काये जा रहे थे, जैसे समूचा विश्व इनका मित्र हो ।

स्वयंबर आरंभ होने की घोषणा के बाद एक एक करके अनेक महाबली लक्ष्यबेध करने के लिये उठे। धनुष को झुकाकर डोरी चढाने का प्रयास किया परन्तु अनेक तो डोरी चढ़ाने में ही असफल रहे। यदा कदा किसी ने डोरी कस भी ली तो घूमते थालीयंत्र के छिद्र में से उसके बाण नहीं निकल पाये ।

एकलव्य ने मन ही मन उस लक्ष्य को ध्यान से देखा वह समझ गया कि तनिक सा एकाग्र हो कर वह लक्ष्यबेध कर सकता हैं। वह उठने की तैयारी करने लगा। उसने निश्चय किया कि जो लोग मंच के पास खड़े हैं, वे हट जायें ,फिर वह जायेगा ।

यकायक उसने देखा, राजा शल्य, शिशुपाल और जरासंध आदि असफल होकर लौट रहे हैं। इसी समय सूर्य के समान आभा युक्त कर्ण उठा, उसने धनुष के पास जाकर शीघ्रता से उसे उठाया, और सम्पूर्ण सभा के देखते देखते उसने धनुष की डोरी चढ़ा ली।

वह क्षण भर में ही लक्ष्य बेध देता कि ठीक इसी समय ऊंचे स्वर में द्रोपदी की घोषणा सुनाई पड़ी, “मैं सूत पुत्र को वरण नहीं करूंगी।”

कर्ण तिलमिला उठा उसने वेबसी में एक क्षण को आकाश की ओर देखा फिर उस धनुष को धरती पर पटक दिया।

एकलव्य को कर्ण पर बड़ा क्रोध आया, ‘‘अरे यह तो महामूर्ख है। द्रोपदी इसे वरण करती चाहे न करती इस लक्ष्य को तो यह भेद ही सकता था।’’

यह सोचकर एकलव्य के चित्त में आया, “यह उचित ही रहा मेरे उठने में विलम्ब हो गया। मैं कर्ण की तरह धनुष धरती पर पटककर नहीं आता बल्कि लक्ष्यबेध करके आता। मेरे यहां आने का उद्देश्य द्रोपदी का वरण नहीं है बल्कि सम्पूर्ण भारत वर्ष के राजा महाराजाओं को अपने हस्तलाधव से परिचित कराना है। ये अनूठे लोग हैं ? यदि मैं लक्ष्यबेध कर देता,संभवतः ये मेरा अंगुष्ठ नहीं, शीश ही उतार लेते। कर्ण का भी तो शीश ही उतार लिया। उसने लक्ष्यबेध न करके अपनी हीनता का स्वयं ही प्रमाण दे दिया है।’

इसी समय उसे याद हो आई अर्जुन की, आज अर्जुन होता तो निश्चय ही इसे बेध देता। अरे ! यकायक यह कौन खड़ा हो गया ? ये ब्राह्मण वेशधारी युवक, जिसके शरीर के गठन की आभा, मेरे मन को मुग्ध कर रही है। उसकी आंखों का दिव्य तेज मुदित कर रहा है। फुर्तीला शरीर तीव्र गति से उस लक्ष्य की ओर जा रहा है।

उस युवक ने, मंच की पांच बार प्रदक्षिणा की और फुर्ती से धनुष उठा लिया। फिर धनुष पर आत्मविश्वास के साथ बाण चढ़ाया और सभी के देखते देखते छोड़ दिया।

अरे ! यह क्या उसके बाण ने लक्ष्यबेध कर दिया।

उपस्थित महानुभाव हक्के-बक्के से देखते रह गये। किसी को आंखों देखी इस घटना पर विश्वास नहीं हो रहा था। द्रोपदी वरमाला लिये हुये धीरे धीरे आगे बढ़ी। उसने उसके पास जाकर गले में वरमाला डाल दी। वाद्ययंत्रों के मधुर स्वर सुनाई पड़ने लगे।

उस समय द्रोपदी की सुन्दरता से मुग्ध राजा ललचाते हुये क्रोधित होकर अपने धनुष और बाणों पर हाथ फेरने लगे।

कुछ कहने लगे, ‘‘इन पाँचों ब्राह्मण कुमारों को बन्दी बना लो और द्रोपदी को छीन लो। हमारे जीते जी द्रोपदी हमारी महारानी बनेगी।’’

विवाह मण्डप में दूसरे स्थान पर भीड़ में से एक बोला, ‘‘द्रोपदी ने सूतपुत्र कर्ण को वरण करने से इन्कार कर दिया। इस ब्राह्मण कुमार को वरण करने से मना क्यों नहीं किया। उसे इसने वरण कैसे कर लिया ?’’

यों एक ओर हो गये सभी राजा-महाराजा, और दूसरी ओर रह गये पाँच ब्राह्मण कुमार।

स्वयंवर मण्डल युद्धभूमि में बदल गया।

शिशुपाल और जरासन्ध उन ब्राह्मण कुमारों को आगे बढ़ने से रोकने के लिये बाणों की दीवार बनाते हुये बोले, ‘‘चुपचाप यहीं खड़े रहो। द्रोपदी को तुम नहीं ले जा सकते।’’

शिशुपाल ने क्षिप्र गति से चलते अपने हाथों से बाणों की एक दीवार उन पांचों के चारों ओर खड़ी कर दी ।

यह दृश्य देखकर शेष सभी राजा हतप्रभ से खड़े रहकर उन दोनों योद्धाओं की ओर देखने लगे। विप्र वेषधारी उन पाँचों के उत्तरीय वस्त्रों से चमचमाते अस्त्र शस्त्र दिखने लगे। एक विशालकाय ब्राह्मण युवक ने सामने बाणों से खड़ी दीवार को अपने गदा के तीक्ष्ण प्रहार से तोड़ दिया।

आक्रमणकर्ताओं ने सनसनाते बाणों से उन्हें आगे बढ़ने से रोका। ब्राह्मण वेशधारी स्वयंबर विजेता उस धनुर्धर ने अपने पास उन्हें आने से पूर्व ही बाणों को नष्ट भृष्ट करना शुरू कर दिया।

सहसा आक्रमणकर्ता रूक गये ,संभवतः उन सबने अपने हाथ में हल संभाल कर उठाते बलराम को देख लिया था जो निरस्त्र ब्राह्मण कुमारों पर आक्रमण करते राजाओं को कुछ कहने को उत्सुक दिख रहे थे ।

वे अद्वितीय वीर बली पाँचों ब्राह्मण कुमार बड़े आत्मविश्वास के साथ द्रोपदी को लेकर विवाह मण्डप से बाहर चले गये।

उस समय एकलव्य की दृष्टि मोरमुकुट धारी श्रीकृष्ण की ओर गई। वे मन्द-मन्द हंसी बिखेर रहे थे।

एकलव्य को बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि आज इस भारत भूमि पर कुछ ब्राह्मण कुमार इतने बली भी हैं।

इस अवसर पर एकलव्य को भगवान परशुराम जी की याद बारम्बार आती रही। जो ब्राह्मण होने के बावजूद सहस्त्रों क्षत्रियों पर भारी पड़ते थे ।

वह यह सब दृश्य देखते हुये स्वयंवर मण्डप से बाहर आ गया और भीड़ में मिल गया ।

लोगों में चर्चा थी कि यह ब्राह्मण वेश धारी और कोई नहीं बल्कि स्वयं अर्जुन ही है। काया के आधार पर लोगों ने बाकी पाण्डवों को भी पहचानने का विश्वास जताया , और अंत में उन चारों यानी कि युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव की ओर आश्वस्त रहने का इशारा करते श्रीकृष्ण को देखकर सबकोे विश्वास हो गया कि अर्जुन ही ब्राह्मण के भेष में था। वही द्रोपदी को वरण करके ले गया।

निषादपुरम लौटते समय रास्ते में एकलव्य द्वन्द्व में उलझ गया ............ स्वयंबर सभा में जब ब्राह्मण और राजाओं में युद्ध होने लगा, तो मैं ब्राह्मणों की रक्षार्थ खड़ा क्यों नहीं हो सका?.............सभवतः मैं समझ रहा था कि लक्ष्यबेध करने वाला कोई साधारण धनुर्धर नहीं हो सकता। उसमें अपनी रक्षा करने की सामर्थ आप होगी। कुछ क्षणों पश्चात यह चर्चा सुनी कि वह सचमुच अर्जुन ही था। वह तो स्वयं ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने की उपाधि सुदर्शन चक्र की तरह लिये घूम रहा है। द्रोपदी वरण की प्रतिष्ठा से उसकी साख भारत वर्ष के कौने कौने में पहुँच जायेगी।

अचानक रास्ता चलते में विचारों ने पलट खाई,- मुझे राजाओं का साथ देकर द्रोपदी को ब्राह्मणकुमारों से छीनने में सहयोग करना चाहिये था।...........किन्तु क्या लाभ होता ? स्वयं से ही प्रश्न किया उसने । उस छीनी हुई द्रोपदी को कौन लेता .......दुर्योधन और कर्ण उसे छीनने का प्रयास करते। एक बार फिर स्वयमवर मण्डप युद्धभूमि में बदल जाता। मैंने उचित ही किया जो किसी का भी पक्ष नहीं लिया। मात्र दृष्टा बना रहा।...........किन्तु निषादपुरम में पहुंचकर देवी वेणु को क्या उत्तर दूंगा ? क्या उसे अपने तर्कोें से सन्तुष्ट कर पाउंगा? वह तो आरती का थाल सजाये बैठी होगी कि मैं द्रोपदी का वरण करके आ रहा हूँ। वह कैसी विचित्र हैं ! विचित्र है उसका चिन्तन ! चिन्तन की उत्कृष्टता नहीं होती तो वह श्रेष्ठ धनुर्धर भी नहीं हो सकती थी।

रास्ते भर द्रोपदी के रूप सौन्दर्य की झाँकी मन को झन्कृत करती रही। चौड़े भाल पर मुक्ता जड़ित बिन्दी, उसकी खूब बड़ी कजरारी आँखों की चमक, सुन्दर साँवली सलोनी लम्बी नासिका, उसके होंठों की लालिमा ,स्निग्ध आभा वाले कपोल, मयूरी के सदश्य गर्दन, कबूतर के घोंसलों में छिपे दो कपोत शावकों की बाहर झाँकती नुकीली चोंचेंा की तरह पंख फड़फड़ाकर उड़ने को व्याकुल उरोज, सुंदर लम्बी बांहें और सुडौल देह सभी दर्शकों को मुग्ध कर रही थी। उनकी हिरणी के सदश्य चाल, उसके नितम्ब देखते ही बनते थे। प्रकृति ने कितना सुन्दर गढ़ा है उसे। मेरी वेणु तो कहीं नहीं ठहरती। कहाँ वेणु की बलिष्ठ भुजायें और कहाँ कोमल कमल के सदस्य उसकी हथेलियाँ, आँखों के सामने से हट ही नहीं रही हैं इसी कारण देश देश के राजा महाराजा उसे पाने के लिये व्याकुल थे।

एकलव्य सोच रहा था-जब मैं निषादपुरम में प्रवेश करूँगा, लोग पूछेंगे, कहाँ गई विश्वसुन्दरी द्रोपदी ?

यही सोचकर वह निषादपुरम की सीमा में प्रवेश करने के स्थान पर सीमा के बाहर ही एक वृक्ष के नीचे बैठकर रह गया।द्रोपदी की छवि उसकी आँखों में समा गई है। स्वयंवर मण्डप में वह निकट से निकली थी। उसे नख से शिख तक देखते ही रह गया। उसके अंग-अंग विधि ने पता नहीं किस शिल्प से गढ़े हैं।’’

शाम ढ़ल गई। अंधेरा हो गया। अब बस्ती में प्रवेश करना उचित रहेगा। यही सोचकर वह उठ खड़ा हुआ। धीमे-धीमे कदम रखते हुये आगे बढ़ने लगा।

वह राजप्रासाद के विशाल कक्ष में पहुँच गया। उसे सकुशल आया हुआ देखकर माता जी की चिन्ता दूर हो गई। उनकी चरण वन्दना के पश्चात् वह अन्तःपुर में प्रविष्ट हुआ।

विवेकशील व्यक्तित्व मात्र दृश्य और मुखाकृति के भाव देखकर सब कुछ समझ जाते हैं। वेणु उन्हें एकाकी आया हुआ देखकर सब कुछ समझ गई। श्रीमान ने प्रतियोगता में भाग ही नहीं लिया, फिर भी मन को सन्तुष्ट करने के लिये उसके मुख से निकल गया, “युवराज, मैं यह समझ भी नहीं पा रही हूँ कि आप जैसा व्यक्तित्व प्रतियोगिता में भाग नहीं लेगा।”

‘‘मैं लक्ष्यबेध के लिये उठना ही चाहता था तब तक कर्ण उठकर लक्ष्य बेधने के लिये वहां पहुँच गया।”

“युवराज तो क्या कर्ण ने द्रोपदी .......।”

यह बात काटते हुये वह बोला, “कहां बेचारा कर्ण ! उसे तो द्रोपदी ने यह कहकर पृथक हो जाने के लिये विवश कर दिया कि मैं सूतपुत्र का वरण नहीं करूंगी। द्रोपदी के इन शब्दों ने मेरा भी साहस तोड़ दिया।”

“फिर युवराज”

“मैं समझ गया हूँ तुम परिणाम जानने के लिये व्यग्र हो उठी हो। फिर एक ब्राह्मण कुमार ने वह लक्ष्य बेधकर दिया।”

“क्या कहा युवराज, ब्राह्मण कुमार ने !”

“हाँऽऽ वेणु, उस ब्राह्मण कुमार के लक्ष्य वेध करते ही द्रोपदी ने उसके गले में वरमाला डाल दी।”

“अरे !’

“हाँ क्षत्रिय राजाओं की दृश्टि में ब्राह्मण कुमार और सूतपुत्र कर्ण एक जैसे थे। सभी क्षत्रिय राजा उन पाँचों ब्राह्मण कुमारों से युद्ध करने लगे।”

“युवराज, आपने न्याय का पक्ष नहीं लिया।”

“वेणु वे लक्ष्यबेध करके अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर चुके थे। उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं थी। वे सभी राजाओं के मध्य से द्रोपदी को लेकर चले गये।”

“कौन थे वे ? कहीं वे भगवान परशुराम और उनके शिष्य तो नहीं थे ! वे ही ब्राह्मणों में इस ब्रह्माण्ड में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है।”

“अरे हट ! भगवान परशुराम वृद्धावस्था में किसी को वरण करने क्यों आते ? उन्होने तो युवावस्था में यह नहीं किया।’ किन्तु लक्ष्यभेद करने वाला व्यक्ति युवा विप्र था।

’युवराज, फिर ऐसा कौन धनुर्धर है इस धरती पर जो.............।’

“मैं स्वयमवर मण्डप से बाहर निकला तो लोगों से ज्ञात हुआ, वह अर्जुन था।”

“अर्जुन !”

“हाँ वेणुऽऽ अर्जुन।’

“मैं जाने क्यों पहले से ही जानती थी कि द्रोपदी को वरण करके अर्जुन ही ले जायेगा इसीलिये तो मैंने वहां आपको भेजा था ताकि उसे पता तो चले कि अंगुष्ठ कटने के बाद भी आप कहीं किसी से कम नहीं।”

“वेणु, अभी वह समय नहीं आया है। देखना किसी दिन वह मेरे हाथों परास्त होगा।”

“देखती हूँ वह शुभ घड़ी कब आयेगी ? अरे ! मैं कैसी हूँ ? आप इतना लम्बा रास्ता तय करके आये हैं,भूखे होंगे। पहले आपको जलपान कराऊँ।’’

ऐसा कहकर वह राजप्रासाद के भोजन कक्ष में चली गई।

द्रोपदी की सुन्दरता आँखों से हट ही नहीं रही है। कभी उसकी सुन्दर आँखें सामने आती हैं कभी उरोज। कभी श्वेत श्याम आभा वाले कपोल चित्त को विकृत करते, कभी नितम्ब। उस दिन से उसे लगता है वह बिना द्रोपदी के क्यों चला आया ? निषादपुरम में उसका मन ही नहीं लग रहा है।

वेणु उसे हर बार की तरह सोचते हुये देखकर बोली, ‘‘अरे ! द्रोपदी ऐसी भा गई है तो चले जाना उसके यहाँ। मेरी कोई बात नहीं है। मैं तो अपना जीवन पुत्र पारस और विजय के सहारे व्यतीत कर लुँगी।

यह कहकर वह गोद में बैठे पारस और विजय पर हाथ फेर कर दुलार करने लगी।

वेणु के व्यंग बाणों से आहत् एकलव्य ने अपने को संयत किया, ‘‘मैं स्वयंवर में जाना ही नहीं चाहता था। तुम्हीं ने मुझे वहाँ जाने के लिये विवश किया। यह ठीक ही रहा, तुम्हारे भाग्य से संयोग ही नहीं बना। मैं भी क्या करूँ ? उसकी चित्त में स्मृति आ जाती है।’’

‘‘अरे ! ऐसी न होती तो वह पाँच-पाँच पतियों को सन्तुष्ट कैसे कर पाती ? सब एक से एक धुरन्धर हैं।‘‘

‘‘ क्या कह रही हो, पांच पति ! उसे तो अर्जुन ने जीता है !‘‘

‘‘ आप क्या समझते है ? हमारे पास भी अपने गुप्तचर है । उनने समाचार दिया कि वे ब्राह्मणकुमार यानी कि पाण्डव द्रोपदी को ले कर घर पहुंचे तो सहदेव ने उत्साहातिरेक में घर के बंद दरवाजों के बाहर से ही मां को आवाज दी कि ‘‘ मां देखो आज हम क्या लाये हैं ?’’ तो प्रतिदिन की तरह उनकी मां यानी कि कुन्ती ने अंदर से ही कह दिया कि जो भी लाये हो, उस पर पांचों का अधिकार है, मैं आज्ञा देती हूँ कि पांचों भाई उसे आपस मे ंबांट लो , और युधिष्ठिर अकुला कर चीख उठे- ‘‘मां यह तो देखो कि हम क्या लाये हैं ? आपने ऐसी आज्ञा दी कि हम उसका पालन ही नहीं कर सकते ।’’ तो कुन्ती बाहर आयी और खुद भी चौंक उठी, फिर सहसा उसे याद आया कि युधिष्ठिर और भीम तो अर्जुन से बड़े हैं, उनसे पहले छोटे का ब्याह भला कैसे संभव है सो बोली-ईश्वर ने मेरे मुंह से अपनी इच्छा को कहलाया है, अब मुंह से निकली बात तो वापस नहीं आ सकती, सो यह युवती आज से आप पांचों की पत्नी है । और वह द्रोपदी पांच पांच पतियों की भार्या बन गई है ।

एकलव्य यह सुनकर बिस्मित हुआ, फिर भी द्रोपदी से मुग्ध उसका मन उसकी इस स्थिति में भी पक्ष लेने लगा,‘‘वेणु, द्रोपदी में उन सभी को एक सूत्र में बाँधने की इसमें क्षमता है।‘‘

बेणु बोली‘‘ आपका उसके सम्बन्ध में सोचना व्यर्थ का प्रलाप है। हाँ, एक उपाय अवश्य है।’’

उपाय की बात सुनकर एकलव्य ने पूछा, ‘‘क्या उपाय ?’’

‘‘स्वामी, यही आप अर्जुन की आधीनता स्वीकार कर लें। उसके दास बन जायें और इस बहाने द्रोपदी के रूप सौंन्दर्य का पान करते रहें। किन्तु दूसरा रास्ता कठिन है।’’

‘‘कौन सा रास्ता ?’’

‘‘मुझे तो संतोश इस बात से ही मिल पायेगा कि अर्जुन को आप धनुर्युद्ध में परास्त कर दें।’’

‘‘मैं भी हार मान कर बैठने वाला नहीं हूँ। मेरे अन्तर में आज भी उससे लोहा लेने की अग्नि धधक रही है।’’

‘‘स्वामी, आप अपने लक्ष्य से बंधे हैं मुझे यही सन्तोश है।’’

पुत्र पारस वेणु की गोद से खिसककर एकलव्य के पास आ गया और धनुष को पकड़ने का प्रयास करने लगा। 0000

एकलव्य के समक्ष गुरूदेव द्रोणाचार्य की त्रुटियों को जब कोई रेखांकित करता है तो वे उस पर क्रोधित हो उठते हैं ,यह याद आने पर वेणु उन्हें इस सम्बन्ध में समझाते हुये बोली, ‘‘युवराज जब कोई आचार्य द्रोण के विरोध में बातें करता है, आप हैं कि उनके सम्बन्ध में कुछ भी सुनना पसन्द नहीं करते। हमें आपका अन्ध भक्त होना उचित नहीं लगता।’’

“वेणु, कहीं न कहीं तो अन्ध भक्त तुम भी हो।’’

“कहें कहें युवराज कैसे ? आप मुझ पर यह आरोप प्रत्यारोपित कर रहे हैं।”

“वेणु, तुम महारानी गान्धारी की तरह अन्ध भक्त हो।”

“युवराज, यह आप क्या कह रहे हैं मैं महारानी गान्धारी की तरह अन्ध भक्त !”

“सुनिये महारानी गान्धारी ने महाराज धृतराष्ट्र के अन्धे होने पर अपनी आँखों पर पट्टी बांध ली है। वे अन्धी न होते हुये भी अन्धी बन गई हैं। आज उनके पुत्रों की जो स्थिति निर्मित हुई है वह उन दोनों के अन्धे होने के परिणाम से है।”

“युवराज, मैं समझी नहीं। इन अन्धों से मेरी तुलना कर रहे हैं।”

“वेणु तुम्हें ज्ञात है भीलों की सभा ने उस दिन हमारे अंगुष्ठ के कटने पर जो निर्णय लिया है, तुम भी उस निर्णय का अक्षरशः पालन कर रही हो कि नहीं ?”

“युवराज, आपकी तर्क शक्ति विलक्षण है आप कहाँ का सम्बन्ध कहाँ से जोड़ रहे हैं।”

“वेणु, तुम भी हमारी तरह धनुषवाण चलाने में मध्यमा और तर्जनी का ही उपयोग करने लगीं हो। मैं अनुभव कर रहा हॅू तुम इसमें पारंगत भी हो गई हो।”

“युवराज यह अन्धों का अनुकरण नहीं है। हमारे समाज का सामूहिक निर्णय है। उसे स्वीकार करना मेरा कर्तव्य है। यदि यह सम्पूर्ण समाज का निर्णय न होता तो मैं महारानी गान्धारी की तरह इसे कभी स्वीकार न करती। समाज का निर्णय मानना अंध भक्ति नहीं होती। हमारे जैसा श्रमजीवी समाज तो वैसे भी इतना प्रगतिशील है कि सामने आती परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने में हिचकता नहीं है।’

“वेणुऽऽ आप हमें भी अन्ध भक्त न समझें।”

“युवराज फिर कैसा समझें ?”

“अंगुष्ठ के अभाव में यदि हमारे लक्ष्य संधान की क्षमता में कमी रहती तो मै अन्धभक्त अपने

आपको स्वीकार कर लेता। इससे तो हमारी शक्ति और अधिक पुष्ट हुई है। दृढ़निश्चयों की परम्परा ने हमारे आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है। जब हमें कोई हानि नहीं हुई तो हम दोश किसे दें ?”

“युवराज, दोष भावनाओं का है गुरूदेव का दृष्टिकोण उचित नहीं रहा।”

“उनकी बातें वे जाने, हमें अपना मार्ग प्रशस्त करना है।”

“उनकी बातें वे जाने, युवराज यही बिन्दु हमें सोचने के लिये विवश करता है। यहां भी इन शब्दों के माध्यम से अपने को फिर बचाकर ले जा रहे हैं। एकबार युवराज आप सत्य को स्वीकार तो कर लीजिये।”

“वेणुऽऽ तुम्हारे सच को स्वीकार कर लूँ किन्तु गुरूदेव के चिन्तन से जो तत्व प्राप्त हुआ है उसे किस नदी के प्रवाह में प्रवाहित कर दूँ ?”

“युवराज यह आप गुरूतत्व की बात कर रहें हैं इसे व्यक्तिवाचक संज्ञा से सम्बोधित नहीं कर सकते।”

“तुम ठीक सोचतीं हो किन्तु इस गुरूतत्व का प्रादुर्भाव आदमी के अन्दर काल्पनिक बिम्व के

आधार पर ही होता है।”

’बस बस युवराज, मुझे आप से यही कहना है वह काल्पनिक बिम्व कुछ भी हो सकता है।”

हम जिस बिन्दु को मानक मानकर चलते हैं उस मानक बिन्दु को हम जीवन भर विस्मृत नहीं कर

पाते।”

“जिसे विस्मृत नहीं कर पाते उसे सत्य मान कर चलें।’’

“मैं तुम्हारी बात को स्वीकार करता हूँ वेणुऽऽ जो बिन्दु चेतना प्रदान करता है उस सत्य को

नकारा तो नहीं जा सकता।”

यह सुनकर वेणु को लगा, ये हार मानने वाले नहीं हैं इसलिये विषय बदलते हुये बोली, “चिन्तन को जिस बिन्दु से उर्जा प्राप्त हो वह बिन्दु अनुकरणीय एवं वन्दनीय हैं।”यह कहते हुये वह एकलव्य के धनुष और बाणों को सम्हालने लगी।