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एकलव्य 7

7 कुरूवंशी निषादकन्या सत्यवती की सन्तान

’जब जब आपदायें आई हैं, किसी नये पथ का निर्माण उपस्थित हुआ। उस पथ के स्वरूप का निर्धारण उस आपदा पर निर्भर रहा है।’’इस गहन चिन्तन में निषादराज बारात लेकर लौट आये। जैसे ही उन्होंने निषादपुरम में प्रवेश किया , परमहंस बाबा की खोज की गई। परमहंसजी का कहीं कोइ पता नहीं चला।

हिरण्यधनु राजप्रसाद के विशाल कक्ष में सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होंने विवाह के उपलक्ष में होने वाले लोकनृत्यों का बहिष्कार कर दिया है। पास में ही मंत्री चक्र्रधर बैठे थे। पहरे पर पहरे दार धनुषबाण लिये खड़े हैं। इस समय सभा कक्ष में एकलव्य ने प्रवेश किया। उसके साथ निषादपुरम के कुछ युवा धनुर्धर हैं।

उसने कक्ष में प्रवेश करते ही निषादराज के चरणों में प्रणाम किया, बोला, “तात् प्रणाम।”

हिरण्यधनु ने आशीर्वाद दिया, “प्रभु तुम्हारी रक्षा करे।”

उनकी मुखाकृति की ओर देखकर एकलव्य बोला, “तात चिन्तित दिखाई दे रहे हैं।”

एकलव्य की यह बात सुनकर वे कहने लगे, “वत्स, चिन्ता का ही विषय है। अब धर्म कर्म नाम की कहीं कोई बात शेष नहीं रह गई हैं। कहते हैं जब जब धर्म कर्म शेष नहीं रहता तब तब धरती पापियों के बोझ से बोझिल होकर मरने लगती है। देखना, इन पापियों का अन्त शीघ्र ही होगा।”

यह सुनकर एकलव्य को लगा कि पिताजी द्रोणाचार्य जी द्वारा अंगुष्ठ मांगने की घटना की यह व्याख्या उचित नहीं कर रहे हैं। यह सोचते हुये बोला, “तात् हमें अब इस तरह नहीं सोचना चाहिये।”

यह बात सुनकर हिरण्यधनु आवेश में आते हुये बोले, “इस तरह क्यों नहीं सोचना चाहिये। उन्होंने तुम्हें अपना शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया कि वे तुम जैसे नीच जाति के युवक को क्षत्रिय राजकुमारों के साथ कैसे सिखायंे ? जबकि हम नीच जाति के नहीं है। मैं तुम्हें कई बार अपने वंश का गौरवमय इतिहास सुना चुका हूँ। हमारे आदि पुरूष निषादराज तो महाराज प्रथु के बड़े भाई थे।..... और सभी कुरूवंशी निषादकन्या सत्यवती की सन्तान हैं। फिर भी यह समझ में नहीं आता, कि ये हमें छोटा कैसे मानते हैं ? तुम इतने सीधे सच्चे निकले कि उस मिट्टी की मूर्ति को गुरू मानकर अभ्यास करते रहे। वत्स, वैसे तुम जैसे प्रतिभावान के लिए तो किसी गुरू की आवश्यकता ही नहीं थीं। अभ्यास ही सच्चा गुरू हैं। तुमने उनसे यह क्यों नहीं कह दिया, “ मेरी गुरू तो वह मूक प्रतिमा है। यदि यह मूक प्रतिमा कह दे तो मैं अपना अंगुष्ठ दक्षिणा में देने को तैयार हूँ।”

एकलव्य ने आश्चर्य व्यक्त करते हुये कहा, “तात यह आप क्या कह रहे हैं। मैने उस प्रतिमा में आचार्य द्रोण की ही प्राण प्रतिष्ठा की थी।”

हिरण्यघनु अपने पुत्र को समझाते हुये बोले, “वत्स, तुम इतने भावुक निकले कि भावुकता में अपने श्रम और साधना को ही भेंट में चढ़ा आये।”

अभी तक मन्त्री चक्र्रधर पिता पुत्र के इन सम्वादों को चुपचाप सुन रहा था। उससे भी चुप न रहा गया तो बोला, ‘‘क्षमा करें देव, मुझे तो युवराज का अंगुष्ठ दान लेने में एक राज और समझ में आ रहा है। आज्ञा हो तो देव की सेवा में कहूँ।”

हिरण्यधनु ने कहा, “कहो कहो मन्त्री चक्रधर, हम कौरव औैर पाण्डवों में से नहीं, जिनमें कोई भी सत्य का पक्ष लेने वाला ही नहीं है। वहां तो आचार्यों तक के मस्तिष्क भाव शून्य हो गये है।”

चक्रधर ने आत्मविश्वास व्यक्त किया, “मुझे तो लगता है हस्तिनापुर के महाराज भीलों की गौरव गाथा सुनकर भयभीत हो उठे हैं इसी कारण उन्होंने यह कृत्य हो जाने दिया। राजकुमारों तथा आचार्यो की भर्त्सना तक नहीं कीं अब उन्हें हमारा क्या डर ? वे डरने लगे थे तो युवराज एकलव्य की बाण वर्षा से।”

मन्त्री चक्रधर की बात पुष्ट करते हुये हिरण्यधनु बोले, “मन्त्री तुम ठीक कहते हो। अब तो हमें एक खुली सभा करनी होगी जिससे सच्चाई को उजागर किया जा सके।”

उनका यह सम्बोधन सुनकर मन्त्री चक्रधर ने स्वीकार किया, “जैसी देव की आज्ञा।”

हिरण्यधनु ने निर्णय दिया, “राज्यभर में मुनादी करवा दी जावें कि निषादराज जनता जनार्दन से राज्य की आगामी नीतियों के सम्बन्ध में परामर्श ग्रहण करना चाहते हैं।”

मन्त्री चक्रधर ने उत्तर दिया, “जैसी देव की आज्ञा।”

यह कहते हुये बात को क्रियान्वित करने के लिये मन्त्री चक्रधर राजसभा से बाहर निकल गये। उनके चले जाने पर एकलव्य भी पिताजी को प्रणाम करके चला गया।

हिरण्यधनु महासभा में होने वाले बिन्दुओं पर गहराई से विचार विमर्ष करने लगे।

पिताजी की बात का गहराई से चिन्तन करते हुये एकलव्य अपनी पूर्व अभ्यास स्थली पर पहुँच गया।

आज एकलव्य को अपनी इस अभ्यास स्थली पर पहुँचकर लगा- गुरूदेव आचार्य द्रोण उसके सामने खड़े हैं।

उसके मुंह से शब्द निकले, “प्रणाम गुरूदेव ,अब तो मुझे, प्रारम्भ से ही धनुषवाण चलाने का अभ्यास करना पड़ेगा। आपकी वह प्रतिमा अंगुष्ठ दान के लिये वहीं छोड़ आया हूँ। अब तो यहां आपकी नवीन प्रतिमा स्थापित करनी होगी। आपका यह नया रूप मुझे नई शक्ति देगा। गुरूदेव मैं पुनः अभ्यास करना चाहता हूँ।”

एकलव्य धनुष पर बाण रखना चाहता था। अंगुष्ठ के अभाव में अवरोध आने पर वह सोचने लगा, - अरे ! यह क्या हो गया ! अब मन कुन्ठित हो रहा है। धनुष बाण पकड़े भी नहीं जा रहंे हैं। मन घुटन का अनुभव कर रहा है। एक पीड़ा जन्म ले रही है। गुरूदेव आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ, “गुरूदेव आपकी इस शिक्षा व्यवस्था के प्रति आक्रोश उत्पन्न हो रहा है। समझ नहीं आ रहा है ऐसी सवर्ण अवर्ण के भेदभाव की शिक्षा देकर आप आर्यवर्त का क्या हित करना चाहते हैं ?’’ वह और गहन चिन्तन में डूब गया कि, “गुरूदेव, निषादपुरम के लोग कितने असभ्य शब्दों का प्रयोग आपके लिये कर रहे हैं। मैं किस किस की बात का समाधान करूँ। इसलिये चुपचाप सुनकर रह जाता हूँ। अब तो मैं आपकी नई प्रतिमा तैयार करूँगा। अभ्यास के बल पर असम्भव को सम्भव कर दिखाऊँगा। यह सोचकर एकलव्य ने अपने तूणीर से एक बाण निकाला अंगुलियों के सहारे धनुष पर बाण रखने का प्रयास किया। प्रत्यंचा पर रखे जाने वाला भाग अंगुष्ठ के अभाव में तर्जनी और मध्यमा के मध्य दब गया। इसे खींच कर छोड़ने में वेग नहीं रहा। मुखाकृति पर चिंता की रेखायें उभर आईं। शब्द निकले, “गुरूदेव, इससे तो आप मेरा शीश ही दक्षिणा में मांग लेते। मैं हँसते हँसते दधीचि ऋषि की अस्थियों की तरह अपना यह शीश आपके श्रीचरणों में अर्पित कर देता।”

वह आत्म निरूपण करने लगा, “गुरूदेव मेरा दोष क्या था ? यही कि मैं अभ्यास और आस्था के बल पर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर लगने लगा था। अर्जुन से यह जब देखा न गया। आप भी क्या करें, विवश हैं। गुरूदेव आपने मात्र एक अंगुष्ठ लिया है। धनुष की अपेक्षा अब मुझे गदा संचालन का भी अभ्यास करना है। धनुषबाण की तरह गदा संचालन में भी श्रेष्ठता लानी होगी।

इस दृढ़ निश्चय के बाद वह उठा उसने जलपात्र में से जल के घूंट कन्ठ के नीचे उतारे और फिर सोच में डूब गया, ‘‘गुरूदेव आपके इस अन्धे मोह ने आपकों भ्रमित कर दिया है। एक बार आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार करके तो देखते। उसके पश्चात तो आपको इन कौरव और पाण्डवों की भी आवश्यकता नहीं रहती। रही आपके अभावों की बात, वह तो मेरे ये बाण ही समाप्त कर देते। विश्व की सारी सम्पदा आपके चरणों में होतीं। बिना अंगुष्ठ के मैं अब पूर्व के समान वेग कैसे ला पाउँगा ? शक्ति तो शक्ति स्थलों से ही संचारित हो सकती हैं।“

इसी समय उसके अंतर मे पश्चाताप का द्वन्द्व उपस्थित हो गया, “अरे मै कैसा हूँ ? दक्षिणा में दी हुई वस्तु के बारे में संकल्प विकल्प करने लगा। लोग क्या कहेंगे ? जीवन भर निराशा के भाव लेकर जीना था तो उसी समय अंगुष्ठ दान की मना कर देता। मुझे ऐसे चिन्तन पर धिक्कार है। जो आप जैसे महान तत्व चिन्तक पर सन्देह कर रहा हूँ।”

एकलव्य घटना के समस्त तथ्यों को साथ रखकर निर्णय पर पहुँचा, “गुरूदेव, लोग मेरी याद करेंगे गुरूभक्त के रूप में और आपकी याद करते समय आपको क्या नहीं कहेंगें ? जो कहें सुनें मुझे उससे क्या लेना देना ? मुझे तो अपना कार्य करना हैं। मध्यमा और तर्जनी में वह शक्ति लाना है जो अंगुष्ठ के रहने पर भी न थी। चलूँ पिताजी से यह कह दूं कि आप मेंरी चिन्ता न करें। मुझे नया पथ मिल गया है। मैं मध्यमा और तर्जनी के बल पर पुनः अभ्यास करूंगा। चलकर वेणु को भी यह सुखद समाचार सुना देता हूँ जिससे वह भी समझ ले आज भी एकलव्य किसी के मुँह की तरफ देखकर चलने वाला नहीं है।”

यह सोचकर वह वहां से निकला।

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निषादपुरम के युवक सभा स्थल का निर्माण करने में लगे थे। सम्पूर्ण भारत वर्ष के भील प्रमुखों के लिये, उनके सम्मान के अनुसार बैठने की व्यवस्था की जा रही थीं। निषादराज ने महासभा में भाग लेने के लिये सामान्य और सार्वजनिक घोषणा भी करवाई थी , जिससे आम जनता भी उसमें भाग ले सके।

यथा समय भीलों के जत्थे हाथ में धनुष बाण लिये हुये सभा स्थल पर आने लगे। सभी अपनी मर्यादा के अनुसार स्थान ग्रहण करते जा रहे हैं। निषादराज हिरण्यधनु भी मंच पर विराजमान हो गये। मंत्री चक्रधर ने अपना आसन ग्रहण कर लिया। उनकी पुत्रवधू वेणु ने सभा का दृश्य राजप्रासाद के झरोखे में से देखना प्रारंभ किया।

एकलव्य सभा स्थल पर उपस्थित हुआ। उसने सर्वप्रथम निषादराज के श्रीचरणों में प्रणाम किया। वह भी युवराज के आसन पर बैठ गया। जैसे ही युवराज ने आसन ग्रहण किया नीचे से आवाजें आने लगीं,‘निषादराज हिरण्यधनु की जय। युवराज एकलव्य की जय।”

अब मन्त्री चक्रधर अवसर देखकर अपने स्थान पर खड़े हो गये और सभा को सम्बोधित करते हुये बोले, “आज मतभेद भूलकर सम्पूर्ण भारत वर्ष की भील जातियों के प्रमुख यहाँ उपस्थित हैं। हम निषादराज की ओर से सभी का अभिनन्दन करते हैं। मैं निषादराज से निवेदन करता हूँ कि सभा की कार्यवाही शुरू करने की अनुमति प्रदान करें।”

निषादराज ने आदेश दिया, “मंत्रिवर सभा की कार्यवाही प्रारम्भ करें।”

चक्रधर ने सभा के समक्ष अपना प्रतिवेदन रखा- ‘‘उपस्थित महानुभावो, हमारे युवराज एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास करने में लगे थे। इतने में पाण्डवों का प्रिय श्वान हमारे युवराज के पास आकर भोंक भोंक कर उनके लक्ष्य बेध में व्यवधान उत्पन्न करने लगा। हमारे युवराज ने श्वान के भोंकने के स्वर का अन्तर्मन में माप करके बिना फलक के बाण इस प्रकार संधान किये कि बाणों के प्रविश्ट होने से श्वान के मुंह में खरोंच तक न आये। हमें गर्व है, अपने युवराज के ऐसे अद्भुत हस्लाधव पर। उसके बाद वह श्वान अपने स्वामी पाण्डवों के पास पहुँचा। पाण्डवों ने उसके मुंह से बाण निकाले। ऐसा आश्चर्य जनक वाणों को मारने वाला उन्होंने ने पहले कभी न देखा था। कितनी दक्षता से बाण मारे कि श्वान के मुंह में खरोंच तक नहीं आई। बाणों का वेग इतना सन्तुलित था कि बाण निहित स्थान पर ही जाकर रूके। ऐसे महान धनुर्धर से मिलने सभी पाण्डव व्यग्र हो उठे। वे हमारे युवराज के पास आये। हमारे युवराज का नाम और पता ज्ञात किया और चले गये। उसके पश्चात वे गुरूदेव आचार्य द्रोण को साथ लेकर हमारे युवराज के पास पुनः उपस्थित हुये। हम आज तक अपने श्रम अपनी शक्ति और अपने उपार्जन का शोषण कराते आ रहे हैं। अब एक ऐसा समय आ गया है जब हम में एक प्रतिभा उत्पन्न हुई है। आज जब उसका भी शोषण हुआ है तो यह बात हमें असहनीय हो गई है। आपको ज्ञात होगा हमारे युवराज धनुर्विद्या ग्रहण करने के लिये आचार्य द्रोण के पास गये थे। आचार्य द्रोण निषादजाति के भील युवक को राजकुमारों के साथ कैसे प्रशिक्षित करते ? इसलिये उन्होंने हमारे युवराज को धनुर्विद्या प्रदान करने से मना कर दिया। सच तो यह है कि इस कौशल पर उनका ही एकाधिकार बना रहे। आचार्य द्रोण इसी के वशीभूत होकर, अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीर्वाद दे चुके थे। उन्होंने यह नहीं सोचा था कि संसार में उससे भी श्रेष्ठ कोई धनुर्धर हो सकता है। आचार्य द्रोण को जब एकलव्य के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने की सूचना मिली तो वे हमारे युवराज से मिलने तत्क्षण निकल पड़े। आचार्य द्रोण ने एकलव्य से आकर पूछा, “तुम कौन हो ?”

हमारे युवराज ने उत्तर दिया, “मैं आपका शिष्य एकलव्य।”

यह सुनकर आचार्य ने दक्षिणा में उनका अंगुष्ठ माँग लिया। हमारे युवराज भावुक हैं। वे भावनाओं में बह गये उन्होंने तत्क्षण अपना अंगुष्ठ वाण के फलक से काटकर गुरूदेव के श्रीचरणों में अर्पित कर दिया।

चक्रधर के इस उदबोधन के पश्चात सामने बैठे लोगों में खुसफुस बढ़ गई। वे आपस में विचार विमर्ष करने लगे। यकायक ही उनका तीव्र स्वर सुनाई पड़ा, “हमारे युवराज ने अपने दांये हाथ का अंगुष्ठ गुरूदक्षिणा में दे दिया है। अब हम सभी बाण चलाने में अपने अंगुष्ठ का प्रयोग नहीं करेंगे।”

इस सार्वजनिक उदघोश के बाद कुछ क्षणों तक सभा स्थल सन्नाटे में डूबा रहा।

निषादराज हिरण्यधनु पीठासन से खड़े होते हुये बोले, “आप लोगों ने यह निर्णय लेकर अच्छा नहीं किया। मेरी समझ में नहीं आता कि आप लोग अपने गौरव, मान और लक्ष्य की रक्षा कैसे करेंगे ? जब इस बात की सूचना हस्तिनापुर पहुँचेगी, उनके घर घृत के दीपक जलेंगे। इस घटना के पश्चात तो हम लोगों को आधीन रखने में उन्हें सरलता होगीं। हमारी जातियां स्वतन्त्रता प्रेमी हैं। वे किसी के बन्धनों में रहना स्वीकार नहीं करतीं। अन्यथा इन घने जंगलों का आश्रय न लेतीं। इसी कारण इन जंगलों का स्वच्छन्द वातावरण हमने अपने रहने के लिये, स्वेच्छा से चुना है। अब आप लोग अंगुष्ठ के अभाव में धनुषबाण का उपयोग कैसे करेंगे ? बिना धनुष बाण के आप लोग भूखों मर जायेंगे। अंगुष्ठ के अभाव में आपका अस्तित्व कैसे शेष रह पायेगा ? बोलो- ऽऽ। बोलो ऽऽऽ। चुप क्यों रह गये बोलोऽऽऽऽ।’’

यह कहते हुये निषादराज हिरण्यधनु का गला रूँध गया। वे पीठासन पर बैठ गये। अब एकलव्य आसन से खडे़ होकर बोला, “मैं निषादराज से बोलने की अनुमति चाहता हूँ।”

हिरण्यधनु ने बैठे बैठे ही कह दिया, “कहो, अब क्या कहना चाहतें हो ?”

यह आदेश पाकर एकलव्य ने बोलना शुरू किया, “देखो आप लोगों ने जो प्रतिज्ञा कर ली तो कर ली। हम भील जाति के लिये यह गौरव की बात है। हम जो कहते हैं, सर्वस्व न्यौछावर कर उस बात का पालन करना भी जानते हैं। आप लोग चिंता नहीं करें। आज से हम सभी धनुष पर बाण चढ़ाने एवं, प्रत्यंचा खींचते समय मध्यमा और तर्जनी का उपयोग करेंगे।’’

सभी ने युंवराज का यह परामर्श सुना, सभी ने अनन्त आकाश की ओर लक्ष्य करके, अपनी तर्जनी और मध्यमा के सहयोग से धनुष पर बाण चढ़ा कर प्रत्यंचा खींची।

सभा ने जय घोष किया-

युवराज एकलव्य की जय !

युवराज एकलव्य की जय !!

युवराज ने अपना आसन ग्रहण कर लिया। सभी का लक्ष्य अभी भी अनन्त आकाश बना हुआ था। यह विचित्र स्थिति देखकर निषादराज हिरण्यधनु बोले-

आज इस सभा में जनता जनार्दन का निर्णय मुझे स्वीकार हैं। अब आप लोग अपनी प्रत्यंचा को ढीला कीजिये। अपने बाण को धनुष से उतारिये। आज एक नई परम्परा ने जन्म लिया है। मुझे पूरा विश्वास है आप अपनी गौरव गाथाओं की रक्षा कर सकेंगे। आपको अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये पुनः अभ्यास करना पड़ेगा। मैं तो बूढ़ा हो चला, हाँ आप लोगों की इस प्रतिज्ञा से, आने वाली पीढ़ियाँ इस कहानी को कभी नहीं भूल पायेंगी। यह कहानी युगों युगों तक अनवरत रूप से चलती चली जायेगीं हम सभी संगठित होकर उठ खड़े हुये हैं। कल से हम अपना अधिकार मांगेगे, हम शासन करने का अपना सुरक्षित अधिकार ले कर रहेगें । मुझे हर्ष है, हमारा भविष्य उज्ज्वल है। अब आप सभी यह प्रतिज्ञा लेकर अपने अपने स्थान को लौट जायें। सतत् अभ्यास करने लग जायें। अभ्यास ही परम गुरू है। यह युवराज एकलव्य ने सिद्ध करके दिखा दिया है। इसलिये आप लोगों को अब किसी गुरू की आवश्यकता नहीं है।

यह सुनकर जय घोष सुनाई पड़ा, “निषादराज हिरण्यधनु की जय।”

’युवराज एकलव्य की जय!’

‘ भील संस्कृति की जय!’

‘भील समाज की जय!’

कुछ ही क्षणों में सभा स्थल खाली हो गया था। सभी अपने अपने गन्तव्य की ओर लौट चले।

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