मज़हब और इंसानियत Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मज़हब और इंसानियत

22 अगस्त, 2017

पचास प्रतिशत मुस्लिम आबादी यानी मुस्लिम महिलाओं के लिये आजादी-दिवस

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांच माननीय जजों ने बहुमत से पचास प्रतिशत मुस्लिम आबादी यानी मुस्लिम महिलाओं की परम्परागत तीन तलाक़ के चंगुल से मुक्ति की राह प्रशस्त करते हुए एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाकर तीन तलाक़ को असंवैधानिक करार दिया।

लेकिन वर्तमान कहानी के नायक के जीवन में 22 अगस्त, 2017 से पूर्व जो परिस्थितियां उत्पन्न हुईं और उसने उनका जिस परिपक्वता एवं दृढ़ता से सामना किया, वह भी कम ऐतिहासिक नहीं।

कहानी के मुख्य पात्र हैं - सलीम और अनीसा।

हमउम्र बचपन से साथ-साथ खेलते-कूदते-पढ़ते बड़े हुए। पड़ोसी होने के साथ-साथ सगे मामा-बुआ के बेटा-बेटी।

किशोरावस्था से जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही दोनों के दिलों के तार एक साथ झंकृत होने लगे और घरवालों से छुप-छुपकर मिलने-जुलने का सिलसिला आरम्भ हुआ। कभी स्कूल से आते हुए बाग के झुरमुटे में रुक जाते तो पता ही नहीं चलता कितना समय बीत गया। घरवालों के सवाल-जवाब करने पर बहाने गढ़ने शुरू किए। लेकिन कब तक? एक दिन अनीसा की मां जुबैदा बेगम ने, शाम को पढ़ने के बहाने बरसाती में गये अनीसा और सलीम को, पढ़ने के अलावा और बहुत कुछ करते हुए, पकड़ लिया। सलीम ने बुआ की मिन्नत-मलामत की और आगे से ऐसा-वैसा कुछ न करने की कसम खाते हुए कानों को हाथ लगाते हुए किसी तरह अपनी जान बख्शवायी।

जुबैदा बेगम मन-ही-मन खुश थी कि उसकी बेटी के पैर फिसले भी हैं तो कहीं गलत जगह नहीं, बल्कि वहां जहां उसका खुद का मन चाहता था कि अनीसा का रिश्ता तय हो।

रात हुई। खाना खाकर सभी ठंड से बचने के लिए अपने-अपने बिछौनों में दुबके सोने के उपक्रम में थे। जुबैदा ने चारपाई पर बाईं ओर की बाहीं की ओर करवट लेते हुए साथ वाली चारपाई पर लेटे अपने खाविंद अख्तर मियां, जो दिन-भर का थका-मांदा बिस्तर की गर्माहट में थकान उतारता हुआ सोने के लिए करवट बदलकर लेटा था, की बांह अपने दायें हाथ से टटोलकर उसे अपनी तरफ मुख करने के लिए मज़बूर किया। अख्तर के पासा पलटते ही जुबैदा ने फुसफुसाहट में कहा - 'ऐ जी, तुम्हें कुछ खबर भी है कि अपनी अनीसा बड़ी हो गई है!'

'ऐसी कौन-सी बड़ी हुई है, अभी बारहवीं में ही तो पढ़ रही है।'

'तुम्हें नहीं लगता, ना सही। लेकिन जब मैं इसकी उम्र की थी तो अनीसा मेरे पेट में आ चुकी थी।'

'अरे, तब की बात और थी। अब जमाना बदल गया है। बारहवीं करते ही मैं उसे काॅलेज भेजूंगा। जब तक पढ़ना चाहेगी, पढ़ाऊंगा। अब तू सो जा और मुझे भी सोने दे।'

'मैं आगाह किये देती हूं, फिर ना कहना, अगर कुछ ऊंचा-नीचा हो गया?'

'ऐसा क्या हो गया?'

'यह पूछो, क्या नहीं हुआ?'

'आखिर कुछ बताएगी भी या पहेलियां ही बुझाती रहेगी।'

'आज शाम को रोज की तरह सलीम और अनीसा पढ़ने के लिए बरसाती में गये थे। मुझे कुछ दिनों से उनकी हरकतों को लेकर शक था। मैं कुछ देर बाद दबे पांव छत पर गई। बरसाती का दरवाजा बन्द था। झरोखे से देखा तो दंग रह गई। मेरी आंखों के आगे अंधेरा-सा छा गया। क्या देखती हूं कि सलीम ने अनीसा को बांहों में घेर रखा था, और....'

अख्तर ने बेचैनी के स्वर में पूछा - 'और क्या...?'

'दोनों के होंठ सिले हुए थे, जिस्म चिपके हुए थे।'

अब अख्तर रजाई छोड़ उठकर बैठ गया। कहने लगा - 'तो क्या तुम चाहती हो कि इनकी शादी कर देनी चाहिए?'

'हां, मेरी इच्छा तो यही है।'

'सलीम तो अच्छा लड़का है, लेकिन तेरा भाई आबिद तो मुझे फूटी आंखों नहीं सुहाता। वो कौन-सा ऐब है, जो उसमें नहीं है। उस घर में अनीसा गुज़र कैसे करेगी?'

भाई कैसा भी क्यों न हो, कोई भी स्त्री मायके से विदा लेने के बाद उसकी बुराई नहीं सुन सकती, पति से तो कतई नहीं। इसीलिए जुबैदा ने उठकर बैठते हुए कहा - 'तुम्हें तो बस मौका चाहिए मेरे भाई को कोसने का। उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? अपने घर में अच्छा खाते-पीते हैं। माना, मेरा भाई तुम्हें अच्छा नहीं लगता, किन्तु सलीम में तो कोई कमी नहीं। ऊपर से सलमा भाभी तो ऐसी है जैसे मुंह में जुबां ही ना हो।'

'हां, यह तो ठीक है। कहीं सलमा भी तेरे भाई जैसी होती तो कब की जूतम-पैजार हो ली होती।'

'शादी के बाद लड़की को तो घर की औरत के साथ ही ज्यादा समय बिताना होता है। उस घर में अनीसा को कोई तकलीफ़ नहीं होगी।'

'तेरी बात तो ठीक है। सही उम्र में शादी हो जाय तो लड़की की तरफ से चिंता खत्म हो जाती है। किसी वक्त जब तुझे ठीक लगे, आबिद से बात कर लेना।'

इतना कहकर अख्तर ने बिस्तर में पैर पसारे और कुछ ही मिनटों में उसके खर्राटे कमरे में गूंजने लगे। जुबैदा के मन में लड्डू फ़ूटने लगे। उसके मन की मुराद पूरी होने में कुछ ही कदमों का फासला रह गया था ‌ अख्तर से हरी झंडी मिलने पर भी अनीसा की सलीम के साथ शादी को लेकर जुबैदा के मन में एक शंका थी कि सलीम अभी पढ़ रहा है, जब तक वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, अनीसा और सलीम को अपनी जरूरतों के लिए भाईजान का मोहताज रहना पड़ेगा। इस समस्या का समाधान भी मन ने सुझा दिया। अनीसा इकलौती संतान है। देर-सवेर हमारा सब-कुछ उसे ही तो मिलना है। अगर शादी के बाद शुरू से थोड़ा-थोड़ा अनीसा को देती रहूंगी तो उनकी गृहस्थी में कोई दिक्कत नहीं आएगी। इसी तरह का चिंतन-मनन करते उसकी पलकों पर नींद हावी होने लगी और जल्दी ही वह सो गई।

**

अख्तर की 'हां' लेने के बाद एक दिन जुबैदा ने मौका देखकर अपने भाईजान से बात चलाई। अनीसा जैसी सुन्दर, सुशील, होशियार लड़की उसके सलीम की बहू बनेगी, सुनकर उसका सीना चौड़ा हो गया। उसे तो लगता था कि उसके खुद के व्यवहार को देखकर कौन भलामानस सलीम के लिए अपनी लड़की देने को तैयार होगा। फिर भी उसने एकदम से हामी भरने की बजाय अपनी बेगम से बात करने की कहकर फिलहाल के लिए मामला टाल दिया। जुबैदा को फिर भी कोई बेचैनी नहीं थी, क्योंकि वह अपनी भाभी के स्वभाव से भली-भांति परिचित थी। वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी। सलमा खुद लड्डू लेकर सुबह-सुबह ही आ पहुंची। अख्तर और जुबैदा के साथ बधाइयों का आदान-प्रदान हुआ। अनीसा कान खड़े किए हुए अपने कमरे से सब कुछ सुन रही थी। उसके तो पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।

अनीसा और सलीम अक्सर इकट्ठे ही स्कूल जाया करते थे। स्कूल जाते हुए अनीसा ने बताया - 'सलीम, तुम्हें पता है, आज सुबह-सुबह मामी हमारे घर आई थी?'

'नहीं तो। लेकिन किस लिए?'

'उन्होंने अम्मी-अब्बू को लड्डू खिलाये।'

'अम्मी तुम्हारे घर आई लड्डू लेकर, लेकिन किस खुशी में?'

सलीम की अनभिज्ञता का आनन्द उठाने के अन्दाज़ में अनीसा ने कहा - 'यह तो मुझे पता नहीं। मैं तो अपने कमरे में स्कूल के लिए तैयार हो रही थी।'

'जब कमरे में होते हुए भी तुझे अम्मी के आने, लड्डू लाने का पता चल गया तो मैं नहीं मानता कि तूने उनकी बातें ना सुनी होंगी।'

'अरे बुद्धु, घर में रहते हुए भी तुझे कुछ खबर नहीं रहती कि घर में क्या बातें हो रही हैं? मामी तेरी और मेरी शादी की बात पक्की कर गयी है।'

'सच्ची?'

'सच्ची।'

राह चलते और तो कुछ सम्भव नहीं था, अपनी खुशी ज़ाहिर करने के लिए सलीम ने अपनी दायीं बांह अनीसा की कमर में डाल ली।

उसकी बांह को परे हटाते हुए अनीसा बोली - 'अरे, यह क्या करते हो, कोई देख लेगा।'

'अब मुझे किसी का डर नहीं।'

'लेकिन मुझे तो है, जब तक बात खुलकर नहीं होती।'

'ठीक है, ठीक है। अब ज्यादा मत बन‌। छुट्टी होने पर देखूंगा।'

'अभी से?'

'अरे प्यार करूंगा, तेरी एक ना सुनूंगा।'

स्कूल की घंटी दूर से सुनाई दी तो दोनों बातें बीच में छोड़ दौड़ पड़े।

दोनों के मां-बाप ने तय किया कि बच्चों के इम्तिहान सिर पर हैं, तो इन्हें आराम से इम्तिहान देने लेने दें, फिर विवाह-शादी की रस्म शुरू करेंगे। जुबैदा ने अनीसा को सलीम से मिलने के लिए मना कर दिया और सख्त हिदायत दी कि उसे पढ़ाई पर ही ध्यान देना है, क्योंकि अब्बा चाहते हैं कि उसके बहुत अच्छे नंबर आयें।

अनीसा ने जब यह बात सलीम को बताई तो उसने कहा - 'अब हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे अम्मी-अब्बा को किसी शिकायत का मौका मिले। कुछ ही दिनों की तो बात है, फिर तो हम सदा-सदा के लिए एक हो जाएंगे।'

'तुमने तो इतनी आसानी से कह दिया, लेकिन अब पढ़ाई में मन कैसे लगेगा?'

'सब कुछ अपने मन-मुताबिक होने जा रहा है तो कुछ तो कुर्बानी करनी पड़ेगी। मैं तो अपने दिल को समझा लूंगा, तुम भी कोशिश करना।'

**

इम्तिहान खत्म होते ही सलीम और अनीसा के अम्मी-अब्बा ने उनके रिश्ते को रस्मोरिवाज पूर्ण कर जगजाहिर कर दिया और एक महीने के अन्दर ही दोनों का निकाह हो गया।

समय पर परीक्षा-परिणाम आ गया। दोनों ही बहुत अच्छे नंबरों से पास हुए। आबिद चाहता था कि सलीम किसी काम-धंधे में लगे, किन्तु सलीम के हठ और अख्तर के दबाव में उसका काॅलेज जाने का सपना पूरा हो गया। जब बात उठी अनीसा की आगे की पढ़ाई की तो आबिद ने किसी की न सुनी। उसका काॅलेज जाने का सपना टूट गया। अख्तर को भी निराशा हुई।

घर के कामकाज भी कोई इतने अधिक नहीं थे कि अनीसा को फुर्सत ही न मिलती। उसके पास पर्याप्त खाली समय रहता। और यह खाली समय व्यतीत करना उसे बड़ा मुश्किल लगने लगा। उसकी यह मन:स्थिति सलीम भी अच्छी तरह समझता था, लेकिन कर कुछ नहीं सकता था। एक दिन दोपहर को काॅलेज से वापस आने के बाद सलीम खाना खाकर लेटा हुआ था। रसोई से फारिग होकर अनीसा भी उसके पास आकर लेट गई। सलीम को जागते हुए देखकर कहा - 'सलीम, एक बात मेरे मन में आई है। यदि तुम्हारी रजामंदी हो तो मैं पढ़ भी लूंगी और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होगी।'

'वो कैसे?'

'मैं प्राइवेट तौर पर पढ़ाई करती रहूंगी, तुम्हारी किताबों से ही काम चला लूंगी।'

'दाखिले और इम्तिहान के वक्त क्या करेंगे?'

'तब तक घर वालों की ख़िलाफत ठंडी पड़ जाएगी। दूसरे, जब उन्हें पता चलेगा कि मैंने सारा कोर्स पढ़ लिया है तो मज़बूरन उन्हें इज़ाजत देनी पड़ेगी।'

सलीम ने अनीसा को बांहों में लेते हुए कहा - 'अरे वाह, तुम तो वाकई बहुत होशियार हो।'

'छोड़ो भी, दरवाजा खुला है।'

'तो क्या हुआ? मेरी ब्याहता हो, कोई भगाई हुई नहीं।'

इस प्रकार अनीसा खाली समय में पढ़ने लगी। ससुराल या मायके में इस बात का तब तक किसी को पता नहीं चला जब तक कि परीक्षा सिर पर न आ गई। सलमा ने दबी जुबां से और आबिद ने इसका जोरदार विरोध किया, लेकिन सलीम की जिद्द के आगे सबको हथियार डालने पड़े। और इस प्रकार तीन साल में दोनों स्नातक बन गये।

अब तो आबिद ने उसकी आगे की पढ़ने की इच्छा को मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया। हारकर उसने नौकरी के लिए हाथ-पैर मारने आरम्भ किए। पढ़ाई में तेज-तर्रार तो था ही, किस्तम ने भी साथ दिया। उसे तीन-चार महीने में ही बैंक की नौकरी मिल गई।

नौकरी मिल गई तो स्टाफ के साथियों के साथ उठते-बैठते शराब पीने की आदत भी पड़ गई। घर देर से आता तो अनीसा को बुरा लगता। इस बात पर कई बार कहा-सुनी भी हो जाती। एक दिन जब सलीम बैंक के लिए घर से निकलने लगा तो अनीसा ने कहा - 'आज टाइम से आ जाना, मेरा जन्मदिन है। रात का खाना बाहर खायेंगे।'

बैंक का काम खत्म कर सलीम जब घर के लिए चलने लगा तो उसके दो साथियों ने उसे घेर लिया और उसके मना करने पर भी हठात् उसे 'बार' में ले गये। उसने दोस्तों को कहा भी कि मेरी पत्नी का जन्मदिन है, मुझे जल्दी घर जाना है तो एक कहने लगा - 'यह तो और भी अच्छी बात है। अपनी बेगम के जन्मदिन की खुशी पहले दोस्तों के साथ तो बांट मियां, फिर बेगम को खुश कर देना।'

यह कहकर उसने वेटर को ऑर्डर कर दिया। दो पैग लेने के बाद सलीम ने उठने की कोशिश की, किन्तु उसके साथियों ने उसे उठने नहीं दिया। वही कहावत सिद्ध हुई कि पहले आदमी शराब पीना शुरू करता है, कुछ देर बाद शराब आदमी को पीने लगती है। कब दस बज गए, उन्हें पता ही नहीं चला। इधर घर में अनीसा ने अपने सास-ससुर को बाहर खाने की बात बता दी थी। इसलिए घर में खाना बनाने की किसी ने जरूरत नहीं समझी। जब आठ बज गए और सलीम का कहीं अता-पता नहीं था तो अनीसा का मन बेचैन होने लगा। वह मन-ही-मन कुढ़ने लगी। ऐसी भी क्या आफत आ गई कि जल्दी घर आने के लिए कहने के बावजूद रोज़ाना से भी लेट और अभी भी 'जनाब' का कहीं नामोनिशान नहीं। उसके सास-ससुर भी खुसर-पुसर करने लगे। नौ बज गए। आबिद के कहने पर सलमा दो जनों के लिए खाना बनाने लग गई। अनीसा ने रोका भी, मिन्नत भी की कि थोड़ा और इंतजार कर लें, किन्तु आबिद ने एक न सुनी और इस तरह आबिद और सलमा तो खाना खाकर अपने कमरे में टीवी ऑन कर सीरियल देखने लग गये और अनीसा आंगन में बैठी इंतजार करती रही। ऊपर आसमान में चांद गहराते बादलों में छिपा हुआ था। बीच-बीच में कभी बिजली भी कौंध जाती थी। उसे फिक्र थी कि बरसात आ गई तो सलीम रास्ते में ही भीग जाएगा।

सवा दस बजे सलीम को उसका एक साथी अपनी कार में घर के बाहर उतार गया। उसे डोरबेल बजाने का तो होश ही नहीं था। मुख्य द्वार को ही उसने हाथ से पीटा। अनीसा ने दरवाजा खोला। सामने सलीम था नशे में धुत्त। उसको कुछ याद नहीं कि अनीसा ने उससे सुबह कुछ कहा था। लड़खड़ाते हुए अन्दर आया। अनीसा ने उसे सहारा देने की कोशिश की, किन्तु सलीम ने उसका हाथ झटक दिया और बहकती आवाज़ में खाना मांगा।

उसकी हालत कैसी नज़रअंदाज़ करते हुए अनीसा ने सहज भाव से कहा - 'खाना तो बनाया नहीं, सुबह आपको कहा था कि आज खाना बाहर खायेंगे।'

नशे में तो वह था ही, भड़कते हुए बोला - 'हरामजादी, तुझ से एक खाना नहीं बनता। सारा दिन घर में पड़ी-पड़ी क्या करती रहती है? खसम सारे दिन का थका-हारा रात को घर आए, उसे तू खाना नहीं खिला सकती। मैं तंग आ गया तेरी इस किच-किच से। मैं तुझे तलाक़ देता हूं..... तलाक़, तलाक़, तलाक़। अब मेरे सामने से दफा हो जा।'

अनीसा की ज़िंदगी में यह पहली बार था कि सलीम इस तरह से व्यवहार कर रहा था। उसे बड़ा अचम्भा हुआ और दु:ख भी। किन्तु सलीम जिस हालत में था, कोई तर्क-वितर्क सम्भव नहीं था। इसलिए अनीसा ने केवल हाथ-पैर जोड़े। कहा, अभी खाना बना देती हूं। लेकिन सलीम के सिर पर तो भूत सवार था। उसने एक-ना सुनी और बोलने लगा - 'मैंने अपना फैसला सुना दिया है। मेरा-तेरा कोई रिश्ता नहीं रहा।' इतना बोलकर सलीम लड़खड़ाते कदमों से अपने कमरे में जाकर बिना कपड़े बदले बेड पर लुढ़क गया। अनीसा काफी देर तक आंगन में बैठी कलपती रही। सोचती रही कि यह क्या हो गया आज सलीम को। ऐसा तो वह न था। छोटी-मोटी तकरार, वो भी कभी-कभार, लेकिन अचानक इतना कठोर फैसला! उसके कुछ समझ में नहीं आया। आखिर वह उठी, कमरे में गई। देखा, सलीम औंधे-मुंह पड़ा है। उसने उसके ऊपर चादर दी और स्वयं वहां न लेटकर बरामदे में आकर दीवान पर लेट गई। आसमान की ओर देखती और अल्लाह से पूछती, यह किस जुर्म की सज़ा है। रात के दूसरे पहर तक करवटें बदलती रही, फिर कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला।

**

सलीम को ऊंची आवाज़ में बोलते सुनकर आबिद और सलमा भी अपने कमरे से बाहर आ गए थे। लेकिन उन्होंने कोई दखल नहीं दिया। सलीम द्वारा तीन बार 'तलाक' शब्द का उच्चारण सुनने के बाद वे तो तुरन्त अपने कमरे में लौट गए थे। जब आंगन से आवाजें आनी बंद हो गईं तो आबिद ने कहा - 'सलमा, सलीम को समझाने में तो ना-कामयाब रहा, किंतु जो मैं चाहता था, वह दारू ने कर दिया। अब आराम से इसकी दूसरी शादी कर पोते-पोतियों की किलकारियां सुनेंगे।'

'हां, इस लिहाज़ से तो यह ठीक ही हुआ। मैंने कई बार कहा, जाओ, डॉक्टर से चैक करवा लो, कभी मेरी बात ही नहीं सुनी।'

**

सुबह हुई। अलसाया-सा सलीम उठा। अपने-आपको देखा। यह क्या, मैं ऐसे ही बैंक यूनीफाॅर्म में ही सो गया था। रात को क्या हुआ था, उसे कुछ याद नहीं था। आंगन में आया। देखा, अनीसा रसोई में घुटनों में सिर दिए पीढ़ी पर बैठी है। उसे इस तरह बैठे देखकर पूछा - 'इस तरह क्यों बैठी हो अनीसा, चाय पिलाओ भई ताकि सुस्ती उतरे।'

अनीसा हरकत में आती या कुछ कहती, उससे पहले ही सलीम की आवाज सुनकर आबिद बाहर आया और बोला - 'अब तेरा इससे कोई रिश्ता नहीं रहा। तू रात को इसे तलाक़ दे चुका है। तेरे लिए चाय तेरी अम्मी बना देगी।'

'क्या कह रहे हो अब्बू, होश में तो हो?'

'हां, मैं तो होश में हूं, तू ही शायद होश में नहीं है। क्या तुझे याद नहीं कि रात को घर आकर तूने अनीसा से खाना मांगा था और इसके यह कहने पर कि खाना तो बनाया नहीं, तूने कहा था कि जो औरत अपने खसम को खाना नहीं खिला सकती, मैं उसे तलाक देता हूं। और तीन बार 'तलाक' बोलकर तूने इससे अपना रिश्ता सदा के लिए खत्म कर दिया था।'

'अब्बू, मुझे कुछ याद नहीं। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। अनीसा मेरी पत्नी है और मेरी पत्नी रहेगी।'

'बेटा, अब यह मुमकिन नहीं। हमारा मज़हब इसकी इजाजत नहीं देता।'

'मज़हब को मैं भी जानता हूं। अगर मैंने नशे में ऐसा-वैसा कुछ बक भी दिया था तो उसका कोई मतलब नहीं निकाला जा सकता। वह सब बेमतलब है।'

'मतलब कैसे नहीं? मैं अभी क़ाज़ी साहब को बुलाकर लाता हूं।' कहता हुआ आबिद तो तेज़-तेज़ कदम उठाता हुआ घर से बाहर हो गया।

**

सलीम अपने कमरे में आया और निढ़ालावस्था में कुर्सी पर बैठ गया। सलीम की बातें सुनकर अनीसा के मन को बड़ी तसल्ली हुई। उसे बेपनाह सुकून मिला। फुर्ती से चाय बनाकर वह कमरे में आई। सलीम को विचारों में खोया देखकर उसने चाय की ट्रे मेज़ पर रखी और कुर्सी के पीछे खड़ी होकर सलीम के बालों में आहिस्ता-आहिस्ता अंगुलियां फिराने लगी। फिर झुककर उसका मुख चूम लिया। सलीम ने उसे अपने सामने करते हुए कहा - 'अनीसा, रियली मुझे कुछ याद नहीं। अनजाने में, अनचाहे मैंने अगर कुछ भी ग़लत किया है या कहा है, मैं उसके लिए शर्मिंदा हूं। मुझे माफ कर दो। यह शराब भी ना, आदमी को शैतान बना देती है। मैं तेरे सिर की कसम खाकर कहता हूं कि कभी शराब को टच भी नहीं करूंगा।'

'आप चाय पी लो। रात को भी आप बिना खाए हो गये थे।'

'नहीं अनीसा, मैं तब तक चाय को हाथ नहीं लगाऊंगा, जब तक तुम मुझे माफ नहीं कर देती।'

'मैंने तो कब का माफ़ कर दिया।'

'कब?'

'मैंने तुम्हें चूमा था ना!'

'ओह!'

दोनों ने चाय के कप उठाए। अभी कप खाली भी नहीं हुए थे कि आबिद क़ाज़ी साहब को लेकर घर के अन्दर दाखिल हुआ।

जैसे बाहर से ही पुकारता आ रहा हो, आबिद ने दहलीज पर कदम रखते ही कहा - 'सलीम, क़ाज़ी साहब आये हैं।'

सलीम चाय बीच में ही छोड़कर आंगन में आ गया। क़ाज़ी साहब से दुआ-सलाम हुई। चाहे आबिद ने उन्हें सब कुछ बता दिया था, फिर भी  दीवान पर बैठते हुए क़ाज़ी साहब ने सलीम को संबोधित कर पूछा - 'हां तो बरखुरदार, क्या मसला है?'

'मसला तो अब्बू ने आपको बता ही दिया होगा।'

'उनको छोड़ो, मैं तुम्हारी ज़ुबानी सुनना चाहता हूं।'

सलीम ने सारी हकीकत उनके सामने बयान कर दी। सुनकर क़ाज़ी साहब बोले - 'बरखुरदार, शरीअत के मुताबिक एक बार तलाक़ देने के बाद तुम अनीसा को तभी पत्नी के तौर पर दुबारा अपना सकते हो, जब वह हलाला निकाह करके अपने खाविंद से तलाक ले ले।'

'मैं भी शरीअत के मुतअल्लिक कुछ-कुछ जानता हूं, क़ाज़ी साहब। पहली बात तो, क़ाज़ी साहब, यह है कि मैंने नशे की हालत में जो कहा, उसको कोई तरजीह नहीं दी जानी चाहिए। यह तलाक़ है ही नहीं। दूसरे, तलाक़ तभी तलाक़ माना जाता है, जब तीन महीने का वक्त गुज़र जाने के बाद भी मियां-बीवी में सुलह के आसार न रहें। हमारे मसले में तो मैं और मेरी बीवी दोनों ही एक-दूसरे के लिए जान तक देने को तैयार हैं। इसलिए बेमतलब की बहस छोड़िए। हमें अपनी ज़िन्दगी जीने दो। बल्कि मेरे अब्बा को भी समझाओ कि फिजूल में बात का बतंगड़ ना बनाएं।'

'बरखुरदार, तुम्हारे अब्बू तुमसे ज्यादा सयाने हैं। किसी भी सूरत में हलाला किए बिना तुम अनीसा को बीवी के तौर पर नहीं रख सकते। मज़हब हमें शरीअत से बाहर जाने की इजाजत नहीं देता।'

'तो क़ाज़ी साहब, आप भी कान खोलकर सुन लो, मैं अनीसा को नहीं छोड़ सकता और ना ही उसके पाक शरीर को हलाला के द्वारा नापाक होने दूंगा फिर चाहे हमें हमारा मज़हब ही क्यों ना छोड़ना पड़ा।'

सलीम की इतनी कठोर किन्तु स्पष्ट उद्घोषणा को सुनकर अनीसा दौड़कर उसके गले से लिपट गई और बाकी सभी को जैसे सांप सूंघ गया।

*****

लाजपत राय गर्ग, पंचकूला