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एकलव्य 3

3 परमहंस बाबा का सन्देश

जीवन में जब कोई नया कार्य आरम्भ किया जाए उसके बारे में समस्त योजनाएँ पूर्व में ही बना ली जावें।आज यही सोचकर निषादराज हिरण्यधनु और उनकी पत्नी सलिला युवराज एकलव्य को गुरूदेव द्रोणाचार्य के पास भेजने की तैयारी करने लगे। हिरण्यधनु ने उसे स्वर्ण मुद्रायें दी और संभलाकर रखने को कहा । वे उसे यात्रा के निर्देश दे रहें थे। यकायक वे बोले ‘‘मैं स्वयं आचार्य द्रोण के समक्ष उपस्थित होकर निवेदन करना चाहता था, लेकिन इन दिनों दस्युओं का आतंक अत्यधिक बढ़ गया है, इसी कारण मैं अपने पुरम को नहीं छोड़ पा रहा हूँ। मैंनें अपने विश्वसनीय गुप्तचर पुष्पक को तुम्हारे साथ जाने का आदेश दे दिया है। मैं जानता हूँ पुष्पक इतना प्रवीण है कि उसमें यथा समय उचित निर्णय लेने की क्षमता है।’’

उधर नगर भर में यह हवा तीव्र गति से प्रवाहित हो गई। सभी को ज्ञात हो गया था कि प्रातः ही हमारे युवराज शिक्षा ग्रहण करने के लिये आचार्य द्रोण के पास हस्तिनापुर जा रहे हैं। युवराज के साथी युवक जो उसके साथ धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे, इस कारण वे सभी प्रातः होते ही राजप्रासाद में उपस्थित हो गये थे। जब युवराज उस बड़े कक्ष में आकर उपस्थित हुये उस समय उनके कंधे पर सुन्दर तूणीर था, दूसरे कंधे पर सुसज्जित धनुष। कमर के नीचे श्वेत धोती शोभायमान थी। घुंघराले बाल कंधे तक लहरा रहे थे। बाजूबंद बंधे थे। प्रतिदिन की तरह आज भी युवराज कामदेव को लजा रहे थे। उनके श्याम वर्ण की आभा सभी के मनों को लुभा रही थी।

एकलव्य अपने साथियों को देखकर बोला, ’’निषादपुरम के वीरों, आज मैं गुरूदेव द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या ग्रहण करने के उद्देश्य से जा रहा हूँ। मेरा विश्वास है मैं जल्दी ही वहां से दक्ष होकर वापस आऊॅगा। उस समय आप सभी को धनुर्विद्या में दक्ष करूँगा। जिससे आपके निषादपुरम का यह वैभव सम्पूर्ण आर्यवर्त में फैल सके। मुझे विश्वास है मेरे आने तक आप लोग धनुर्विद्या के अभ्यास में सतत लगे रहेंगे। अच्छा अब मैं चलता हॅू-जै-जै सीताराम।’’

सभी मित्रों ने उसे विदाई प्रदान की, ’’जै-जै सीताराम।’’

एकलव्य अपने पिता जी एवं माता जी (पितृ प्रदत्त नाम बिड़ालाक्ष एवं महाराज हिरण्यधनु द्वारा प्रदत्त नाम सलिला) को प्रणाम कर उनसे अनुमति लेकर अपने पथ पर अग्रसर हो गया। उसके साथी उसे जाते हुये देखकर सोच रहे थे, ‘‘हमारे युवराज सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनकर ही वापस आयेंगे।’’

एकलब्य बिना पीछे देखे निर्लिप्त भाव से सीधे चले जा रहा था ।

वह घने जंगलों को पार करके निषादराज्य की अन्तिम सीमा वाले ग्राम में शाम होते होते पहुँच गया। उसने देखा ग्राम के पशु जंगल से लौट रहे हैं। यमुना किनारे एक सुन्दर बगीचे को देखकर वह पुष्पक से अनुमति लेकर बगीचे में ठहरने के उद्देश्य से मुड़ गया। पुष्पक ग्राम में भोजन पानी लाने के लिये चला गया ।

जब ग्राम के प्रधान चन्दन को यह ज्ञात हुआ कि बगीचे में रूकने वाला मुसाफिर कोई और नहीं हमारे युवराज एकलव्य हैं तो वह उसके स्वागत के लिये पुष्पक के साथ उपस्थित हुआ। एकलब्य ने उसे प्रणाम किया । चंदन उसे आशीष देने लगे । ठीक उसी समय धनुष वाण लिये एक युवती उसके पास आकर खड़ी हो गई। चन्दन ने कहा, ‘‘ये हमारी पुत्री वेणु है यह धनुष संचालन में दक्ष है। यह एक बार लक्ष्य को देख ले, उसके पश्चात भले ही इसकी आंखों पर पट्टी बांध दें। यह लक्ष्य को बेध सकती है।’’

एकलव्य को लगा कि यह तो अभ्यास में मुझसे भी आगे है। उत्सुकतावश एकलव्य ने उसका परीक्षण करना चाहा। चन्दन के इशारे पर एक पेड़ की टहनी से एक पुतले को टांग दिया गया। वेणु की आंखों पर पट्टी बांध दी गई।

एकलव्य और गुप्तचर पुष्पक मनोयोग से उसके बाण चलाने के उपक्रम को देखने लगे। सहसा उनने देखा कि वेणु के धनुष से सनसनाता हुआ तीर छूटा और लक्ष्य में जा लगा। पेड़ पर टंगे पुतले के माथे के ठीक बीचों बीच इस गति से तीर धंसा था कि पुतला तेज गति से घूम रहा था ।

यह अकल्पनीय दृश्य देखकर वेणु एकलव्य के मन को भा गई। उसकी आँखों का यह लगाव भरा भाव पुष्पक को अनुभव हो गया।

वह वेणु से बोला, ’’बेटी हमारे युवराज भी धनुर्धर हैं फिर भी वे धनुर्विद्या में दक्ष होने आचार्य द्रोण के पास जा रहे हैं। संयोग से हमारा पहला पड़ाव हमारे राज्य के समीपवर्ती आपके इस ग्राम में हैं। आप लोगों से मिलकर हमारे युवराज अत्यधिक प्रसन्न हैं।’’

ग्राम प्रधान चन्दन ने अपने अन्तर्मन की बात कही, ’’हम अपनी पुत्री के लिये धनुर्विद्या में पारंगत किसी युवक की खोज में है।’’

एकलव्य उनके भाव को समझ गया। पुष्पक ने एकलव्य की मुखाकृति पढ़ते हुये चंदन से कहा, ’’आप निश्चिन्त रहें। युवराज सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन सकें तो आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।’’

यह सुनकर एकलव्य को मन ही मन लगा- उसे निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना होगा।

रात्रि को शैया पर लेटे एकलव्य की आँखों के आगे वेणु का सांवरा और खूब गठीला सुचिक्कन बदन, बल्कल फाड़ने को आतुर यौवन चिन्ह ओर उस के बड़े-बड़े कजरारे नयन आते रहे।

रात्रि विश्राम के पश्चात भोर ही वहां से जाने के लिये वह तैयार होने लगा। वेणु हाथ में कुछ फल लिए उसे विदा करने आ गई। पुष्पक उन दोनों के मध्य विकसित लावण्य भाव का अनुभव कर दोनों के मध्य से हट गया।

वेणु ने एकलव्य से एकांत में केवल इतना ही कहा, ’’मैं आपकी प्रतीक्षा करूॅगी। मैंने सर्वश्रेष्ठधनुर्धर से विवाह करने की प्रतिज्ञा की है। आज मुझे लग रहा है, मेरी इच्छा पूर्ण होगी।’’

यह सुनकर एकलव्य ने कहा, ’’मेरी भी यही इच्छा है कि मैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनूँ।’’

यह सुनकर वेणु ने आंखें झुका लीं। इससे एकलव्य में कई गुना स्फूर्ति आ गई। वह वेणु के सौन्दर्य को गुनते हुये पथ पर आगे बढ़ गया।

दूसरे व तीसरे दिन का पड़ाव कुरू राज्य के ग्रामों में हुआ। चौथे दिन उन्होंने हस्तिनापुर की सीमा में प्रवेशा किया। वहां पहुँचकर वे निषादवस्ती की ओर मुड़ गये। निषादबस्ती के लोगों ने जब अपने युवराज को देखा तो वे भाव विभोर होकर उसका स्वागत करने लगे।

एक युवा ने एकलव्य का स्वागत करते हुये कहा-‘‘ आइये कश्यप ऋषि की श्रेष्ठ संतान,आपका हस्तनापुर की इस निषादबस्ती में आपका स्वागत है।

कश्यप ऋषि का नाम सुनते ही एकलव्य को याद हो आई आचार्य सुमत के द्वारा कही हुई यह कथा-दक्ष ने महात्मा कश्यप से जिन तेरह कन्न्याओं विधिपूर्वक विवाह किया था। उनकी संतानों से सारी सृष्टि का निर्माण हुआ है। इसप्रकार सृष्टि की रचना में महाऋषि का विशेष योगदान रहा है।

कश्यप ऋषि के पुत्र विभाण्डक थे।वे महाकुण्ड में कठोर तप कर रहे थे। एक दिन उर्वशी उनका तप भंग करने के लिये आई। उसने कामोत्तेजक मुद्राओं में नृत्य करना शुरू कर दिया। जिसके परिणामस्वरूप महर्षि स्खलित होगये। उनके वीर्य को एक पत्ते पर रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया। थोडत्री दूरी पर एक हिरणी जल पी रही थी।उसने वह वीर्य युक्त पत्ता निगल लिया। उसके गर्भ से एक बालक ने जन्म लिया। जिसके सिर पर एक सींग हुआ था। यही बालक श्रृंगमुनि कहलाया। ये कश्यप ऋषि के पोते हुये।

कश्मीर का निर्माण कश्यप ऋषि ने ही किया था। यहाँ जल के अनेक झरने थे। चारो ओर वर्फ ही वर्फ दिखाई देती थी। उन्हें तप करने के लिये यह उचित स्थान लगा। उन्होंने अथक परिश्रम से इसे अपने लिये उपयोगी बना लिया और वहीं कठोर तपक रने लगे। यह स्थल कभी उनका एहसान नहीं भूल सकता है।

कश्यप का कश्मीर, कश्यप की जाति, कश्यप के कार्य, यह सब मिलकर मेरे जीवन में एक अजूबा उत्साह उत्पन्न करता है।

रात्रि के समय में वृद्धजनों ने एकलव्य को हस्तिनापुर की सवर्णवादी राजनीति से अवगत कराया । एक वृद्ध बोले’-एकलव्य ! आपको यहां देख कर हम सबकी बरसों से दबी इच्छा पूर्ण होती नजर आ रही है। इन क्षत्रिय-ब्राहमणों ने युगों से समस्त प्रकार के अस्त्र शस्त्रों पर कब्जा जमा रखा है । जबकि हम उनसे किसी भी बात में कम नहीं है । ये लोग सिंह के शिकार से लेकर गुप्तचर जैसे काम में हमारी मदद लेते रहे है, पर हम को राज्य के किसी बड़े पद पर नहीं बैठाते । आप जेसे नौजवानों से लग रहा है कि आने वाला समय, हम पिछड़ों और जंगली जन जातियों का समय होगा ।

दूसरे वृद्ध ने कहा-इस में कोई सन्देह नहीं है, क्यों कि जंगली और प्शुपालक के रूप में युगों से अपमान झेलने वाली जाति के एक युवक श्रीकृष्ण ने इन दिनों हस्तिनापुर से लेकर सिंधु तक के राजाओं को अपनी बुद्धिमत्ता का लोहा मनवा लिया है । हस्तिनापुर की राजनीति तो उन्हीं के इर्द गिर्द चक्कर लगा रही है ।

वे हस्तिनापुर के भविष्य को लेकर चिंतित दिखाई दे रहे थे। इस बस्ती के लोगों का काम, भागीरथी में नौका चालन रहा है। इससे कुछ वृद्धजनों की पहुंच राजप्रासाद तक हो गई। एकलव्य को आचार्य द्रोण से मिलने की योजना बनाने में सभी ने विचार विमर्ष किया।

रात्रिभोज के प्श्चात ही उसे विश्राम का अवसर मिल पाया।

सुबह एकलव्य अपने विश्रामस्थल से रवाना हुआ ।

हस्तिनापुर, भव्य इमारतों का नगर था। इसकी शोभा देखते ही बनती। विशाल परकोटे के दरवाजे में प्रवेश करने के बाद मुख्य पथ के दोनों ओर कई कई तल उंचे बने भव्य भवनों की शोभा अवर्णनीय थी। एक वृद्ध निषाद पथ प्रदर्शन का कार्य कर रहा था।सम्पूर्ण पथ में एकलव्य गुरूदेव द्रोणाचार्य के लिये श्रद्धा और भक्ति सहेजता रहा। नगर में प्रवेश के समय तो उसके हृदय में श्रद्धा और भक्ति का सागर उमड़ रहा था। जब एकलव्य आचार्य द्रोण के भवन पर पहुंचा, उसने देखा कि एक प्रहरी अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित द्वार पर खड़ा था। एकलव्य ने गुरूदेव से मिलने के लिये प्रहरी से समय दिलाने का निवेदन किया।

पहरेदार सूचना लेकर अंदर चला गया। एकलव्य को द्वार पर ही ठहरना पड़ा। पहरेदार लौट आया। आते ही उसने कहा, ’’आचार्य अपने शस्त्र कक्ष में आने वाले हैं। आप लोग वहाँ पहुंच जाइये।’’

एकलव्य शस्त्र कक्ष में पहुंच गया। उस कक्ष की एक दीवार के सहारे विभिन्न प्र्रकार के धनुष टंगे हुये थे। दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के वाणों से उसे सुसज्जित किया गया था। तीसरी दीवार को अस्त्रों से सजाया गया था तथा चौथी तरफ अस्त्रों के विकास की कहानी सुशोभित थी। कक्ष को देखकर ही लग रहा था कि यह अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता किसी महान् आचार्य का सुसज्जित कक्ष है।

पता लगा कि आचार्य यज्ञ से निवृत्त होकर जलपान के निमित्त अन्दर चले गये हैं। यज्ञ का धुंआ यज्ञशाला को सुवासित कर रहा था। एकलव्य ने एक-एक अस्त्र को ध्यान से देखना आरंभ किया ।

इसी समय एक तेजस्वी ब्राह्मण कुछ राजकुमारों के साथ कक्ष में आते हुये दिखे। उन हृष्ट पुष्ट लम्बे चौड़े व्यक्तित्व को देखकर कौन आकर्शित नहीं होता। घनी दाढ़ी मूछें उनके व्यक्तित्व की आभा को द्विगुणित कर रही थी । एकलव्य ने अनुमान लगाया यही आचार्य द्रोण हैं !

आगन्तुको ने आचार्य कों दण्डवत प्रणाम किया। अपने सामने आ पहुंचने पर एकलव्य ने भी साष्टांग दण्डवत किया। भक्तिभाव से वह उनके चरण पकड़कर रह गया। अश्रु प्रवाहित हो उठे। उनका भक्तिभाव देखकर आचार्य द्रोण वोले, ’’वत्स उठो, तुम कौन हो और तुम्हारा आगमन किस उद्देश्य से हुआ है ?’’

साथ गया वृद्ध निषाद व गुप्तचर पुष्पक चुपचाप खड़े खड़े यह दृश्य देख रहे थे। एकलव्य आचार्य के प्रश्न का उत्तर दे रहा था, ’’मैं एकलव्य निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र आपसे धनुर्विद्या ग्रहण करने के उद्देश्य से आया हॅू।”’

आचार्य द्रोण ने यह संवाद सुन कर विस्मय से चौंक कर एकलव्य को देखा । वनवासी वस्त्रों से सजा हृष्ट- पुष्ट युवक , हीरे से चमकती तेज नीली आंखें , आंखों में शिष्य बनाने का याचक भाव, साथ में वनवासी वृद्ध और एक अन्य प्रौढ़ व्यक्ति।

द्रोणाचार्य की आंखें में द्वंद्व का भाव आया........एक पल को अपने राजकुमारों पर दृष्टिपात किया, अपनी शस्त्रश्शाला को देखा और फिर शून्य में ताकने लगे ।

सहसा उनकी आंखें में एक दृणता कोंधी । अपने बदन को कड़क किया । एकलव्य ने देखा कि उनका गठीला बदन एक कसमसाहट से भर गया है, अनेक उभरती नसें फूलती जा रही हैं । सारा बदन एक कंपकंपी से भरता दिखा, और उनके मुंह से धीर गंभीर आवाज गूंजी-‘‘असम्भव ! बिलकुल असम्भव !‘‘

‘‘ पर क्यों गुरूदेव, मुझमें क्या कमी है ?‘‘ एकलव्य का प्रश्न सुनकर सब उसके साहस पर चकित हो गये थे ।

एकलव्य की यह बात सुनकर द्रोणाचार्य उसे शिष्य स्वीकार करने, न करने का विश्लेशण करते हुये बोले, ’’मैं क्षत्रिय राजकुमारों का आचार्य हॅू। इन राजकुमारों के साथ तुम्हें शिक्षा देकर तुम्हारे साथ न्याय नहीं कर पाउॅगा। इसलिये मैं तुम्हें शिक्षा देने में असमर्थ पा रहा हॅू।”’

एकलव्य भाव पूर्ण शब्दों में बोला, ’’मेरी श्रद्धा और भक्ति में किसी प्रकार की कमी देखें तो कहें। गुरूदेव आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर लें।”’

यह सुनकर द्रोणाचार्य फिर कुछ क्षणों तक सोचते रहे। संभवतः उसे सन्तुष्ट करने के लिये उन्हें शब्द नहीं मिल रहे थे। उन्होंने कुछ शब्दों को वलात रोका और बोले, ’मैं इन राजकुमारों के साथ किसी निषाद को शिष्य नहीं बना सकता। कहां क्षत्रिय कहां निषाद! वत्स शूद्र जाति के युवक को क्षत्रिय राजकुमारों के साथ शिक्षा देना सम्भव नहीं है।”’

’’क्षत्रिय राजकुमारों के साथ शुद्र जाति के युवक को शिक्षा देना सम्भव नहीं हैं।’’मन ही मन एकलव्य ने इस वाक्य को अनेक बार दोहराया।

अब उसने चरण छोड़ दिये। वह स्वाभिमान से तनकर खड़ा हो गया। बोला, ’’आचार्य, मैं आपका गोरवशाली शिष्य सिद्ध हो सकूंगा । मुझ पर कृपा करें, अपने निर्णय पर आप एक बार और विचार करें और मेरे समर्पण को स्वीकार करलें।’”

इस प्रश्न के उत्तर में उनके शब्द निकले, ’’मैंने गहराई से सोच लिया। इन राजकुमारों के साथ तुम्हें शिक्षा देना सम्भव नहीं है।”’

एकलव्य ने देखा- आचार्य के इस उत्तर को सुनकर राजकुमार मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं।

यह दृश्य देखकर तो एकलव्य को वहां से लौटने का मन हो गया। वह समझ गया-वह इन अशिष्ट राजकुमारों के साथ कुछ भी नहीं सीख पायेगा।

उसने शिष्टता के लिये द्रोणाचार्य के पुनः चरण छुये और लौट पड़ा। वह वृद्ध निषाद एवं पुष्पक भी एकलव्य के पीछे पीछे निषादबस्ती तक चले आये।

जब यह समाचार उस वस्ती के लोगों ने सुना तो वे बहुत दुखी हुये। एक वृद्ध एकलव्य को समझाते हुये बोला, ’’युवराज निराश न हों। मैं हस्तिनापुर की राजनीति से पूर्व ही परिचित हॅू। यही होना था लेकिन अन्तिम क्षणों तक हमें आशा नहीं छोड़ना चाहिये। कहते हैं युवराज,संसार में किसी गुणवान की कोई कमी नहीं है। निश्चय ही भारत वर्ष में उनसे भी श्रेष्ठ आचार्य और भी होंगे । मेरी दृष्टि में आप अवन्तिकापुरी के सांदीपनी आश्रम में यहां से सीधे चले जायें।”’

यह सुनकर पुष्पक बोला, ’हम लोग यहां न आकर सीधे सांदीपनी आश्रम में गये होते तो निश्चय ही निराश होकर नहीं लौटना पड़ता। वहां भेद भाव की खाई नहीं है।यहाँ राजपरिवार द्वारा संचालित शिक्षा प्रणाली है और उस गुरूकुल में आचार्य के स्वशासन की। एक में बाह्य चमक-दमक है दूसरी में सादगी।

इस समय एकलव्य सोच के गहरे सागर में डुबकियाँ लगा रहा था। उसे इनकी ये बातें सुनाई ही नहीं पड़ रहीं थी। निषादबस्ती के लोग यह समाचार सुनकर एकत्रित हो गये। सभी एकलव्य को समझाने का प्रयास कर रहे थे, ‘’युवराज आप निराश हो गये तो हमारा अस्तित्व हमेशा हमेशा के लिये ही समाप्त हो जायेगा।’’

वे इस कथन से एकलव्य में स्फूर्ति भरने का प्रयास कर रहे थे। एकलव्य उन सबके समक्ष अपने आपको, सहज प्रदर्शित करने का प्रयास कर रहा था।

दूसरे दिन प्रातःकाल ही गुप्तचर पुष्पक के साथ एकलव्य ने हस्तिनापुर छोड़ दिया।

हस्तिनापुर से प्रस्थान करते ही एकलव्य के अन्तर में परमहंस जी के शब्द गूँजने लगे, ’तेरे आचार्य तो द्रोणाचार्य ही हैं।” .........किन्तु कहां बने द्रोणाचार्य मेरे आचार्य़ !.......... क्या परमहंस जी ने असत्य कह दिया। सम्पूर्ण निषादपुरम में यह विश्वास है कि परमहंस जी जो कुछ कहते हैं सत्य ही कहते हैं। यह सत्य कहां निकला ?....क्यों भेजा था उन्होंने मुझे इनके पास ?... द्रोणाचार्य की शिक्षा व्यवस्था की चमक दमक की बातें सुनकर मेरा मन भी तो यहां आने के लिये व्यग्र था। परमहंस जी मेरे मन की बातें जान गये होंगे। इसीलिये उन्होंने मुझे यहां भेज दिया।

परमहंस जी के शब्दों को एकलव्य सम्पूर्ण पथ में उलट पुलट कर देखता रहा। अनेक बार द्वन्द में निषादपुरम का पथ छोड़कर अन्यंत्र जाने का मन बना। उसने पुष्पक से कहा तो पुष्पक बारम्बार उसे समझाता रहा। उसे उसकी एक ही बात निषादपुरम पहुँचने के लिये बाध्य करती रही- “एक बार परमहंस जी से मिलकर तो देख लें। निश्चय ही उनके शब्दों का कोई दूसरा अर्थ होना चाहिये। परमहंस जी उस दिन आपके अल्प आग्रह पर ही राज प्रासाद चले आये। हमें यह सन्देश देने के बाद, तत्क्षण लौट भी गये।‘‘

इसी चिन्तन से प्रभावित होकर एकलव्य निषादपुरम पहुँच गया।

सम्पूर्ण निषादपुरम में एकलव्य के वापस आने की बात फैल गई। ग्रामवासी एकलव्य के ही नहीं बल्कि पूरे निषादपुरम के भविष्य के बारे में चिन्तित दिखाई देने लगे।

एकलव्य तो परमहंस जी से अपना प्रश्न लिये हुये हस्तिनापुर से आया था। वह घाट पर पहंुचते ही निषादपुरम में उनकी उपस्थिति से अवगत हो गया। उसे पता चल गया कि परमहंस बाबा शिवालय के चबूतरे पर विराजमान हैं। वह सीधे राजप्रासाद न जाकर बाबा के पास पहुंच गया।परमहंस जी की दृष्टि जैसे ही एकलव्य पर पड़ी। वे उसकी कोई बात सुने बिना ही एकलव्य से बोले, ’’वत्स एकलव्य, तुम्हारे गुरू तो द्रोणाचार्य ही हैं।’

उनकी यह बात सुनकर वहां उपस्थित लोग सोच रहे थे, ‘‘द्रोणाचार्य ने हमारे युवराज को शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया। इस सब के पश्चात भी परमहंस जी ये क्या कह रहे हैं, ’’तुम्हारे गुरू तो द्रोणाचार्य ही हैं।”’

उत्तर सुनकर एकलव्य से चुप न रहा गया। प्रश्न कर दिया, ’’बाबा अब वे मेरे गुरू कैसे ? मैं समझा नहीं।’”

परमहंस जी ने एकलव्य की बात सुनी और बोले, ‘’सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना है तो श्रद्धा और विश्वास से उनको प्रतीक मानकर सतत् अभ्यास कर। जाऽऽ तेरे गुरू तो द्रोणाचार्य ही हैं। वत्स तेरी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।’’

एकलव्य ने देखा कि उस समय वहां अधिकांश निषादपुरम उपस्थित था।

निषादराज हिरण्यधनु भी वहां आ पहुंचे थे उनके अन्तर में परमहंस जी के प्रति श्रद्धा और विश्वास है ही, वे अनुभव कर रहे थे, कि परमहंस जी का श्रद्वा और विश्वास के साथ सतत् अभ्यास का संदेश तो सार्थक है लेकिन द्रोणाचार्य का प्रतीक स्थापित करने की बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी।

सांझ ढले सब लोग अपने अपने घर को लौटे और परमहंस बाबा फिर अज्ञात स्थल की ओर निकल गये ।

निषादराज फिर परेशान से होकर अपने महल में टहल रहे थे ।