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यादों के रंग

यादें

आज न जाने क्यो मन में अजीब सी बैचेनी हो रही थी,
शाम के छे बजने को थे,सूरज की किरणो की वो लालिमा, चारो तरफ ऐसे फैले हुए थी,मानो जैसे की पूरे वातावरण को किसी लाल
रंग की चादर ने अपनी आगोश में ले लिया हो।

मैं इस नजारे को बड़े शांत चित्त होकर अपनी छत पर आराम कुर्सी लगाकर बैठे देख रहा था। घर से लगभग बीस कदम आगे बहुत बड़ा आम के पेड़ों का बागीचा था,

जहां कि बहुत सारे पक्षियों का बसेरा था । शाम हो जाने पर सारे पक्षी झुंड बनाकर अपने अपने आशियानों में लौटते ,और पेड़ो पर बैठ कर उनका वो चहकना आस पास के बातावरण को कुछ समय के लिए अपने कौतुहल से भर देता ।
ये दृश्य काफी लुभावना हुआ करता था,जिससे दिल को बहुत अच्छा लगता ....

आज मैं काफी असहजता महसूस कर रहा था,जो मुझे अपने अतित में धकेले जा रही थी ।आज मुझे काफी अकेलापन महसूस हो रहा था ।
मुझे आज ऋचा की बहुत याद आ रही थी,ऋचा वो, जो मेरे जीवन का वो अधूरा सपना जिसे मैं आज तक नही भुल पाया ।
ऋचा मेरे जीवन का वो अतित,जो मेरे यादों में सिमट कर रह गयी।
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हमारा गाँव बिहार के कैमूर जिले में था,गाँव का नाम पहरमा,हमारा गाँव चारो ओर से हरे भरे खेतो से घिरा हुआ था,और एक बहुत बड़ा बागीचा था जहां से एक स्टेट हाईवे ( सड़क ) निकला था सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि गाँव के पूरब दिशा में एक बहुत बड़ी नहर थी,जो दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बहती थी । शाम के वक्त का वो नजारा देखते ही बनता था ।

एक वो समय था,जब हम बेपरवा, और आवारो,निठल्लों कि तरह गाँव की गलियों में इधर उधर गुमा करते,न किसी की परवाह न किसी बात का गम हम अपनी ज़िंदगी के उन पलों को एक अल्हड़ की तरह ब्यतीत करते।

हम दो दोस्त थे मैं (सोनू) और रोझन पांडेय, वैसे कहने को तो हमारी मंडली में साथ आठ लड़के थे लेकिन रोझन से हमे बहुते लागव था। हो भी क्यो न वो हमारे सुख दुख में बराबर के हिस्सेदार जो ठहरे।

हमारी चाल ढाल को लोग कतई पसंद नही किया करते, दूसरे तो दूसरे हम हमारे अपनो को भी फूटी कौड़ी नही सुहाते थे ।
घर में हमे कई अलग अलग उपलब्धियां से नवाजा जा चुका था जैसे निकम्मा,गुमक्कड़,नालायक,लोफर नकारा और भी बहुत सारी....
घर वाले भी निठल्ला क्यों न कहते, रोज रोज जो हम सुबह होते ही अपनी साइकिल को साफ सुथरा करके सर में पानी के छींटे मारकर थोड़ा सा सरसो का तेल लगाकर अपने बालों में कंघी करके गाँव के पुलिया पर जा कर यार दोस्तो के साथ बड़ी बड़ी बातें बनाते और किसी चलते फिरते मुसाफिर की टाँग खीचते,जिससे हमें काफी खुशी मिलती,आश्चर्य की बात तो ये थी,कि इस खुशी के चक्कर मे हमे कभी कभार गालियां भी मिलती।

गाँव मे हमारी बड़ी आलोचनाएं होती लेकिन हम तो ठहरे अल्हड़ जिसे इन सब बातों की परवाह ही कहा।
एक दिन हमारे गाँव के ही सरपंच जी हमारे दरवाजे पर आये,और जोर जोर से किशनलाल किशनलाल कह कर पुकारने लगे। ( किशनलाल हमारे पिता जी का नाम था ) पिता जी बाहर निकले और सरपंच जी का आना उन्हें आश्चर्यचकित कर गया।लेकिन उन्होंने सरपंच जी की आओ भगत की और उन्हें जलपान कराया,
बड़े ही इच्छुक और ब्याकुल हुये जा रहे थे किशनलाल कारण जानने के लिये
की अचानक सरपंच जी ने अपना प्रस्ताव रखा,और बोले आप अपने लड़के को हमारे बड़े बेटे ( दीनदयाल ) के साथ शहर भेज दो, यहाँ वो निठल्ला आवारा लड़को के साथ घुमता है ,वहाँ वो दो पैसे का आदमी बन जायेगा,वैसे भी दीनदयाल को एक लड़के की जरूर है ।
इससे बड़ी खुश खबरी क्या होनी चाहिये किशनलाल को,सरपंच जी की बाते सुनकर किशन लाल बहुत खुश हुये ।

खुश भी क्यो न हो कोई पिता ये नही चाहता कि उसकी कोई औलाद आवारा या निकम्मा गुमता फिरे।ऊपर से फिर वो दो पैसे कमाने लायक बन जायेगा वो भी शहर जा कर ।

हमे भी बहुत खुशी थी जो इस बहाने शहर जाने का मौका मिला था।क्योकि रोज रोज अपनी इन उपलब्धियों को सुनकर हम भी थक चुके ते,कुछ नयापन चाहते थे अपनी इस अल्हड़ सी ज़िन्दगी में,

अगली दिन हमने दीनदयाल जी के साथ जाने की तैयारी कर ली,दीनदयाल जी हमारे घर पहुँच चुके थे,इधर हम अपने मित्र रोझन के पास भेंट करने पहुँचे,क्योंकि अब हम शहर जो जा रहे थे,क्या पता अब कब मुलाकात हो,रोझन से मिलकर हमने उनसे विदा ली,और घर आकर माँ और पिता जी के चरण स्पर्श किये और फिर दीनदयाल जी के साथ हो लिए ।

शहर आकर हमने ,वो घनी आवादी ऊची ऊची बिल्डिंगे,सड़क पर गाड़ियों के हॉर्न का शोर आदमियों में भागम भाग की होड़ ऐसा प्रतीत होता हुआ यहां का नजारा,वाकई शहर आकर हमने देखा कि गाँव की अपेक्षा वहाँ का माहौल बहुत ही अलग था।

हम दीनदयाल जी के बंगले पर पहुचे,उनका वो आलीशान बंगला किसी महल से कम नही था,वैसा बंगला हमने कभी फिल्मो में देखा था,दीनदयाल इतने बड़े बंगले के मालिक होने के साथ साथ वो एक बहुत अच्छे इंसान थे।

दीनदयाल जी ने हमे अपने परिवार वालो से मिलाया,परिवार में एक लड़का हर्षित जो सोलह साल का था,जिसने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया मैंने उसका प्रणाम स्वीकार किया,परन्तु ये माहौल देख कर मैं चकित रह गया,

शहर में रहने के साथ साथ संस्कार में गाँव की छवि नजर आ रही थी । उनकी एक लड़की जिसका नाम ऋचा ,पच्चीस या छब्बीस साल की उम्र,श्यामला रंग, हिरनी जैसी बड़ी बड़ी आँखे,वो नुकीली पलके आंखों में वो हया माथे पे चमक, रेशम जैसी लंबी लंबी जुल्फे,जैसे कोई अप्सरा हो।

ऋचा को देखकर मैं थोड़ा सकपकाया हुआ था,परन्तु वो मुझसे बड़ी प्रतीत हो रही थी लिहाजा उन्हें मैंने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया उन्होंने भी मेरी तरह हाथ जोड़ कर मेरा अभिवादन किया।

दीनदयाल जी की पत्नी का बीते कुछ समय पहले देहांत हो चुका था।दीनदयाल जी का खुद का कपड़ो का व्यपार था ।उन्हें एक ऐसे इंसान की जरूरत थी, जो उनके परिवार के साथ साथ बंगले की भी देख रेख कर सके।

अब दीनदयाल जी ने मुझे रहने के लिये एक कमरा दिखाया जो काफी बड़ा था,और काफी सुंदर था,दीनदयाल जी मुझे फ्रेश होने के लिये बाथरूम की तरफ इशारा करते हुए कहा जाओ स्नान कर के तैयार हो जाओ,

मैं बहुत खुश था । फ्रेश हो कर आने के बाद , दीनदयाल जी ने मुझे नास्ते के लिए आमंत्रित किया, वो बड़ा सा डाइनिंग टेबल जैसा कि फिल्मो में सब एक साथ बैठकर ब्रेकफास्ट करते है, उसी तरह से हम सब साथ में बैठ कर नास्ता करे हुये।

इस तरह का नजारा सिर्फ मैने फिल्मो में देखा था। दीनदयाल जी ने मुझे बताया कि आज से तुम यहाँ की सब चीजों की देख भाल करोगे यही तुम्हारा काम काज है और साथ साथ हर्षित और ऋचा का भी ख्याल रखोगे।

हमारे अलावा एक काम करने वाली बाई भी वहां रहती थी जो घर के सारे काम देखती थी।उसका नाम सुरेखा था।

धीरे धीरे दिन बीतते गये,और मैं दीनदयाल जी के परिवार के साथ घुल मिल गया। अचानक एक दीन दीनदयाल जी को अपने व्यापार के सिलसिले के लिऐ दूसरे शहर जाना हुआ।

उन्होंने मुझ पर भरोसा जताते हुऐ, बोला कि मैं कुछ दिनों के लिए दूसरे शहर जा रहा हूं, तुम सबका ठीक से ख्याल रखना।मैने उनकी बातों का सम्मान करते हुऐ हा में सर हिलाया।और अगले पल वो वहां से चले गये।

अगले दिन छे बज रहे थे कि अचानक ऋचा ने मुझसे कहा कि वो अपनी फ्रेंड से मिलने ,उसके घर जा रही है वहां एक छोटी सी जन्मदिन की पार्टी रखी है।मुझे आने में थोड़ा लेट होगा, तुम और हर्षित डिनर कर लेना। ऋचा मुझसे दो साल बड़ी थी।लेकिन अभी मेरी जिम्मेदारी थी उनका ख्याल रखना । जो मैंने ठीक है समय से आ जाना की उन्हें हिदायत दी।

मैं घर के आगे गार्डन में टहलने लगा, धीरे धीरे अब अंधेरा होने लगा था। तभी सुरेखा ने आवाज दी भैया जी डिनर में क्या लेंगे आप, मैंने कहां हर्षित से पूछ लो क्या खायेगा बो ?

समय बढ़ता जा रहा था मुझे ऋचा की फिक्र हो रही थी,वो अभी तक नही आई ।ठंडी का समय था 9 बजने को थे, मन में उल्टे सीधे ख्याल आ रहे थे,जैसे जैसे समय बड़ रहा था वैसे वैसे मेरी बैचेनी बढ़ती जा रही थी।तभी मैंने सुरेखा से कहा,तुम हर्षित को डिनर करा दो और तुम कर लो मैं बाद में डिनर कर लूंगा।

मैं बाहर निकल कर गुमने लगा, काफी समय हो चुका था ऋचा को गये हुये अभी तक उसका कोई ठिकाना नही था । उस शहर से मैं ज्यादा बाकिफ नही था। रात बढ़ती जा रही थी,इधर हर्षित और सुरेखा सो चुके थे।मेरी नजरे सिर्फ गेट की तरफ ही लगी हुई थी,कि अचानक गेट खुला रात के तकरीबन ग्यारह बज रहे थे,सामने से ऋचा अंदर की ओर आ रही थी पाँव लड़खड़ा रहे थे,मैं दौड़ के उसे ओर लपका जैसे मैं उसके पास पहुँचा तो वो लड़खड़ाते हुये मेरी तरफ गिरी मैंने उसे पकड़ा,देखा कि उसने शराब पी रखी थी मुझे इस दृश्य पर यकीन नही हुआ,उसकी आँखों में आंसू छलक रहे थे,उसने मुझसे कहा मुझे छोड़ दो मैं ठीक हूं।

मैंने कभी सोचा नही था, कि ऋचा इस तरह हरकत करेगी, मैं उसे उसके बैड रूम तक ले गया।और उसे बैड पर लेटा कर दूर सोफे पर जा बैठा।

और सोच मैं पड़ गया आखिर ऐसा क्या हुआ जो ऋचा रो रही है,और उसने शराब पी, तभी अचानक उसने मुझसे पानी मांगा, मैं अपनी जगह से उठा और पानी लाने के लिये बाहर निकला फ्रिज से पानी की एक बोतल लिये जैसे ही कमरे की और बड़ा तो देखा ऋचा जोर जोर से रोये जा रही थी,मैं उसके पास गया मैंने पूछना चाहा क्या हुआ तुम क्यो रही हो,लेकिन उसने कहा मुझे अकेला छोड़ दो,मुझे कुछ ठीक नही लगा और ऋचा को छोड़ अपने कमरे जा लेटा,

ऋचा एक समझदार लड़की थी,परन्तु उसने ऐसा क्यों किया होगा मन में कई तरफ तरह के सावल उठने लगे,मुझे ऋचा की ऐसी हालत देखी नही जा रही थी।

मैं काफी सहमा हुआ था,आखिर क्या हुआ होगा जो उसने शराब पी है।

मैं उठकर उसके कमरे में चला गया वो अब भी बैड पर लेटे सिसके जा रही थी। न चाहते हुये भी उसे देख कर मेरी भी आँखे नम होती जा रही थी । मैं उसके सिरहाने जा कर बैठ गया।और उसके माथे को सहलाने लगा, और चुप हो जाओ आखिर क्यों रो रही हो,कुछ तो बताओ क्या हुआ तुम्हे किसी ने कुछ कहा,क्या बात है तुमने आखिर ये शराब क्यो पी।

ऋचा रोते हुये मुझसे लिपट गई और जोर जोर से कहने लगी, बोली उसने मेरे साथ चीट किया वो धोकेबाज मैं उससे अब कभी नही मिलूंगी ।और जोर जोर से रोने लगी मैं उसकी इतनी बाते सुनकर अब सारी बाते समझ चुका था,

रोते रोते वो मुझे पकड़े अब सो चुकी थी,चेहरे पर वो मासूमियत,बला की खूबसूरती।

कैसे है वो हैवान जो इनके साथ खेलते है।और अपनी जरूरते पूरी होने पर इन्हें इस तरह छोड़ देते है।
रात यू ही गुजरती जा रही थी,मैंने ऋचा के पास से जैसे ही हटने की कोशिश की उसने अपनी पकड़ को और मजबूत कर लिया,
मुझे काफी आश्चर्य सा महसूस हो रहा था,ऋचा का यू मुझे कस के पकड़ लेना । सहमा हुआ सा मेरा चेहरा, ऋचा को ऐसी हालत में देखकर,काफी द्रवित हुये जा रहा था ।

मन में समुन्द्र की लहरों सी बैचेनी,जो मुझे झकझोरने लगी, उसका यू मुझसे लिपटना शायद वो नशे की इस अवस्था में,मेरे मन में एक हलचल सी पैदा कर रहा था ।

वो रात मुझे कठघरे में खड़ा करते हुये, मुझसे बस यही पूछ रही थी,क्या रिश्ता है तुम्हारा ? जो इस तरह तुमने उसे अपनी आगोश में समेट रखा है,कई तरह के सवालों ने मेरे इस चंचल मन को उलझन मे डाल रखा था।

यही सब सोचते सोचते मेरी कब आँख लग गयी मुझे ये पता भी न चला, और मैं जिस अवस्ता में बैठा था, उसी अवस्था में नींद ने मुझे अपनी आगोश में समा लिया।

सुबह के पांच बज रहे थे,जब ऋचा ने मुझे जोर से धक्का दीया और मैं नीचे कि ओर जा गिरा,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे छूने की, मैं अभी संभल पता कि चटाक से मेरे गालो पर एक थप्पड़ जड़ दिया।

मैं इस स्थिती से अभी उभरा ही नही था कि उसने मेरे ऊपर एक लांछन लगाते हुऐ,कि तुम सब लड़के एक से ही होते हो अकेले लड़की देखी नही कि बेहसि दंरिदे बन जाते हो।

इतना सुनने के बाद मेरा दिल एक मोम की तरह पिघलते हुये आंखों से आंसुओ की धारा में तब्दील होते हुये मेरे गालो पर आ टपका।और मैं कमरे से बाहर निकल कर आगे के गार्डन में जा कर बैठ गया।

आज मुझे उसके किये पर पछतावा न होने के सिवा उस पल के बारे में सोच कर हैरानी हो रही थी,अगर आज मैं उस जगह न होता तो शायद वो किसी और के साथ भी इसी तरह से रोती बिलखती और उसे भी अपने बाहो में ऐसे ही भर लेती,तब शायद परिणाम ये नही होते।


ऋचा का मेरे मन में बार बार ख्याल आना लाजमी था,मुझे एक डर अंदर ही अंदर खाये जा रहा था,जो हालात कुछ समय पहले घटित हुऐ थे।शायद ऋचा को मैं कही हमेशा हमेशा के लिये खो न दू ।

क्योंकि मैं ऋचा से बेइंतिहा बेपनाह मोहब्त जो करता था। लेकिन कभी जताने की हिम्मत नही हुई,जता के भी कुछ हासिल न होने की उम्मीद में मैंने अपने इन अरमानो को अपने मैं समेट रखा था,कि शायद वो मुझे अपने लायक न समझे ।


धीरे धीरे उजाला बढ़ने लगा था,और मैं ये सोच कर परेशान होने लगा था,की मैं अब किस नजरो से ऋचा का सामना करूँगा ।इसी उधेड़ बुन मैं इधर उधर पागलो की भांति टहलने लगा अब धूप भी काफी तेज होती जा रही थी,कि अचानक सुरेखा न आवाज दी भैया जी साब जी का फोन आया है,आपसे बात करना चाहते है।

मेरे मन में काफी डर होने लगा कि शायद ऋचा ने वो रात की आपबीती दीनदयाल जी को कहि बता तो नही दी।ये सोच कर तो मानो मेरे पाँव तले जमीन खिंसकती चली जा रही थी,मैं अंदर हॉल में टेलीफोन के पास आया रिसीवर होल्ड पर रखा हुआ था,मैंने वो रिसीवर कापते हाथों से, हकलाई आवाज में हे.लो.. हेलो करते हुऐ,उधर से दीनदयाल जी ने हा हेलो कैसे हो ऋचा और हर्षित दोनों कैसे है।ये सुन कर मेरे जेहन को सुकून मिला,जी हम सब यहां ठीक है ,आप कैसे है दीनदयाल जी ने कहा मैं अगले हप्ते तक आ जाऊँगा तुम सबका ख्याल रखना कहकर टेलीफोन काट दिया ।

साढ़े दस बजने को थे, पर ऋचा अबतक कही नजर नही आ रही थी,मैंने सुरेखा से पूछा ऋचा कहा है,


तो उसने बताया कि ऋचा मेम का आज मन ठीक नही इसलिए वो आज अपने ही कमरे में आराम कर रही है ।

मैंने कमरे में जाकर देखा तो ऋचा अपने बैड पर बैठी थी। चेहरे से वो कोमलता के भाव प्रकट होते हुये, बड़े बड़े नयन किसी पछतावे की आग में झुलसता वो बदन किसी गहरी चिंता में डूबी हुई ।

मुझे अपने साथ किये गये उसके इस बर्ताव का जरा भी दुख नही था।मुझे देखते ही वो अपने किये पर पछतावा करते हुऐ, मुझे क्षमा कर दो,मैंने तुम्हारे साथ अच्छा नही किया,और वो मुझसे लिपट गई,उसकी सांसो की वो गर्मी उसके दर्द को बयां कर रही थी।

मैं उसके इस रवैये को समझ न सका। कि वो मेरे ऊपर इतना नाराज होने के बाबजूद मुझसे माफी क्यो माग रही थी,मैं कुछ समझ पाता कि सुरेखा अंदर आई,सुरेखा को देख कर मैं घबरा गया। जैसे ही मैंने पीछे हटना चाह ऋचा मुझे अपनी बाहों में कस कर जकड़ लिया, मैं कुछ बोल पता कि ऋचा भरभराये हुये स्वर में बोली आज सुरेखा न होती तो मुझे शायद अपनी गलती का एहसास नही होता।

मैं कुछ समझ पाता कि अचानक सुरेखा ने, आप ऋचा से कितनी बेपनाह मोहब्त करते है,वो उस रात मैंने जाना,जब आप ऋचा को उस हालत में देख कर बैचेन हो उठे थे,जब आप अपने कमरे से निकल ऋचा के कमरे प्रवेश करने के बाद उसके सर को अपनी गोद में रखकर उसे चुप करा रहे थे,वो सारा नजारा मैंने अपनी आँखों से देखा था।इतना सुनने के बाद मैं काफी द्रवित होते जा रहा था।

मेरी आँखों में उन आँसुयो ने भी अब जगह बना ली,और वो मेरी इस खुशी को देखकर बाहर निकलने के लिए जैसे तड़फ रहे हो।
मेरे आँसू भी न बड़े मतलवी है,मेरी खुशी क्या देखी ये निकलना शुरू हो जाते है।

( ये मोहब्त भी ऐसी चीज हैं न रोने देती है न हँसने देती है )

मैं बड़ा खुश था ये जानकर की ऋचा भी उस हादसे के बाद मुझसे अब प्यार करने लगी थी।लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंजुर था।कुछ ही दिन बीते थे, कि दीनदयाल जी शहर से बापस लौट आये,उन्हें देखकर ऋचा और हर्षित बड़े खुश नजर आ रहे थे, हो भी क्यो न पूरे बारह दिन बाद जो वो पिता से मिले थे।

अगले दिन हम सब साथ बैठे लंच कर रहे थे,तभी दीनदयाल मुझसे कहते हुये की अब तुम गाँव चले जाओ,मैंने ऋचा की शादी ठीक कर दी है लड़का फॉरन ( विदेश ) में रहता है।ऋचा की शादी के बाद मैं भी अपना व्यपार यहाँ से खत्म कर के फॉरन में ही शेटल हो जाऊंगा।

इतना सुनते ही मेरे होश उड़ गए,मैं ऋचा की ओर टकटकी लगाकर और वो मेरी तरफ एक टक देखे जा रही थी,और फिर पूरे माहौल में सन्नाटा पसर गया,

तभी दीनदयाल जी ने अपना लंच ख़त्म किया और मुझे आदेश देते हुये,अगले पल कहा तुम्हारे लिये मैंने टिकट और पैसे जो तुम्हारी तनख्वा है वो तुहारे कमरे की टेवल पर रख दिये है ध्यान से ले लेना,और हॉल से बाहर निकल गये ।

मैं भी वहाँ से उठकर अपने कमरे मे चला गया,मेरे ही पीछे पीछे ऋचा भी मेरे कमरे में दाखिल हुई, और आते ही मेरे गले से लिपटकर बच्चों की तरह रोने लगीं । मुझे भी काफी दुख हो रहा था उससे दूर होने का, हम एक दूसरे के गले लग कर बहुत रोये, लेकिन हमारे पास वो हिम्मत नही थी जो शायद दुसरो के पास होती है ,दीनदयाल जी बहुत अच्छे व्यक्ति के साथ एक बहुत अच्छे पिता भी थे।

हम नही चाहते कि हमारी वजह से उन्हें किसी परेशानियों का सामना करना पड़े। और किसी भी तरह से बदनामी का कलंक ले कर ता उम्र ढोना न पड़े।

अगले दिन मैं अपने साथ उन हसीन पलो की यादों को समेटे अपने गाँव लौट गया ।

बस इतनी सी थीं मेरी यादें😥


समाप्त....🙏🏻🙏🙏🏻



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