रत्नावली 21 अन्त ramgopal bhavuk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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रत्नावली 21 अन्त

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

इक्कीस

वृद्धावस्था आने पर ज्ञानी लोग महसूस करने लगते हैं कि वे मृत्यु के निकट पहॅुँच रहे हैं। इससे वे दुःखी नही होते। आखिर जर्जर शरीर से मुक्ति का अंतिम उपाय मृत्यु ही है। इस चिर सत्य को जानकर वे खिन्न नहीं होते बल्कि इससे उनका उत्साहवर्धन ही होता है।

मृत्यु के बारे मे सोचने का क्रम रत्ना मैया का काफी दिनों से शुरू हो गया था। उनकी मृत्यु के लिए मानसिक तैयारी पूरी हो गयी थी। वे दिन पर दिन कमजोर होती जा रही थीं।

समय ने सभी पात्रों की उम्र में परिवर्तन ला दिया था। हरको का शरीर भी जर्जर हो गया था। गणपति साठ पैंसठ साल के हो गये थे। अपनी बुद्धिमानी के कारण वे कस्बे में प्रभावशाली व्यक्ति माने जाते थे। गोस्वामी जी द्वारा स्थापित हनुमान जी के पुजारी स्वर्ग सिधार गये थे। उनके और कोई न था तो पुजारी का कार्य गणपति को करना पडता था। रामा भैया की भी गाँवमें अच्छी प्रतिष्ठा थी। हरको ने रत्ना मैया की संगत की थी। उससे टकराने में अच्छे-अच्छे पण्डित कतराते थे। रत्नावली के भाई गंगेश्वर की पण्डिताई चरम सीमा पर थी। वे अपने धन्धे में ऐसे फंस गये थे कि उन्हें अपनी बहन की सुध लेने की फुर्सत ही नहीं मिल पाती थी।

रत्नावली के दैनिक जीवन का क्रम लम्बे समय से वैसा ही चला आ रहा था। मानस का पाठ एवं सुमिरणी फेरते रहना ही सारे दिन के प्रमुख कार्यकलाप थे। दिन में लोग आ जाते थे तो रामचरित मानस पर चर्चा होती रहती। भोजन व्यवस्था कस्बे के लोग ही कर देते थे। साधू सन्तों के लिए बना कर खाने की व्यवस्था थी ही। जिन्हें घर में काम न रहता वे रत्ना मैया के पास बैठने आ जाते।

रत्ना मैया का दिन पर दिन स्वास्थ्य गिरता चला जा रहा था। कमजोरी के कारण ताप चढ़ आता। रामा भैया कोई न कोई दवा देते रहते। दवाये बुढ़ापे में असर करना बन्द कर देती हैं। लोग कहने लगते हैं जाने कैसी दवा है, असर ही नहीं कर रही है। एक दिन इस सबसे निराश होकर रामा भैया बोले-‘भौजी न हो तो काशी लिवा चलता हॅूँं। वहाँ गोस्वामी जी भी होंगे। किसी अच्छे वैद्य को दिखा देंगे।‘

रत्नावली ने अपना निर्णय सुनाने में देर नहीं की, बोली-‘अब वहाँ क्यों जाती ? क्या मरना नहीं है ? अब तो राम जी जल्दी बुला लें, यही इच्छा है। तभी जीवन सफल समझें।...‘

रामा भैया ने उत्तर दिया-‘जीवन तो वैसे ही सफल है। अरे! भौजी राम की जिस पर कृपा हो उसके जीवन की सफलता के बारे में सन्देह करना उचित नहीं है। सभी तो आपके भाग्य की सराहना करते हैं।‘

वे बोली-‘राम का भरोसा तो पक्का है। वे ही अन्तिम समय में उनके दर्शन करा सकते हैं।‘

रामा भैया उन्हें दमदिलासा देते हुये बोले-‘भौजी आप चिन्ता न करें। सारी जिन्दगी राम के भरोसे रहीं। निश्चय ही राम जी आपकी अन्तिम इच्छा अवश्य पूरी करेंगे।‘

उसी समय हरको खाँॅंसते हुये अन्दर से पौर में आ गयी थी। उसने रामा भैया की बात सुन ली थी बोली-‘ अब तो भौजी की तपस्या से ही गुरुजी के दर्शन हम सब को मिल सकेंगे।‘

रामा भैया ने उसके विश्वास को थपथपाया, बोले-‘हरको! विश्वास ही फलदायी होता है।... देखना भौजी के अन्तिम समय में गुरुजी कैसे आ टपकते हैं!‘

यह सुनकर हरको ने रामा भैया को सलाह दी-‘भैया न हो तो एक चक्कर काशी लगा आते। भौजी की स्थिति गुरुजी को बतला आते, पर तुमसे भी तो अब चला नहीं जाता। चलने में लाठी का सहारा लेते हो।‘

रामा भैया ने साहस के साथ कहा-‘हरको चला तो जाऊॅँ, पर पता भी तो नहीं है महाराज काशी में भी हैं या नहीं। बहुत दिनों से मेरा चक्कर लगा भी नहीं है। ना ही कोई खबर मिली।‘

रत्नावली ने आत्मविश्वास के साथ कहा-‘जाने की जरूरत नहीं है। वे स्वंय आयेंगे। उन्होंने आने का वायदा जो किया है। और वे ना भी आयें तो भी अच्छा। पंच-लकड़ी विरलों को ही मिलती है...।‘

रामा भैया ने उनके आत्मविश्वास को और थपथपाया-‘आप चिन्ता न करें। आप तो राम जी की भक्ति करती हैं। वे घट-घट के वासी हैं...उनके लिए कहीं कोई बात कठिन नहीं है। वे गोस्वामी जी को प्रेरित कर सही समय पर अवश्य भेज देंगे।‘

कुछ और समय गुजर गया। बरसात का मौसम आ गया। कस्बे भर में खबर फैल गयी कि रत्ना मैया गड़बड़ा रही हैं। कस्बे के सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शन के लिए आने लगे। कुछ लोग नाड़ी देखकर अन्दाज लगाने का प्रयास करते। बुखार काफी तेज चढ़ा था। बेहोशी में वे बड़बड़ा रही थीं-‘हे-राम जी...अब तो बुला लो। क्यों अटका रखे हैं ये प्रान...किसके लिए! जीवन भर आसरा नहीं किया...अब मरते दम उनके आ जाने से क्या हो जाएगा? हमारे तो तुम्हीं सहारे हो प्रभु!’

और लोग उन्हें गोस्वामी जी के लिए घबराया जान साहस बंधा रहे थे-

‘मैया आप चिन्ता न करें गोस्वामी जी आते ही होंगे।‘

वे समझ रहे थे मैया के प्राण गोस्वामी जी में अटके हैं।

अब की बार तो नाड़ी बिल्कुल ही दब गयी। लोगों ने धरती को लीपा, कुश का आसन बिछाया और उन्हें उस पर लिटा दिया। तुलसीदल और गंगाजल मुँह में डाल दिया गया। उन्हें बेहोशी सी आ गयी थी। अब लोगों को लगने लगा-‘अब तो मैया का श्वास किसी भी क्षण रुक सकता है।

और अपने अचेतन में रत्ना मैया ने भी समझ लिया कि अब चलने की बारी है। अर्ध चेतना में जीवन के कुछ दृश्य सामने आने लगे-

यही घर। सब कुछ यही। उनसे मिलने की पहली रात। उनका दिल धड़क रहा है। फूलों की सेज सजी है। वे खूब सजे सॅवरे घर में आते हैं....और उनकी पदचाप से ही वे सब कुछ समझ जाती हैं! पारदर्शी चुनरी में से ऑंखें मिलती हैं। उनकी ऑंखो में मदहोशी है। कोई खुमारी इन्हें भी छल रही है। तभी वे पर्दा हटा देते हैं। अपने को मिटाने व्याकुल हो उठते हैं और इन्हें वह आतुर समर्पण स्वीकार करना पड़ता है।... जब-जब पुरुष और प्रकृति एकाकार होते हैं, सृष्टि का निर्माण शुरू हो जाता है। मिटकर जो आत्मसंतोष मिलता है वह अवर्णीय होता है। फिर भी उनके वही शब्द आज फिर रत्ना के कानों में गूँज गये-

‘रत्ने तुम्हें पाकर जीवन धन्य हो गया। तुम्हारी सुन्दरता चित्त में समा गयी है। जिन्दगी भर इस की पूजा करता रहूँगा।‘

‘स्वामी सुना है आप कवि है। कवि सुन्दरता का उपासक होता है। वह भावुक भी होता है। ऐसे लोगों का जब भ्रम टूटता है तो यह लोग अधिक कठोर भी हो सकते हैं। स्वामी कभी कठोर न बन जाना।‘

‘कैसी बातें करती हो रत्ने। नारी और पुरुष जीवन रूपी रथ के दो पहिये हैं। दोनों को समान गति से चलना पडता है। अन्यथा रथ बिखर जाता है। मैं नारी को समानता का दर्जा देता हॅूं।‘

तब भावविभोर हो मैंने भी कह दिया-‘दासी को इतना बड़ा उत्तरदायित्व नहीं सौंपना चाहिए।‘

वे बोले-‘रत्ने यदि मैं पथ च्युत होता हॅूं तो निःसंकोच कर्तव्यबोध की ओर प्रेरित करना। नारी पुरूष के भटकाव पर नियंत्रण करने की शक्ति है। जहॉं वह पुरुषत्व पर नियंत्रण कर सकती है ,वहीं कर्तव्य बोध भी करा सकती है।‘

यह बात सुनकर वे बडी देर तक सोचती रहीं।

इसी समय चेतना सी हो आयी। ऑंखें खुलीं। पूरा का पूरा कमरा लोगों से भरा हुआ था। खुली हुयीं आँखें देखकर कुछ उनके सामने ही बोले-‘अरे! यों ही अभी मैया को कुछ नहीं होना, बिल्कुल ठीक हैं। वे समझ गयीं, लोग उन्हें साँत्वना देने के लिए ऐसा कह रहे हैं। क्या मैं मृत्यु से डरती हॅं ? वह चिर निद्रा है। चिर सत्य, जगत की मर्यादाओं की मूल। मृत्यु का आनन्द कोई लेकर तो देखे। जाने क्यों लोग मृत्यु से डरते हैं।‘ उन्हें फिर अर्धचेतना ने आ घेरा।

‘आपने जिस कर्तव्य-बोध की ओर पहले मिलन में प्रेरित किया था, उस दिन मैंने उसी का निर्वाह करना चाहा तो आप बुरा मान गये। कर्तव्य-बोध कराने की यह सजा मिली कि मैं मर रही हूँ, आप पास भी नहीं हैं।‘ मन में यह बात आते ही वह फिर चेतना में आ गयीं। ऊँ......की चिरपरिचित झंकार से अन्तस् झंकृत हो ही रहा था। इसी समय उन्हें सुनाई पड़ा-‘बाबा आ गये। बाबा आ गये।‘

उनकी ऑंखें उन्हें देखने मटकने लगीं। लगने लगा- अब प्राण निकल जायें, उन्होंने जो वायदा किया था, उसे पूरा कर दिया। वे कैसे जान गये कि मैं मरने वाली हॅूँ ? सब राम जी की कृपा है। अब तो जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति पा ही जाऊँगी ...।

तभी उन्हें लगा कि कोई उनसे सटकर बैठ गया है। उस चिरपरिचित स्पर्श को वे तुरंत पहचान गयीं। आँखें खुलीं। स्वामी आँखों के सामने थे। यह देखकर प्रेमाश्रु बहने लगे। कमरे में शान्ति छा गयी थी। ऊँ......का नाद सुनाई पड़ने के साथ-साथ बाहर परमात्मा की अनवरत चलने वाली आरती के घन्टे-घड़ियाल एवं शंख की ध्वनि भी सुनाई दे रही थी। सभी पौर से बाहर निकल आये। गोस्वामी जी ने उनके मस्तक पर हाथ फेरा और बोले-

‘रत्ने! सीताराम कहो सीताराम......।‘

रत्नावली के मुँह से निकला-‘ ऊँ......सी......ता.......रा.......म।‘

और धड़कन बन्द हो गयी। ऑंखें खुली रह गयीं। गोस्वामी जी ने तत्क्षण उनकी ऑंखें बन्द कर दीं। बडी देर तक वे पत्नी के पास बैठे रहे। कुछ सोचते रहे। उन्होंने उनके चेहरे से उन प्रेमाश्रुओं को पोंछा। उन्हें लगा-‘उसकी पीड़ा को पोंछ रहे हैं। चुनरी से शरीर ढक दिया। उठे। एक क्षण तक वहीं खडे़-खडे़ कुछ सोचते रहे। फिर ‘श्रीराम.........श्रीराम‘ कहते हुये पौर में से बाहर निकल आये।

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