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रत्नावली 20

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

बीस

रामचरित मानस की कथायें जन चर्चा का विषय बन गयीं। कस्बे के लोग इन चर्चाओं में भाग लेने रत्नावली के पास आने लगे। सुबह से शाम तक आने-जाने वालों का ताँता लगा रहता। सुबह शाम मानस का पाठ। मध्यांतर में मानस के प्रसंगों पर चर्चा। भोजन पानी के समय भी लोग यही चर्चा करते रहते। लोगों के घरों में भी यही चर्चा का विषय बन गया था। घर के लोग जब बातें करते तो यही चर्चा और कहीं कोई मेहमान आ गया तो फिर इस चर्चा के अलावा दूसरी कोई बात ही नहीं होती। घर गृहस्थी की बातें गौण होकर रह गयीं।

एक दिन गणपति और रामा भैया ने रत्ना मैया से कहा-‘मैया हम लोग भी मानस का पाठ करना चाहते हैं, कहीं आप मानस की प्रतियॉं करने की अनुमति दे दें तो हम इसकी प्रतियाँ करा लें। इसकी प्रतियाँ जितनी हो जायें उतना ही अच्छा रहेगा।

रत्नावली ने कहा-‘कृति जनमानस के लिए है। समाज में इसका जितना प्रचार-प्रसार होगा, इससे समाज का कल्याण ही है। अन्य कस्बों में भी मानस की प्रतियाँ पहँच जायं।‘

गणपति ने मैया से कहा-‘तो ठीक है मैया, कागज-पत्तर मंगवा लेते हैं और यह काम भी शीघ्र शुरू कर देते हैं।‘

सो, किसी को प्रयाग भेजकर कागज-पत्तर मंगवा लिये। प्रतियां करने का काम शुरू हो गया। सुबह शाम पाठ चलता। दोपहरी में लोग मानस की प्रतियॉं करने में लग जाते। शंका समाधान भी साथ-साथ चलने लगे। जब कुछ प्रतियाँ और हो गयीं तो लोग मानस का पाठ करने लगे।

रत्ना मैया का जीवन इतना व्यस्त हो गया कि पता ही नहीं चला कि जीवन का कितना हिस्सा निकल गया। रत्ना मैया मानस की सेवा में ऐसे लगीं जैसे कोई स्त्री पति-पुत्र की सेवा में लगती है।

बाल सफेद हो गये। चेहरे पर झुर्रियॉं पड़ गयीं। जीवन का अंतिम समय निकट आने लगा। लेकिन लोग सुबह से शाम तक मैया के घर आते-जाते रहे। अब तो दूर-दूर गॉंवों से लोग, उनके दर्शनों के लिए आने लगे थे। लोगों की व्यवस्था का भार कस्बे के लोग शुरू से ही उठाते चले आ रहे थे।

वे सोचतीं- किसी तरह का उन्हें कोई अभाव नहीं। बस, यह बात मन में आती रहती, कि अंतिम समय में वे मेरे पास हां। मेरा अंतिम संस्कार उनके ही हाथों से हो।’ यह बात मेरे मुँह से उस दिन जाने कैसे निकल गयी! इतने लंबे अंतराल में कोई ऐसी बातें कैसे याद रख पायेगा? वे याद रखें भी क्यों? आदि शंकराचार्य की तरह तो ये हो नहीं सकते । वे तो अपनी माँ का अंतिम संस्कार करने सही समय पर पहुँच गये थे।...

दिन अस्त होने को था किन्तु मानस पर चर्चा का क्रम अभी भी बन्द नहीं हुआ था। दूसरे कस्बे के लोग भी वहॉं आये हुये थे। किसी ने मैया से प्रश्न किया-‘मैया एक बात हमारी समझ में नहीं आती, गोस्वामी जी ने रामचरित मानस में लवकुश काण्ड क्यों नहीं लिखा ?‘

रत्नावली चुपचाप इस प्रश्न का उत्तर मन ही मन खोजती रहीं। मन ने जिस उत्तर को स्वीकारा उसे कहते हुये बोलीं-‘देखो भैया, मुझे तो लगता है उनके राम सीतामाता का त्याग नहीं कर सकते। इसीलिए यह प्रसंग उन्होंने छोड़ दिया है।‘

यह सुनकर उन्हें लगा- जो व्यवहार गोस्वामी जी ने अपनी पत्नी से किया, वैसा व्यवहार उनके राम सीतामाता के साथ नहीं कर सकते।

एक ने साहस और किया और बोला-‘मैया लोकभाषा हिन्दी में रामचरित मानस की रचना का कुछ लोगों ने बड़ा विरोध किया है।‘

रत्ना मैया ने जवाब दिया-‘देखो भैया, शुरू-शुरू में जितना विरोध था उतना अब कहीं दिख रहा है क्या ?‘

एक वयोवृद्ध व्यक्ति ने उत्तर दिया-‘हॉंँ अब तो सारे विरोधी परास्त हो गये हैं।‘

हरको ने अपना पुराना संस्मरण सुनाना शुरू कर दिया। बोली-‘जब हम भौजी के साथ काशी गये थे तो लोगों ने यह सुना कि ये गोस्वामी जी की पत्नी हैं, फिर देखिये लोग कैसी-कैसी बातें करने लगे ? वह तो ज्योतिषी जी व टोडर जी की पत्नी साथ थीं ,उन्होंने लोगों को मुश्किल से हटाया। वे बड़ी बहादुर नारियाँ हैं।‘

यह कहकर वह चुप रह गयी। अब लोग आपस में बतियाने लगे। किसी ने एक प्रश्न और उछाला-‘मैया सुना है, रामचरित मानस का पाठ करने वालों को बडा लाभ है।‘

यह सुनकर रत्ना मैया बोली ‘इस रचना पर पवन पुत्र हनुमान जी की पूरी कृपा है, इसके पाठ से भूत-बाधायें तो बिल्कुल दूर भाग जाती हैं।‘

भीड़ में से किसी ने अपना अनुभव बताया-

‘मानस का पाठ जिस उद्देश्य के लिए किया जाये, वह काम निश्चय ही पूरा हो जाता है।‘

मैया से कुछ दूर बैठे लोगों में जोर-जोर से बातें होने लगीं। रत्ना मैया उनकी आपस की बात सुनती रही फिर बोलीं-‘भैया, इस बहस बाजी को छोड़कर मानस का पाठ करके देख लो।‘

इस निर्णय को सुनकर लोग चले गये। रत्ना मैया के विश्राम का समय शुरू हो गया था। जब-जब वे अकेली रह जाती हैं कुछ इस तरह सोचना शुरू हो जाता है- गोस्वामी जी की पत्नी होने के नाते लोग ऐसे प्रश्नों को मेरे समक्ष रख देते हैं। लोग सोचते होंगे मैंने मानस को अधिक समझा होगा। वे मेरी राय भी जानना चाहते होंगे, तभी तो ऐसे प्रश्न करते रहते हैं।

मेरे मन में भी तो प्रश्न-उत्तर चलते रहते हैं। बनोवास के समय राम-सीता का संयमित जीवन व्यतीत करना। मैं जिस तरह के जीवन की आपसे अपेक्षा करती थी, आपने वैसा ही चित्र उपस्थित कर दिया है। लक्ष्मण जी का संयम तो आपने जीवन में उतारा हुआ है। आपके संयम को कोई नष्ट करना चाहे तो आप उसे वही सजा देना चाहेंगे जो लक्ष्मण जी ने सूर्पणखा को दी थी।

चाहे जो हो, लगता है- मानस की रचना के समय आप मुझे भी विस्मृत नहीं कर पाये हैं।

शंकर जी पार्वती को कथा सुनाते हैं। मानस के पाठ के समय, स्वामी मुझे बारम्बार यह भ्रम हो जाता है कि वहॉं आप मुझे सम्बोधित करके कथा सुना रहे हैं और मैं पूरे मनोयोग से कथा का श्रवण कर रही हूँ ।

राम का नाम तो भाव-कुभाव कैसे भी लिया जाये, लाभकारी ही है। हाड़-मांस की प्रीति को छोड़कर मन राम भजन में रमता है। मेरी भी यही है और उनकी भी यही दशा होगी। यह सोचकर वह कुछ गुनगुनाने का प्रयास करने लगीं। किन्तु बोल नहीं फूटे। कहते हैं साधना में जब शब्द और अर्थ को विराम मिल जाये तो साधक की यह श्रेष्ठ स्थिति का परिचायक है। घर के मन्दिर में जो राम जी की छोटी सी मूर्ति थी उसके सामने जा बैठीं। प्रतिदिन की तरह कुछ ही क्षणों में परब्रह्म परमात्मा की अनवरत चलने वाली आरती के घन्टे-घड़ियाल एवं शंख की ध्वनि सुनाई पड़ने लगी। जैसे ही उसने उसमें अपने को लय करने का प्रयास किया, ऊँ......का अनवरत शब्द सुनाई पड़ने लगा तो उसमें स्वयं की चेतना लय होगयीं। जब बैठा न गया तो ऊँ....का नाद सुनते-सुनते प्रतिदिन की तरह वहीं लेट गयीं। दिन-रात की ऐसी सतत् साधना से मैं आनन्द के सागर में गोते लगा रही हूँ।

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