कलुआ एक जेबकतरा है।
आठ नवम्बर 2016 को मोदीजी के आर्थिक सर्जिकल स्ट्राइक का सबसे बड़ा पीड़ित पक्ष अगर कोई है तो वह है कलुआ जैसे छोटे मोटे जरायम पेशा लोग। भारत में एक अनुमान के मुताबिक लगभग चालीस लाख लोग इस व्यवसाय में लगे थे और निर्मोही मोदीजी ने इनका तनिक भी विचार न करते हुए एक झटके में इतना बड़ा फैसला कर दिया। इतनी बड़ी आबादी के पेट पर लात मारने जैसा जघन्य अपराध मोदीजी कर ही चुके हैं। दया और इंसानियत तो मोदीजी में बिलकुल भी नहीं है।
काला बाजारियों और अवैध कारोबारियों का तो पता नहीं कि उन्हें कोई तकलीफ हुयी भी या नहीं। मोदीजी के इस कदम से उत्साहित कई काला बाजारियों ने तो मोदीजी के समर्थन में काले धन से तौबा कर लिया। उसी का नतीजा था कि हजार पांच सौ के नोटों की गड्डियां कूड़े के ढेरों में पायी गयीं। यह खबर देख कर मैं बड़ी देर तक सोचता रहा कि इन नोटों के स्वामी ने इन नोटों को फेंकने के पहले आखिर इन्हें काटने और फाड़ने की जहमत क्यों उठाई ? उसे फेंकना ही था तो ऐसे ही फेंक देता किसी गरीब का भला हो गया होता। बड़ा सोचने के बाद काला बाजारियों के ह्रदय परिवर्तन की कहानी समझ में आयी। दरअसल ये काला बाजारी मन से काला धन रखने का गुनाह करने की पीड़ा को समझ चुके थे और ये नहीं चाहते थे कि कोई और भारतवासी इस पीड़ा से गुजरे सो ‘ न रहे बांस न बजेगी बांसुरी ‘ की तर्ज पर एक आम आदमी को गुनहगार होने से बचाने के लिए ही अतिरिक्त मेहनत करना गवारा कर लिया। और पैसे और श्रम खर्च करके नोटों को टूकडे करके कईयों को गुनहगार होने से बचा लिया।
मोदीजी को चाहिए कि ऐसे सेवाभावी और ह्रदय परिवर्तित लोगों का सम्मान करें। अब ये लोग सामने तो आएंगे नहीं सो एक आयोजन करके अनाम पुरस्कार की घोषणा तो अवश्य ही करनी चाहिए।
खैर हम चर्चा कर रहे थे कलुआ जेबकतरे की। इस घोषणा से तो उसका व्यवसाय ही चौपट हो गया। अच्छा खासा फलने फूलनेवाला उसका व्यवसाय इस कदर चौपट हो गया कि सुबह से शाम तक जेब के पैसे से मेट्रो व बसों में घूम कर , ख़रीदे गए टिकटों के पैसे भी नहीं वसूल पाता था। ऐसा नहीं है कि वह प्रयास नहीं करता था। भरपूर प्रयास करता था और कामयाब भी होता था लेकिन उसे हासिल कुछ नहीं होता था।
किसी के पर्स में हजार पांच सौ के नोट पाकर पहले जहां वह सबसे पहले भगवान का शुक्र अदा किया करता था अब आजकल चुराए हुए बटुवे में वही नोट देखते ही उसका रक्तचाप बढ़ जाता और वह सिर पकड़कर वहीँ बैठ जाता। अपनी किस्मत को कोसता हुआ वह दूसरा प्रयास करता। पर हाय री उसकी किस्मत ! उसकी किस्मत ने तो जैसे लगता है कि ठान लिया है कि वह कलुआ से पूर्व में किये गए सभी खोटी कमाइयों का हिसाब चूकता कर ले। तभी तो बड़ी मेहनत के बाद जब किसी दुसरे शिकार का बटुवा उसके हाथों में होता उसमें से निकलता उसका आधार कार्ड , एक अदद फोटो और दो तीन बैंकों के ए टी एम् कार्ड जो उसके लिए बेकार होते। नगद के नाम पर कभी दस बीस रुपये मिल भी जाते लेकिन उससे क्या होता ? शिकार के चक्कर में बस में सफ़र करते हुए उसे टिकट भी तो लेना होता था। शुरू के कई दिनों तक तो उसने कईयों के आधार कार्ड अपने पैसे से उनके पते पर कुरियर करवा दिया था लेकिन अब वह क्या करे ? मोदीजी की मेहरबानी से अब वह दाने दाने को मोहताज हो चूका था। किसी दुसरे की मदद अब वह कैसे करता लिहाजा न चाहते हुए भी उसने कई बटुवों में मिले कागजातों को कूड़े में फेंक दिया था।
कई बार शिकार करने पर भी उसके हाथ खाली ही रहे। लिहाजा मजबूर होकर उसने DPJA की बैठक बुलाई। क्या ? DPJA का मतलब नहीं समझे ? अरे भाई ! इसका सीधा सा मतलब है ‘ दिल्ली प्रांतीय जेबकतरा असोसिएसन ‘।
तय समय और तय जगह पर सभी जेबकतरे जमा हुए। आज उनकी महत्वपूर्ण बैठक थी। उनके अस्तित्व पर संकट आ गया था और उन्हें मिल जुल कर इससे पार पाने का उपाय खोजना था। सभा की अध्यक्षता का भार कलुआ को ही सौंप दिया गया था।
रिठाला , मंगोलपुरी, पंजाबी बाग़ , करोलबाग से लेकर जमुना पार तक के जेबकतरे मौजूद थे। काफी देर विचार विमर्श करने के बाद भी सभा किसी नतीजे पर नहीं पहुंची।
अंत में काफी सोच विचार कर और मंथन कर प्रस्ताव पास किया गया जिसके मजमून कुछ इस प्रकार थे।
‘ गहन विचार विमर्श के बाद यह प्रस्ताव पास किया जाता है कि इस संगठन के सभी सदस्य तन मन धन से पुुरे जोश के साथ मोदीजी के इस कदम का सार्वजनिक विरोध करेंगे और शीघ्र ही अपने साथी अन्य सभी संगठनों को भी अपने साथ जोड़ने का प्रयत्न करेंगे ताकि मोदी विरोध की मुहीम में तेजी लाई जा सके। ‘