मैं तो ओढ चुनरिया - 2 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

मैं तो ओढ चुनरिया - 2

मैं तो ओढ चुनरिया

अध्याय दो

अगले दिन सूरज उगने से पहले मैं उठ बैठी तो माँ की नींद भी खुल गयी । मेरे रोकर बताने पर भी माँ शायद समझ नहीं पाई थी , मेरा बिस्तर गीला हो गया था और मैं पैर पटककर सबको बुला रही थी । अम्मा ने दौङकर मुझे उठाया , मेरे कपङे बदलवाकर माँ को पकङा दिया । मुझे दूध पिलाते पिलाते माँ की नजर सतिए (स्वास्तिक) की चौकी पर रखी बही पर गयी । उसका वह पन्ना , रात में हवा के वेग से या किसी चमत्कार से पलट गया था । अब वह पेज बंद पङा था जिस पर मेरे पिता ने रात को गणेशजी बनाकर पूजा की थी । बीचोबीच से एक अन्य कोरा पेज खुला पङा था जिस पर हल्दी और केसर के छींटे लगे हुए थे । सरसों के तेल का दिया अभी तक चौकी के सिरहाने जल रहा था । मारे खुशी के उसकी चीख निकलकर कमरे में फैल गयी । दादी वही कमरे में दरवाजे के पास चारपाई डालकर गहरी नींद में सो रही थी । रात मेरे दो तीन बार उठने से उसकी नींद खराब हुई होगी । अब इस चीख से उसकी नींद उचटी तो अनमने मन से उठ बैठी – “ क्या हुआ धम्मो । अभी तो आधी रात पङी है , चार सवा चार बजे होने हैं । इस कुबेला क्यों चिल्ला रही है ? “
तब तक रवि भी चादर हाथ में लिए लिए अंदर आ गया था और एक सवाल बनकर खङा हुआ था । धम्मो का गला भावावेग से पहले ही रुंधा पङा था । सास की बात का जवाब उससे देते नहीं बन रहा था । रवि को अपनी ओर हैरानी से ताकते देखकर उसने तर्जनी बही की ओर उठा दी । माँ बेटे के साथ मैंने भी अपनी नजरें घुमाई – बही पर हल्दी और कुमकुम के छींटे साफ दिखाई दे रहे थे । ऐसे जैसे किसी ने तर्जनी पूजा की थाली में लगाकर बङे प्यार से केसर का छिङकाव किया हो ।
रवि ने मन ही मन सोचा – लोग सही कहते हैं कि बच्चे के पैदा होने के छह दिन बाद छटी की रात विधि माता बच्चे का भाग्य लिखने आती है । सुबह होने से पहले जब रात अपने आखिरी पहर में होती है , पौ फूट रही होती है । अचानक ठंडी , मीठी , खुशबूदार हवाएँ चलने लगती हैं । सब लोग गहरी नींद में चले जाते हैं । बेसुध कर सो जाते हैं । तब विध माता की सवारी निकलती है । माता नवजन्मे बच्चों का भाग्य लिख देती है । किसी का सोने की कलम से । किसी का बबूल की टहनी से । पहले सिर्फ सुना था । आज देख भी लिया । बाकी लोगों की बही पर निशान नजर नहीं आते क्योंकि भाग्य बहुत प्रबल नहीं होता । य़ह बच्ची बङे भागोंवाली है । तभी तो तिलक साफ दीख रहा है । उसने श्रद्धा भाव से सिर झुका दिया और विध माता को धन्यवाद कहा ।
दुरगी तबसे सोच में डूबी हुई थी । जब संभली तो बोली – मेरी बात ध्यान से सुनो दोनों , इस बात का चर्चा किसी से न करना । किसी से भी नहीं । बच्ची की दंतकथा बन जाएगी और ऊपर से नजर लगेगी , वह अलग । सौ साध होते हैं तो दो सौ दुश्मन । हाथ मुँह धोके मौली में लपेटके यह बही संदूक में रख दे । जब इसकी जनमपत्री बनवाने जाएगा तो पंडित को जनम का दिन और वेला दिखानी पङेगी । उसे भी येवाला वरका दिखाने की जरूरत नहीं । बस उतना ही दिखाना , जहाँ तूने गणेश मनाकर पूजा करके वक्त लिखा था ।
रवि ने माँ की बात का कोई प्रतिकार नहीं किया । बिस्तर एक कोने में रख वह हाथ मुँह धोने चला गया फिर लौटकर माँ के बताये अनुसार बही पर कलावा लपेटा । और रतनारी रेशमी रुमाल में लपेटकर उसे संदूक में रख दिया । तब तक मंदिर में पुजारी का शंख और गुरद्वारे में पाठी के पाठ की ध्वनि आने लगी थी । मतलब पाँच बज गये थे , लेटने का अब समय ही नहीं बचा था । वह लोटे में रखा पानी लेकर बाहर आ गया । आसमान में जगह जगह स्याह रंग के बीच हल्दी बिखरने लगी थी । भगवान भुवनभास्कर अपने सात घोङों के रथ पर सवार होकर धरती की परिक्रमा करने निकल पङे थे । किरणों की उजास फैलने लगी थी । मंदिर में घंटे रह रहकर बज रहे थे । लोटा एक ओर रख रवि नल से नहाने के लिए पानी खींचने लगा । एक बाल्टी उसने रसोई के लिए भरकर रखी । दूसरी बाल्टी से नहाकर लोटे का जल सूर्य के चढाकर उसने बच्ची और परिवार दोनों की खैर मांगी ।
इस बीच दुरगी ने चूल्हा लीपकर हलवे के लिए कढाई चढा दी थी और उसमें घी डाल रही थी । रवि ने दूर से ही यह कौतुक देखा तो मुस्कुराए बिना न रह सका । कल रात जब पूजा की वेला उसने माँ से पास पङोस में हलुआ बाँटने की बात की थी तो माँ ने डाँट दिया था – लड्डू बाँट के तेरी तसल्ली नहीं हुई । अब हलुआ भी बाँटेगा । जिस दिन बेटा हुआ, उस दिन जो मरजी बाँट लेना । चल जा अपना काम देख । अब सुबह सुबह कढाई चढाके बैठी है । चलो ठीक ही है । अङोस पङोस को छटी पर मुँह मीठा तो कराना ही चाहिए आखिर ये लोग तो वक्त बेवक्त साथ निभाते हैं । सगों से भी बढकर अपनापन देते हैं ।
पर इन औरतों की माया भगवान को भी समझ नहीं आती । कब खुश हो कर गीत गाने लगें और घी खिला दें । कब जरा सी बात से दुखी हो जाएं , लङने लग पङें । फिर अगले ही मिनट में रो रोके नदियां बहा दें ।
खैर जो भी हो , हलवा तो बन ही गया । जिसके भाग्य में होगा , उसे मिल जाएगा ।
वह तौलिया कसता हुआ कमरे की ओर बढ गया । एक नजर उसने मुझपर डाली । दूध पीने के श्रम से मैं पसीने में भीग गयी थी । चेहरा लाल हो गया था । पर आत्मा तृप्त हो गयी थी । पिता पर एक नजर डालती कि आँखें मुंदनी शुरु हो गयी और मैं सो गयी ।

शेष अगली कङी में ...