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कुछ ख़्वाब अधूरे से

बहुत पहले एक फ़िल्म आई थी... 'जागते रहो'... उसमें एक गाना था...
ज़िन्दगी ख्वाब है... ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या...

आज सोचती हूँ कि क्या वाकई ज़िन्दगी ख्वाब है... शायद हाँ... शायद नहीं... या... कुछ ख्वाब और कुछ हकीकत... दोनों का मेल ही तो ज़िन्दगी है। जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए तीन चीजें जरूरी हैं... ख्वाब, उम्मीद और प्यार। गहरी नींद की आगोश में देखे गए सपने हमारे अवचेतन में रही किसी अतृप्त इच्छा के प्रतिरूप होते हैं, जो कि जागने के बाद गायब हो जाते हैं। खुली आँखों से देखे सपने हमें कर्मशील बनाते हैं। गुजरा हुआ कल आज की स्मृति है और आने वाला कल आज का सपना है।

यदि मैं समय का पहिया पीछे घुमाऊं तो नज़र आती है एक अल्हड़ और नादान सी... सपनों की दुनिया में जीने वाली लड़की...! बचपन से ही अंकों से प्यार रहा। चलती ट्रैन से छूटते पेड़ गिनना, मालगाड़ी के डिब्बे गिनना, वाहनों के नम्बर पढ़ना, दुकानों के साइनबोर्ड पढ़ना, यहाँ तक कि मोहल्ले में एक कतार में बने घर गिनना और इन सबसे ऊपर येन केन प्रकारेण गणित की संक्रियाओं से अंतिम आँकड़े को सात में बदल कर खुश होना मेरा प्रिय शगल रहा... क्योंकि सात का अंक कुछ विशेष प्रिय रहा हमेशा ही... अब इस तरह की लड़की जो पढ़ने में मेधावी हो, हमेशा गणित में शत प्रतिशत नम्बर लाकर क्लास टॉपर रहे तो उसके कच्चे मन की गीली मिट्टी पर उसकी मिडिल स्कूल की गणित शिक्षिका एक ख्वाब बो दे कि..."यह तो इंजीनियर बनेगी.." तो उस ख्वाब को हकीकत में बदलने के लिए मन तो मचलेगा ही... सो मेरे जीवन का पहला ख्वाब था... इंजीनियर बनना... ग्यारहवीं कक्षा में आने तक यही ख्वाब ऑंखों में पलता-बढ़ता रहा। पारिवारिक पृष्ठभूमि परम्परावादी रही, ख़्वाहिशें पूरी होती रहीं, किन्तु ख़्वाब मचलते रहे। परिवार की सबसे बड़ी बेटी को सपने देखने की आज़ादी तो मिली, किन्तु पूरा करने की नहीं। इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश की अर्हता पूर्ण करने के बावजूद शहर के कन्या महाविद्यालय में बी एस सी में प्रवेश लेकर फिर टॉप करती रही। एक दिन किसी पारिवारिक मित्र के सामने मम्मी ने बोल दिया कि "हमारी बेटी की बड़ी इच्छा थी इंजीनियर बनने की..." वे अंकल जी मुस्कुराते हुए कह गए "तो क्या... अब इसकी शादी इंजीनियर से कर देना..." लो जी बैठे बिठाए एक नया सपना पलने लगा... इंजीनियर से शादी करने का... अट्ठारह वर्ष की आयु में ग्रेजुएशन पूरा हो गया। अंतिम प्रश्नपत्र के दिन ही एक सरप्राइज की तरह एक जाना पहचाना परिवार घर पर आमंत्रित था। बस उस दिन से मेरे अंदर एक विद्रोह पनपना शुरू हो गया। ख़्वाब ज़िद्दी नहीं था, मैं ज़िद्दी हो गई। उन्हीं दिनों डायरी लिखना शुरू किया। मेरे भावों को शब्द मिलने शुरू हुए। भगवान जी भी सवा रु के चने चिरौंजी में प्रसन्न और वह रिश्ता भी टल गया। एक ही ज़िद थी मेरी इंजीनियर नहीं बनाया तो अब गणित में एम एस सी करने दो। रुकावट थी, सहशिक्षा... मम्मी का सहयोग मिला और मैंने गणित में एम एस सी कर ली। मेरी किस्मत से उसी साल एम फिल खुला और यू जी सी फ़ेलोशिप के साथ उसमें प्रवेश मिल गया। लगे हाथों मेरिट के आधार पर चयनित हो कॉलेज में एडहॉक लेक्चररशिप का ऑफर मिला। मेरे ज़िद्दी मन ने पैंसठ किलोमीटर के डेली अप-डाउन की शर्त पर यह जंग भी जीत ली। दादी की लाडली पोती रही, तो अपनी पहली कमाई से उन्हें साड़ी भी खरीदकर पहनाई। जिस ऑर्थोडॉक्स परिवार में बेटी की कमाई खाना एक गुनाह माना जाता रहा हो, उसमें यह बड़ी बात थी। एक बात और उल्लेखनीय है कि मध्यमवर्गीय परिवार में भोजन और पुस्तकों पर असीमित खर्च होता था, किन्तु सालभर के लिए सिर्फ तीन सूट मिलते थे, जो मैं खुद सिलती थी। ग्रीष्मावकाश में सिलाई-बुनाई-कढ़ाई की क्लास के साथ पापा की पर्सनल लाइब्रेरी में पुस्तकों का ढेर समय खपाने का जरिया था। स्कूल-कॉलेज में पाठ्येत्तर गतिविधियों के ढेरों प्रमाणपत्र आज भी पड़े हैं। खो-खो, चैस और टेबल-टेनिस कॉलेज टाइम में खेला और पुरस्कार भी पाए। यूँ तो नहीं कह सकती कि लड़की होने का खामियाजा भुगता, क्योंकि बहुत कुछ पाया, प्रोत्साहन भी मिला और अवसर भी, जो बंदिशें थीं, उनका महत्व बाद में समझ आया। मेरी नौकरी लगने के बाद मेरी तनख्वाह छोटे भाई-बहनों पर ही खर्च कर पाती थी। मेरी बहन वर्षा और मैं अपनी लूना लेकर शहर की गलियों से खरीदारी करते थे। खुद की अधूरी ख़्वाहिशों को उसके माध्यम से पूरा किया। मम्मी कहती कि "तुमने भी तीन कॉटन सूट में एक साल निकाला है, फिर यह टेरीकॉट और चाइना सिल्क के इतने कपड़े बहन के लिए क्यों खरीद रही हो..." बहुत ही प्यारे दिन थे वे और उनकी यादें अब रुलाती हैं। अब समय था ज़िन्दगी के दूसरे ख्वाब को हकीकत में बदलने का... मम्मी-पापा ने दो इंजीनियर लड़कों के रिश्ते पसन्द किए थे... एक यू एस ए में सॉफ्टवेयर इंजीनियर और दूसरा मध्यप्रदेश में ही... मैं अपना कैरियर छोड़ना नहीं चाहती थी साथ ही दूसरे ने बिना देखे ही मंजूरी दे दी थी। बात मुझे हज़म नहीं हुई, अनेक संशय थे दिमाग में... तब ही मेरे शोध निर्देशक कॉलेज लेक्चरर का प्रस्ताव लेकर आए। अब मेरा सपना पलकों की दहलीज़ पर ठहर सा गया... दिल ने कहा कि इंजीनियर में कौन से सुर्खाब के पर होते हैं, वर्किंग लाइन एक रहेगी तो एडजस्टमेंट बढ़िया रहेगा। लो जी फिर नया ख़्वाब आकार लेने लगा... काफी जद्दोजहद के बाद वह भी पूरा हो गया। इंजीनियर नहीं बनी, पर गणित की डॉक्टर जरूर बन गई और मनपसंद शादी भी हो गई। फिर पारिवारिक, सामाजिक और शासकीय दायित्वों को निभाने में ज़िन्दगी सरकती रही, अपने ख़्वाब और ख़्वाहिशों को दरकिनार करते हुए... किसी ने कहा भी है...
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
उन में जा कर मगर रहा न करो...
पर ये जो भावुक टाइप की लड़कियां होती हैं न ये ख़्वाब में ही जीती हैं, उन्हें ही ओढ़ती हैं, बिछाती है, पकाती भी हैं, बस खा नहीं पाती, क्योंकि अपने ख्वाब से ज्यादा दूसरों की ख्वाहिशों को तवज्जो देती हैं... और ख्वाब कभी चुकते नहीं, बस रंग-रूप बदल लेते हैं... अब मेरी ख़्वाहिशों के आसमान में भी बच्चों के ख़्वाब आकार ले रहे थे। उन्हें उनके सपनों का आसमान देने में ही उम्र गुजरने लगी... एक संतुष्टि का अहसास होता है, जब उनके ख़्वाब पूरे होते हैं। ख्वाबों और ख़्वाहिशों की जंग में संघर्ष दरकिनार होते रहे, वरना ज़िन्दगी में मुश्किलें कम न थीं... जब बच्चे भी अपने ख़्वाब और ख़्वाहिशों की जंग में मसरूफ हो गए तब ज़िन्दगी के खालीपन को भरने के लिए लेखन का तीस साल पुराना शौक ज़िंदा हो गया। एक ख़्वाब आज भी अधूरा है और वह है कि मेरे अपने बिना मेरे कहे ही मेरी बात सुन लें, समझ लें और मेरे अंदर की नन्हीं सी बच्ची आज भी बेचैन है... अपनी परवाह किये जाने के लिए... काश! मेरी ही तरह कोई मुझे चाहे...!
ख़्वाब बुनते-बुनते एक उम्र हो चली...
अब उन ख्वाबों को सिरहाने रख सोने को जी चाहता है.........

©डॉ. वन्दना गुप्ता
(10/01/2021)

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