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प्रो.सिन्हा अपनी पत्नी को सहारा देकर भीड़ भरे रास्ते से सँभालकर निकालने की कोशिश कर रहे थे | अधेड़ उम्र के प्रोफ़ेसर सिन्हा के चेहरे पर चिंता की लकीरें पसरी हुईं थीं |उनकी पड़ौसन ने अपने बड़े से पर्स के साथ उनकी पत्नी का पर्स भी उठा लिया था | ख़रीदे हुए सामान के पैकेट्स उठाए शो-रूम का लड़का पीछे-पीछे चला आ रहा था |
प्रबोध ने पीछे की सीट पर से अपनी फ़ाइल्स , लैपटॉप व पुस्तकें हटाकर दोनों महिलाओं के लिए जगह बनाई | भीड़ इतनी अधिक थी कि गाड़ी से उतरकर डिग्गी खोलना संभव ही नहीं था | किसी तरह ख़रीदे गए सामान के पैकेट्स आगे-पीछे फँसाकर रख लिए गए, बड़ी मुश्किल से प्रबोध ने पीं ---पीं करते हुए गाड़ी बैक की और प्रो.सिन्हा के घर की ओर चल पड़ा |
श्रीमती सिन्हा की तबियत पहले से बेहतर लग रही थी, उन्हें शो-रूम में कोल्ड-ड्रिंक पिला दिया गया था | ऐसा उनके साथ अक़्सर हो जाता था | बच्चे अपने-अपने ठिकानों पर थे | प्रो.सिन्हा अपने शिक्षण-पठन में व्यस्त ! प्रोफ़ेसर के कॉलेज जाने के बाद वे अकेली रह जातीं | ख़ालीपन ने आस-पड़ौस में उनके काफ़ी मित्र बना दिए थे जिनके साथ अक़्सर उनका बाहर जाने का कार्यक्रम चलता रहता | लोगों के बीच में वो स्वस्थ्य रहतीं |अकेलापन किसे रास आता है ? वह भी ऐसे व्यक्ति को जो ज़िंदगी भर सबकी इच्छाएँ पूरी करने के लिए गोल-गोल घूमता ही रहा हो | धीरे-धीरे यदि वह वह अकेला रह जाए तो मुश्किल हो जाता है जीवन ! काम भी लगभग न के बराबर रह जाता है |
लगभग सवा घंटे में प्रबोध प्रो.सिन्हा के एपार्टमेंट पहुँचा | सिन्हा साहब ने प्रबोध से भीतर आने का बहुत अनुरोध किया लेकिन उसे कुछ देर के लिए कॉलेज भी जाना था, वहाँ दीना उसका इंतज़ार कर रहा था जो उसके साथ ही गाज़ियाबाद वापिस जाता था |
प्रो.सिन्हा व उनकी पत्नी प्रबोध के बार-बार धन्यवाद देने से प्रबोध खिसिया गया |
"यह तो मेरा फ़र्ज़ था आँटी --आपके बच्चे जैसा हूँ ---"
"यह तो ठीक कह रहे हो बेटा, प्रो.सिन्हा के रिटायरमेंट के तो अब कुछेक साल ही हैं और तुम्हारा कैरियर अभी शुरू ही हुआ है ---जीते रहो --" उन्होंने प्रबोध के सिर पर आशीर्वाद भरा स्नेहयुक्त हाथ रख दिया |
"मैं चलता हूँ, नमस्कार प्रो. सिन्हा --बाय आँटी, अपना ध्यान रखिएगा ---" ख़ुश हो गए दोनों पति-पत्नी ! प्रबोध का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था, अपने सेवाभावी विनम्र व्यवहार से वह सबका मन जीत लेता |
गाड़ी चलाते हुए प्रबोध उस औरत के बारे में सोचता रहा और अपने कॉलेज की सड़क पर आ गया | कॉलेज के गेट पर खड़ा दीना उसे नज़र ही नहीं आया और वह काफ़ी आगे बढ़ गया |
"सर--सर ---मैं यहाँ हूँ---" दीना बेचारा भागता हुआ उसकी गाड़ी के पीछे आने लगा लेकिन उसको होश ही नहीं था, न जाने किस धुन में वह चला जा रहा था | वह तो चार रास्ते पर लाल-बत्ती होने से गाड़ी रोकनी पड़ी |
"साहब ! कोई आपको बुला रहा है ---" किसी साईकिल-चालक ने उसका ध्यान अपनी ओर खींचा | वह सड़क के दूसरी ओर से आ रहा था और उसे कोई आदमी उसकी गाड़ी के पीछे भागता नज़र आ गया था | प्रबोध की गाड़ी के पीछे कोई और वाहन न होने से यह तो पक्का था कि उसको ही कहा जा रहा है |
'ओह ! मैं भी ----" प्रबोध ने अपने सिर को झटका दिया |
अब तक दीना पास में आ गया था, उसकी साँस फूल रही थी | प्रबोध ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और लाल बत्ती हरी हो गई |
"सर---क्या--- हुआ ?" गाड़ी में बैठते हुए साँस फूलने के कारण वह मुश्किल से बोल पा रहा था |
"सॉरी, दीना ! ---पता नहीं मैं कैसे आगे निकल आया --" प्रबोध इस क्षण में लौट आया | आगे गाड़ी बढ़ाकर उसने सड़क के किनारे रोक दी | फ़्लास्क से ठंडा पानी एक डिस्पोज़ेबल ग्लास में निकाला और उसे पीने के लिए दिया |
प्रबोध की आदत थी वह अपनी गाड़ी में सब ज़रूरत के सामान रखता था |यह ट्रेनिंग उसकी माँ की थी | उसे ये चीज़ें अक़्सर काम आती रहती थीं |
उस दिन रात को घर पहुँचकर प्रबोध और भी असहज रहा | न तो उससे खाना खाया जा रहा था, न ही उसे इतना थके होने के बावज़ूद भी नींद आ रही थी |
"क्या बात है ----सुबह के गए हो, ठीक से खाना क्यों नहीं खा रहे बेटा ---?" शांति जी ने बेटे से पूछा | उन्हें चिंता हुई कि वह कहीं बीमार तो नहीं हो रहा है !
"नहीं माँ, ऎसी कोई बात नहीं है --बस--थकान ज़रा ज़्यादा ही महसूस हो रही है |
वह अपने कमरे में चला गया और आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगा ----
सामने दीवार पर चलचित्र चल रहा था ---उसे नृत्य और संगीत के बारे में थोड़ा भी ज्ञान नहीं था लेकिन ये जो धुन उसके कानों में पड़ रही थी ---उसका क्या करता ? किसके साथ सांझा करे ?
'नहीं ऐसो ---नहीं ऐसो --जनम बारंबार -----' पैरों की थाप घुँघुरूओं के साथ शुरू हो गई ---
ता ---थेई --तत --तत --थेई -आ --थेई-- तत --थेई
नहीं ऐसो जनम बारंबार ----नहीं ऐसो जन्म बारंबार ---नहीं ऐसो ---
मुश्किल से प्रबोध की आँखें लगीं और एक झटके से वह उठकर बैठ गया ---
चाँदनी चौक में खड़ा था प्रबोध और एक सुंदर नृत्यांगना के पैरों के घुँघरू थाप दे रहे थे | ये क्या था ? उसने आँखें मलते हुए सोचा, दिल की धड़कन बढ़ीं, फिर कम हुईं, फिर से एक दिल को छू लेने वाली आवाज़ 'ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरो दर्द न जाने कोय -------'
'ये मीरा कहाँ से आ गई ----'प्रबोध की आँखों में सपने भरने, बहने लगे ---
कौन था उनमें ? स्टैला--? वो ---चाँदनी-चौक की खूबसूरत स्त्री जो उसे बिना कुछ पूछे ही न जाने क्या-क्या बता गई थी ?
मनोवैज्ञानिक डॉ.प्रबोध गौड़ का उलझा, बेतरतीब मन भटकाव की चरम सीमा पर था |
बेग़म-पुल की बेग़म की कहानी उसके दिल को धड़का रही थी, स्टैला का नरम हाथ वह अपने हाथ में महसूस कर रह था जबकि उसने कभी भी स्टैला का हाथ अपने हाथ में नहीं लिया था | बस साथ चलते हुए कभी टकरा जाना, एक ऎसी छुअन से सराबोर हो जाना जिसका कोई नाम न था, न थी कोई पहचान ! मेरठ से लौटकर स्टैला से कभी बात भी नहीं हुई थी लेकिन आज जिस औरत को उसने चाँदनी-चौक में देखा था, उसकी आँखें क्या स्टैला की नहीं थीं ? क्या वो खूबसूरत मुस्लिम स्त्री स्टैला नहीं थी? सब गड्मड ----न जाने रात में कितने पल उसने आँखें बंद करके गुज़ारे और न जाने कितने पल झपकती आँखों से सामने की दीवार पर बनते-बिखरते चित्र पहचानने में -----सुबह बड़ी देर तक वह अपने बिस्तर में ही था | रविवार था, उसे सोने दिया गया | रामनाथ और शांति देवी दोनों ही जानते थे कल उनका बेटा बहुत थक गया था, भला गाड़ी से भीड़ भरे चाँदनी-चौक में क्या जाने की ज़रुरत थी ? रामनाथ अपने दिल की खटर-पटर शांत करने के चक्कर में बार-बार पत्नी के सामने कुछ न कुछ कहे जा रहे थे |लेकिन मानवता भी कुछ तो है, ज़रूरत पड़ने पर ही इंसान इंसान के काम आता है | हाँ, यह बात भी है ---उन्होंने इस बात की स्वीकारोक्ति में अपना सिर हिलाया और अपने काम में निमग्न हो गए |