बेगम पुल की बेगम उर्फ़ - 7 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

बेगम पुल की बेगम उर्फ़ - 7

7 --

दिवाली की छुट्टियों में बच्चों ने बहुत आनंद किया | पता ही नहीं चला दिन कब गुज़र गए ?

रामनाथ की माँ अब काफ़ी ठीक हो गईं थीं | स्टैला की सेवा व व्यवहार ने उनमें एक नई जान डाल दी थी | घर की बेटी जैसी हो गई थी वह ! बच्चे तो उसके दीवाने हो ही चुके थे |जब रामनाथ जी के परिवार की गाज़ियाबाद लौटने की तैयारी शुरू हुई तभी स्टैला ने भी कहा कि अब दादी जी बिलकुल ठीक हैं, उसे भी लौट जाना चाहिए किन्तु रामनाथ व दयानाथ ने उसे कुछ दिन और रुकने के लिए कहा | उनका कहना था कि सबके एकसाथ जाने से कहीं माँ फिर से एकाकी महसूस न करने लगें ! शैलजा ने भी स्टैला को यह कहकर रोक लिया कि शांति दीदी के वापिस चले जाने से वह भी अकेली पड़ जाएगी |

इस बार प्रबोध दादा जी घर से खाली नहीं आया था, उसके मन में 'बेगमपुल की बेग़म' की कहानी कुछ ऎसी रच बस गई थी मानो वह उसका स्वयं साक्षी रहा हो |एक कहानी सी बनकर स्टैला उसके साथ ही चली आई थी जैसे, उसकी यादों में कैद होकर | लेकिन रात में उसे कुछ उलझन सी होने लगी थी |

जैसे कोई उसे पुकारता था ---किस नाम से पुकारता, उसे बहुत स्पष्ट न होता लेकिन वह प्रभु, प्रबोध या डॉ. प्रबोध गौड़ नहीं था | वह फुसफुसाहट कुछ और ही थी |

कॉलेज शुरू हो चुके थे, उसकी क्लासेज़ लेना भी | थोड़े ही समय में ही वह अपने छात्र/छात्राओं में बहुत लोकप्रिय हो चुका था |उसके पढ़ाने का तरीका बहुत ही रोचक था | वह अपने छात्रों को मनोविज्ञान के ऐसे पहलुओं से रूबरू करवाता कि छात्र उसके ज्ञान का लोहा मानने लगे थे |

डॉ.प्रबोध गौड़ का कहना था कि मनोविज्ञान मन का विज्ञान है |सब बड़े वैज्ञानिकों को पढ़ो लेकिन अपने मन के आँगन में ज़रूर झाँको, वो क्या कहता है ? बड़े मनोवैज्ञानिकों की परिभाषाओं को समझकर अपनी परिभाषा बनाओ और जीवन के सत्य को जानने, समझने की चेष्टा करो |बच्चों को अपने युवा प्रोफ़ेसर के साथ चर्चा करने में बहुत आनंद आता और वे अपने मन की ग्रंथियों को उनके सामने खोलकर रख देते |

लेकिन प्रबोध जैसे अपने ही किसी मकड़जाल में फँस गया था | मनोविज्ञान के शिक्षक को अपने मन की बात ही उलझाने लगी थी | बेग़म पुल की बेग़म उसे जैसे पुकारने लगी थी |

एक दिन कॉलेज के किसी प्रोफ़ेसर के साथ प्रबोध को दिल्ली चाँदनी-चौक जाना पड़ा | हुआ कुछ यूँ कि प्रोफ़ेसर सिन्हा की पत्नी कुछ ख़रीदारी करने चाँदनी-चौक गईं थीं | दरसल वो चाँदनी-चौक में पली-बढ़ीं थीं | उनके पिता का घर वहीं था | यद्यपि अब वहाँ की काया पलट हो चुकी थी | उनके पिता व भाईयों ने राजौरी गार्डन में अपनी कोठियाँ बना लीं थीं लेकिन उनके परिवार की कुछ दुकानें कई पीढ़ियों से बँधी हुईं थीं | सिन्हा साहब के ससुराल के लोग एलेक्ट्रोनिक की कुछ चीज़ें वहीं से लेना पसंद करते | दुकान अब 'बंसल शो-रूम' में परिवर्तित हो गई थी और अब वहाँ तीसरी पीढ़ी अपने अनुसार काम करने लगी थी |

प्रोफ़ेसर सिन्हा के पास बंसल शो-रूम से फ़ोन आया था कि उनकी पत्नी की तबियत खराब हो गई है, शायद उनका बी.पी लो हो रहा था | सिन्हा जानते थे कि उनकी पत्नी मीना की तबियत ठीक नहीं थी, उन्होंने कहा भी था कि दो-चार दिन रुक जाएँ तो वो अपने साथ उन्हें लेकर गाड़ी से चलेंगे |वैसे इतने भीड़-भड़क्के वाले स्थान पर गाड़ी ले जाना आसान न होता था | उस दिन उनकी गाड़ी भी गैराज में थी |

मीना को अपनी पड़ौसन सखी का साथ मिल गया और वो पति को पटाकर निकल आईं |वो अक़्सर ऐसा ही करतीं थीं, जहाँ कोई कंपनी मिली नहीं कि बाज़ार-हाट की फेरी शुरु ! खूब घूमतीं, मस्ती करतीं, चाट-पकौड़ी खातीं, अपनी पसंददीदा जगहों पर जातीं, अपनी मनपसंद चीज़ें खरीदतीं और पतियों के आने से पहले घर लौट आतीं | हाँ, पतियों को पता होता था कि उनकी पत्नियाँ आनंद करने घर से निकली हैं |प्रो. सिन्हा ने भी सोचा अकेली तो जा नहीं रही हैं, उनके साथ उनकी पड़ौसन व सहेली है, वो भी निश्चिन्त हो गए |

फ़ोन आने पर डॉ. सिन्हा को चिंतित देखकर डॉ. प्रबोध ने उन्हें अपने साथ चलने का प्रस्ताव रखा | सिन्हा जानते थे कि चाँदनी-चौक के भीड़ भरे इलाक़े में गाड़ी से जाना आसान नहीं था | जैसे ही पुरानी दिल्ली में पहुँचे कि प्रदूषण और भीड़ का इलाका शुरू हो गया | लेकिन पत्नी के लिए चिंतित प्रोफ़ेसर सिन्हा को प्रबोध ज़बरदस्ती अपने साथ लेकर चाँदनी-चौक पहुँचा| वह इस तरफ़ कभी आया ही नहीं था, दरसल कोई काम ही नहीं पड़ा था |

"क्या भीड़ है ---!आपको मुश्किल में डाल दिया डॉ.गौड़ --- " डॉ.सिन्हा परेशान थे, उन्हें महसूस हो रहा था कि उन्होंने इस शरीफ़ बच्चे को भी परेशानी में डाल दिया |

"इट्स ओ.के सर ---ये सब तो होता रहता है --लेकिन यहाँ गाड़ी पार्क करने की मुश्किल होगी --भाभी जी को कैसे लाएँगे ?" उसकी परेशानी स्वाभाविक थी, वन-वे में गाड़ी को डालना यानि ---"वैसे शो-रूम सामने ही है ---" उन्होंने इशारे से दिखाते हुए कहा |

"मैं वहाँ पहुँच जाऊँ और उन्हें किसी तरह यहाँ तक ले आऊँ, न जाने कैसी तबियत होगी ----?" कहकर सिन्हा गाड़ी से उतरकर भीड़ भरी सड़क पार करने लगे | चारों ओर छोटी दुकानें, बीच में कहीं ठेले जिन पर सस्ते लड़कियों के साज-श्रृंगार के सामान , कपड़े की लारियाँ और सामने लाईन में लगे बड़े-बड़े स्टोर्स, उन्हीं में एक स्टोर बंसल जी का भी था |

"सॉरी----" सिन्हा हड़बड़ी में किसी ख़ूबसूरत स्त्री से टकरा गए थे, चिंता उनके प्रौढ़ चेहरे पर साफ़ पसरी दिखाई दे रही थी |

"मियाँ --ज़रा देखकर चलिए ---" स्त्री ने बुरखा नहीं पहन रखा था लेकिन पहनावे व भाषा से मुस्लिम लग रही थी |

"माफ़ कीजिएगा मैडम ----" उन्होंने हाथ जोड़ लिए और बंसल शो-रूम की ओर बढ़ गए |

प्रबोध यह सब देख-सुन रहा था | वह स्त्री सामने कहीं दुकानों के पीछे से निकली थी, प्रबोध ने उसे निकलते हुए देखा था | जाने क्यों प्रबोध उस टूटी-फूटी, बहुत बड़ी सी इमारत की ओर ध्यान से देखने लगा जिसके बाहरी ओर कुछ छोटी दुकानें थीं और जिनको दो बाँसों के सहारे एक तिरपाल जैसे कपड़े से आगे का भाग कवर किया गया था |

" उस इमारत की तरफ़ देख रहे हैं ---? जनाब ख़त्म हो गई वो अब, खंडहर ही बाक़ी हैं | कभी जब हुआ करती थी उसमें एक नाज़नीन, महज़बीन--अब भी यादें भरपूर हैं ----हाँ, अब भगीरथ पैलेस में स्टेट बैंक की बिल्डिंग है ---देख रहे हैं ---वो --"उस औरत ने इशारे से प्रबोध को बिल्डिंग दिखा भी दी | प्रो. सिन्हा से टकराने वाली स्त्री ने उसे यह सब क्यों बताया ? वह कुछ परेशान सा हो उठा |

प्रोफ़ेसर सिन्हा से टकराने वाली मुस्लिम स्त्री काफ़ी खूबसूरत थी, उसने एक नज़र गाड़ी में बैठे प्रबोध पर डाली और मुस्कुराते हुए ऊपर वाले शब्द कहे और उसकी गाड़ी के क़रीब से लहराती हुई निकल गई | प्रबोध हक्का-बक्का देखता ही रह गया |उसे क्यों सुना गई वह औरत ये सब ? कुछ दिनों से कुछ अजीब-अजीब बातें हो रही थीं उसके साथ ! वह खुद मनोविज्ञान का अध्यापक था, मन में जैसे धागों की लच्छियाँ उलझ रही थीं और वह उनमें फँसता जा रहा था |

उस औरत ने आगे जाकर एक बार फिर पीछे मुड़कर गाड़ी में बैठे प्रबोध की तरफ़ देखा और फिर से मुस्कुरा दी | प्रबोध ने अपनी गाड़ी के शीशे में से उसका मुस्कुराना देखा और उसका दिल धक-धक करने लगा |अजीब सा क्यों लग रहा था उसे ----?

'नहीं ---ऐसो जनम बारंबार -----छन--छनाक ----" उस दिन गिरजाघर में सुनी आवाज़ उसके मस्तिष्क से टकराई और वह असहज हो उठा |

उस औरत का बार-बार मुड़कर देखना, मुस्कुराना प्रबोध के मन में खलबली पैदा कर रहा था |