झंझावात में चिड़िया - अंतिम भाग Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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झंझावात में चिड़िया - अंतिम भाग

कोई नहीं जानता था कि काल के कैलेंडर में अगला वर्ष एक नया तूफ़ान लिए सामने खड़ा है।
फिज़ा में कुछ ऐसी खौफ़नाक तरंगें तैर रही थीं कि सबके देखते - देखते "झंझावात में दुनिया" का ही ऐलान हो गया।
सन दो हज़ार बीस के आरंभ में ही दीपिका द्वारा निर्मित "छपाक" हिंदी फ़िल्म दर्शकों के दिल और दिमाग़ पर दस्तक देने के लिए पर तौल रही थी। ये उनकी निर्माण संस्था फॉक्स स्टार स्टूडियोज़ का भी पहला इम्तहान था।
दीपिका को इसमें हवा के ख़िलाफ़ बहना था। मनोरंजन उद्योग में एक ऐसा शाहकार लेकर आना था जिसका मनोरंजन से दूर का भी वास्ता न हो।
हिंदी फ़िल्मों में जहां नाचती - गाती हीरोइन का मुखड़ा सजाने - संवारने के लिए सज्जाकारों की एक पूरी टीम तैनात होती है वहां अपने दौर की इस सबसे ख़ूबसूरत और महंगी नायिका को एक जला हुआ बदसूरत चेहरा लेकर परदे पर आना था।
वैसे इससे पहले प्रतिष्ठित और विलक्षण निर्माता राजकपूर मिस एशिया उन्नीस सौ सत्तर रही विख्यात मॉडल और अभिनेत्री ज़ीनत अमान के चेहरे के साथ ये प्रयोग फ़िल्म "सत्यम शिवम सुंदरम" में कर चुके थे। एक उम्दा गायिका को जले हुए चेहरे के साथ दिखाकर उन्होंने दुर्भाग्य को दर्शाया था।
किंतु वहां एक अलग बात थी। वहां हीरोइन किसी बदनीयत भरी मानवीय रंजिश से नहीं बल्कि कुदरत के भाग्य जनित खेल से कुरूप हुई थी। फ़िल्म को सुंदर संगीत होते हुए भी साधारण सफ़लता ही मिली थी।
ये सब होने के बाद भी ऐसा जोखिम उठाना दीपिका पादुकोण के लिए एक अतिरिक्त चुनौती थी। इसमें अपार संभावनाओं की एक नई दुनिया खुलने की उम्मीद भी वाबस्ता थी। उनका सीधा मुकाबला राजकपूर जैसी महान हस्ती से था। ज़ीनत अमान से तुलना की प्रत्यक्ष आशंका थी।
और थी बदसूरत नायिका के दर्द पर तिलमिलाते दर्शकों की सहानुभूति बटोर पाने की व्यावसायिक परीक्षा!
फ़िल्म की रिलीज़ से कुछ समय पहले इसका ट्रेलर भी जारी हो गया जिसे काफ़ी पसंद किया गया।
लोगों में इस बात को लेकर कुछ संतोष भी देखा गया कि अब बॉलीवुड निर्माता सामाजिक मुद्दों की गंभीरता को समझते हुए इन्हें भी फ़िल्मों के माध्यम से उठाने के लिए जागरूक होने लगे हैं। ग्लैमर का एकाधिकार वहां से कुछ हटने लगा है।
वर्ष दो हज़ार बीस आरंभ होते ही दीपिका इस दिशा में सक्रिय हो गईं कि फ़िल्म के प्रचार और प्रमोशन को लेकर मेहनत की जाए।
दीपिका जैसी संवेदनशील अभिनेत्री और प्रोड्यूसर के लिए फ़िल्म का मतलब केवल फ़िल्म की व्यावसायिक सफ़लता से पैसा कमाना ही नहीं था बल्कि वो समाज के एक गंभीर नासूर पर अपनी फ़िल्म के माध्यम से एक मार्मिक अंतःक्षेप करने भी जा रही थीं।
समाज के हर वर्ग, हर तबके तक पहुंचने की चाहत लिए वे फ़िल्म के प्रदर्शन से चंद दिन पहले दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में जा पहुंचीं।
उनके अंतर्मन में युवाओं और शिक्षित समुदाय के ध्यानाकर्षण की महत्वाकांक्षा हिलोरें ले रही थी। अपने विद्यार्थी जीवन में तो वो विश्वविद्यालय तक पहुंच पाने में अपनी समय पूर्व आजीविका के कारण पहुंच नहीं सकी थीं किंतु अब ज़िन्दगी में अपनी धुंआधार सफ़लता के बाद अपने कार्य को लेकर युवाओं के बीच वो ज़रूर पहुंचना चाहती थीं।
शायद उनसे यहीं भूल हो गई।
वो समझ नहीं सकीं कि देश में सत्ता समीकरणों के बदलाव के साथ विचारधारा परिवर्तन की एक नई आंधी के चलते जेएनयू कैंपस बदलाव के निशाने पर है।
वे वहां गईं ही क्यों?
ये कड़वा सवाल बन गया।
उन्हें किसी ख़ास विचारधारा से आवेष्ठित समझा गया। ये माना गया कि ये एक प्रतिरोध का स्वर है।
उन्हें लेकर लोग बंट गए।
ये बात गौण हो गई कि आधुनिक समाज में लड़कियों पर एसिड अटैक से उनका जीवन तबाह कर दिया जाता है जिस पर बनी उनकी फ़िल्म के माध्यम से सबको मिल कर ध्यान देना चाहिए। ये बात मुखर हो गई कि जहां से देश और देश की सत्ता के ख़िलाफ़ बगावती सुर उठते हैं वहां वे क्या करने चली गईं?
सोशल मीडिया पर बावेला मच गया।
"बायकॉट दीपिका, बायकॉट छपाक" के उन्मादी सुर फिज़ा में तैरने लगे।
लोगों को याद दिलाया गया कि ये वही दीपिका हैं जिन्होंने "मस्तानी" बन कर बाजीराव पेशवा की पत्नी काशीबाई की ज़िंदगी में ज़हर घोल दिया।
ये प्रचारित किया गया कि ये वही दीपिका हैं जिन्होंने महारानी पद्मिनी बन कर भी अलाउद्दीन खिलजी की नज़र में आकर महारानी की छवि का अपमान किया। चाहे ये सब खिलजी की कल्पना और स्वप्न में ही हुआ हो। लोगों को याद दिलाया गया कि "महारानी पद्मिनी की छवि बिगाड़ने वालों का सिर काट दिया जायेगा" कह कर फ़िल्म का नाम तक बदलवा दिया गया था।
लोगों को बताया गया कि ये वही दीपिका हैं जो घराती और बाराती सब भारतीय होते हुए भी अपने विवाह के लिए "इटली" गई थीं।
ओह! एक के बाद एक भूल? गलतियां??
"बायकॉट दीपिका, बायकॉट छपाक"!
नतीजा ये हुआ कि लोग थोड़ी देर के लिए लक्ष्मी को भूल गए, मालती को भूल गए, तेज़ाब को भूल गए... उन्हें याद रही तो केवल और केवल दीपिका पादुकोण!!!
ये दीपिका की फिर एक बड़ी सफ़लता थी। ये उनके कद को अवाम का सलाम था।
फ़िल्म ने कोई बड़ी व्यावसायिक सफ़लता नहीं अर्जित की मगर उसे राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में टैक्स फ्री किया गया।
और बस! इसके बाद कुछ नहीं।
दुनिया रुक गई। न जाने कौन सा ग्रहण लगा कि ज़िन्दगी थमने लगी, बॉलीवुड रुक गया, सिनेमा घर बंद हो गए। कई कलाकारों को दुनिया छोड़ कर जाते देखा गया।
सब, मानो किसी नशे में खो गए। दीपिका पादुकोण पर भी लांछन के छींटे गिरे।
"टेक, री टेक, कट" की ध्वनियां रुक गईं। फ़िल्म देखने वाले खो गए, बनाने वाले खो गए। अभिनय करने वाले खो गए। नौकरियां रुक गईं। व्यापार रुक गए। बच्चों के स्कूल- कॉलेज रुक गए। पढ़ाई रुक गई। कारोबार रुक गए, उत्पादन रुक गए, आमदनी रुक गई। खेत खलियान, दुकान, चौपाल रुक गए। खेल रुक गए, खिलाड़ी रुक गए। समारोह - मेले - उत्सव रुक गए।
हवाएं रुक गईं।
आतिशबाज़ी से दम घुटने लगा।
शादियां रुक गईं, शादियों में नाचने वाले रुक गए। अर्थियों के साथ चलने वाले रुक गए। दिवंगतों को कंधा देने वाले रुक गए।
न रुकी तो केवल मौत, बीमारी, अंधकार!
केवल और केवल सांसों की जंग, केवल रोटी की जद्दोजहद! केवल अकेलेपन का मेला!
आसमान से आवाज़ आने लगी - तेरे हाथ मैले हो गए बंदे। इन्हें धो, बार - बार धो, धोता रह!
अरे ओ इंसान, तूने ये क्या किया? मुंह छिपाले। किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहा तू।
न जाने कौन से आसमान से एक काला बादल ज़मीन पर उतरा और ज़िन्दगी से बोला - "छपाक" !!!
(समाप्त)