अबोध प्रीति कर्ण द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अबोध


उसकी आँखो में अजीब सी उदासी थी, मानों सब कुछ खो चुकी हो। उसकी उम्र मुश्किल से सोलह या सतरह साल की होगी। मेरी बुढ़ी आँखे उसकी मासूम-सलोने मुखड़े से लग गयी थी। मुझे घबराहट होने लगी थी, ना जाने किसकी बेटी है जो सांझ ढले ट्रेन में चढकर कहीं जा रही है? क्या इसके माता-पिता को इस बात की जानकारी है? ये सब सोचकर मेरा कलेजा कंपकंपा उठा था।

मैने अपनी नौकरी में छत्तीस साल बच्चों के बीच बिताए थे। शक्ल देखकर मैं किसी बच्चे की तकलीफ जान जाता था। ये भी तो बच्ची ही थी। मेरा दिल शोर करने लगा था,शायद कुछ बहुत गलत होने वाला है, लड़की के साथ।

मैं हरिनंदन वर्मा, रिटायर्ड शिक्षक अपने बेटे-बहू से मिलने पटना जा रहा हूँ। पोते-पोतियो से मिलने के लिए मन तड़प रहा था तो, चल पड़ा स्टेशन और टिकट कटा ट्रेन में बैठकर उसके खुलने का इंतजार कर रहा था, तभी वो लड़की मेरे सामने वाली सीट पर आकर सकुचाती सी बैठी थी--"बाबा! ये ट्रेन पटना तक ही जायेगी?" उसने अपनी मीठी आवाज में पूछा था।

"हाँ, पर तुम्हें कहाँ जाना है बेटी" मैंने उससे जानना चाहा, पर वो चुप ही रही। उसके पास कोई सामान नहीं था, सिवाए एक रूमाल के, जिसे उसने मुठ्ठी में कसकर रखा था, शायद उसमें कुछ पैसे होंगे। वो बड़ी ही मायूस लग रही थी। मैंने भी उसे टोकना ठीक नहीं समझा और खिड़की के बाहर से छूटते स्टेशन के नजारे देखने लगा। ट्रेन अब रफ्तार पकड़ चुकी थी।

अगले स्टेशन पर ट्रेन रूकी, तो मैने चाय वाले से चाय लेकर पी--"तुम चाय पिओगी??" अपनी ओर उसे देखता पाकर मैं पूछ बैठा था। उसने सर इनकार में हिलाया। ना जाने किस सोच मे डूबी हुई थी?

"ओह, भई बड़ी गर्मी है, कैसे रह पाऊंगा मैं?" एक लड़का गाड़ी में चढा था और जोर-जोर से बोलता, उस लड़की के पास जा बैठा। लगभग सताईस साल के पार का होगा लड़का। शक्ल अच्छी सी थी, ऊपर से सूट-बूट लगाए कमाऊ लग रहा था।

"आप कहाँ जा रही है, मिस...." उसने बड़ी बेतकल्लुफ होकर उससे पूछ बैठा। कुछ देर वो चुप रही। मैं बड़ी गौर से उसके जबाब का इंतजार करने लगा था। उसने अपनी हिरणी जैसी मासूम आँखो से बड़ी कातर दृष्टि से उस लड़के को देखा था।

"जहाँ किस्मत ले जाएं।" कहकर सर को खिड़की के तरफ कर ली। मैने एक लंबी सांस ली थी।

मेरा अंदाजा सही था, वो लड़की जरूर घर से भाग कर आयी थी। अब मेरा दिल कांप उठा था। कम उम्र की मासूम सी बच्ची घर से भाग आयी थी। अभी रात के आठ से ज्यादा समय होने चला था, इसके घर में तो बबाल मचा होगा। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो इसने इतना बड़ा कदम उठा लिया था? क्या इसे जमाने के बेपर्दा नजरों वाले लोगों से डर नहीं लगता?

ट्रेन चलती रही थी। मैं उस लड़के का बेभाव का हांकना सुन रहा था। बोगी में और भी पैसेन्जर थे, जो उसकी अकेले के चख-चख से परेशान हो रहे थे--"मैं तो तमिलनाडु में रहता हूँ। वहाँ तो हमारे बिहार जैसी सुन्दर लड़कियां नहीं मिलती, वरना कब का शादी कर चुका होता। मेरे पापा तो जैसे मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गये है। आज भी इसीलिए जा रहा हूँ क्योंकि लड़की देखनी है। अभी तक तो कोई पसंद नहीं आयी थी, पर आज एक लड़की बहुत अच्छी लगने लगी है मुझे।" बोगी में जल रहे पीले बल्ब की रौशनी में उसके अच्छे-खासे चेहरे से भी मक्कारी की नीयत मुझे साफ दिख रही थी।

अब सब उसकी बातों से बोर होने लगे थे--"अरे, वहाँ तो पानी की बहुत कमी है। वहाँ के लोग समुंदर मे जाकर एक सप्ताह बीच करके नहाते है। पता है, वहाँ पर रजनीगंधा और मोगरे का फूल औरते बालों में इतना क्यों लगाती है??" उसने अब उस लड़की से ही पूछा था। वो "नहीं" में सर हिला दी।

"अरे, जब सप्ताह भर नहीं नहायेंगी तो शरीर बदबू ना आयेगी भला, इसीलिए।" और ठठाकर हँस दिया।

मुझे उसकी फूहड़ बातें बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी, पर उनदोनों में बातचीत होने लगी थी। मुझे झपकी आने लगी थी, पर मैं उस लड़की के कारण सोना नहीं चाहता था। वो लड़का मुझे बहुत ही घाघ और काइयां जैसा लग रहा था।

"हाँ, मैं अपने ऑफिस में किसी को भी नौकरी दिला सकता हूँ। वहाँ के बॉस मेरे काम से बहुत खुश रहते हैं, तुम चाहों तो तुम्हें वहाँ रखवा दूंगा।" ना जाने लड़की ने धीरे से क्या कहा था, जिस पर वो बोला था।

गर्मी से काफी ऊमस हो रही थी, पर रात गिरने से अब खिड़की से कुछ ठंडी हवा आने लगी थी। अब पैसेन्जर सब कुछ राहत महसूस कर धीरे-धीरे सोने लगे थे। मेरी आँखे भी ना जाने कब लग गयी। जब मेरी नींद टूटी तो रात के डेढ़ बजे थे। मैने आँखे मलते हुए सामने के बर्थ पर देखा। वो लड़की, उस लड़के के कंधे पर सर रखकर सो चुकी थी। वो लड़का एक हाथ से उस लड़की का हाथ थामें और दूसरे हाथ को पीछे किए उसके पीठ पर अपनी हाथे फिरा रहा था।

मुझे गुस्सा आ गया तो मैने उसे टोक दिया--"ऐ लड़के ! हाथ आगे रखो अपना, यही तुम्हारी शराफत है जो इतनी देर से डींग हाँक रहे थे?"

"ओ बाबा! अपना काम करो,,,,बुढ़े हो गये है और चले है मुझे पढ़ाने, सो जाओ वरना सुबह थकान हो जायेगी।" उसने मुझे गुस्से से घूरते हुए कहा था। मैं चुप होकर उस मासूम को देखता रहा, शायद उसकी नींद टूटे और वो लड़के को रोके।

कुछ देर बाद एक स्टेशन आया तो वहां ट्रेन रूक गयी थी। उस लड़के ने उसे हिलाकर उठाया था--"चलो, मेरा घर आ गया। मैं तो जा रहा हूँ। तुम चलोगी मेरे साथ?" उससे पूछता वो अपना हाथ, उसकी ओर बढा चुका था।

मुझे लगा वो लड़की मना करेगी, पर वो मुँह से बिना कुछ बोले उसका हाथ थामती उठ खड़ी हुई। मुझे अब बर्दाश्त नहीं हुआ।

"ऐ छोड़ो उसका हाथ" मैने उठकर उस लड़के को लताड़ा था--"और तुम ! ना जाने कहां से आयी हो और ये कौन है? जाने बिना इसके साथ चल दी?" लड़के की तरफ इशारा करते हुए मैं गुस्से से लड़की से बोला।

वो कातर दृष्टि से मुझे देखने लगी थी। मैने लड़की का हाथ पकड़ कर उस लड़के के हाथों से खींच लिया था। वो चुप होकर खड़ी रह गयी।

"ऐ बुढ़े,,,,मैने, तुमसे कहा था ना, अपना काम करो। तुमको समझ नहीं आता है क्या?" वो मुझे गुस्से से घूरते हुए बोला।

"चलो" वो लड़की से आगे बढता हुआ बोला, पर वो खड़ी रही। गेट तक पहुंचकर लड़का मुड़कर उस लड़की को देखने लगा था जो मेरे पास ही सर झुकाए खड़ी थी। शायद वो सोच रही थी कि क्या करें?

हमदोनों की आवाज से सब लोग धीरे-धीरे जगने लगे थे। वो लड़का तेजी से लड़की के पास आने लगा था। मैं उसे आता देख आगे बढकर उस लड़की के सामने अड़कर खड़ा हो गया। वो आया और मुझे जोर से धक्का देकर सीट पर गिरा दिया और लड़की का हाथ पकड़ कर तेजी से बाहर चला गया।

मेरा सर बर्थ से जोर से टकरा गया था। मुझे बहुत जोर से दर्द हुआ, इसीलिए मैं तुरंत उठ नहीं पाया था। सब मुझे संभालने लगे थे। मैने उनको लड़की को रोकने कहा, पर वो लोग मुझे ही समझाने लगे--"छोड़िए ना चाचा! दोनों जवान है, प्यार करने लगे है शायद, शादी कर लेंगे आपस में। आप नहीं रोक पाइयेगा।"

"तुमलोग का दिमाग खराब हो गया है" मैं जोर से चीखकर अपना छोटा सा बैग उठाता बाहर चल पड़ा। नीचे स्टेशन पर उनदोनों का दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं था। मेरा दिल बैठने लगा था। मै आगे बढने लगा था। वहाँ से कुछ आगे स्टेशन के बाहर बस स्टाप था और बगल में मुफ्फसिल थाना भी था।

मैं तेजी से थाने के अंदर घुसा--"इंस्पेक्टर साहब" सामने ऊंध रहें वर्दी वाले को मैने आवाज दी।

"कौन है? इतनी रात में आपको नींद नहीं आती क्या?" वो नींद से अलसाया बोला था।

"इंस्पेक्टर साहब! मै हरिनंदन वर्मा हूँ। एक लड़की की इज्जत का सवाल है, वरना आपको परेशान नहीं करता, कृपा करके चलिए मेरे साथ।" मैने खुशामद करते हुए हाथ जोड़ दिया था।

"कहाँ है लड़की?" वो अब सतर्क होते हुए सीधा हुआ था। लड़की के नाम पर उसके भी कान खड़े हुए थे और अब वो मेरे पीछे झांकने की कोशिश करने लगा था। मैने शाम से हुई सारी घटना उन्हें बतायी और उन्हें उनके बाल-बच्चो की दुहाई दी थी। वो इंस्पेक्टर भले आदमी थे, मुझे ना घबराने के लिए कहकर बैठने बोले थे।

"शंकर....गौरव....जल्दी आओ।" शायद अपने सिपाहियों को पुकारा था इंस्पेक्टर ने।

"जी साहेब" दो सिपाही आँखे रगड़ते हुए आकर सैल्यूट करके बोले थे।

"बस स्टॉप पर जाओ और पता लगाओ, अभी आधे घंटे के अंदर एक जवान लड़का और और सोलह-सतरह साल के आसपास की लड़की ने कौन सी सवारी, कहाँ जाने के लिए पकड़ी है? और जल्दी आकर बताओ।" आदेश देते हुए वो बोले। दोनो "जी साहेब" बोलकर चले गये थे। मैं कुर्सी पर बैठा, उस मासूम लड़की की सलामती की प्रार्थना कर रहा था।

वो दोनों लगभग आधे घंटे बाद आये थे। इतनी देर मैंने किस प्रकार गुजारी, मैं ही जानता हूँ। वो दोनों धीमी आवाज में इंस्पेक्टर से कुछ बाते कर रहे थे।

"चलिए हरिनंदन जी" कहकर इंस्पेक्टर अपनी टोपी सर पर जमातें हुए खड़े हुए थे।

"इंस्पेक्टर साहब ! वो लड़की मिल गयी क्या? वो ठीक तो है ना?" मैने उठते हुए विचलित होकर पूछा था।

"आप चलिए मेरे साथ, वो मिल गयी है।" कहकर आगे बढ गये। दोनो सिपाही भी विदा हुए थे, मै भी उनके साथ चल पड़ा था। मैने भगवान से प्रार्थना की, उसे कुछ ना हुआ हो।

गाड़ी तेजी से चल रही थी। हम सब एक सस्ते से होटल के सामने उतरे थे। इंस्पेक्टर साहब तेजी से अंदर घुसकर काउंटर पर खड़े लड़के के पास गये थे। हम तीनों भी उनके साथ ही खड़े थे।

"वो लड़का-लड़की कौन से कमरे में है जो अभी कुछ देर पहले आये थे?" लड़के से कड़क कर इंस्पेक्टर ने पूछा था।

"कौन लड़का-लड़की? यहाँ कोई नहीं आया है?" पुलिस देखकर तो उस लड़के का होश पहले ही उड़ा था, अब सवाल सुनकर तो पूरा गायब हो गया था।

"लगता है तू ऐसे नहीं मानेगा।" इंस्पेक्टर ने गुस्से से कहा--"शंकर ! जरा इसे बाहर निकाल कर चार डंडे तो लगा, फिर बोलेगा ये।"

शंकर आगे बढकर उसे खींचते हुए काऊंटर से बाहर ले आया और अपना एक डंडा कसकर उसके पीछे लगाया था। वो लड़का बिलबिला उठा--"नहीं--नहीं, अब नहीं ..." वो रो दिया--"वो लड़का रूम नंबर सैंतीस में गया है उस लड़की को लेकर।" हाथ जोड़कर रोते हुए बोला।

"दूसरा पीस चाभी ले, उस कमरे का और हमें ले चल वहाँ।" इंस्पेक्टर ने गुस्से से कर कहा। उसने दौड़कर अपने काऊंटर के टेबल का दराज खोलते हुए चाबियों का गुच्छा निकाला था।

"कमीने छोड़ उसे" दरवाजा खोलते ही सामने का नजारा देख कर मैं चीख पड़ा था। मेरी बुढ़ी हड्डियों में एक चिंगारी सी जल उठी थी। मैं तेजी से अंदर घुसा और उस लड़के को बिस्तर से खींच कर नीचे गिराया था। वो लड़का पुलिस को सामने देखकर बाहर भागने लगा था, पर दोनों सिपाहियों ने उसे दो-चार डंडे लगाकर पकड़ा था।

"बाबा! मुझे बचा लीजिये" वो लड़की बिलखते हुए अपने फटे कपड़ों सहित मेरे सीने से लग गयी थी। मैंने उसे पुचकारते हुए चुप कराया। बिस्तर के नीचे उसके टुप्पटे को उठाकर इंस्पेक्टर ने उसे ओढाया था। अब वो खुद को ढकती मुझे अलग हुई।

मैने उसके चेहरे को देखा। उसके गालों पर थप्पड़ के छाप पड़े थे--"तुमने इस मासूम के साथ ऐसा करने की कोशिश क्यों की?" मैने गुस्से से उठकर सिपाही के पास खड़े, मुझे नफरत से घूरते उस लड़के को थप्पड़ों से मारना शुरू कर दिया।

"हरिनंदन जी! आप छोड़िए, इसकी तो हम ऐसी धुलाई करेंगे ना कि ये जीवन भर अब किसी लड़की को देखने की कोशिश भी नहीं करेगा। चलिए, थाना चलते हैं।" इंस्पेक्टर ने गुस्से से उस लड़के को घूरते हुए, मुझे रोका था।

कुछ देर बाद हम सब थाना में बैठे थे। लड़की अभी भी रह-रह कर हिचक उठती थी। मैने प्यार से उससे पूछा--"तुम्हारा नाम क्या है बेटी? और घर कहां है तुम्हारा?"

"मेरा नाम जुली है। मैं रायपुर गाँव की हूँ और घर से गुस्से में चली आयी थी। मैं तो बीच रास्ते में ट्रेन से कूदकर मर जाती, पर वो लड़का" रूकी थी वो--" ......उसने मुझे काम दिलाने और अच्छी जिंदगी जीने की बात कहकर मुझे बहला लिया और होटल ले गया और मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश कर रहा था। मैंने भागने की कोशिश की तो उसने मुझे बहुत मारा और मेरे साथ जबरदस्ती करने लगा, पर बाबा आपने आकर मुझे बचा लिया।" बोलकर फिर रोने लगी थी।

मैने, उसका सर सहलाया था--"वो अब जेल में है, तुम सुरक्षित हो बेटी! अपने पापा का नाम बताओ और मोबाइल नंबर दो, उन्हें इंस्पेक्टर साहब बुला लेंगे।" मेरे कहने पर वो धीरे से पापा का नाम और नंबर बोल दी।

इंस्पेक्टर ने मोबाइल से कॉल लगाया, एक ही रिंग में फोन उठा लिया गया था--"हेलो! आप जगदीश शर्मा बोल रहे है....
जी, घबराइए मत, आपकी बेटी जूली ठीक है। आपलोग यहाँ मुुुफ्फसिल थाना आ जाइए, धीरे ही आइए।" घर की बेटी के रात में बाहर होने से सबकी नींद उड़ी हुई होगी।

"देखों जूली ! तुमने गलती तो बहुत बड़ी की, पर इन भले आदमी के कारण आज तुम सुरक्षित हो। ये तुम्हारे लिए भगवान बनकर आये। कोई भी आदमी दूसरे के लिए इतना नहीं करता है। आज कल के जमाने में लड़कियां दिन को भी सुरक्षित नहीं है और तुम शाम में घर से भाग आयी।" इंस्पेक्टर ने उससे कहा--"ऐसी कौन सी बात हो गयी कि तुम अपना घर छोड़ दी? तुम तो शायद स्टूडेंट हो? क्या अपनी बात घरवालों को नहीं समझा सकती थी?" समझाने वाले अंदाज में इंस्पेक्टर ने उससे कहा था।

"लीजिए साहेब! मैं ले आया" शंकर एक थैले लिए आया और टेबल पर रखता बोला।

"जूली" उसने इंस्पेक्टर की आवाज पर उनकी ओर देखा था।इंस्पेक्टर का दिल पसीजने लगा था। उसकी आँखे रो-रोकर गुलाबी हो गयी थी। उन्होने, उसके चेहरे से नजर फेर ली--"ये कपड़े मेरी बेटी के है, बाथरूम में जाकर कपड़े बदल लो। तुम्हारे पापा, तुम्हें इन कपड़ों में देखकर घबरा जायेंगे।" कहते हुए थैला उठाकर उसके हाथों की तरफ बढाया था।

मैने, उसे उठने कहा तो चुपचाप ऊठकर, वो थैला थामते हुए अंदर चली गयी थी।

"आपका बहुत-बहुत धन्यवाद इंस्पेक्टर साहब" मैने हाथ जोड़े थे--"भगवान मैं नहीं आप है, वरना कौन ऐसे किसी के लिए अपनी बेटी के कपड़े मंगवाता है?" मेरा सर उनके आगे नतमस्तक हो गया था।

"हरिनंदन जी! ये मेरा फर्ज है, पर ये लड़की मेरी बेटी की उम्र की ही है और मुझे, वो फटे कपड़ों में सिमटी सी अच्छी नहीं लग रही थी। अभी उसके घरवाले उसे इस फटे कपड़ों में देखते तो ना जाने कितने सवाल करते? उनसे इस बारे में मैं खुद बताऊंगा, आपलोग चुप रहियेगा, आखिर लड़की की मर्यादा की बात है। मैं नहीं चाहता कि उसके घरवाले, उस लड़की को गलत नजरों से देखे।" कहकर वो सामने से आती जूली को देखने लगे थे।

"लीजिए हरिनंदन जी! खाना खाइए।" शंकर और गौरव दो थाली लेकर आये थे--"लो जूली, तुम भी खाओ। भूख लगी होगी तुम्हें।" इंस्पेक्टर ने हमदोनों से कहा। मुझे भूख तो सच में बड़ी जोरों की लगी थी। जूली भी धीरे-धीरे खाने लगी।

खाने के बाद उसने बताया था कि वो इंटर में पढ़ती थी। अपनी पाँच बहनों में वो दूसरे नंबर पर थी। उसकी बड़ी बहन की शादी तय होने वाली थी, पर जब लड़के वाले उसकी बहन को देखने आये तो, अपने छोटे बेटे के लिए जूली का हाथ मांग लिया था। जगदीश शर्मा ने कहा कि ये तो बहुत छोटी है, हम कुछ दिन बाद इसकी शादी करेगें तो उनलोगों ने बड़ी लड़की की शादी तोड़ने की धमकी दे दी। अब जगदीश जी मजबूर हो गये। लड़का सरकारी विभाग में था और घर-परिवार भी अच्छा था। पाँच बेटी को ब्याहना बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी, उनके लिए। अगर पहली की शादी टूट जाती तो पूरा समाज तरह-तरह की बातें बनाता और सबकी शादी करने में बहुत परेशानी होती। इसी कारण वो मजबूर होकर जूली की भी शादी तय कर दिये थे।

जूली ने इस बात का बहुत विरोध किया, पर किसी ने उसकी नहीं सुनी। उसने माँ से रो-रो कर कहा कि उसे पढ़ना है। उसका सपना कैप्टन बनना था, पर वो अपने बाकी की बेटियों के कारण उसे प्यार से जमाने की रीत समझाने लगी। दूसरे दिन जूली ने अपनी बड़ी बहन रीना से शादी से इंकार करने कहा, पर वो भी उसका साथ नहीं दी और उसे शादी करने के लिए तैयार रहने कहा था।

जूली चारों ओर से मायूस होकर, माँ के पर्स से पाँच सौ रूपये चुराकर कॉलेज से ही भागकर, बस पकड़ते हुए रेलवे स्टेशन आ गयी थी और एक भरे ट्रेन में जाकर बैठ गयी। वो सोची थी, जब सब सो जायेंगे तो ट्रेन से कूदकर जान दे देगी, पर बीच मे ही उस लड़के ने आकर उसे बहला लिया था। उसने कहा कि आत्महत्या पाप है, जिंदगी एक बार ही मिलती है, मरने से अच्छा है काम करों और खुशी से जिओ। अभी मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें किसी होटल में कमरा दिला दूंगा और एक सप्ताह बाद जब मै तमिलनाडू जाऊंगा, तो तुम्हें भी ले जाऊंगा और काम पकड़ा दूंगा, पर जब बाबा ने रोका तो वो मुझे खींच कर ले गया और ऑटो से होटल ले गया। वहाँ जाकर कहने लगा, रात बहुत हो गयी है, मैं भी यहीं रूक जाता हूँ, सुबह घर जाऊंगा। फिर कमरे में ले जाकर...। फिर वो रोने लगी थी। हमलोगों ने उसे शांत कराया।

"देखो जूली ! जितनी गलती तुम्हारे घरवालों की है, उतनी ही गलती तुम्हारी भी है, पर कहते हैं भगवान हर जगह होते है इसीलिए आज तुम्हारा कुछ बुरा होने से पहले हरिनंदन जी तुम्हारे साथ शाम से ही थे और तुमको बचाने के लिए अपने बेटे के पास जाना छोड़ कर बीच सफर में ही तुम्हें ढूंढते हुए मुझ तक आ गये।" इंस्पेक्टर ने गंभीर होकर जूली से कहा--"अब जो हुआ उसे भूल जाओ और अब जो मैं कह रहा हूँ उसे अच्छे से समझो।" कहकर वो जूली को देखने लगे थे। वो अपनी आँखे उनके चेहरे पर टिका दी थी। बेहद शर्मिंदा थी वो अब, आज हादसे से बचने के बाद उसे अपनी बेबकूफियों पर बहुत अफसोस हो रहा था।

"तुम अपने पापा या घर में किसी को भी इस घटना के बारे में नहीं बताओगी।" वो चौंक गयी थी--"देखों जूली ! ये बात जानने के बाद हो सकता है, वो लोग तुमसे बात करने में हिचके या तुमसे नफरत ही करने लगे, इसीलिए बस उन्हे ये कहना है कि तुम्हारे पास टिकट नहीं था जिसके कारण तुम्हें पुलिस पकड़ कर यहां ले आयी और हरिनंदन जी ने तुमसे सब बात जान ली थी, इसीलिए तुम्हारे साथ यहाँ बैठे रहे। इससे एक शब्द भी कम या ज्यादा नहीं बोलना है।" अब वो उठकर जूली के पास आये थे। वो असमंजस की स्थिति में थी।

"देखो जूली ! मेरी एक बेटी है नेहा। वो भी इंटर में पढ़ती है। ये उसी के कपड़े है। मैं कभी नहीं चाहूंगा कि कैप्टन के ख्वाब देखने वाली मेरी दूसरी बेटी, अपने घरवालों की नजरों में खुद को अपमानित महसूस करे, इसीलिए जैसा कहा है, वैसा ही करना और बेटी ! आज के बाद जो भी फैसला हो या गुस्सा हो, सब घर में बैठकर हल करना, घर से बाहर निकल कर नहीं।" फिर मुस्कुराते हुए उसके सर को सहलाते है।

जूली उठकर इंस्पेक्टर साहब के पैरों पर गिर जाती है और रोने लगती है--"सर ! काश, कि मेरे पापा भी आपकी तरह मुझे समझ पाते।"

"अरे आने तो दो उन्हें मैं उन्हें भी समझा दूंगा, बस तुम मेरी बातों को भूल मत जाना।" इंस्पेक्टर, जूली को उठाकर कुर्सी पर बैठाते और अपनी जगह पर जाकर बैठ जाते है।

"जूली...जूली" जगदीश जी अपनी पत्नी के साथ अंदर प्रवेश करते हैं। जूली दौड़ती अपनी माँ के गले लगकर रोने लगती है।

"मुझे माफ कर दो माँ ! पापा मुझे माफ कर दीजिये।" वो माँ को छोड़कर पापा के पैरों में गिर पड़ी थी। वो उसे उठाकर गले से लगा लिए थे।

इंस्पेक्टर ने वही बात बताई जो उन्होंने जूली को समझाया था। फिर जगदीश जी को खूब समझाया था--"जो लोग अभी आपके पास शर्त रखकर दूसरी को भी अपने घर ले जाना चाहते हैं, वो लोग बाद में आपकी दोनों बेटियों को परेशान करेंगे और तब आप पछताइयेगा, इसीलिए उनलोगों को शादी से इंकार कर दीजिये। यदि वो लोग अच्छे होंगे तो आपके इंकार के बाद आपकी एक ही बेटी को बहू बनाकर ले जायेंगे वरना लड़को की अकाल थोड़ी ना पड़ गयी है।" वो बेहद शांति से उन्हें समझाने लगे थे।

जूली के कॉलेज से घर नहीं लौटने के बाद, जगदीश जी को भी अपनी गलती पर बहुत अफसोस हो रहा था। वो कॉलेज के आस-पास, बस स्टाप और सब जगह उसे ढूंढकर थक चुके थे। अब सब भगवान के आगे बैठकर रो रहे थे और जूली की सलामती की प्रार्थना कर रहे थे। रीना ने भी अपनी बहन के जाने के बाद शादी करने से पापा को इंकार कर दिया था। उसकी माँ की आँखे तो रो-रोकर सूज गयी थी।

दोनों ने हरिनंदन जी का आभार व्यक्त किया और अपनी गलती पर माफी मांगते हुए, जूली के सपनों को पूरा करवाने का वचन दिया। अब वो लोग अपने घर जाने बोलने लगे। जूली एक बार फिर से हरिनंदन जी के गले लगकर रो पड़ी थी।

"धन्यवाद बाबा ! मै कैप्टन बनकर आपके पास जरूर आऊंगी। आप अपना फोन नंबर दीजिए, मैं आपसे रोज बात करूंगी।" बोलकर इंस्पेक्टर से कागज मांगने लगी।

इंस्पेक्टर ने अपने टेबल के दराज से छोटी सी डायरी निकाली और कुछ लिखकर जूली की ओर बढाया--"ये लो, मेरा भी नंबर रख लो, कभी-कभार मुझसे भी बात कर लेना।" और हँस दिए।

जूली भी खिलखिला कर हँस दी और मेरा नंबर नोट कर डायरी अपने हाथों में बंद कर ली--"धन्यवाद सर"

जगदीश जी और उनकी पत्नी ने मुझे और इंस्पेक्टर को जाते हुए बहुत धन्यवाद दिया और जूली हम सबको "टाटा" करके चली गयी।

मैं और इंस्पेक्टर दोनों मुस्कुरा दिए और अपने हाथ साथ में हिला दिए थे--"चलिए हरिनंदन जी ! आपको मै पटना ले चलता हूँ बेटे के पास। मेरे मामा जी वहाँ रहते हैं उनसे भी मिल लुंगा।" कहने लगे।

हमदोनों जब गाड़ी में बैठे तो सुबह का उजाला खिलने लगा था। पूरे वातावरण में पंछियो के शोर से मधुर कोलाहल छा रहा था। मैने सूरज की तरफ देखा और उस "अबोध" बच्ची के उज्जवल भविष्य की कामना की।

समाप्त