थप्पड़: स्वाभिमान और अभिमान की जंग Anil Patel_Bunny द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

थप्पड़: स्वाभिमान और अभिमान की जंग

नमस्कार मित्रो, आशा है आप सभी कुशल-मंगल होंगे। इस Lockdown period में सब लोगो की आम समस्या ये थी कि समय कैसे बिताए? हंमेशा की तरह हर सवाल का जवाब अपने पास ही होता है। सभी लोगो ने अपने-अपने तरीके से अपना समय बिताने का तरीका ढूंढ ही लिया था। उनमें से एक तरीका था, फिल्में देखना। अभी कुछ महीनों पहले आई और कई समीक्षको की तारीफ बंटोरने वाली फिल्म 'थप्पड़' देखने का अवसर मिला। फ़िल्म में सभी का अभिनय निःसंदेह बढ़िया है, खास कर के तापसी पन्नू ने हंमेशा की तरह कमाल की एक्टिंग की है। अगर आप ये सोच रहे है कि मैने ये लेख थप्पड़ फ़िल्म की तारीफ करने के लिए लिखा है तो शायद आप निराश होंगे। क्योंकि इस फ़िल्म से में जरा सा भी प्रभावित नहीं हुआ। एक बात पहले ही स्पष्ट कर दु की ना ही मैं नारीत्व के ख़िलाफ़ हु, और ना ही मैं इस फ़िल्म के ख़िलाफ़ हु। यहां पर मैंने सिर्फ अपने विचार प्रस्तुत करने की छोटी सी कोशिश की है।

फ़िल्म की कहानी बहुत ही सिम्पल है, पर उसे बहुत ही कॉम्प्लिकेटेड बना दिया गया है। एक पार्टी में तापसी (अमृता) के पति विक्रम का उसके ऑफिस के एक कर्मचारी के साथ किसी बात पर बहस हो जाती है और इसी दौरान अमृता अपने पति को शांत होने को कहती है पर वो शांत होने के बजाय और भी गुस्सा हो जाता है और इसी गुस्से में उसका हाथ अमृता पर उठ जाता है। इस पार्टी में अमृता के माता-पिता और भाई भी शामिल थे। किसी भी औरत के लिए ये बहुत ही खराब अनुभव कहा जा सकता है। इस घटना से किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति का आत्मविश्वास डगमगा सकता है। याद रहे मैंने स्वाभिमानी व्यक्ति कहा, स्वाभिमानी औरत नही। स्वाभिमान सभी के अंदर होता है चाहे वो औरत हो या आदमी। अमृता का स्वाभिमान भी डगमगा जाता है, उसके Self Respect की धज्जियां उड़ जाती है। इस घटना के बाद भी कोई उसे पूछने नही आता की वो कैसी है, ठीक है या नही? उसका पति भी नही। सब वैसे का वैसा ही नॉर्मल चलता रहता है जैसे पहले चल रहा था पर अमृता अब उस इंसान से प्यार कैसे कर सकती थी जिसने उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाई थी? इसलिए वो फैसला करती है अपने मायके जाने का और उसके पश्चात अपने पति को तलाक देने का। इस फ़िल्म में अमृता उस थप्पड़ की घटना के बाद क्या महसूस करती है ये बखूबी दर्शाया गया है और इसमें तापसी की मेहनत रंग लाती है।

अब बात करते है आखिर मुझे इस फ़िल्म ने निराश क्यों किया? हर फिल्म अपने आप में एक मैसेज देती है। इस फ़िल्म का मैसेज है कि थप्पड़ मारने का हक किसी को नही है। देखा जाए तो ये कुछ हद तक फेमिनिस्ट और कई लोगो को बात समझ मे भी आएगी पर ये फ़िल्म पूरी तरह से नॉन-प्रेक्टिकल है। हकीकत पर अगर हम गौर फरमाएं तो पता चलेगा कि भारत मे कई महिलाएं अभी भी घरेलू हिंसा का शिकार बनती आ रही है, वो चाहे भी तो कुछ नही कर पा रही है। क्योंकि हम उस समाज मे जीते है जहाँ औरत को त्याग और सहनशीलता की मूर्ति माना जाता है। औरत जितना सहन करती है उतना कोई और नही कर सकता, पर ज्यादातर औरते रोज अपना स्वाभिमान खो देती है। कई अपने घर मे, कई अपने ससुराल में, कई ऑफिस में, कई अपने पति से, कई अपने सासु से, कई अपने बॉस से। सिर्फ औरते ही नही बल्कि अगर सच्चाई पर गौर करे तो आदमी भी इन सब चीज़ों से गुजरते है। तो ये मानना की औरत ही सब कुछ सहन करती है ये कहना गलत होगा। जैसा मैंने पहले ही कहा औरत को ज़्यादा सहन करना पड़ता है। उसके खिलाफ आवाज़ उठाने का हक हर किसी को है। हर औरत अपने साथ किये गए नाइंसाफी के खिलाफ आवाज उठा सकती है, और उठाना भी चाहिए। पर क्या ये हो रहा है? जवाब है 'ना'। औरत कई कारणों से ये नही कर सकती। फेमिनिस्ट लोग शायद यहां पर मुझे गालियां दे पर भारत की यही सच्चाई है। कुछ औरते रोज मार खा कर भी चुप है क्योंकि ये इनकी मजबूरी बन चुकी है, वो किसके खिलाफ आवाज उठाए? कौन साथ देगा उसका? समाज तो बिल्कुल ही नही देगा उल्टा मायके में माता पिता और भाई बहन भी साथ नही देंगे। जिनको बचपन से यही सिखाया गया हो कि औरत का असली घर उसका ससुराल है वो कैसे अपने ससुराल के खिलाफ बोल सकती है? मैं घरेलू हिंसा के सख्त खिलाफ हु पर हम इस सच्चाई को नकार नही सकते कि भारत में इस मामले को लेकर ठोस कदम नही उठाये जाते। कुछ लोग तो औरतो की मदद के लिए बनाए गए कानून का भी नाजायज़ फायदा उठाते है। उन चंद लोगो की वजह से जो वाकई इंसाफ की हकदार है वो उससे वंचित रह जाती है। कई औरतो के तो मायके में उसकी सुनने वाला कोई नही, वो अगर इसकी फरियाद पुलिस स्टेशन पर लिखवाए तो भी कार्यवाही करने में भी समय लगता है। उतने समय एक औरत क्या करेगी? और खुशकिस्मती से अगर कोर्ट में केस हो भी जाए तो इंसाफ मिलने में कितना वक्त जाएगा? इंसाफ मिलेगा भी या नही? उसके बाद क्या करेंगी? ये सारे फैक्टर एक औरत की ज़िंदगी में मैटर करते है।

कुछ लोग कहेंगे कि उसी घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए तो ये फ़िल्म बनाई गई है, तो उनसे में ये कहना चाहूंगा कि एक फ़िल्म देख कर कई लोग प्रभावित हो सकते है पर हकीकत में ये फ़िल्म घरेलू हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली फिल्म ही नही है। बल्कि इसमें स्वाभिमान और अभिमान की जंग बताई गई है। प्रेक्टिकल सोचे तो ऐसा होना बिल्कुल नामुमकिन है। इस फ़िल्म में एक बात बहुत सही बताई गई है और वो है वकील के कारनामे। किसी भी वकील मित्र को हानि पहुँचाना मेरा उद्देश्य नही है पर एक तरफ से अमृता की वकील और दूसरी तरफ से विक्रम का वकील एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाते रहते है जो बिल्कुल ही बेबुनियाद रहते है। यही सच्चाई है इस दुनिया की, अगर दो लोगो के बीच किसी तीसरे को लाया जाए तो वो आपके दिमाग मे कुछ भी भर सकता है। घरेलू हिंसा ना होते हुए भी विक्रम पर घरेलू हिंसा का चार्ज लगता है, और आखिरकार वो अमृता से सॉरी बोलता है। अगर वही सॉरी वो उसी थप्पड़ वाले दिन सब लोगो के बीच बोल देता तो शायद ये फ़िल्म वहीं ख़त्म हो जाती। इसीलिए मैंने कहा ये फ़िल्म एक औरत के स्वाभिमान और एक आदमी के अभिमान की जंग है। याद रहे ना ही मैं नारीत्व के खिलाफ हु और ना ही मैं इसमे किसी का पक्ष ले रहा हु।

एक हल्की सी बात कर के ये लेख समाप्त करूँगा। हकीकत तो अब ये हो चुकी है कि अगर आप मजाक में भी अपनी बीवी पर हाथ उठा दे तो सामने से आपको गाली समेत दो-चार थप्पड़ वही पड़ जाने है। तो आपस में प्रेम बनाए रखिए और भगवान ना करे कि आपके जीवन में ऐसा हो पर यदि ऐसा हो तो उसका समाधान आप आपस में ही ले आए, क्योंकि हर कोई आपको रिश्ता जोड़ने की बात नहीं कहेगा। थप्पड़ एक अच्छी फिल्म है और इसे देखा भी जा सकता है, पर इस फ़िल्म को लेकर अपने दिमाग मे कोई फेमिनिस्म विचार को पैदा करना गलत होगा। इसे सिर्फ मनोरंजन तक ही सीमित रखना ये मेरा मानना है और मेरे विचारों से आप सहमत हो ये भी जरूरी नही है। और मेरे विचार से हर चीज़ का सॉल्यूशन आपस में बात कर के लाया जा सकता है और डिवोर्स हर चीज़ का सॉल्यूशन बिल्कुल नही है।


✍️ Anil Patel (Bunny)