भेद - 9 Pragati Gupta द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भेद - 9

9.

सृष्टि के ग्रेजुएशन फाइनल ईयर के इम्तिहान होने के बाद जैसे ही रिजल्ट आया सभी ने घर पर खूब मिठाइयां बांटी क्योंकि उसने पूरी यूनिवर्सिटी में टॉप किया था| साथ ही उसको दिल्ली के ही एक बड़े लॉ कॉलेज में एडमिशन मिल गया था। एडमिशन के बाद नया सेशन शुरू होने में अभी समय था| कुछ छुट्टियां अभी बाक़ी थी| जिनमें वह अपने परिवार के साथ कुछ समय गुजारना चाहती थी|

एक रोज जब उसने अपनी दादी और माँ को एक दूसरे के साथ कुछ बातें करते हुए देखा तो वह भी उनके बीच में जाकर बैठ गई| उसको दोनों का साथ में बैठकर हँसना-खिलखिलाना हमेशा से ही बहुत अच्छा लगता था| कई बार तो पापा भी उनके बीच आ जाते| यही पल सृष्टि की ज़िंदगी के बेहतरीन पल होते थे| मौक़ा देखकर सृष्टि ने दादी से कहा...

“दादी बहुत दिनों से कुछ बातें करने के लिए छूटी हुई हैं| जिनको आप दोनों पूरा करना है....चाहो तो आज ही बता दो| फिर मैं भी चली जाऊंगी| पता नहीं फिर कब लौटूं| माँ! आप ही कहती हैं बेटियाँ एक बार पढ़ने को घर से निकली नहीं की उनकी उड़ान उन्हें बहुत दूर ले जाती है| तो प्लीज़ आज हम तीनों साथ हैं....तो क्या छूटी हुई बातों को पूरा कर लें?”

सृष्टि की पेशेंस देखकर दादी और उसकी मां बेहद खुश हुए| गुज़रे दिनों की बातों से उनको एहसास हो चुका था कि सृष्टि अब सभी बातों को शायद समझ पाए| बात दादी ने शुरू की।

‘सृष्टि बेटा! बात उन दिनों की है जब महेंद्र दस-बारह साल का था| हमारा एक सेवक रामू काका का परिवार घर के बाहरी कमरे में रहा करता था| छोटू उन्हीं का बेटा था| वह अधिकतर महेंद्र के साथ ही रहता था...और उसी के साथ खेलता था| जब महेंद्र बारह साल का था...तब छोटू सत्रह-अठारह साल का था| शायद उसी उम्र में उसने महेंद्र को बरगलाया होगा क्योंकि उसने अपनी पढ़ाई बारहवीं के बाद छोड़ दी थी|....

दोनों का चौबीस घंटों का साथ था| जैसे-जैसे समय गुज़रा हमको महेंद्र के व्यवहार में कुछ अजीब बातें नजर तो आने लगी थी पर चूंकि मैं घर की बहुत सारी बातों में व्यस्त रहती थी तो मैं महेंद्र पर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दे पाई|

चार लड़कियों की देखभाल मेरा काफ़ी समय ले लेती थी क्यों कि मुझे लगता था कि लड़कियों की अस्मिता पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए| तेरे बड़े दादा जी और दादी में हमेशा ही झगड़ा होता था जिसको सामान्य करने में पाँच-छः दिन लग जाते थे| इस बीच उनकी उपेक्षित होती हुई लड़कियों को मुझे ही देखना होता था|

दरअसल मैं भी छोटी उम्र में ब्याह कर आई थी तो बहुत समझदार नहीं थी| मैं यह सोचती थी कि महेंद्र तो लड़का है उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है....मैंने उसकी तरफ बहुत ध्यान नहीं दिया| छोटू ने अपने झांसे में लेकर महेंद्र को कब ग़लत संगत में डाला मुझे पता ही नहीं चला|....

तेरे दादाजी को भी कुछ ज्यादा समझ नहीं आया| तभी तो जब महेंद्र दिल्ली के कॉलेज में पढ़ने गया....उन्होंने भी छोटू को साथ भेजने में ज़रा भी नहीं सोचा| महेंद्र का घर में ज़्यादा समय मेरे साथ ही गुज़ारता था|...पर मेरी समझ में कुछ आता....तभी तो उनको आगाह करती|

छोटू को साथ भेजने का निर्णय और भी ग़लत हो गया। उसने महेंद्र को बचपन में ही ग़लत संगत में डाल दिया था| साथ जाने से संगत को और हवा मिल गई| शायद यह उम्र ही ऐसी होती हैं बेटा| तेरी माँ मुझे नहीं बताती तो मुझे कुछ भी समझ नहीं आता| हमारे समय में आजकल के जैसे टी.वी. नहीं होते थे बेटा| न ही ऐसी कोई ख़बर कोई अपने मुँह से बताता था|” दादी अपनी बात बोलकर चुप हो गई|

"ग़लत संगत से क्या मतलब है दादी। नशा पत्ता भी करता था छोटू? आप इन्हीं  छोटू काका की बात कर रहे है...जो आज भी पापा के साथ चौबीसों घंटे रहते हैं।"

"हाँ बेटा वही|...लोगों को तो नशे-पत्ते की लत्त लगती है....छोटू ने तो तेरे पापा को अपनी ही लत्त लगा दी|"

दादी की समझ नही आ रहा था कि कैसे सृष्टि को बताए....और सृष्टि अपने पापा के लिए वह नहीं सोचना चाहती थी जो दादी उसे अप्रत्यक्ष रूप में बताना चाहती थी।

"दादी प्लीज आप इतनी पहेलियां मत बुझाओ...मुझे साफ-साफ बताओ कि हुआ क्या था|”

सृष्टि ने बग़ैर किसी लेप-लपाट के  अपनी दादी से सभी बातों को साफ-साफ बता देने का आग्रह कर डाला। दादी को बहुत असमंजस की स्थिति में देखकर विनीता ने मां कहा कि-

‘माँ! आप सृष्टि को हमारी शादी से बताना शुरू कीजिए ताकि यह उन बातों की तह तक पहुँच सके जहाँ से मुझे दिक्कत शुरू हुई|’ पर जब विनीता ने माँ को असमंजस की स्थिति में देखा तो स्वयं उसने ही सृष्टि के साथ कुछ बातें साझा करने का मन बनाया|

“सृष्टि तुम्हारे दादा जी का परिवार और हमारा परिवार पुराना परिचित था| पहले जब माँ-बाप लड़कियों के लिए लड़का ढूंढते थे तो घर-परिवार को पहले देखते थे| ताकि कहीं कमी-पेशी हो तो परिवार के साथ होने से वह कमी भर जाए| तुम्हारे नाना-नानी को महेंद्र की शिक्षा और परिवार के पालन-पोषण पर कोई भी संशय नहीं था| तभी तो पापा-मम्मी ने इस रिश्ते को एक ही बार में स्वीकार कर लिया था|

हालांकि तुम्हारी नानी को कुछ बातों पर आपत्ति थी| जिसमें उनको तुम्हारे बड़े दादा का घर छोड़कर दूसरी औरत के साथ रहना....बिल्कुल पसंद नहीं आया था| पर जब तुम्हारे नाना-नानी तुम्हारे दादा-दादी से मिले तो उनको दोनों का व्यवहार बहुत ही प्रभावित कर गया| उनको लगा कि उनकी बेटी इस घर में सुखी रहेगी| सृष्टि! माँ-पापा का यह सोचना बिल्कुल ठीक था क्योंकि मां और बाऊजी का व्यवहार सचमुच बहुत ही उच्च कोटि का था| उन दोनों ने  अपने परिवार के लिए जो भी सहयोग और त्याग किए, उसने हमेशा ही मुझे भी बहुत प्रेरणा दी है|....

मैं तो माँ की वज़ह से ही इस घर में हूं| नहीं तो कब का छोड़कर चली जाती| चलो अभी इस बात को यहीं छोड़ती हूँ ...और तुमको हमारी शादी की बात से बताती हूं....विनीता अपनी बात शुरू ही करने वाली थी कि सृष्टि ने पूछा...

“पर माँ शादी घर से तो नहीं होती| शादी तो दो लोगों के बीच में होती है| आप पहले मुझे यह बताइए कि आपके पापा के साथ कैसे संबंध थे? आप क्यों उनसे  इतना परेशान रहती हैं?” सृष्टि ने पूछा|

“सृष्टि किसी भी बात की शुरुआत हवा में नहीं होती| पहले शादियाँ  लड़का देखकर नहीं होती थी बल्कि उसका घर परिवार देखकर होती थी| ताकि आढ़े वक़्त में माँ-बाप बच्चों की मदद को खड़े हो सके| बेटे या बेटी के सुखी रहने की गारंटी अच्छा परिवार होना होता था| लड़का या लड़की दूसरे नंबर पर देखा जाता था| कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ| मुझे भी इससे कोई भी आपत्ति नहीं थी क्योंकि यहां पर तुम्हारे दादा या दादी कहीं पर भी ग़लत नहीं थे। उन बेचारों को तो तुम्हारे पापा की आदतों का कुछ पता ही नहीं था|”

“फिर वही बात....कौन-सी आदतों का....मुझे साफ-साफ क्यों नहीं बता पा रहे आप दोनों ही....किन आदतों की बात की जा रही है|” सृष्टि ने माँ को बीच में ही टोककर पूछा..

“मैं तुमको धीरे-धीरे सारी बातें बता ही रही हूं न सृष्टि| तुमको ज़ल्दबाज़ी क्या है? हर चीज़ को बहुत जल्दी कैसे समझ पाओगी| जब तक किसी बात को तसल्ली से नहीं सुनोगी....कुछ भी समझ नहीं आएगा| कभी-कभी जल्दीबाज़ी में बातों की मतलब ग़लत निकाल लिए जाते हैं और मैं नहीं चाहती कि तुम किसी भी बात का ग़लत मतलब निकालो|”

“अच्छा ठीक है आपको जैसा उचित लगे वैसे ही बताइए....मैं सब सुनने को तैयार हूं|” सृष्टि ने बोल तो दिया मगर उससे अब इंतज़ार नहीं हो रहा था|