भेद - 1 Pragati Gupta द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भेद - 1

प्रगति गुप्ता

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1.

"माँ! आप कितना लड़ती है पापा से|.....लगभग हर रोज ही किसी न किसी बात पर आप दोनों की झड़प होती है|...हमेशा लड़ाई आप ही क्यों शुरू करती हैं? बताइये न....पापा भी इंसान है। पापा को एक बार उल्टा बोलना शुरू करती हैं....तो चुप ही नही होती। बस लगातार गुस्सा होती जाती है। उनको बोलने ही नहीं देती|"...

सृष्टि सालों साल से माँ-पापा की झगड़ते देख रही थी| आज न जाने कैसे सृष्टि ख़ुद को बोलने से रोक नहीं पाई| बेटी की बात को सुनकर विनीता और भी उख़ड़ गई…

"मैं बोलती जाती हूँ....बस यही समझ आता है तुम्हें|....अभी बहुत छोटी हो तुम। ऐसा भी नहीं होता….सिर्फ़ बेटी होने से तुमको सब समझ आ जाएगा| तुम्हारे पापा और मेरे बीच में मत बोला करो। अभी ग्रेजुएशन भी पूरा नहीं हुआ है....और बातें ऐसे करती हो मानो बहुत बड़ी और समझदार हो गई हो। बस इतना ध्यान रखो जो दिख़ता हैं...जरूरी नहीं वही सही हो|.."

"माँ! आपको क्यों लगता है....मैं समझदार नही हुई। अगर आपको ऐसा लगता है कि मैं अभी बड़ी नही हुई हूँ....तो बताइए मुझे किस उम्र में आप बड़ा  मानेंगी। तभी आपसे वज़ह जानने की कोशिश करूंगी|.....और वादा करिये उतने साल तक मेरी शादी नही करेंगी। मुझे पढ़ने देंगी। मैं सब समझती हूं माँ....बस आप दोनों ही मेरी बातों को नहीं समझ पाते। मुझे आप दोनों लड़ते हुए बिल्कुल अच्छे नहीं लगते|...” एक लंबी सांस लेकर सृष्टि ने अपने पापा की ओर देखकर कहा....

“और पापा आप भी कुछ बोलते क्यों नहीं?....बस मुझे चुप रहने के लिए अपनी आँखें दिखाते रहते हैं| न जाने क्यों मुझे लगता है, आपके न बोलने का माँ फ़ायदा उठाती हैं।"...

"कैसी बेटी है मेरी। अपनी माँ को समझने की बजाय अपने पापा की तरफ़दारी करती रहती है। सृष्टि बेटा अभी तुम्हें कुछ भी समझ नहीं आएगा| जब बड़ी हो  जाओगी तब सब विस्तार से बताऊंगी|..अभी कुछ भी बताऊंगी तो आधा-अधूरा ही समझोगी....और दोष मेरे ऊपर लगाओगी। अभी भी यही कर रही हो।"...

विनीता ने बेटी को चुप करने के हिसाब से कहा।

सृष्टि को मां की एक भी बात समझ नही आ रही थी। न जाने क्यों उसको पापा का चुप रहना बेहद ख़लता था| छोटी थी तभी से दोनो को लड़ता हुआ देख रही थी। पर यह भी सच था कि दोनों ने कभी एक-दूसरे का गुस्सा उस पर नहीं उतारा| जब समझदार हुई उसने पापा को हमेशा घर के एक कोने में चुपचाप बैठकर काम करता हुआ देखा| पापा के कोर्ट-कचहरी के काम घर पर भी चलते थे| उनके चेहरे की मासूमियत देखकर सृष्टि को लगता था कि माँ उसके पापा पर जुर्म कर रही है। जब माँ अपनी बात बोलते-बोलते थक जाती तो छोटू काका पापा को अपने साथ उठाकर उनके कमरे में ले जाते| उसके बाद माँ का बड़बड़ाना और बढ़ जाता|

मां-बाप की इतनी लड़ाइयों को देखकर एक रोज तो उसने बोल ही दिया...

"आप दोनो इतना लड़ते हो...तो तलाक़ लेकर अलग क्यों नही हो जाते। रोज-रोज की लड़ाई भी खत्म हो जाएगी और आप दोनों का मन शांत भी हो जाएगा।"

सृष्टि की यह बात सुनकर महेंद्र ने कहा था...

"तलाक़ लेना कोई हंसी-मज़ाक है क्या। जब तलाक़ पहले नही लिया, तो अब भी नही होगा। सुन लिया तुमने। बहुत ज़्यादा बोलने लगी हो। अपना दिमाग़ सिर्फ़ पढ़ाई में लगाओ। ताकि तुम जल्द सेटल हो जाओ। हमारे दोस्ताना व्यवहार की वज़ह से शायद तुमको बड़ों के बीच में बोलने की बहुत छूट मिल गई है|..."

अपनी बात बोलकर पापा घर से निकल जाते....और सृष्टि के लिए असंख्य प्रश्न छोड़ जाते। क्यों दोनो लड़ते हैं? ऐसा क्या है जो अलग रहने का भी नही सोचते?  मन की इसी उधेड़बुन की वज़ह से सृष्टि का मन पढ़ने में नही लगता। कोर्ट-रूम में वकालत करते समय जो पापा शेरों की तरह खड़े होते थे, वही माँ के सामने चुप्पी क्यों साध लेते थे| सृष्टि की कभी समझ नहीं आया|

एक रोज़ उसने मन ही मन सोचा...‘क्यों न दादी को पकड़कर अपने प्यार के झांसे में लिया जाए| ताकि उनसे कुछ सच पता चले|’ पिछले दस-बारह सालों से सृष्टि दादी के पास ही सोया करती थी। सृष्टि की यादाश्त में पापा उसकी माँ के साथ कभी नहीं सोये| पर ऐसा भी नहीं था कि वह अपने और माँ के कमरे में जाते न हो|

न जाने दादी भी किस मिट्टी की बनी थी कि मां-पापा दोनो को घंटो लड़ता हुआ देखती....पर एक शब्द भी नही बोलती थी। पापा उनके एकलौते बेटे थे| वह उनसे बहुत प्यार करती थी| पापा कोर्ट से लौटकर सीधा दादी के पास जाते और पहले उनसे अपने सिर पर हाथ फिरवाते....फिर माँ को खाना लगाने को कहते| पर दादी को देखकर सृष्टि को ऐसा कभी नही लगा कि उनका जी दोनों को लड़ता हुआ देखकर दु:खा हो। दोनों की लड़ाइयों को देखकर दादी तटस्थ ही रहती| सृष्टि ने उनके चेहरे पर किसी भी तरह का तनाव कभी नहीं देखा|

सृष्टि ने निर्णय लिया किसी तरह दादी से माँ और पापा के विवाह के बारे में पूछा जाए। ताकि बातों ही बातों में दादी कुछ ऐसा बताए कि उनमें सृष्टि की उलझनों का समाधान हो| अपने मन की बात को मन में रखकर सृष्टि के कुछ दिन और गुज़र गए|